एक कलाकार की पानी पर पहल

दुनिया के हर हिस्से में, शहरों से लेकर गांवों की दीवारों और पानी की टंकियों पर ‘जल ही जीवन है’ का नारा लिखा हुआ है। लेकिन क्या वह नारा जन-जीवन पर असर कर रहा है? क्या उसने कभी दशा और दिशा दी है? शायद नहीं। इसलिए कि जब आदमी की जरूरतें या वास्तविकता दीवारों पर लिखावटों में तब्दील होती हैं, तब वह अपना महत्व भी खो देती हैं। 1994 में नीदरलैंड में पेयजल और पर्यावरण सम्बंधी स्वच्छता पर हुए मंत्रियों के सम्मेलन में तत्कालीन मंत्री कमलनाथ ने ब़डी-ब़डी चिंताएं व्यक्त की थीं। उन्होंने कहा था कि एक ओर धनी और साधन सम्पन्न लोग ओजोन परत के नष्ट होने, विश्व में बढ़ती हुई गर्मी और जमीनी खतरे की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर गरीब व्यक्ति केवल इतना ही समझता है कि पानी के अभाव में उसकी फसल मुरझा जाएगी, उसकी पत्नी केवल इतना ही जानती है कि थोड़ा सा पानी लेने के लिए उसे पैदल मीलों चलना प़डता है। उनके बच्चे पानी से होने वाली ऐसी बीमारियों से पी़िडत हो जाते हैं जिनका वे नाम तक नहीं जानते…!

मंत्री की इन बातों में कितनी चिंता थी, ये तो वही जानें मगर उनके भाषण के 20 साल बाद भी परिस्थितियों में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ है। अगर परिवर्तन हुआ होता तो पानी के मुद्दे पर दिल्ली की शीला सरकार को जाना नहीं पड़ता। लेकिन मूल सवाल यह है कि हमें जितना पानी मिल रहा है, क्या उसका सही उपयोग हो रहा है? क्या पानी की बर्बादी को रोकने की कोशिश हम और आप कर रहे हैं? समाज की लापरवाही अपनी जगह है मगर पानी के मुद्दे पर हमारी असंवेदनशीलता भारी पड़ रही है। जो लोग संवेदनशील होकर बूंद-बूंद को बचाने की कोशिश करते हैं, उन पर बाकी लोग हंसने का काम करते हैं। पानी के मसले पर ही तीसरा विश्व युद्ध होगा, इसे न तो सरकार और न आम जनता इसकी गंभीरता को समझ पा रही है।

मगर इस धरती पर आबिद सुरती जैसे कलाकार भी हैं जो बूंद-बूंद पानी को बचाने की कोशिश में दरवाजे-दरवाजे भटक रहे हैं। वैसे तो मरीज हमेशा डॉक्टर के दरवाजे पर जाता है, मगर यहां डॉक्टर ही कॉल बेल दबाकर पूछता है कि उसे कोई परेशानी तो नहीं?, जैसा कि आबिद सुरती प्ाूछते हैं कि उनके यहां पानी तो नहीं टपक रहा है? लोग मुंह पर कपड़ा रखकर हसेंगे ही, क्योंकि हमने पानी के संरक्षण को कभी ठीक से समझा ही नहीं है। उसका बहना और उसकी बर्बादी आम बात है। लेकिन आबिद सुरती हंसी या मजाक की परवाह नहीं करते हैं। कार्टूनिस्ट, उपन्यासकार, नाटककार के रूप में इन्हें करोड़ों लोग जानते रहे हैं। मगर अब इन्हें जल रक्षक के नाम से भी जानते, कहते हैं। आबिद सुरती जैसे लोग सिर्फ उम्मीद पर जिंदा नहीं रहते हैं। वे उम्मीद जगाते हैं और रास्ता दिखाते हैं। यह उनका ऐसा चेहरा है जिसकी पहचान पर्यावरण के क्षेत्र में दुनिया भर में होने लगी है। दरअसल उनका विश्वास इतिहास बनने से ज्यादा जिम्मेदार इतिहास रचने में है, इसलिए उन्होंने पानी को बर्बादी से बचाने के लिए ‘सेव एवरी ड्रॉप’ और ‘ड्रॉप डेड’ याने ‘हर बूंद को बचाओ या मारे जाओ’ की तरफ सबका ध्यान खींचा है। वे रविवार की सुबह किसी न किसी बिल्डिंग में दिखाई दे जाते हैं। उस बिल्डिंग के फ्लैटों में कॉल बेल बजाते हैं और साथ आए प्लंबर को लेकर नलों से टपक रहे पानी को रोकने के उपाय में लग जाते हैं। हालांकि फ्लैटों के लोग त्वरित टिप्पणी करते हैं कि कुछ बूंदें टपक ही जाएंगी तो क्या होगा? तब आबिद सुरती बूंद-बूंद का पूरा हिसाब देकर बताते हैं कि कितना पानी बेकार चला जाता है। पूछने वाले भी चौंक जाते हैं कि क्या सचमुच इतनी बर्बादी हो रही है? उनका हिसाब है कि अगर किसी भी नल से एक सेकेंड में एक बूंद पानी टपकता है तो महीने भर में एक हजार लीटर पानी यूं ही बह जाता है। सामान्य रूप से हर घर में ऐसे एक-दो नल होते ही हैं।

आबिद सुरती ने 2007 में इसकी शुरुआत की। तब वे ‘वन मैन एनजीओ’ थे मगर बाद के वर्षों में हर आदमी को ‘वन मैन…’ का सिद्धांत समझाया। उनका कहना है, “यह काम हर कोई कर सकता है, कहीं भी कर सकता है। दरअसल बचपन में मैं मुंबई में पानी के लिए जो लाइन देखता था, लोग रात-रात भर जागते थे कि पता नहीं कब पानी आ जाए नल में। कई फिल्मों में इन दृश्यों को शामिल किया जाता था। वह मेरे मन के अंदर बैठता चला गया। बाद में मैं उपनगर मीरा रोड में रहने आ गया। वहां पहले पानी टैंकरों से आता था, वह भी दो-तीन दिन में एक बार, तब पानी के महत्व का और भी पता चला। अब यहां पानी आने लगा है। लोग पुराने दुख को भूल गए हैं। पहले बूंद-बूंद के लिए तरसते थे, अब उन बूंदों की परवाह नहीं करते हैं। जितनी सुविधा और उपलब्धता बढ़ी है, बर्बादी की भी आदत बढ़ी है।”

लेकिन दूसरी तरफ धीरे-धीरे लोग इनकी कोशिशों और बर्बादी के गणित को समझने लगे हैं। ये किसी से पैसे नहीं मांगते, साहित्य के लिए इन्हें जो अवॉर्ड मिलता है, उसे इसी मद में खर्च कर देते हैं। प्लंबर को खुद पैसे देते हैं, जरूरी सामान सब लाते हैं। पर्चे छपवाकर बंटवाते हैं। हाउसिंग सोसाइटी से बात कर नोटिस बोर्ड पर अपने आने की नोटिस चिपका देते हैं। कई बार ऐसा हुआ है कि लोगों ने इन्हें अपने घरों में घुसने से मना किया है। उन घरों में पानी बहता दिखता रहता था, न खुद प्लंबर बुलाकर नलों को ठीक करवाते थे और न आबिद जी को करने देते थे। हालांकि बाकी लोगों ने बताया कि प्लंबर अनाप-शनाप पैसे मांगते हैं इसलिए ठीक नहीं करवाते।

आबिद जी अब बाकी शहरों और गांवों को भी अपनी सेवा देने के लिए तैयार रहते हैं। उनका तर्क है कि सड़क पर मौजूद नलों को ठीक करने की जिम्मेदारी प्रशासन की हो सकती है लेकिन घरों की जिम्मेदारी तो घर वालों की ही होगी।
समंदर के अथाह जल में कई जहाजों के मालिक रहे आबिद सुरती को मालूम है कि समंदर के पानी से प्यास नहीं बुझ सकती है। पीने के लिए स्वच्छ और मीठा पानी चाहिए, जिसकी जरूरत लगातार ब़ढती जा रही है। जिस समय बारिश कम होने की संभावना रहती है, उस समय मुंबई तथा आस पास के लोगों में अफरा-तफरी मच जाती है कि क्या होगा? पानी बोतलों में बंद होकर व्यापार का खेल जो किया जाता है। पानी की कमी का फायदा ये लोग उठाते हैं। आबिद सुरती इसी की ओर संकेत कर रहे हैं। कहते हैं, ‘पानी पर मेरी पहल को लेकर अमेरिका और यूरोप वाले डाक्युमैंटरी बना चुके हैं और उन देशों में दिखा रहे हैं। इस अभियान को विश्वव्यापी बनाने की योजना है। मुझे तसल्ली है कि दुनिया मेरी आवाज को सुन रही है।’
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