दस जनपथ से ‘ईमानदार’-मनमोहन सिंह

2014 के आम चुनाव निकट हैं। उसके पहले सेमीफायनल के रूप में जिन विधानसभा चुनावों की ओर देखा जा रहा था, उनमें से पांच में से चार में कांग्रेस की लज्जास्पद हार हुई है। इससे उठा राजनीतिक बवंडर आनेवाले लोकसभा चुनावों के लिये भी पूरक सिद्ध होगा। राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की ओर से भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतारा है। यूपीए अर्थात कांग्रेस ने ऐसी कोई घोषणा नहीं की है। इन लोकसभा चुनावों की ओर रुख करने से पहले हमें पिछले अनुभवों पर एक नजर डालने की नितांत आवश्यकता है। पिछले दो लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता ने कांग्रेस को सत्ता सौंपी थी। इन दस सालों में डॉ. मनमोहन सिंह ने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में जिम्मेदारी सम्भाली थी। जिम्मेदारी अर्थात कर्तव्यपूर्ति की भावना। अब इसकी चर्चा होना आवश्यक है कि डॉ. मनमोहन सिंह ने अपनी जिम्मेदारी कितनी अच्छी तरह से निभाई।

देश में अब तक जितने भी प्रधानमंत्री हुए उनमें से सबसे निष्प्रभ, निस्तेज तथा किसी और के द्वारा नियंत्रित किये गये प्रधानमंत्री के रूप में जिनका वर्णन किया जाता है वे हैं डॉ. मनमोहन सिंह। प्रधानमंत्री के रूप में अपने दो बार के कार्यकाल के दौरान वे कभी भी नेता के रूप में राजनीति नहीं कर सके। न उनके निर्णय में कोई जोर था, न उनकी बातों में कोई रस, न व्यक्तित्व में आकर्षण, न पूरे कार्यकाल के दौरान लोगों को भानेवाला कोई भाषण। मीडिया या जनता के सामने आकर उन्हें उत्साह दिलानेवाले भाषण या देश को दिशा देनेवाला एक भी वाक्य उन्होंने आज तक नहीं कहा। ऐसे मनमोहन सिंह ने बहुत दिनों बाद पत्रकार वार्ता की, वह भी यह बताने के लिये कि अगले चुनाव के बाद वे प्रधानमंत्री पद नहीं सम्भालेंगे। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार कम करने, महंगाई रोकने और बेरोजगारी घटाने में असफल रही। मुद्रास्फीति देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। इस बारे में जब मनमोहन सिंह से पूछा गया तो उन्होंने इसका संबंध उत्पादन से जोड़ा और कहा कि मनरेगा आदि योजनाओं के कारण ग्रामीण भागों में क्रयशक्ति बढ़ी है जिससे कीमतें बढ़ी हैं। मुद्रास्फीति पर इससे ज्यादा हास्यास्पद विश्लेषण भले-भले भी नहीं कर सके। प्रधानमंत्री इस बात से इनकार करते हैं कि सरकार अपने खर्चों पर नियंत्रण नहीं रख पा रही है, जो कि मुद्रास्फीति का मुख्य कारण है। सोनिया गांधी के आग्रह या दबाव के कारण सरकार ने विविध सामाजिक योजनाएं शुरू कीं। इन योजनाओं का खर्च उठाना सरकार के लिये मुश्किल हो गया। प्रधानमंत्री ने इस सत्य की ओर ध्यान ही नहीं दिया। इस खर्च को संभालने के लिये जिन अनुदानों में कटौती करनी पड़ती है, उसका भी सोनिया-राहुल विरोध करते हैं। इससे यह साफ जाहिर होता है कि मनमोहन सिंह के अंदर के अर्थशास्त्री को राजनेता ने परास्त कर दिया है।
प्रधानमंत्री ने पार्टी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का जवाब देते हुए कहा कि “इससे ज्यादा आरोप यूपीए की पहली पारी में लगे थे परंतु फिर भी यूपीए को दूसरी बार जनादेश मिला।’ इस तरह के अशास्त्रीय वक्तव्यों की प्रधानमंत्री की पत्रकार वार्ता में भरमार थी। डॉ. मनमोहन सिंह के इस तरह के बयानों को सुनकर लगता है कि शायद उन्हें कुछ सूझता ही नहीं, वे किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में हैं। उनकी कोई दिशा नहीं हैं। एक तो अपने मौनी बाबा कभी बोलते नहीं और जब बोलते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है मानो वे देश के प्रधानमंत्री नहीं अपितु बेबस और लाचार व्यक्ति हैं। वे अपनी गलतियों को स्वीकार कर रहे हैं और सफाई भी दे रहे हैं। भारतीय संविधान के अनुसार केन्द्र सरकार के अधिकार प्रधानमंत्री के हाथों में केन्द्रित होते हैं। भले ही राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से इसकी पूर्णता होती हो परंतु प्रधानमंत्री केन्द्र सरकार का प्रमुख होता है। लगभग सवा अरब की आबादी वाले देश का प्रधानमंत्री बेबस और लाचार दिखाई देता है। देश के सभी क्षेत्रों में चल रहे घोटालों को देखकर अपनी गलती स्वीकार करता है। अब तो यही कहना सही होगा कि इतना बेबस प्रधानमंत्री इतने महत्वपूर्ण पद पर बने रहने के योग्य नहीं है।

सन 2009 के लोकसभा चुनावों के समय भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि ‘मनमोहन सिंह देश के अब तक के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री हैं।’ यह बात धीरे-धीरे सिद्ध होती गयी। अनेक प्रसंगों से यह स्पष्ट हुआ है कि मनमोहन सिंह सोनिया गांधी के राष्ट्रीय एजेंडे को आगे ले जाने के लिये सरकार का उपयोग कर रहे हैं। दुनिया के एक चिंतनशील पत्रिका के रूप में ‘टाइम’ का नाम लिया जाता है। इस मासिक पत्रिका में समय-समय पर भारत की कई हस्तियों और घटनाओं का उल्लेख हुआ है। पिछले साल टाइम ने ‘अंडर अचीवर मनमोहन सिंह’ के नाम से एक आवरण कथा प्रकाशित की थी। इसमें यह लिखा गया था कि किस तरह डॉ. मनमोहन सिंह आर्थिक क्षेत्र में देश के विकास को गति देने में असफल रहे। ‘अ मैन इन सैडो’ शीर्षक से यह आवरण कथा प्रकाशित की गई थी। आर्थिक विकास की गति कम होने के साथ-साथ, डॉलर के मुकाबले रुपये का हो रहा अवमूल्यन, बढ़ता वित्तीय घाटा, बार-बार सामने आनेवाले आर्थिक घोटाले इत्यादि पर भी डॉ. मनमोहन सिंह का नियंत्रण नहीं है। इसलिये देश की अर्थव्यवस्था को कोई दिशा नहीं मिल रही है। यह हुआ टाइम पत्रिका का उदाहरण। देश के उद्योगपतियों ने भी मनमोहन सरकार की आलोचना की थी। कानून बनाने, नीतिगत दृष्टिकोण से निर्णय लेने और उन निर्णयों को लागू करने में सरकार असफल रही, अकर्मण्य रही। ‘वर्ल्ड इकोनामिक फोरम’ के ‘इंडिया चैप्टर‘ सम्मेलन में मुकेश अंबानी ने यह कहा था। इसी से मिलती-जुलती प्रतिक्रियाएं अजीम प्रेमजी और रतन टाटा ने भी दी थी।

केन्द्र में मनमोहन सिंह सरकार की अक्षमता और दब्बू व्यवहार के कारण देश में नेतृत्व शून्यता की स्थिति निर्मित हो गई है। कामनवेल्थ घोटालों को ही लें। महालेखाकार रिपोर्ट को ही झूठा साबित करने की कोशिश की गई। जब न्यायालय का हंटर चला तो कलमाडी और अन्य लोगों को जेल भेजा गया। हजारों करोड़ के 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले का क्या हुआ? पहले ए. राजा को बचाने के प्रयास किये गये। बाद में विपक्ष और न्यायालय का दबाव बढ़ने के कारण उसे मंत्रिमंड़ल से हटा दिया गया। गिरफ्तारी के बाद राजा ने बताया कि सारे घोटाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदम्बरम की जानकारी में हुए हैं। मनमोहन सिंह सरकार के द्वारा की गई अनेक गलतियों के कारण देश की आर्थिक स्थिति अत्यंत नाजुक हो गई है। देश की जनता महंगाई से त्रस्त हो रही है। इसके साथ ही अराजक वातावरण के कारण अंतर्बाह्य सुरक्षा पर भी गंभीर संकट निर्माण हो गया है। देश और जनता के साथ खिलवाड़ करने के अनेक परिणाम अब सामने आने लगे हैं।

भारत सरकार के उदासीन रवैये के कारण चीन बार-बार घुसपैठ करता रहता है। वह भारत की थोड़ी-थोड़ी जमीन को हथियाकर सीमा से सटे हुए भूभाग पर अपना कब्जा कर रहा है। दूसरी ओर पाकिस्तानी सैनिक भारत की सीमा में घुसकर हमारे सैनिकों के सिर काटकर ले जाने का दुःसाहस कर रहे हैं। उन शहीद सैनिकों के सिर वापिस कैसे लाये जायें इसकी चिंता मनमोहन सरकार ने नहीं की। स्वतंत्रता के बाद देश में इतनी दुर्बल,निष्क्रिय और बिना रीढ़ की हड्डी वाली सरकार कभी नहीं रही। आज चारों ओर अराजकता का वातावरण है। मनमोहन सरकार दिल्ली में नाममात्र के लिये ही है। वह होकर भी न होने जैसी है। बढ़ती हुई महंगाई से जनता त्रस्त है। भ्रष्टाचार, महिलाओं पर अत्याचार, जनता की हो रही भयानक लूट के कारण अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में भारत की प्रतिष्ठा घटी है। इसकी कीमत भारत के सामान्य नागरिकों, देश की अस्मिता और सार्वभौमिकता को चुकानी पड़ रही है। जब भी लोकतंत्र की व्याख्या की जाती है तो अब्राहम लिंकन की परिभाषा का संदर्भ दिया जाता है। लोकतंत्र जनता की ओर से, जनता के लिये, जनता द्वारा संचालित किया जाता है। हमारी संवैधानिक व्यवस्था लोकतंत्र के संरक्षण के लिये ही है। फिर चाहे वह राज्य सरकार हो या केन्द्र सरकार- संचालन के समय वे जनता के प्रति उत्तरदायी होती हैं। अपनी पार्टी की सरकार चलाने और बचाने के लिये अगर लोकतंत्र की मूल भावना को पैरों तले रौंदा जा रहा है तो यह राष्ट्रद्रोह ही है। प्रधानमंत्री लाचारी का प्रदर्शन करके अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते। मनमोहन सिंह की लाचारी और दुर्बलता का कारण अगर ढूंढ़ा जाये तो दस जनपथ ही आखों के सामने आता है। यही इसका मूल कारण है कि दस जनपथ का दरबार प्रधानमंत्री के सचिवालय से भी अधिक प्रभावी है।

सामंजस्य और गठबंधन की राजनीति आवश्यक है इसलिये क्या प्रधानमंत्री के पद पर बैठा व्यक्ति देश और जनता के प्रति अपने कर्तव्य को भूल जाये? शासन के रूप में अपने कर्तव्य को पूरा न करना योग्य नहीं है। ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद पर रहने का अधिकार नहीं है। हालांकि मनमोहन सिंह न तो अपनी मर्जी से प्रधानमंत्री बने हैं, न ही अपनी मर्जी से हटेंगे।

सोनिया की कांग्रेस ने कठपुतली के स्वरूप का प्रधानमंत्री इस देश पर लादा है। इन पापों का दण्ड भारत की जनता कांग्रेस को 2014 के चुनावों में देगी। अगले लोकसभा चुनाव के बाद ‘मैं प्रधानमंत्री नहीं बनूंगा’ यह बताने के लिये उन्हें पत्रकार वार्ता करने की भी आवश्यकता नहीं है। मनमोहन सिंह को जनता बता देगी कि इसके आगे वे तो क्या कांग्रेस का कोई भी प्रधानमंत्री इस देश की सत्ता पर नहीं आयेगा। अब दस जनपथ को उत्तर देने के लिये कटिबद्ध प्रधानमंत्री की अपेक्षा देश के विकास के लिये कटिबद्ध प्रधानमंत्री ही भारत की जनता को चाहिये।
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