रामायण की नारी पात्र

भारतीय समाज एवं जीवन पद्धति में स्त्री को भगवान की सर्वोत्कृष्ट कृति के रूप में स्वीकार किया गया है। इसका कारण यह नहीं कि वह शारीरिक, चारित्रिक या मानसिक अथवा सुंदरता की दृष्टि से अधिक आकर्षक होती है, वरन स्त्री का सृष्टि की सर्वोत्तम कृति होने का कारण उसमें मातृत्व है, जो उसे महिमा प्रदान करता है। अत: एक भारतीय अथवा वैदिक हिंदू परंपरा में स्त्री के मातृत्व के गुण को सर्वोच्च स्थान दिया गया है, जो सृष्टि की निर्माता है और मानवीय गुणों की व्याख्याता और प्रदाता है। हमारी सनातन हिंदू संस्कृति का उद्घोष है मातृ देवो भव:-अर्थात मां इष्ट देव है, क्योंकि वह जीवन प्रदायनी है। स्मृति कहती है-

उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।
सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते॥

अर्थात एक आचार्य, दस उपाध्यायों से श्रेष्ठ है। एक पिता सौ आचार्यों से श्रेष्ठ है एवं एक माता सहस्र पिताओं से भी बढ़कर वंदनीय है। अत: हिंदू संस्कृति कहती है- मातृ देवो भव:, तत्पश्चात पितृ देवो भव: एवं आचार्य देवो भव:- यद्यपि मां सर्वाधिक छोटा शब्द है। किंतु यही शब्द सृष्टि और संसार का कारणभूत है। अंग्रेजी में मां को ‘मदर’ कहा गया है, इस ‘मदर’ शब्द में से यदि ‘एम’ निकाल दिया जाए तो बाकी सब ‘अदर’ है। इसलिए मां की महिमा का बखान नहीं किया जा सकता। गुजराती कवि श्री गौरी प्रसाद झाला की कविता की बड़ी सुंदर पंक्तिया हैं-

हिमालय नूं गांभीर्य अब्जो नी सकुमारता
वसी माता तणै हैये सागरों नी अगाधता

अर्थात- हिमालय जैसी गंभीरता और ऊंचाई, फूलों की सुकुमारता, हे मां तुम्हारे चरणों में सागर जैसी अगाधता बसती है। मां की महिमा शब्दातीत है। इसका कारण यह है कि मां ही एक ऐसी स्नेह और ममत्व प्रदान करने वाली देवता है, जो व्यक्ति को जन्म से लेकर शैशव, बाल्य, यौवन एवं प्रौढ़ावस्था तक समान रूप से अपना वात्सल्य प्रदान करती है।

॥ माता समं नास्ति शरीरपोषणम् ॥

इस प्रकार भारतीय संस्कृति, आचार-विचार तथा व्यवहार में स्त्री को मातृ शक्ति के रूप में स्वीकार करती है तथा उसे सर्वोच्च सम्मान प्रदान करती है। आधुनिक मानस तथा समाज शास्त्र भी यह स्वीकार करता है कि समाज के निर्माण में स्त्रियों की माता के रूप में बहुत बड़ी भूमिका होती है, क्योंकि मां न केवल जन्मदात्री है, बल्कि वह अपनी संतति को संस्कार तथा व्यवहार भी प्रदान करती है, जो आगे चलकर समाज का नेतृत्व करते हैं।

भारतीय जीवन मूल्यों तथा भारतीय वाङमय में श्री राम और श्री कृष्ण आदर्श चरित्र के सर्वोच्च अधिष्ठान हैं। श्री राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है, वहीं श्री कृष्ण को लीला पुरुषोत्तम माना गया है। हिंदू परिवारों में आज भी श्री रामायण और श्रीमद भागवत के चरित्रों की कथा सुनाकर मांएं अपने बच्चों को अपनी सनातन संस्कृति और संस्कारों से शिक्षित करती हैं। रामायण में श्री राम, लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्न तथा श्री भागवत जी में श्री कृष्ण-बलराम के चरित्र संस्कार एवं जीवन मूल्यों के सर्वोच्च मानदंड के रूप में स्वीकार किए गए हैं। किंतु इन उज्ज्वल चरित्रों के पीछे उनकी माताओं के त्यागमय, तपस्वी जीवन और प्रेमपूर्ण आदर्श आचरण की ही भूमिका रही है। वाल्मीकि रामायण में महर्षि वाल्मीकि ने श्री राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के चरित्रों का जो आदर्श, उदात्त और उत्तुंग वर्णन किया है, वह उनकी वंदनीया माता कौशल्या, सुमित्रा तथा कैकेयी के व्यक्तित्व एवं कर्तत्व का परिणाम है। कौशल्या के द्वारा दिए गए संस्कारों का ही परिणाम था कि श्री राम जिन्हें अयोध्या का चक्रवर्ती साम्राज्य प्राप्त हो गया था, वे बिना किसी विषाद या दु:ख के 14 वर्ष के लिए वनवास जाने को तत्काल तैयार हो गए थे। तुलसी लिखते हैं-

प्रसन्नतांयाण गतामिषेकस्तथा न मम्ले वनवास दु:खत।
मुखाम्बुज श्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मंजुलमंगलप्रदा॥

रघुकुल को आनंद देने वाले श्री राम के मुखारविंद की जो शोभा राज्याभिषेक के समाचार के समय थी, वही वनवास के समाचार के समय भी थी, अर्थात राज्याभिषेक और वनवास के समय उनके मुख पर किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं, केवल आनंद ही आनंद था, ऐसे मुख-कमल की छवि वाले श्री राम सदैव हमारा मंगल करें। यह मां कौशल्या की शिक्षा और दीक्षा का परिणाम था।

ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम को वाल्मीकि ने कहा- ‘राम साक्षात विग्रह वान धर्म:, अर्थात राम साक्षात धर्म अर्थात श्रेष्ठ आचरण के मूर्त्तिमंत स्वरूप हैं। श्री राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बनाने वाली उनकी माता कौशल्या ही थीं जिनके प्रति अपना आदर प्रकट करते हुए भी राम कहते हैं-

सुनु जननि सोइ सुत बड़ भागी,
जो पितुमातु चरण अनुरागी।

माता कौशल्या दक्षिण कोशलराज की पुत्री थीं और दशरथ जी के साथ उनका विवाह बड़ी ही विषम और विपरीत परिस्थितियों में संपन्न हुआ था। प्रारंभ से ही कौशल्या बड़ी ही धर्मपयारण और तपस्विनी थीं। व्रत-नियम, उपवास तथा ईश्वर अर्चन में उनका अधिक समय बीतता था। राजा दशरथ की यद्यपि वह सबसे ज्येष्ठ पटरानी थीं, तथापि दशरथ की सबसे अधिक प्रिय छोटी पटरानी महारानी कैकेयी थीं। दशरथ की दूसरी पटरानी महारानी सुमित्रा थीं, जो महारानी कौशल्या के साथ ही अधिक समय व्यतीत करती थीं।

यद्यपि वाल्मीकि तथा तुलसी रामायण में माताओं के चरित्र का बहुत विस्तार नहीं किया गया है, तथापि माता कौशल्या और माता सुमित्रा का जो चरित्र श्री राम वन गमन के समय देखने को मिलता है, वह विश्व के किसी भी साहित्य में आज तक नहीं लिखा गया। श्री राम जब वनवास की आज्ञा और विदा लेने माता कौशल्या के पास आते हैं और मां कौशल्या के सामने श्री राम पिता की आज्ञा को बताते हैं, तो कौशल्या का उत्तर उनके उदात्त और उदार चरित्र का सर्वोत्तम उदाहरण है।

जौ केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता।
जौ पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना॥

कौशल्या राम से कहती हैं कि यदि चौदह वर्ष का बनवास केवल पिता की आज्ञा है, तो मैं तुम्हारी मां होने के कारण इस आज्ञा को यहीं रद्द करती हूं, किंतु यदि यह आज्ञा तुम्हारे पिता के साथ-साथ माता-कैकेयी की भी है, तो फिर यह वनवास सैकड़ों अवध के समान है। यह मातृत्व और उसके पद के गौरव की पराकाष्ठा है, जिसका दर्शन हमें मां कौशल्या के चरित्र में देखने को मिलता है।

दूसरी ओर माता सुमित्रा हैं। उनके चरित्र की ऊंचाई तो कोई छू भी नहीं सकता। उनके दो हेमगौर तेजस्वी पुत्र लक्ष्मण एवं शुत्रघ्न हैं। लक्ष्मण श्री राम के और शत्रुघ्न श्री भरत लाल के अनुगामी बनते हैं। श्री राम वन गमन के समय जब श्री लक्ष्मण श्री राम के साथ बन जाने की जिद पकड़ लेते हैं, तब श्री राम उन्हें मां की आज्ञा लेने के लिए माता सुमित्रा के पास भेज देते हैं। लक्ष्मण अपनी मां सुमित्रा से वन जाने की आज्ञा प्राप्त करते हैं। उस समय माता सुमित्रा के जो कथन हैं, वे मां की विशाल हृदयता को परिचायक हैं जो केवल सुमित्रा जैसी मां ही दे सकती है, ऐसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है। मां सुमित्रा ने कहा और तुलसी ने लिखा-

तात तुम्हारी मातु वैदेही। पिता राम सब भांति सनेही॥
अवध तहां जहं राम निवासु। तहंई दिवस जह भानु प्रकासु॥
जो पै सीय राम बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं॥

और अंत में सुमित्रा जी नारी जीवन की सर्वोच्च सफलता और मातृत्व की श्रेष्ठता का वर्णन करते हुए कहती हैं कि उस मां का मातृत्व तभी सफल होता है, जिसका पुत्र श्री रघुनाथ की सेवा में समर्पित होता है

पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगति जासु सुत होई॥

माता सुमित्रा ने श्री रामचरित मानस में मां और पत्नी के रूप में स्त्री का जो आदर्श प्रस्तुत किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। वाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण को वन जाने की आज्ञा देते हुए कहती हैं

राम दशरथ विद्धि मां विद्धि जनकात्मजाम्।
अयोध्याभटवीं विद्धि गच्छ तात यथा सुखम्॥

एक और प्रसंग सुमित्रा के सुमेरु चरित्र का दर्शन कराता है। राम -रावण युद्ध में मेघनाद की शक्ति से लक्ष्मण मूर्छित होकर गिर पड़ते हैं। उनके प्राणों की रक्षा के लिए अयोध्या के ऊपर से आकाश मार्ग में श्री हनुमानजी संजीवनी ले जाते हुए जब भरत लाल के बाण से आहत होकर गिरते हैं, तब लक्ष्मण के प्राणों के संकट के बारे में माता सुमित्रा को पता लगता है, बहुत दु:खी होती हैं, किंतु व्याकुलता के उन क्षणों में भी वे कहती हैं- लक्ष्मण- मेरा पुत्र- श्री राम के लिए युद्ध में वीरतापूर्वक लड़ते हुए गिरा है, तब अतिशय प्रसन्न भी होती हैं, और फिर सोचती हैं कि युद्ध में लक्ष्मण के न होने से राम एकाकी हो गए। उन्हें साथ चाहिए, अपने पुत्र शत्रुघ्न को आज्ञा देती हैं कि युद्ध में श्री राम अकेले हैं उनका साथ देने के लिए शत्रुघ्न तुम हनुमान के साथ जाओ-तात जाहुं कपि संग और शत्रुघ्न भी तुरंत तैयार हो जाते हैं- रिपु सूदन उठि कर जोरि खरे हैं, ऐसी थीं जननी सुमित्रा, उन्हें कोटि-कोटि प्रणाम!
श्री राम चरित में सबसे अधिक आलोचना माता कैकेयी की हुई है। श्री राम के वन गमन के कारणभूत होने के कारण कैकेयी को रामायण के सभी रचयिताओं ने उनके स्वभाव और चरित्र पर दोषारोपण किया है और यही कारण है कि भारतीय जनमानस ने कैकेयी को कभी स्वीकार नहीं किया, इसीलिए हिंदू परिवारों में आज भी लड़कियोें का नाम कैकेयी नहीं रखा जाता।

कैकेय देश आज भी अपने सौंदर्य के लिए विश्व में विख्यात है। कैकेय नरेश की सुपुत्री कैकेयी अनिद्य सुंदरी थी। वे महाराजा दशरथ की सबसे छोटी पटरानी थीं। पति परायण, सेवा और स्नेह से संपूरित कैकेयी दशरथ की सबसे प्रिय रानी थीं। वे न केवल सुंदर और विदुषी थीं, बल्कि रथ संचालन और शस्त्र संचालन में भी निपुण थीं एवं ब़डी निडर थीं। अत: अमरावती तथा असुरों से युद्ध के समय वे राजा दशरथ के साथ गई थीं। इस युद्ध के दौरान राजा दशरथ का सारथी मारा गया था तो कैकेयी ने स्वयं घो़डों की रास हाथ में लेकर कुशलता से रथ संचालन किया था, इसी समय जब देखा कि रथ के पहिए की धुरी निकल गई है तो कैकेयी ने अपनी अंगुली को पहिए की धुरी बनाकर रथ की गति बनाए रखी थी। अंत में असुर पराजित हुए। प्रसन्न मन राजा दशरथ ने कैकेयी से दो वर मांगने को कहा, तब उन्होंने कहा था कि वे पति सेवा को ही सौभाग्य मानती हैं, जब भी आवश्यकता होगी, तब दो वरदान मांग लिए जाएंगे।

ऐसी पति परायण, साहसी तथा विदुषी कैकेयी की भी मंथरा ने मति फेर दी और इस उक्ति को सत्य साबित कर दिया कि ‘बरु मल बास नरक कर ताता, दुष्ट संग जन देहि विधाता। अर्थात दुष्टों का संग अच्छों-अच्छों की मति खराब कर देता है। दासी मंथरा के षड्यंत्र के कारण कैकेयी की मति भ्रष्ट हुई और आगे की राम कथा तो संपूर्ण मानवता के लिए एक वरदान साबित हो गई। विद्वानों और आचार्यों का मत तो यह भी है कि मानवता के रक्षण के लिए और आदर्श मानवीय चरित्र को श्री राम के माध्यम से संसार में स्थापित करने के लिए माता कैकेयी ने यह कलंक का टीका अपने सिर लगाकर राम काज के मार्ग को प्रशस्त किया था।

भारतीय स्त्रियों में जनक सुता जानकी अर्थात श्री सीताजी का स्मरण बड़े ही श्रद्धा और भक्ति से किया जाता है। मिथिला नरेश राजा जनक एवं सुनयना की सुपुत्री श्री जानकीजी भारतीय नारी जगत की शिरोमणी हैं। सीता और राम-भारतीय जन-मन की धड़कन हैं। आज भी संपूर्ण भारत में जय सिया राम से हिंदू जन एक दूसरे का अभिवादन और अभिनंदन करते हैं। भारतीय जन मानस और जीवन में चाहे सुख हो या दु:ख हो, सभी परिस्थितियों श्री सीता राम ही उनके संबल हैं। श्री सीताजी का जीवन हम सबके लिए एक प्रकाश स्तंभ की तरह है, जो सदैव मानवता का पथ आलोकित करता रहेगा। श्री सीताजी को धरती-पुत्री भी माना गया है, क्योंकि राजा जनक को अपने राज्य में अकाल के समय स्वयं हल चलाते हुए पृथ्वी के गर्भ से उनकी प्राप्ति हुई थी और उसी का परिणाम रहा कि श्री सीता का संपूर्ण जीवन धरती के समान त्याग और तपस्या का पर्याय बना। महीयसी श्री सीताजी के उक्त पावन चरित्र से अभिभूत होकर बीसवीं शताब्दी के योद्धा संन्यासी और भारत के जनमानस को सबसे अधिक आलोकित करने वाले स्वामी विवेकानंद ने कहा, ‘सीता के विषय में क्या कहा जाए। तुम संसार के पूरे प्राचीन साहित्य को छान डालो, मैं तुमसे नि:संकोच भाव से कहता हूं, तुम संसार के भावी साहित्य का भी मंथन कर सकते हो, परंतु उसमें भी तुम सीता के समान दूसरा चरित्र नहीं निकाल सकोगे। सीता चरित्र अद्वितीय है। यह चरित्र सदा के लिए एक ही बार चित्रित हुआ है, दुबारा कभी न हुआ है और न कभी होगा।’

श्री सीताजी का चरित्र वास्तव में भारतीय नारी की दिव्यता और गरिमा का प्रतीक है। स्वामी विवेकानंद ने जिस दिव्य और जगद्गुरु भारत का स्वप्न देखा था, उसके मूल में भारतीय नारियों का तेजस्वी और तपस्वी व्यक्तित्व ही जो समाज निर्माण में मुख्य भूमिका अदा कर सकता है। विवेकानंद जी का मानना था कि जिस जाति ने सीता जैसी महीयसी को जन्म दिया- चाहे वह उसकी कल्पना ही क्यो न हो, नारी के प्रति उसका आदर और श्रद्धा संसार में अपूर्व है। स्वामीजी का यह दृढ़ मत था कि ‘भारतीय स्त्रियों को जैसा होना चाहिए सीता उसका आदर्श हैं। स्त्री चरित्र के जितने भारतीय आदर्श हैं, वे सब सीता के ही चरित्र से ही उत्पन्न हुए हैं और वे हजारों वर्षों से संपूर्ण आर्यावर्त के स्त्री-पुरुषों बालकों द्वारा पूजी जा रही हैं। महिमामयी सीता, स्वयं पवित्रता से भी पवित्र, धैर्य तथा सहनशीलता की सर्वोच्च आदर्श-सती, सीता सदा इसी भाव से पूजी जाएंगी, जिन्होंने अविचलित भाव से ऐसा महा दु:खमय जीवन व्यतीत किया, वे ही नित्य साध्वी, सदा शुद्ध स्वभाव सीता, आदर्श पत्नी सीता, मनुष्य लोक की आदर्श, देवलोक की भी आदर्श नारी, पुण्य चरित्र सीता-सदा हमारी राष्ट्रीय देवी बनी रहेंगी। भारतीय नारियों को सीता के चरण चिन्हों का अनुसरण कर अपनी उन्नति की चेष्टा करनी होगी, यही एकमात्र पथ है।’
श्री रामचरित महाकाव्य में श्री सीता केंद्र बिंदु हैं और उनके ही इर्द-गिर्द राम कथा का पूरा कथ्य घूमता है और महाकवि वाल्मीकि एवं संत तुलसीदास जी उसका वर्णन करके धन्य होते हैं। श्री राम चरित्र में सीता के अतिरिक्त लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न की पत्नियों का भी उल्लेख मिलता है, जिनके नाम क्रमश: उर्मिला, माण्डवी तथा श्रुतिकीर्ति था। ये तीनों कन्याएं भी परम सुंदरी गुणवान तथा असाधारण पतिव्रता विदुषी थीं। ये तीनों श्री सीताजी की छोटी बहिनें थीं। माण्डवी और श्रुतिकीर्ति राजा जनक के भाई कुशध्वज की कन्याएं थीं, जबकि उर्मिला राजा जनक जी की सुपुत्री थीं। जिस प्रकार लक्ष्मण एव भरत का श्री राम के प्रति अगाध प्रेम एवं श्रद्धा था, उसी प्रकार सीता के प्रति माण्डवी श्रुतिकीर्ति एवं उर्मिला का प्रेम था। ये चारों राजकुमारियों ने एक साथ एक ही मंडप में राजा दशरथ के पुत्रों के साथ पाणिग्रहण किया था। इन तीनों राजकुमारियों ने अपनी ब़डी बहन सीता के साथ राजा दशरथ के घर में अपने निस्वार्थ, सहनशीलता, विनम्रता, संयम, सेवा, सदाचार तथा सुशीलता आदि सद्गुणों से रघुवंश में अलौकिक आनंद की सृष्टि कर दी थी। पति के प्रति प्रेम और भक्ति, जेठ के प्रति श्रद्धा और आदर तथा देवर के प्रति उदारता तथा वात्सल्य इन सबके स्वाभाविक गुण थे। श्री राम कथा में जिस नारी पात्र के चरित्र पर किसी का ध्यान नही गया, वह थी लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला, जिसने अपने जीवन के स्वर्णिम जीवन वर्ष पति के अभाव में बिताए। श्री राम को वन की आज्ञा हुई थी, अत: लक्ष्मण ने उनके साथ जाने का निश्चय किया, किंतु उर्मिला को राजभवन में ही रहना पड़ा। यदि सीता की भांति वह भी अपने पति के साथ वन में जाकर रह पातीं तो उसे कुछ संतोष रहता, किंतु अपने पति के संकल्प तथा श्री राम सेवा के उद्देश्य को ध्यान में रखकर उर्मिला ने चौदह वर्ष तक एकाकी जीवन को प्रसन्नता के साथ स्वीकार कर लिया। उर्मिला का जीवन चरित सदा सदा के लिए अमर हो गया। इसी प्रकार का जीवन उनकी बहनों माण्डवी और श्रुतिकीर्ति ने भी बिताया। यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि सीताजी तो वनवास में चौदह वर्ष रामजी के साथ रहीं, किंतु उनकी तीनों बहनों- माण्डवी, श्रुतिकीर्ति तथा उर्मिला तो राजभवन में रह कर भी अपने पतियों का सामीप्य प्राप्त नहीं कर सकी थीं। क्योंकि भरत और शत्रुघ्न भी राजभवन में नहीं रहते थे, बल्कि नंदीग्राम में श्रीराम चरण की पादुका की सेवा करते हुए वहीं से शासन कार्य चलाते थे। इस प्रकार रामायण में राजा दशरथ की चारों पुत्र-वधुओं ने चौदह वर्ष तक त्यागमय और तपस्या का जीवन व्यतीत किया।

रामायण की एक और विशेषता यह है कि इसमें वर्णित सभी नारी पात्र चाहे वह मानव हों या दानव का चरित्र स्तुत्य है। रावण की पत्नी महारानी मंदोदरी तथा मेघनाद की पत्नी सुलोचना का चरित्र भी किसी से कम नही था। महारानी मंदोदरी को अपने पति रावण के प्रति पूर्ण समर्पण भाव था, किंतु वे सदैव अपने पति को आगाह करती रहती थी। रावण जब श्री सीताजी को हरण करके लाया था, तब भी मंदोदरी ने कई बार चेतावनी देकर सीता को वापस करने तथा श्री राम के साथ संधि करने के लिए रावण को समझाया था। इसी प्रकार से मेघनाद की पत्नी सुलोचना भी पतिव्रत्य धर्म की श्रेष्ठ उदाहरण के रूप में स्वीकार की गई हैं।

इसी प्रकार से रामायण में महीयसी अहिल्या, अनुसुइया तथा शबरी के प्रसंग मिलते हैं। विश्वामित्र जब श्री राम-लक्ष्मण को यज्ञ रक्षार्थ महाराजा दशरथ से मांग कर वन में ले गए थे, वहां श्री राम लक्ष्मण ने ताड़का, सुबाहु आदि राक्षसों का वध किया, ब्राह्मणों, ऋषियों, मुनियों को अभय प्रदान किया; तब जनकपुर में धनुष यज्ञ का समाचार प्राप्त कर वे मुनि विश्वमित्र के साथ मिथिला नगरी की ओर बढ़े थे। मार्ग में एक निर्जन आश्रम मिला वहां गौतम मुनि की स्त्री अहिल्या शापवश पत्थर जैसी होकर वहां रहती थी। श्री राम ने अपना स्पर्श प्रदान कर उसमें फिर से चैतन्य भर दिया। यह अहिल्या अपने पति गौतम मुनि द्वारा परित्यक्त थीं, किंतु वह तपस्विनी थीं और अपनी तपस्या से उन्होंने समस्त स्त्री जाति को गौरवान्वित किया।
श्री राम के वनप्रवास के समय शबरी तथा अनुसुइया के चरित्र के भी दर्शन होते हैं, जिनसे स्वयं श्री सीता जी ने ज्ञान प्राप्त किया। अनुसुइया जी परम विदुषी थीं। शबरी भक्तिमति थीं। उन्होंने अपने प्रेम और स्नेह से श्रीराम को आनंद प्रदान किया। रामायण के ये सभी नारी पात्र आदर्श के अधिष्ठान हैं, जिनसे हिंदू समाज सदैव प्रेरणा लेता रहेगा।

रामायण संपूर्ण मानवता की ऐसी अद्भुत सांस्कृतिक धरोहर है, जिसमें मानवीय चरित्रों, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, उसके सर्वोच्च आदर्शों को स्थापित किया गया है, जिसका अनुसरण और अनुकरण हमें श्रेष्ठ मानव बनाता हैं। अत: रामायण का पठन, मनन, गायन हिंदू समाज को आज भी रास्ता दिखा रहा है। आज जब स्त्री सशक्तिकरण और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में महिला आरक्षण की बात कही जा रही है, हमें रामायण के पृष्ठों को पलटना होगा जिसमे हमें समाज निर्माता में स्त्रियों के अवदान और योगदान का पता चलता है। समाज निर्माण में स्त्रियों की भूमिका और विशेष रूप से भारत की श्रेष्ठ सांस्कृतिक और सामाजिक व्यवस्था में स्त्रियों के योगदान का गहन अध्ययन करने के पश्चात स्वामी विवेकानंद की शिष्या आयरिश महिला मार्गरेट नोबल (भगिनी निवेदिता) ने कहा, ‘भारत महान स्त्रियों का देश है। स्त्रियों की महानता के मामले में यहां की स्त्रियां उच्चतम स्थिति पर अवस्थित हैं। इतिहास का, साहित्य का कोई भी ग्रंथ देखिए, कोई भी पृष्ठ पलटिए, किसी भी कालखंड में नजर डालिए, प्रत्येक पृष्ठ पर, प्रत्येक कालखंड में किसी न किसी महान स्त्री की कहानी, उसकी वीरता उनकी पवित्रता नजर आती है, उन महान महिलाओं के सामर्थ्य और उनकी शक्ति से इस देश की पहचान बनी है और इसकी गौरवमयी संस्कृति अभी तक अक्षुण्ण है। अत: भारत के भावी युग में भी इस देश की महिलाओं की निश्चित भूमिका होगी। अत: स्वामी विवेकानंद के शब्दो में-

भारत के भावी पूतों की गूंजे तुम में वाणी।
मित्र, सेविका और बनो तुम मंगलमय कल्याणी॥
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