अनंत स्वरूपा मां

इस विश्व में नारी के अनेक रूप हैं। कभी वह पत्नी है, कभी बेटी है। कभी बहन है, कभी भाभी है। इन सभी रूपों में सब से पूजनीय रूप है मां का। मां की महिमा व्यक्त करते समय अपने शास्त्रों, धर्म और नीति के ग्रंथों ने कोई कंजूसी नहीं की है। भारत में जननी को जनक से श्रेष्ठ माना गया है। ईश्वरी शक्ति की सभी भावनाएं ‘मां’ इस एक शब्द में समाविष्ट हैं। ईश्वर को भी इस पृथ्वी पर जन्म लेना हो तो मां की कोख में नौ माह बिताने पड़ते हैं। नारी के बिना इस पृथ्वी पर आने का कोई द्वार नहीं है। नारी की वत्सलता प्राप्त किए बिना कोई इस पृथ्वी पर नहीं आ सकता। नारी संसार की संस्कृति की जननी है। नारी पूरे विश्व में पहली प्राथमिक शाला है। वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, गीता, कुरान, बायबल लिखने वालों को मां ने ही सुसंस्कृत किया है।

स्त्री की कोख में अंकुर पनपने के साथ ही बच्चे का भावनात्मक नाता मां से जुड़ता है। मातृत्व की भावना से वह तृप्त होती है। बच्चे की दुनिया भी मां से आरंभ होती है। रोने वाला शिशु मां की गोद में आते ही शांत हो जाता है। अपने ममताभरे स्पर्श से वह बच्चे में आत्मविश्वास जगाती है। मां स्नेह, ममता और मौका पड़ने पर जीवन में संघर्ष करने का माद्दा बच्चे में निर्माण करती है। सम्पूर्ण जीवसृष्टि पर गौर करें तो ध्यान में आएगा कि मादा ही नावीण्य का सृजन करती है। स्त्री के कारण ही इस धरातल पर राम-कृष्ण जैसे कर्तव्य-परायण, महावीर-बुद्ध जैसे शांति दूत, राणा प्रताप-शिवाजी जैसे महापराक्रमी, भगतसिंह-सावरकर जैसे राष्ट्रभक्त निर्माण हो सके। इन्हें या इनके जैसे हजारों पुत्रों को उनकी माताओं ने जीवन की शिक्षा-दीक्षा दी, वात्सल्य और संस्कारों से परिपूरित किया। इसी कारण ऐसे लोग महानता की ऊंचाइयां छू सके। इस पृथ्वी की निर्मिति से आज तक सृष्टि के विकासक्रम में ‘मां’ के ममत्व का मौलिक योगदान रहा है।

इसके बावजूद ‘केवल जन्म देने वाली स्त्री यानि मां’ जैसी मां की परिभाषा अधूरी लगती है। जो बच्चों का वत्सलता से लालन-पालन करती है और उन्हें सक्षम बनाती है वह ‘मां रूप’ भी उतना ही महत्वपूर्ण है। इसी कारण कृष्ण को लालन-पालन करने वाली यशोदा, अनाथ बच्चों को सेवा देकर लालन-पालन करने वाली साध्वी ॠतुंबरा, सिंधुताई सपकाल जैसी माताओं को भी मातृस्वरूप ही माना गया है। हमें जन्म देने वाली ‘देहमाता’, अपने पौष्टिक दूध से पोषण देने वाली ‘गोमाता’ और अपने जीवनरस से पोषण करने वाली ‘भूमाता’! इस तरह माता के विविध रूप हम मानते हैं। ‘मां’ विशेषांक का काम करते समय व्यक्ति के जीवन प्रवाह में समाहित स्त्री के असंख्य रूप अनुभव हुए। प्रत्येक रूप में मां का नवसृजन का स्वाभाविक यथार्थ पाया। ‘मां’ के कई रूपों और रिश्तों की पहचान हुई। पुराणों से लेकर इतिहास तक और इतिहास से लेकर आज के आधुनिक युग तक ‘मां रूप’ एक जैसा ही महसूस हुआ। बदलती जीवन शैली में माता के रूप बदले। उसका पहनावा बदला। फिर भी मां का हृदय, मां का दूध, उसकी ममता, उसका अपनापन, उसकी छटपटाहट और बच्चों के जीवन में प्रकाश फैलाने के लिए समईत जैसे जलते रहना नहीं बदला है और वैसा ही है जैसा सृष्टि के आरंभ में था।

जैसा कि आरंभ में कह चुके हैं, नारी के अनेक रूप हैं। वह मातृ स्वरूपा हैं ऐसा हम मानते हैं। लेकिन, वर्तमान में मातृ स्वरूप महिला को क्या समाज के सभी स्तरों में सम्मान मिलता है? दुर्योधन, दुःशासन ने जिस तरह द्रौपदी को और रावण ने जिस तरह सीता को अपमानित किया उस तरह स्त्री को अपमानित करने के प्रयत्न विभिन्न स्तरों पर होते हम देख रहे हैं। मातृ स्वरूप स्त्री का जिस समाज में सम्मान होता है उस समाज की उन्नति होती है। जो समाज स्त्री को हीन-दीन मानता है, उपभोग्य और अपहरणीय मानता है उस समाज का सर्वनाश होता है। स्त्री मात्र स्त्री ही नहीं, वह एक शक्तिपीठ है। इसे जानने में ही हमारा हित है। इसका विस्मरण होने पर व्यक्ति, समाज, राष्ट्र ही नहीं अपितु पूरी मानवता के विनाश के बीज उसमें बोये जाते हैं। माता स्वरूप स्त्री को अपमानित करने के कारण ही प्रकाण्ड विद्वान और प्रचण्ड सामर्थ्य रखने वाला रावण हो या दुर्योधन, दुःशासन, अपने परिवार के नाश के कारण बनते हैं। इसी कारण इस अनादी-अनंत मातृ स्वरूप शक्तिपीठ का सामर्थ्य पहचान कर उसकी पवित्रता बनाए रखना, उसका यथोचित सम्मान करना हमारा व्यक्तिगत व सामूहिक जीवन सुखकर बनाने का साधन है।

‘मां’ यह विषय ही सर्वव्यापी है। उस पर विशेषांक निकालना सागर को गागर में भरने जैसा है। मां के बारे में मान्यवरों के लेख- विचार संकलित कर विशेषांक रूपी स्नेह के धागे में पिरोने का प्रयास किया गया है। इन प्रयासों से एक सुंदर मातृरूपी पुष्पों की माला बनाने और हमारे पाठकों तक पहुंचाने की भावना से ‘मां विशेषांक’ का कार्य हुआ है।

भारत तथा विश्व में मां की जो श्रेष्ठता है उसे सुधि पाठकों के समक्ष रखने का हमने प्रयास किया है। इसमें समर्पण है, संस्कार हैं और संवेदना है, सहनशीलता है और मोम से भी मुलायम तथा कठिन प्रसंग में वज्र से भी कठिन होने वाली मां का भी दर्शन है। हम बच्चों से बिना किसी अपेक्षा के अब तक जिसने हमें केवल दान ही दिया उस मां के ॠण से मुक्त होने का यह छोटा सा प्रयास है।
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