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तीन माताएं

तीन माताएं

by तृप्ति गोकर्ण
in मई -२०१४, सामाजिक
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एक बात अक्सर बताई जाती है। ईश्वर ने यह सुंदर विश्व निर्माण किया है। पेड़-पौधें, पशु-पक्षी, पहाड़-खाइयां, नदी-घाटियां, समुंदर आदि आदि सब कुछ। लेकिन ईश्वर की सब से सुंदर निर्मिति है- मनुष्य! ईश्वर कहां-कहां जाकर चिंता वहन करेगा? इसलिए ईश्वर ने चिंता वहन करने के लिए, प्रेम देने के लिए निर्माण की- मां!! इसलिए मां ही हमारे बीच का ईश्वर है!
मां के बारे में अब तक हमने कितना तो पढ़ा होगा। कई कवियों ने मां की महानता गाई है। लेखकों ने गाथाएं रची हैं। लेकिन हम कितना भी प़ढ़े या सुने तब भी कम ही लगता है। हर बार मां नए रूप में मिलती है। ‘मां’ सब का अपनेपन का विषय है। मां याने मूर्तिमंत प्रेम और ममता का प्रतीक। मां और बच्चे की नाल का रिश्ता इतना गहरा होता है कि कांटा बच्चे को चूभे लेकिन मां की आंखों में आंसू छलक जाते हैं। उसकी ममता का अभेद्य कवच बच्चे के आसपास होता है।

यं मातापितरौ क्लेशं सहेते संभवे नृणाम्।
न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि॥

बच्चे को जन्म देते समय माता-पिता जो कष्ट सहते हैं उससे सैकड़ों वर्ष से उॠण होना संभव नहीं है। मातृ-ॠण का स्मरण रखने वाले लोग इर्तिहास में अमर हो गए। इसका सब से अच्छा उदाहरण साने गुरुजी और उनकी मां हैं। इसलिए वे ‘श्यामची आई’ (श्याम की मां) जैसा ममताभरा भावविभोर कर देने वाला उपन्यास लिख सके। उनका मातृप्रेम अलौकिक था। आचार्य अत्रे कहते थे, साने गुरुजी ने मातृप्रेम का महामंगल स्त्रोत्र अपने आंसुओं से लिखा है।

कहा जाता है कि साने गुरुजी जेल में रहते समय तीन माताओं के विचार में रत हो जाते थे- जगन्माता, भारत माता और जन्मदात्री माता। यह मानो मातृप्रेम का त्रिवेणी संगम ही था।

यह विश्व निर्माण करने वाली जगन्माता याने जगत् जननी जगदम्बा। वे आदिशक्ति हैं। वे विविध रूपों में चराचर में वास करती है। यह विश्वजननी मां का ही रूप है।
जिस देश में हमारा जन्म हुआ वह भूमि अपनी मां अर्थात मातृभूमि है। मां का यह एक और रूप है। प्राचीन काल से लेकर आज तक असंख्य सुपुत्र और सुकन्या इस भारत माता को मिले इस पर हमें गर्व होना चाहिए। स्वाधीनता संघर्ष में अनगिनत वीरों ने मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। रामायण में रावण का वध करने के बाद श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा-

अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥

अर्थात लंका सोने की होने पर भी मुझे प्रिय नहीं है। क्योंकि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है।
आज हमारी मातृभूमि पर बाहरी आक्रमण तो हैं ही, घर के भेदी भी हैं। इस मां की सेवा व रक्षा किस तरह करें इस पर हम सभी को सोचना चाहिए।

जन्मदाता मां सही अर्थ में मनुष्य निर्माण करती है। वह मातृशक्ति है। प्रेरणादायी है। स्वराज्य की स्थापना करने की प्रेरणा शिवछत्रपति को उनकी मां जीजाबाई से ही मिली। वह मां महान है जिसने ऐसे द्रष्टा वीर को जन्म दिया। मनुष्य कितना भी महान हो परंतु अपने श्रेय को माता के चरणों में ही अर्पित करता है। शंकराचार्य, विवेकानंद जैसे लोगों की माताएं ऐसे पुत्रों को जन्म देकर धन्य हो गईं और वे पुत्र जगत् कल्याण का कार्य कर अपने मातृॠण से उॠण हुए।
मां को उसका बच्चा कैसा भी हो परंतु प्राण से भी प्रिय होता है। बच्चे के बारे में उसके मन में प्रेम, ममता, दया, करुणा ही प्रसृत होते रहती है। इसलिए शंकराचार्य कहते हैं-

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।

मां याने त्याग की प्रतिमूर्ति। बच्चे के लिए किसी भी तरह का त्याग करने के लिए वह पीछे नहीं हटती। बच्चों पर संस्कार समाज, स्कूल व घर से होता है। बच्चे की पहली अध्यापिका मां ही होती है। घर में माता-पिता का, उसमें भी मां का प्रभाव बहुत होता है। कभी नाराज होकर तो कभी अनुरागी बनकर मां बच्चे में नीति मूल्यों के बीज डालने का काम अविरत करती रहती है। बच्चे का मन सुसंस्कारित करते होती है। एक तरह से वह संस्कृति की ही रक्षा करती है।

अब समय की मांग के कारण आधुनिक मां अर्थार्जन के लिए घर से बाहर निकली है। बच्चे के लालन-पालन के लिए वे जान लगा देती है। घर और नौकरी सम्हालने में उसकी कसरत होती है। लेकिन क्या करें बेचारी? विभक्त परिवार प्रणाली के कारण पलना-घर की मदद लेनी होती है। बच्चों को आवश्यक समय न दे पाने का दुख उसे होता है। आर्थिक सुगमता के कारण बच्चों की जिद पूरी करने पर उसका ध्यान होता है। शायद लाड़-प्यार न देने के कारण वह ऐसा करती होगी।

आचार्य विनोबा भावे परम मातृभक्त थे। मां संस्कृत में लिखी गीता नहीं पढ़ सकती इसलिए उन्होंने मराठी में ‘गीताई’ लिखी। वे कहते थे, ‘मां के साथ जिस आत्मीयता से बातें करता था उसी आत्मीयता से मैं गीता से भी बातें करता हूं। मां मुझे गीता की गोद में छोड़कर चली गई। मां गीता मैं आपके ही दूध पर अब तक पाला-पोसा गया हूं और आगे भी आपका ही सहारा है।’ संत ज्ञानेश्वर पंढरपुर के विठोबा को ‘विठाई माऊली’ (मां विठोबा) कहते थे। वारकरी सम्प्रदाय के सभी वारकरी ज्ञानेश्वर को ‘माऊली’ (माता) कहते हैं। मराठी भाषा पर प्रेम करने वाले सभी उसे ‘माय मराठी’ (मां मराठी) कहते हैं। भूमि जोतने वाला किसान खेत को ‘काली मां’ कहता है। मां के कितने रूप! इस तरह के सभी रूपों के प्रति हम कृतज्ञता से नतमस्तक हों।
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