साम्प्रदायिक हिंसा विरोधी विधेयक एक शैतानी दिमाग की उपज

एक और खतरनाक विधेयक संसद के समक्ष है। हाल में इस विधेयक को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अपनी मंजूरी प्रदान की है। संसद के शीत सत्र में लोकपाल से लेकर अन्य विधेयकों को लोन की सरकार ने जो हड़बड़ी दिखाई है, उसका स्पष्ट लक्ष्य 2014 के संसदीय चुनाव हैं। इन विधेयकों में सर्वाधिक शैतानी विधेयक साम्प्रदायिक हिंसा विरोधी विधेयक है। गोधरा काण्ड के बाद तीस्ता सेतलवाड़ व असगर अली इंजीनियर जैसे लोग इस विधेयक के पीछे पड़े थे। विधेयक की प्रारूप समिति में ये लोग थे। यह प्रारूप राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के समक्ष 2011 में रखा गया था। यह कोई संवैधानिक परिषद नहीं है। पिछले चुनाव के बाद विदेशी नागरिक के मुद्दे ने तूल पकड़ा था, इसलिए सोनिया गांधी के नेतृत्व में यह परिषद बनाई गई और प्रधानमंत्री पद ‘जी-हूजूर’ मनमोहन सिंह को सौंपा गया। इस तरह नीति-नियंत्रण का निर्णय सोनियाजी के हाथ रहा और मनमोहनजी केवल प्रशासन चलाते रहे। इस सारी स्थिति का खामियाजा देश की जनता के समक्ष है। परिणाम में चार राज्यों में सफाया कर कांग्रेस को जनता ने सजा भी दी है। अब, कांग्रेस में इतना भय है कि उसे अपने वोट बैंक-मुस्लिमों को खुश करना पड़ रहा है। प्रस्तुत विधेयक इसीका परिणाम है और बहुसंख्याक समाज-हिंदुओं के मूल अधिकारों पर कुठाराघात है। यही नहीं, राज्य और केंद्र सम्बन्ध फिर दांव पर लग गए हैं।

इस विधेयक की कई धाराएं अनावश्यक रूप से अन्यायपूर्ण हैं। विधेयक की धार 1(ई) में केवल भाषाई या धार्मिक अल्पसंख्यकों व अनुसूचित जातियों को सुरक्षा प्रदान की गई है। अन्य को नहीं। यह मान लिया गया है कि अल्पसंख्यक गुनाह नहीं करते; गुनाह केवल बहुसंख्यक ही करते हैं। यहां बहुसंख्यक का अर्थ केवल हिन्दुओं से है; यह कहने की जरूरत नहीं है। धारा-8 ने तो भारतीय संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का ही हनन किया है। इस धारा के तहत कोई विरोध प्रकट नहीं हो सकता, कोई विचार स्पष्ट नहीं किया जा सकता या प्रेषित या प्रकाशित नहीं किया जा सकता। ऐसे हालत में तीन साल तक सजा का प्रावधान है। यह धारा स्पष्ट रूप से हिन्दुओं के खिलाफ है; अहिंदुओं के खिलाफ नहीं। धारा 18 तो इससे भी आगे बढ़कर पक्षपात करती है। इस धारा के अंतर्गत अल्पसंख्यकों के खिलाफ कही गई किसी भी बात या सरकार की कार्रवाई की आलोचना करना दाडनीय अपराध होगा। यह अपराध संज्ञेय और गैर-जमानती होगा, जब कि भादवि की धारा 11 व 58 में वह असंज्ञेय व जमानती है। इसीसे इस विधेयक का जंगली रूप प्रकट होता है।

इस विधेयक से दंगों से निपटने वालो सरकारी कर्मचारियों की जान भी सांसद में पड़ जाएगी। धारा-16 में प्रावधान है कि कोई कर्मचारी यह नहीं कह सकेगा कि वरिष्ठ अधिकारियों के आदेश पर उसने कार्रवाई की। यह बचाव अस्वीकार्य होगा और उसे दण्डित किया जा सकेगा। दंगों के समय निचले तब के कर्मचारी अपने वरिष्ठों के आदेश नहीं मानेंगे तो किसके मानेंगे? क्या वे अपने विवेक का इस्तेमाल करेंगे? यदि ऐसा हो तो वह अराजकता को निमंत्रण होगा। क्या पुलिस प्रशासन के साथ यह ठीक होगा?

इस विधेयक की धारा 29 के अंतर्गत दंगों से सम्बन्धित मामलों को निपटाने के लिए एक स्वतंत्र अधिकरण की स्थापना की जाएगी। जांच के काम के लिए पृथक एजेंसी व पुलिस महानिदेशक होगा। उस के निर्देश व सुझाव धारा 22 (ए) (डी) और धारा 29 के अंतर्गत राज्यों व केंद्र को अनिवार्य रूप से स्वीकार करने होंगे। धारा 32 की उपधारा (जे) व (के) के तहत यह अधिकरण अदालती कार्रवाई में हस्तक्षेप कर सकेगा। उसे एक तरह से नागरी अदालत का दर्जा होगा। धारा 29, 72, 69, 71, 41, 38 व 39 में ऐसे प्रावधान हैं कि जिला मजिस्ट्रेट अर्थात कलेक्टर व पुलिस अधीक्षक अधिकरण के प्रति जवाबदेह होंगे। इस तरह राज्यों के अधिकार सीमित हो जाएंगे, जबकि कानून-व्यवस्था राज्यों का विषय है। इस तरह राज्यों व केन्द्र के बीच सम्बन्धों मे नए तनाव पैदाव होंगे। यह देश के वैविध्यपूर्ण सामाजिक ताने-बाने के लिए खतरनाक साबित होगा।

आम आदमी के लिए सब से खतरनाक धारा है 78। इस धारा के अंतर्गत आरोपी को अपनी बेगुनाही स्वयं सिद्ध करानी होगी। वर्तमान में हमारी न्याय-व्यवस्था ऐसी है कि आरोपी ने गुनाह किया है इसे पुलिस को साबित करना पड़ता है, दस्तावेजी प्रमाण व गवाह पेश करने होते हैं। धारा 78 के अंतर्गत ऐसा पुलिस को करने की आवश्यकता नहीं होगी; आरोपी को दस्तावेजी सबूत या गवाह पेश करने होंगे। भारत जैसे देश में एक आम आदमी के लिए ऐसा करना दुराकर होगा और इसके दुरुपयोग की भारी संभावनाएं होगी। संक्षेप में यह कि यदि किसी व्यक्ति पर पुलिस ने आरोप रख दिए कि उसे सजा होना निश्चित ही होगा-चाहे वह निर्दोष ही क्यों न हो! यह स्वाभाविक न्याय के प्रति कितना क्रूर मज़ाक है!!

सोनियाजी के नेतृत्व वाली परिषद के समक्ष पेश प्रारूप में केंद्रीय मंत्रिमंडल मामूली संशोधन किया है। मूल प्रारूप में दंगों की ‘बहुसंख्यक समाज’ पर जिम्मेदारी डाली गई थी; अब ‘बहुसंख्यक’ शब्द हटा दिया गया है। मूल प्रारूप में केंद्र को दंगों के दौरान राज्यों में सीधे हस्तक्षेप का अधिकार दिया था; अब इसे सीमित कर दिया गया है। इस मामूली हेरफेर के बावजूद विधेयक का शैतानी रूप बदला नहीं है। शैतान के चेहरे को थोड़ा उजला कर दिया गया है।

धारा 3 (एफ) में ‘बगावती माहौल’ की परिभाषा दी गई है, जो इतनी ढीलीढाली है कि उसका दुरुपयोग निश्चित है। इसी तरह मुआवजे की धाराओं में ‘नैतिक आघात’ का इस्तेमाल है ‘ऐसा आघात होने पर भी मुआवजा देना होगा। यह ऐसी परिभाषा है जिसके इतने तर्क-वितर्क होंगे कि उसे लागू करना संभव नहीं है।

मनोरंजक तथ्य यह है कि यह विधेयक जम्मू-कश्मीर को लागू नहीं होगा। अर्थात, विधेयक के बहुसंख्यक समाज-अर्थात हिंदुओं को लागू होनेवाले प्रावधान जम्मू-कश्मीर के बहुसंख्यक समाज-मुसलमानों को लागू नहीं होंगे। इस एक बात से ही स्पष्ट है कि यह विधेयक हिन्दुओं को परेशान करने और शेष भारत के मुस्लिमों को खुश करने के लिए उठाया गया कांग्रेसी कदम है।

स्वाधीनता के बाद इतना अधकचरा, समाज विघातक विधेयक अब तक सामने नहीं आया है। इसे निरस्त करना ही देश की बहुविध, बहुआयामी, समन्वयी संस्कृति को बचाने का एकमात्र रास्ता है।

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