श्री माहेश्‍वरी वंशोत्पत्ति

गांव खड़ेला में खड़गल सेन राजा राज्य करता था। उसके राज्य में सारी प्रजा सुख और शांति से रहती थी। राजा धर्मावतार और प्रजा-प्रेमी था, परन्तु राजा पुत्र नहीं था। इसलिए राजा और रानी चिंतित रहते थे। राजा ने मंत्रियों से परामर्श कर पुत्रेष्ठी यज्ञ करवाया। राजा ने श्रद्धापूर्वक यज्ञ करवा कर ऋषियों से आशीर्वाद व वरदान मांगा। ऋषियों ने वरदान दिया और साथ-साथ यह भी कहा कि तुम्हारा जो पुत्र होगा बहुत ही पराक्रमी होगा, वह चक्रवर्ती राजा होगा। परन्तु १६ वर्ष की अवस्था तक उसे उत्तर दिशा की ओर न जाने देना। राजा ने यह स्वीकार किया। राजा की २४ रानियां थीं समय पाकर उनमें पंचावती रानी गर्भवती हुई और पुत्र को जन्म दिया। राजा ने पुत्रोत्सव बहुत ही हर्षोल्लास से मनाया। ज्योतिषियों नें राजकुमार का नाम सुजान कुंवर रखा।
सुजान कुंवर बहुत ही प्रखर बुद्धि वाला व समझदार निकला। थोड़े समय में वह विद्या व शस्त्र विद्या में आगे बढ़ने लगा। दैवयोग से जैन मुनि खड़ेला नगर में आए और सुजान कुंवर को उन्होंने जैन धर्म का उपदेश दिया। सुजान कुंवर उनके उपदेश से प्रभावित हो गया और धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली और राज्य भर में जैन धर्म का प्रचार आरम्भ कर दिया। शिव व वैष्णव मंदिर तुड़वा कर जैन मंदिर बनवाने चालू कर दिए। इससे सारे राज्य में जैन धर्म का बोल-बाला हो गया। एक दिन राजकुमार ७२ उमरावों को साथ लेकर शिकार खेलने के लिए जंगल में गया और वहां उसने उमरावों से कहा कि आज हमें उत्तर दिशा की ओर चलना है। क्या कारण है जो पिताजी उत्तर दिशा की ओर जाने नहीं देते। आज हमें उस तरफ ही चलना है।
राजकुमार उत्तर दिशा की ओर चल दिया। सूर्य कुण्ड के पास जाकर राजकुमार ने देखा तो ६ ऋषि यज्ञ कर रहे हैं। वेद ध्वनि बोल रहे हैं। यह देखते ही सुजान कुंवर आगबबूला हो गया और क्रोधित होने लगा, इस ओर मुनि यज्ञ कर रहे हैं इसलिए पिताजी ने मुझे इधर आने से रोक रखा था, मुझे भुलावा दिया जा रहा था। उसी समय उसने उमरावों को आदेश दिया…यज्ञ का विध्वंस कर दो और यह यज्ञ सामग्री नष्ट कर दो। उमरावों ने आदेश पाते ही ऋषियों को घेर लिया और यज्ञ विध्वंस करने लगे। ऋषि भी क्रोध में आ गए और उन्होंने श्राप दिया की सब पत्थरवत हो जाए। श्राप देते ही राजकुमार सहित सारे उमराव पत्थर के हो गए।
जब यह समाचार राजा खड़गल ने सुना तो अपने प्राण तज दिए। राजा के साथ १६ रानियां सती हुईं।
राजकुंवर की कुंवरानी (चंद्रावती) उमरावों की स्त्रियों को साथ लेकर ऋषियों की शरण में गई, अनुनय विनती की और श्राप वापिस लेने की प्रार्थना की। तब ऋषियों नें उन्हें बताया कि हम श्राप दे चुके हैं। अब तुम भगवान गौरीशंकर की आराधना करो। यहां निकट ही एक गुफा है जिसमेंे जाकर भगवान महेश का अष्टाक्षर मंत्र का जाप करो। भगवान की कृपा से वह पुन: शुद्ध बुद्धि वाले व चेतन हो जाएंगे। राजकुंवरानी सारी स्त्रियों सहित गुफा में जाकर तपस्या करने लगीं। दतचित से तपस्या में लीन हो गई।
भगवान महेश उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर वहां पधारे। झट पार्वती जी ने भगवान शंकर से इन जड़वत मूर्तियों के बारे में चर्चा आरम्भ की तो राजकुमारी ने आकर पार्वती जी के चरणों में प्रणाम किया। पार्वती जी ने आशीर्वाद दिया। सौभाग्यवती हो, धन-पुत्रों से परिपूर्ण हो, तुम्हारे पतियों का सुख देखो। इस पर राजकुंवरानी ने कहा। माता हमारे पतिदेव तो ऋषियों के श्राप से पत्थरवत हो गए हें। अत: आप इनका श्राप मोचन करो। पार्वती जी ने भगवान महेश से प्रार्थना की कि महाराज इनका श्राप मोचन करें, इन्हें मोहनिद्रा से मुक्त कर चेतना में लाइए। इस पर भगवान महेश ने उन्हें चेतन कर दिया। चेतन अवस्था में आते ही उन्होंने महेश पार्वती को घेर लिया। इस पर भगवान महेश ने कहा कि क्षमावन बनो और क्षत्रित्व छोड़ कर वैश्य वर्ण धारण करो। उमरावों ने स्वीकार किया परन्तु हाथों से हथियार नहीं छूटे। इस पर भगवान महेश ने कहा, सूर्य कुण्ड में स्नान करो। फिर सब ने सूर्य कुण्ड में स्नान किया तब उनके हथियार पानी में गल गए। उस दिन से उस कुण्ड का नाम लोहा गल (लोहागर) हो गया। स्नान कर भगवान महेश की प्रार्थना करने लगे। भगवान महेश ने कहा कि आज से तुम्हारी जाति पर मेरी छाप रहेगी यानी माहेश्वरी कहलाओगे और तुम व्यापार करो इसमें फूलोगे फलोगे।
राजकुमार और सुभटों ने स्त्रियों को स्वीकार नहीं किया, कहा कि हम तो वैश्य बन गए पर ये अभी क्षत्राणियां हैं, हमारा पुर्नजन्म हो चुका है। राजकुमारी से माता पार्वती जी ने कहा कि तुम स्त्री पुरुष हमारी परिक्रमा करो जो जिसकी पत्नी है अपने आप गठबंधन हो जाएगा। इस पर सबने परिक्रमा की। उस दिन से माहेश्वरी बनने की बात याद रहे, इसलिए चार फेरे बाहर के लिए जाते हैं।
जिस दिन भगवान महेश ने वरदान दिया उस दिन युधिष्ठिर सम्वत् जेष्ठ शुक्ला नवमी थी।
ऋषियों ने आकर भगवान से अनुग्रह किया कि महाराज इन्होंने हमारे यज्ञ का विध्वंस किया और आपने इनको श्राप मोचन कर दिया अब हमारा यज्ञ सम्पूर्ण होगा। इस पर भगवान महेश ने कहा, आप बारह यजमान बना लो। ये तुम्हें गुरु मानेंगे, हर समय यथा शक्ति द्रव्य देते रहेंगे। फिर सुजान कुंवर को कहा कि तुम इनकी वंशावली रखो। ये तुम्हें अपना जागा मानेंगे और दूसरे जो उमराव थे उनके नाम पर एक-एक जाति बनी जो ७२ खांप में कई नख हो गए हैं, जो काम के कारण गांव के नाम पर और बुजुर्गों के नाम पर बन गए हैं।
ऋषिगणों के नाम निम्न हैं:-
१) पराशर (पारीक) २) दधीची (दाहिमा)
३) गौतम (गूर्जर गौड़) ४) खादिक (खंडेलवाल)
५) सुकुमार्ग (सुकवाल) ६) सारसुर (सारस्वत)
इस क्षेत्र में लोहे गलने के कारण लोहर्गल नाम हो गया। फिर मुनियों ने चंद्रावती व अन्य स्त्रियों को सरोवर में स्नान कराकर उनका क्षत्रिय धर्म दूर किया।
फिर सबने उन मुनियों को प्रणाम किया। राजा दण्डधर ने ऋषियों की आज्ञा लेकर उन सब को यान में बैठाया और अपने नगर में आ गए। सुजानसेन चंद्रावती सहित खुशी प्रसन्न रहने लगा।
कुछ दिन उपरांत वे खण्डेला से निकल कर डीडम (डीडवाना) नामक स्थान मेंे जाकर बस गए और डीडू माहेश्वरी कहलाने लगे और ७२ क्षत्रियों के नाम से ७२ खांप के वैश्य हो गए। फिर डीडवाना से भारत के अनेक प्रांतों में जाकर बसने लगे। सुजानसेन चौहान वंश के क्षत्रिय थे तथा दूसरे अन्य वंश के।
इस तरह जब भगवान शंकर ने शूरवीर क्षत्रियों को अहिंसा का पाठ पढ़ाया तो उसके कुछ वर्षों बाद में भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत में अर्जुन जैसे वीर को कायरता छोड़कर सार्थक हिंसा द्वारा शत्रुदमन का पाठ पढ़ाया। इस प्रसिद्ध युद्ध में राजा दण्डधर कौरव पक्ष से और राजा जयंत पांडव पक्ष से सैन्य सहित सम्मिलित हुए। भीष्म पितामह ने दुर्योधन के सम्मुख रथी और अतिरथी इत्यादि का विवरण करते हुए इन दोनों राजाओं की रथियों में गिनती की थी। इस आख्यान के ऐतिहासिक स्थानों की स्थिति इस प्रकार है….
खड़ेला नगर जयपुर राज्य के अंतर्गत फुलेरा जंक्शन से १० मील पूर्व में है और लोहार्गल क्षेत्र इस स्थान से पूर्व में रींगस जंक्शन से २०-२५ मील उत्तर में पहाड़ों के बीच में मौजूद है। प्रत्येक वर्ष भाद्रपद मास अमावस्या को यहां यात्री स्नान निमित्त आते हैं। डीडवाना मारवाड़ नें नागौर जिले में स्थित है।
उस समय तो उपरोक्त छह जातियों के पुरोहित थे, किन्तु बाद में पालीवाल व पुष्करणा जाति के ब्राह्मणों ने भी पुराहित का पद पाया। इसके कारण और समय का निश्चित ज्ञान नहीं है। किंवदंती है कि मंगल नामक विप्र जो पालीवाल बताया जाता है, अत: पालीवाल को पुरोहित पद दिया गया था। इसका प्रमाण अभी तक नहीं है।
इससे यह सिद्ध होता है कि माहेश्वरी जाति महाभारत काल में थी।

संकलित

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