मेरी अम्मी

आबिद सुरती अंतरराष्ट्रीय स्तर के व्यंग्य चित्रकार और 80 से अधिक पुस्तकों के लेखक हैं। ‘धर्मयुग’ में उनके छपे व्यंग्यचरित्र ढब्बूजी घर-घर का हिस्सा बन गए थे। वे गुजराती, हिंदी और अंग्रेजी में समान अधिकार से लिखते हैं। किसी जमाने में सात जहाजों के मालिक के बेटे आबिद ने किस तरह मुफलिसी झेली और उनकी अम्मी ने लोगों के घरों में चौका-बर्तन कर किस तरह उन्हें पाला इसकी भावुक कर देने वाली यह सत्यकथा है उनके ही शब्दों में… उनकी मम्मी की कहानी…
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‘मां-सा दूजा कोई नहीं।’
यह कहावत मैंने बचपन में सुनी थी। तब मेरी अम्मी अन्य अरबों मांओं जैसी सिर्फ एक मां थी। वर्षों बाद समझ में आया, वह कुछ विशिष्ट भी थी। वह वनफूल जैसी थी, उसका अपना अनोखा सौंदर्य था।

हमारी शिक्षा हमारी बुद्धि को खिलाने के बजाय उस पर कालिख पोत देती है। फूल यानी गुलाब। दूसरा अर्थ कमल, चंपा या चमेली भी हो सकता है। वन के विविध फूलों की ओर एक नज़र डालने का विवेक भी मुझमें कहां था?

न मैं उसके इंद्रधनुषी रंगों को देख सकता, न उसकी पारलौकिक महक का आनंद ले सकता था। फिर भी धुंध के गोलों की तरह यह सब मेरे आसपास तैरता रहता, मेरे अंतरमन को छुआ करता। प्रेरणा के अदृश्य स्रोत बहते रहते।

अचानक एक बेंत मेरी पीठ पर टूटती। अचानक सब कुछ धुंधला जाता। सिर्फ चंद मिनटों के लिए ही, फिर ममता की लहरें बहने लगतीं। फिर प्यार के कुंभ छलकने लगते।

मुझे छड़ी फटकारने के बाद मुझसे अधिक दुख उसे होता। वह स्वयं रोती और हैरत से मैं उसके सामने देखता रहता। यह कैसी स्त्री है? मेरी बाल बुद्धि में प्रश्न उठता-छड़ी के निशान मेरे अंगों पर उठते हैं और दिल उसका कचोटता है। पीड़ा मैं भुगतता हूं और आंसू वह बहाती है।

वनफूल की कोमलता के कवच के पीछे अपने अस्तित्व को टिकाये रखने की उसकी शक्ति कुंडली मारकर बैठी होती है। वह कैसे भी स्थान पर, किसी भी माहौल में टिक सकता है। खिलने के लिए उसे गुलाब की तरह माली की देखभाल या धनी पालक की परवरिश की जरूरत नहीं होती। उसे आप महल में सजायें या झोंपड़ी में, वह मुसकराता रहेगा।

चढ़ती के दिनों में मेरी अम्मी ने सूरत शहर की हवेली का वैभव देखा। पड़ती के वर्षों में उसने मुंबई की खोली के अंधेरे देखे। बेंत से मेरा प्रथम परिचय यहीं हुआ था। तब मेरी उम्र सात साल होगी। स्कूल जाने के बजाय मैंने आवारागर्दी शुरू की थी। नये बाल मित्रों की संगत का वह परिणाम था।

रास्ते पर से बीड़ी-सिगरेट के जलते टोंटे उठाकर आखिरी कश लेना, कंचों के खेल में पाई-पैसे का दांव लगाना, पाठशाला की बजाय सिनेमाघर में जा बैठना, उपनगर की लोकल ट्रेनों में बिना टिकट घूमना आदि बुरी आदतें मैंने मुंबई के अपने ये लंगोटियों से अपनायी थीं।

छड़ी की धौंस तो न बैठी, अम्मी के आंसुओं ने मुझे भिगो दिया। ‘बेटा!’ अपनी आंखें पोंछते हुए उसने मुझे याद दिलाया, ‘तेरी पढ़ाई की खातिर मैं पराये काम करती हूं, किसी के जूठे बरतन मांजती हूं, किसी के गठरी भर कपड़े धोती हूं। कोई मेरे पास मिर्च भी पिसवाता है और तब मेरे बदन में आग सुलग उठती है।’

वह फिर रो पड़ी। उसकी त्रासदी दुगुनी थी। पड़ती के दिनों के प्रारंभ में ही मेरे पिता अपना मानसिक संतुलन खो बैठे थे। सूरत शहर का मोह त्यागकर हम मुंबई आ बसे थे। साथ मेरा छोटा भाई, किशोर वय के दो चाचा और दादी भी थी। आमदनी का कोई जरिया नहीं था। सहज ही मेरी अम्मी ने चुनौती स्वीकार कर ली।

एक तरफ घर का बोझ, दूसरी ओर पागल पति के इलाज के लिए हवा में हाथ-पैर मारना। मेरी आंखें खुल गयीं। मेरी गाड़ी फिर पटरी पर चढ़ गयी।

मेरी मां शिक्षित न थी। वह लिखना-पढ़ना भी नहीं जानती थी। मगर उसने जीना जाना था। धूप हो या छांव, दोनों परिस्थितियां उसके लिए समान थीं, बल्कि कड़ी धूप में उसका चेहरा कुछ अधिक ही दप-दप होता था।

नियति को भी जैसे उस पर ईरश्क आता हो, ऐसे वह मेरी अम्मी के दुखों में इजाफा किया करती। पहले उसके ऐशोआराम छीन लिये, फिर उसके जिस्म पर से गहने उतार लिये। अंत में पति की छत्रछाया भी झपट ली। वह न डिगी। धर्म में उसकी आस्था अचल थी।

वह नहीं जानती थी कि इस्लाम शब्द का मतलब क्या होता है, पर इतना उसने अवश्य जाना था-सृष्टि का एक कर्ता सिर पर बैठा है, उस कर्ता ने उसका भाग्य निर्माण किया है, उसकी हथेली पर सूखी रोटी का टुकड़ा रखा है। और उसे मुसकराकर स्वीकार कर लेना चाहिए।

कितने साल?
यह छोटा-सा प्रश्न उसके लिए पहेली बना था।
जवानी से शुरू हुई उसकी दौड़ अब प्रौढ़ावस्था में प्रविष्ट हुई थी। चेहरा वक्त की छेनी से गढ़कर गंभीर हो गया था। एक आंख में मोतियाबिंद पक रहा था। ऐनक के शीशे हर वर्ष बदलने पड़ते थे, मगर उसकी रीढ़ का बांस अभी भी सीधा था।
कभी लगता, सुख अब हाथ भर की दूरी पर है और सुख हाथ में ताली देकर छिटक जाता। वह मायूस न होती। संयुक्त परिवार की बुजुर्ग सदस्य होने के नाते सब उसका आदर करते। बहुओं के लिए उसका हर बोल आदेश था। पौत्र उसकी गोद में खेलते। कभी उसके पोपले मुंह में उंगलियां डालकर उसे चिढ़ाते। वह उसे भला लगता, फिर भी उसे कहीं चैन नहीं था। उसकी आत्मा अशांत थी।

अब उसे घर के या पराये काम करने की जरूरत नहीं थी। बिना काम जीवन उसे सूना लगता। सुख से वह एक जगह टिककर बैठ भी न सकती। जब कभी बर्तन-कपड़ों के लिए किसी बाई को रखने के विषय पर चर्चा होती, उसे दौड़ने के लिए ढलान मिल जाता।

बहुओं के हाथों से वह काम झपट लेती, बिना कारण दिन में दो-चार चक्कर बाजार के लगाती, बरतन अपने हाथों से घिस-घिसकर मांजकर चमकाती। सारे घर के मैले कपड़े जब तक वह अपने हाथों न धोती, उसे शांति न होती।
उसे रोकने की शक्ति हममें नहीं थी। उसके हाथ से काम वापस लेना तौर शराबी के हाथ से बोतल छीन लेना समान था।
कभी मैं सोचता कि उसकी चेतना की जड़ें कहां होंगी? यह उसके अवकाश-प्राप्ति के दिन थे। सिर के बाल पक गये थे। अब तो मेरे बाल भी झड़ने लगे थे, लेकिन उसकी दौड़ अब भी जारी थी। जन्म के साथ उसकी दौड़ शुरू हुई थी, मौत उसके साथ चली थी, उसे थका-हरा नहीं सकी थी।

उसकी दौड़ कोख से कब्र तक की नहीं थी, मौत के उस पार निकल जाने की थी। नियति को फिर उससे ईरश्क हो, इसमें हैरत की कोई बात नहीं। लकवे ने उसे पछाड़ दिया।

आखिर उसने अपनी पहेली मेरे आगे रखी, ‘मैंने कभी किसी का कुछ नहीं बिग़ाडा, किसी से धोखाधड़ी नहीं की। हमेशा खुदा की बंदगी की है, फिर भी मेरी किस्मत में यह मोहताजी क्यों?’

यह प्रश्न कई वर्षों से मुझे भी परेशान करता आया था। नखशिख प्रामाणिक मनुष्यों के भाग्य में दुखों का संवर्धन क्यों होता होगा? इसका संतोषजनक उत्तर ढूंढने के लिए मैंने कई चिंतन ग्रंथ उलटे। अंत में गीता पर आधारित एक पुस्तक ‘कर्मफल’ पढ़ने पर मेरी शंका का समाधान हुआ।

मेरी समस्या यह थी, अपनी अम्मी को मैं कैसे समझाऊं कि संचित-कर्मों का हिसाब चुकाने उसने इहलोक में जन्म लिया है, जीवनकाल के दौरान जितने प्रारब्ध कर्म भुगतना लिखा होता है, उतने पूर्ण रूप से भुगतने पर ही छुटकारा होता है। उसमें से कोई भी छिटक नहीं सकता, फिर वह संत हो या महात्मा। रामकृष्ण परमहंस भी कैंसर रोग से पीड़ित हुए थे। उन्होंने भी देहदंड भुगता था।

मेरी अम्मी दिन-रात बिस्तर पर लेटी रहती है। मोतियाबिंद के दो-दो ऑपरेशन होने के बावजूद उसकी धुंधली आंखें छत को निहारती रहती हैं। उसकी दौड़ थम गयी है, मगर उसके विचार अधिक वेगवान हुए हैं। अब वह अतीत में चहलकदमी करने लगी है।

कभी अपने यौवन के दिनों का स्मरण होने पर वह सचमुच जवान हो, वैसे उठ बैठती है, पांव के लकवे को भूलकर दौड़ लगाने के लिए खड़ी होने लगती है और लुढ़क कर ढह जाती है।

उसकी वेदना से मैं अनजान नहीं। उसके भीतर क्या घुल रहा है, यह मैं अनुभव कर सकता हूं। मेरा चेहरा देखकर वह भी मेरे मन को खुली किताब की तरह पढ़ लेती है।

हम दोनों के संबंध विशेष हैं। हम दोनों का रिश्ता सिर्फ मां-बेटे का नहीं, कुछ और भी है। हम एक-दूसरे से कोसों दूर रहे हैं।
अम्मी को सभी चाहते हैं। मेरा भाई और भाभी भी, मेरे चाचा और चाची भी। मेरी पत्नी और पुत्र भी। पड़ोसी तक उसके गुणगान गाते नहीं थकते।

कभी कोई परिचित स्त्री दो घड़ी अम्मी के पास बैठने आती तो उसकी धुंधली आंखों में यकायक जुगनू उतर आते हैं। उन क्षणों में जाने-कितनी ही यादें उसके जर्जर चेहरे पर से गुज़र जाती हैं। अपने यौवनकाल की उस सखी से बतियाते हुए वह फिर अपने में खो जाती है। जुगनू उड़ जाते हैं।

लकवे से पहले मैं अम्मी के दर्शन से कतराता था। मुमकिन हो तब तक उससे दूर ही रहता था। उसकी ममता की बाढ़ के आगे खड़े होना मेरे लिए कठिन था। मैं उसका लाड़ला बेटा था। वर्षों की मिन्नतों के बाद मेरा जन्म हुआ था। मेरी परवरिश में उसने कहीं कोई कमी नहीं छोड़ी थी।

वह चाहती तो पति का स्वर्गवास होने के बाद दूसरा विवाह कर सकती थी, लेकिन नहीं किया। मेरी पढ़ाई के लिए उसने अपनी काया घिस डाली। खुद भूखी रही, पर मुझे कभी भूखा नहीं सुलाया। इस अथाह स्नेह का ऋण मैंने कैसे चुकाया?

‘मां, मैं तुझे संगमरमर के आसन पर बैठाकर भोजनपान कराऊंगा और सोने के झूले पर झुलाऊंगा।’ एस.एस.सी. की परीक्षा दी, तब से मैं विश्वास के साथ अम्मी से कहता आया था। तब मैं कहां जानता था कि सरस्वती की संतानों पर लक्ष्मी की कृपा शायद ही होती है।

मेरे शब्दों का खोखलापन मेरे आगे उजागर होने पर मेरा हृदय मुझे ही कचोटने लगा। अम्मी से मैं दूर रहने लगा। मेरी समस्या का यह समाधान भी खोखला था। मैं उससे मिलने न जाता तो वह स्वयं मेरे घर दौड़ आती। मेरी पत्नी, मेरे किशोर पुत्रों के सामने मुझे फटकारती। दो-चार धौस भी मेरी पीठ पर जमा देती।

उसके तमतमाये हुए चेहरे में, उसके तीखे शब्दों में मुझे वात्सल्य का समुद्र लहराता हुआ नज़र आता। मैं सब कुछ चुपचाप सुन लेता। अंतत: उसका उबाल थम जाने पर हम इधर-उधर की बातें करते हुए साथ भोजन लेते।

मैं बेपर की छोड़ता, ‘अम्मी, आज के अखबार में आपके लिए एक शुभ समाचार है। नब्बे साल का एक बूढ़ा अस्सी साल की एक बुढ़िया को उड़ा ले भागा।’ फिर मैं हौले से जोड़ता, ‘आपकी उम्र तो अभी सत्तर के नीचे ही होगी!’

खाते-खाते उसे अपने आगमन का कारण फिर याद आ जाता। अब की वह मेरी पत्नी पर टूटती, ‘बहू शादी से पहले मेरा बेटा हीरे जैसा था। तुमने ही उसे बिगाड़ा है। तीस साल की मेरी दी हुई तरबियत पर पानी फेरने में तुमने तीन घंटे भी नहीं लिये।’
पत्नी चुपके से मुसकराती है, ‘सच तो यह है, मांजी, इस घर में मेरी सुनता ही कौन है? दो झापड़ उन्हें और लगा दो।’
दोनों पुत्र बीच में ही बोल उठते, ‘हां, मांजी, मार-मारकर चूं-चूं का मुरब्बा बना डालो पापा का, मज़ा आ जायेगा।’
वह हंस देती। मेरी पत्नी, मेरे बच्चे हंस देते। घर की दीवारें भी खुशी में लहराती हों, ऐसा अनुभव होता।

लकवा होने के बाद मेरे घर आना उसके लिए संभव न था। मैंने इतवार-इतवार उसकी मुलाकात लेने का निश्चय किया। मैं मुंबई के उपनगर ‘बांद्रा’ में रहता हूं। वह मेरे छोटे भाई के साथ वर्सोवा में रहती थी।

इतवार का दिन मैं उसी के साथ गुजारता, उसे थोड़ा सुख देने के लिए उसके अतीत को कुरेदता। यौवनकाल के, संघर्ष के वे दिन उसकी अनमोल पूंजी बन गये थे। जैसे-जैसे मौत करीब आती जा रही थी, वह दूर के अतीत में फिसलती जा रही थी।
उसे हरजीवन नामक एक हिंदू लड़का याद आता, जिसकी परवरिश मेरे दादाजी के समय में हमारे घर में हुई थी। अपना गांव, अपनी हवेली, अपनी बाल सखियां याद आतीं। अपने बचपन की अंतरंग बातें वह मुझसे करती। मैं उसका सिर अपनी गोद में लेकर चम्मच से उसे दलिया खिलाता। समय बदल चुका था। पात्र बदल चुके थे। बचपन में वह मुझे गोद में लिटाकर खिलाती थी।
मृत्यु के चंद दिनों पहले उसके चेहरे पर से एक बदली को अपनी परछाईं छोड़कर गुज़रते हुए देख मुझे शंका हुई। मैंने कारण पूछा तो उसने बताया कि पचास के दशक में हमारी एक पड़ोसन से उसने पांच रुपये कर्ज लिये थे और उसे लौटाना वह भूल गयी थी। वह पड़ोसन भी अब हयात नहीं थी।

तुरंत मैंने जेब से पांच का एक नोट निकालकर उसके आगे बढ़ा दिया। ‘अम्मी,’ फिर कहा ‘यह नोट आप अपने हाथ से दान कर देना।’
वह बोली, ‘दान पराये धन का नहीं होता। मेरा कर्ज मेरी अपनी मेहनत से चुकता होना चाहिए।’
वनफूल का यह अद्भुत रूप, उसकी यह अलौकिक महक, ये इंद्रधनुषी रंग तो किसी भाग्यशाली पुत्र को ही नसीब होता है। मैं स्तब्ध होकर उसके सामने देखता रहा। मंत्रमुग्ध होकर काफी देर तक सोचता रहा।

आखिर मैंने उसकी परेशानी का उपाय खोज निकाला। उसे सिर्फ कुरानशरीफ की आयतों की तिलावत (पठन) कर मेरे एक दुखी मित्र को बख्श देना था, ताकि उसकी रोज़ी में बरकत हो।

यह अम्मी की अपनी मेहनत होगी। मेरे इस काम के बदले में मैं उसे पांच रुपये दूं, जो किसी दीनहीन को उसे दान करना था।
अंत में मैंने स्वभावत: व्यंग्य करते हुए जोड़ा ‘यानी कि अगले इतवार को मेरे पांच रुपये मुझे लौटा देना।’
वह हंस दी।

यह उसकी आखिरी मुसकराहट थी। निष्पाप, निर्मल, मानसर के हंसों जैसी उजली। किसी देवी, सती, सत्वगुणी की आत्मा से ही वह उठ सकती है। उसका उद्गम स्थान ढूंढने के लिए मैं अम्मी का एक्स-रे फोटो आंखों के सामने धरकर कभी घंटों देखा करता हूं।
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