इतिहास की छीछालेदार करती पाठ्यपुस्तकें

राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (छउएठढ) ने छठवीं से बारहवीं तक समाजशास्त्र विषय की पाठ्यपुस्तकें तैयार की हैं। इनमें से इतिहास की पुस्तकें देखें तो ऐसा लगता है कि इनमें 16वीं, 17वीं व 18वीं सदी में मराठों के देश के इतिहास में योगदान तथा 19वीं सदी में देश की स्वतंत्रता के लिए उनके राजनीतिक प्रबोधन, उनकी सशस्त्र क्रांति में सहभागिता व सामाजिक प्रबोधन के आंदोलन में योगदान का उचित मूल्यांकन किए बिना पाठ्यपुस्तकों की अन्यायपूर्वक रचना की गई है।

एनसीईआरटी ने छठवीं से बारहवीं तक के लिए कुल 10 खंडों के 2100 पन्नों में इतिहास व सामाजिक विज्ञान की रूपरेखा पेश की है। कक्षा छठवीं की पाठ्यपुस्तक ‘हमारे अतीत-1’ में ईसवी सन एक हजार की अवधि तक अर्थात प्राचीन काल को पेश किया गया है। कक्षा सातवीं के लिए ‘हमारे अतीत-2’ में ईसवी सन एक हजार से 18वीं सदी तक अर्थात मध्ययुगीन इतिहास की रूपरेखा पेश की गई है। कक्षा आठवीं के लिए ‘हमारे अतीत-3’ की रचना की गई है, जिसमें भाग 1 व भाग 2 है और अंग्रेजों की सत्ता की अवधि में सामाजिक व राजनीतिक भारत का विवरण दिया गया है। कक्षा नौवीं के लिए ‘भारत और समकालीन विश्व-1’ और कक्षा दसवीं के लिए ‘भारत और समकालीन विश्व-2’ में 19वीं और 20वीं सदी तक इतिहास पर गौर किया गया है। कक्षा 11वीं के लिए ‘विश्व इतिहास के कुछ विषय’ में मुख्य रूप से सामाजिक व आर्थिक विश्व की रूपरेखा पेश की गई है। कक्षा 12वीं के लिए तीन पुस्तकें हैं- ‘भारतीय इतिहास भाग-1, भाग-2 तथा भाग-3, जिनमें प्राचीन, मध्ययुगीन व अर्वाचिन भारत का विचार किया गया है।

यह सम्पूर्ण पाठ्यक्रम 2007 में तैयार किया गया और इसके लिए जो समिति बनी थी उसमें 25 सदस्य थे। इसमें दिल्ली के 19, कोलकाता 1, कर्नाटक 1, हिमाचल 1, उत्तर प्रदेश 1, केरल 1, मध्यप्रदेश 1 सदस्य थे। उल्लेखनीय यह कि इसमें महाराष्ट्र से एक भी सदस्य नहीं था।

कक्षा छठवीं से बारहवीं तक की कुल 10 पुस्तकों के 2100 पन्नों में मराठों का 17वीं व 18वीं सदी का 200 वर्षों का इतिहास (शिवकाल से पेशवाई) केवल 2 पन्नों में खत्म कर दिया गया है। इसके विपरीत दिल्ली के मुगल सुलतानों और बादशाहों के इतिहास के लिए सैकड़ों पन्ने खर्च किए गए हैं। महाराणा प्रताप का तो उल्लेख ही नहीं है। कक्षा सातवीं के ‘हमारे अतीत-2’ में पृष्ठ 149 व 150 पर मराठा शीर्षक के अंतर्गत डेढ़ पन्ना व कक्षा आठवीं की ‘हमारे अतीत-3’ के भाग-1 में पृष्ठ 18 पर ‘मराठों से लड़ाई’ शीर्षक के अंतर्गत केवल आधे पृष्ठ की जानकारी दी गई है। कक्षा सातवीं की पुस्तक में पृष्ठ 149 पर शिवाजी महाराज के बारे में निम्न जानकारी दी गई है-

“मराठा राज्य एक अन्य शक्तिशाली क्षेत्रीय राज्य था, जो मुगल शासन का लगातार विरोध करके उत्पन्न हुआ था। शिवाजी (1627-1680) ने शक्तिशाली योद्धा परिवारों (देशमुखों) की सहायता से एक स्थायी राज्य की स्थापना की। अत्यंत गतिशील कृषक- पशुचारक (कुनबी) मराठों की सेना के मुख्य आधार बन गए शिवाजी ने प्रायद्वीप में मुगलों को चुनौती देने के लिए इस सैन्य बल का प्रयोग किया। शिवाजी की मृत्यु के पश्चात मराठा राज्य में प्रभावी शक्ति, चितपावन ब्राह्मणों के एक परिवार के हाथ में रही, जो शिवाजी के उत्तराधिकारियों के शासन काल में ‘पेशवा’ (प्रधान मंत्री) के रूप में अपनी सेवाएं देते रहे। पुणे मराठा राज्य की राजधानी बन गया।”

शिवाजी महाराज के बारे में दी गई उपर्युक्त जानकारी अधूरी और महाराज के कार्य का अवमूल्यन करने वाली है। यह वर्णन शिवराय का यथार्थ दर्शन नहीं कराता।

इतिहास की इन पुस्तकों में राजमाता जिजाऊ, शहाजी राजे, छत्रपति संभाजी महाराज, राजाराम महाराज, महारानी ताराबाई का उल्लेख नहीं है। मराठों के औरंगजेब से 27 वर्ष तक चले देदिप्यमान स्वतंत्रता संघर्ष पर ध्यान ही नहीं दिया गया है। निम्न बातों पर गौर करें-

1. आदर्श संस्कारों के जरिए नूतन राज्य निर्माण करने के लिए शिवराय को स्फूर्ति देने वाली आदर्श माता जिजाऊ का पुस्तक में कहीं उल्लेख नहीं है। सम्पूर्ण निजामशाही कब्जे में लेकर एकसाथ ही आदिलशाही व प्रचंड शक्तिशाली मुगल सत्ता के विरुद्ध 7 वर्ष तक जूझने वाले महापराक्रमी शहाजी राजा का पुस्तकों में कही भी जिक्र नहीं है।

2. शिवाजी महाराज के बाद औरंगजेब ने स्वयं मुगलों की लाखों की फौज लेकर स्वराज पर चढ़ाई की। उस समय उससे 9 वर्ष तक संघर्ष करने वाले छत्रपति संभाजी महाराज, जिन्होंने अंग्रेज, पुर्तुगालियों और जिंजीरेकर सिद्दी जैसी विदेशी सत्ताओं से संघर्ष कर उन्हें पराजित किया था और अंत में धर्मांध औरंगजेब से हुए संघर्ष में राष्ट्र के लिए बलिदान किया उस महापुरुष का इस इतिहास में सामान्य उल्लेख भी नहीं है।

3. संभाजी राजा के बलिदान के बाद औरंगजेब की मुगल सेना से 11 वर्ष तक लड़ने वाले और रायगड़ से मद्रास के निकट जिंजी तक हजारों मीलों की घुड़दौड़ करने वाले छत्रपति राजाराम का भी उल्लेख नहीं है।

4. पति राजाराम के निधन के बाद देश व धर्म की रक्षा के लिए गृहस्थी त्याग कर हाथ में शस्त्र उठाने वाली और प्रचंड घुड़दौड़ कर औरंगजेब को हैरान कर देने वाली महारानी ताराबाई के महान कार्य पर जब ध्यान नहीं दिया गया तो शिवकालीन तानाजी, येसाजी, बाजी प्रभु, मुरारबाजी जैसे बलिदान देने वाले वीरों व मुगलों को अनेक बार पराजित करने वाले संताजी- धनाजी जैसे सेनापति का उल्लेख कहां होगा?

इस इतिहास में 18वीं सदी के महान योद्धा बाजीराव पेशवा, नानासाहब पेशवा, रघुनाथराव, सदाशिवराव भाऊ, मल्हारराव होलकर, अहिल्याबाई होलकर, दत्ताजी शिंदे, रघोजी भोसले, सेनापति खंडेराव दाभाड़े, दमाजी गायकवाड़ इन महान मराठी व्यक्तियों का भी जिक्र नहीं है। निम्न बातों पर गौर करें-

1. औरंगजेब के बाद मुगलों से संघर्ष कर मालवा-बुंदेलखंड जीत कर दिल्ली तक पहुंचने वाले व मराठी साम्राज्य की बुनियाद रखने वाले महान सेनापति बाजीराव का भी उल्लेख नहीं है।

2. मुगलों से गुजरात जीतकर वहां मराठी राज्य की बुनियाद रखने वाले सेनापति खंडेराव दाभाड़े, दमाजी गायकवाड़ का भी उल्लेख नहीं है।

3. हिंदुस्तान में कमजोर हुए मुगल साम्राज्य को देखकर विदेशी सत्ताधीश नादिर शाह व अब्दाली ने हिंदुस्तान पर चढ़ाइयां कर प्रचंड मारकाट व लूटपाट शुरू की। इन आक्रामकों को रोकने का साहस किसी भी बादशाह या मुगल सेनापति ने नहीं दिखाया। तब देश की रक्षा की जिम्मेदारी अपने सिर पर लेकर विदेशी अब्दाली से अनेक बार मुकाबला कर अटक तक मराठी साम्राज्य निर्माण किया व मौका पड़ने पर पानीपत में 1 लाख मराठी सैनिकों ने बलिदान दिया। उस देदिप्यमान संघर्ष के सेनापति नानासाहब पेशवा, रघुनाथराव, सदाशिवभाऊ, दत्ताजी शिंदे, मल्हारराव होलकर का नामोल्लेख भी इन पुस्तकों में नहीं है।

4. जिस समय अंग्रेज हिंदुस्तान में अपने पैर जमाकर बंगाल, असम, मद्रास जीतकर अपना राज्य विस्तार कर रहे थे तब रघोजी भोसले के नेतृत्व में मराठों ने ओडिशा, आज के छत्तीसगढ़, बिहार, बंगाल पर चढ़ाइयां कर अंग्रेजों को रोककर देश की रक्षा की। उन नागपुरकर भोसले के कार्य का उल्लेख तक नहीं है।

5. सम्पूर्ण हिंदुस्तान पर अपने सांस्कृतिक कार्यों की मुहर लगाने वाली, अनेक प्राचीन मंदिरों का जीर्णोद्धार करने वाली, नदियों पर घाट, धर्मशालाएं, अनेक रास्ते बनाने वाली, गरीबों के लिए अन्नछत्र स्थापित करने वाली पुण्यश्लोक अहिल्याबाई होलकर का भी उल्लेख नहीं है।

6. पानीपत के बाद उत्तर हिंदुस्तान पर मराठों की सत्ता कुछ समय के लिए क्षीण हुई और उत्तर में आपस में संघर्ष की स्थिति बन गई। इस अवसर का लाभ उठाकर अंग्रेज अपना वर्चस्व स्थापित कर रहे थे। उसी समय महादजी शिंदे के नेतृत्व में मराठों ने 25-30 वर्ष अंग्रेजों को रोककर हिंदुस्तान व मुगल सल्तनत की रक्षा की। इस कार्य का भी कहीं उल्लेख नहीं है।

 

अनेक मुगल बादशाहों, उनके वजीरों, मनसबदारों की विस्तृत जानकारी व चित्र दिए गए हैं। यही नहीं, हिंदुस्तान पर आक्रमण कर प्रचंड मारकाट व लूट करने वाले नादिर शाह का पूरे पन्ने की जानकारी व चित्र दिया गया है। लेकिन छत्रपति शिवराय और देश के इतिहास पर प्रभाव डालने वाले किसी भी महान मराठा राज्यकर्ता की स्वतंत्र जानकारी या चित्र नहीं दिया गया है।
महाराष्ट्र के संतों को भूल गए

जाति-पाति, वर्ण-भेद के जंजीरों में जकड़े हिंदुस्तान में सात सौ वर्ष पूर्व संत नामदेव, ज्ञानदेव, गोरा कुंभार, नरहरि सोनार, सावता माली जैसे संतों ने भागवत धर्म के माध्यम से समाज प्रबोधन व समरसता का महान कार्य किया है। बारहवीं कक्षा के ‘भारतीय इतिहास के कुछ विषय- भाग-2’ में ‘भक्ति सूफी परम्पराएं’ शीर्षक अध्याय में पृष्ठ 140 से 169 तक 30 पन्नों में से सूफी के कार्यों को 25 पन्ने देते समय अधिकांश के चित्रों समेत जानकारी दी गई है। संत नामदेव, ज्ञानदेव का एक शब्द में उल्लेख किया गया है, तुकाराम व चोखामेला के कार्य को एक-एक अभंग में निपटा दिया गया है। 17वीं सदी के रामदास स्वामी, गोरा कुंभार, नरहरि सोनार, सावता माली का तो उल्लेख ही नहीं है।

जिस नामदेव ने महाराष्ट्र से पंजाब तक भागवत धर्म की पताका पहुंचाई उनके कार्य का गुरु ग्रंथ साहिब में 61 अभंगों के रूप में उल्लेख है, लेकिन इतिहास की इन पुस्तकों में उनका सामान्य उल्लेख भी नहीं है।

समाज सुधारकों को भी छोड़ दिया

महाराष्ट्र में महात्मा फुले ने 19वीं सदी में सामाजिक प्रबोधन का अभियान चलाया। उनकी पत्नी सावित्रीबाई ने स्त्री शिक्षा की बुनियाद रखी। महान समाज सुधारक गो.ग.आगरकर, भारतरत्न महर्षि कर्वे, दीन-दलितों के संरक्षक राजर्षि शाहू महाराज, विट्ठल रामजी शिंदे, कर्मवीर भाऊराव पाटील इन विभूतियों का 19वीं सदी में बड़ा योगदान है। क्या उनके कार्य का जिक्र न हो? महात्मा फुले व डॉ. बाबासाहब आंबेड़कर का प्रत्येकी एक-एक चित्र व चार-छह पंक्तियों में उनका उल्लेख किया गया है, लेकिन सावित्रीबाई फुले, गो. ग. आगरकर, धोंडो केशव कर्वे, विट्ठल रामजी शिंदे, राजर्षि शाहू, कर्मवीर भाऊराव पाटील का जिक्र तक नहीं है।

क्रांतिकारियों के बलिदान का भी विस्मरण

विदेशी, जुल्मी अंग्रेज सत्ता के खिलाफ सशस्त्र क्रांति करने वाले भारत के आद्य क्रांतिकारक उमाजी नाईक, वासुदेव बलवंत फडके, चाफेकर बंधु, सावरकर, राजगुरु आदि के नामों का भी उल्लेख न करना उनके बलिदान की अवहेलना करने जैसा है।

राजनीतिक प्रबोधन आंदोलन की अवहेलना

विदेशी अंग्रेज सत्ता के विरुद्ध स्वतंत्रता के प्रबोधन का आंदोलन खड़ा करने वाले न्यायमूर्ति रानड़े, लोकहितवादी, गोपाल कृष्ण गोखले का भी उल्लेख नहीं है। लोकमान्य तिलक, गोखले, दादाभाई नौरोजी ने राष्ट्रीय कांग्रेस की बुनियाद रखी। जिस लोकमान्य को ‘भारतीय असंतोष का जनक’ कहा जाता है और गांधी युग के पूर्व जिन्होंने देश की स्वाधीनता की लड़ाई लड़ी उस लोकमान्य के कार्यों का भी उचित तरीके से उल्लेख नहीं है।

महान ऐतिहासिक व्यक्तियों का विस्मरण

विदेशी आक्रामक मुहम्मद गोरी पर विजय प्राप्त करने वाले व बाद के संघर्ष में देश के लिए बलिदान देने वाले पृथ्वीराज चौहान को क्या इतिहास भूल गया? अकबर को पूरे देश के शरण आने के बाद मेवाड की रक्षा के लिए जीवनभर संघर्ष करने वाले महाराणा प्रताप का इस इतिहास में उल्लेख न हो? देश की स्वाधीनता के लिए फांसी चढ़ने वाले चंद्रशेखर आजाद, खुदीराम बोस, उधम सिंह जैसे सैकड़ों क्रांतिकारियों के उल्लेख भी न हो? 400 वर्ष तक विदेशी आक्रामकों से संघर्ष कर देश की रक्षा करने वाले राजपूत वीरों का क्यों न उल्लेख हो? इसके विपरीत राजपूतों का इतिहास केवल दो पन्नों में समेट देना कितना उचित है?

इन सभी बातों का विचार करें तो छठवीं से बारहवीं तक ये पाठ्यपुस्तकें भविष्य में भारत की जिम्मेदारी सम्हालने वाली नई पीढ़ी के लिए अयोग्य व अधूरी हैं। ये पुस्तकें महाराष्ट्र के इतिहास से क्रूर खिलवाड़ ही हैं। ये पुस्तकें बनाने वाले विद्वान, ज्ञानी, जानकार होंगे भी, लेकिन महाराष्ट्र के इतिहास के प्रति उन्होंने क्यों आंखें मूंदीं यह समझ के बाहर है।
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