भारतीय संगीत में वाद्य

गीतं,वाद्यं तथा नृत्यं, त्रयं संगीत मुच्यते।

गायन, वादन तथा नृत्य तीनों का समन्वित रूप संगीत है। भारतीय संगीत का रूप बहुत वृहद् है। संगीत की अनेक शाखाएं हैं। मुख्य रूप से इसे हम शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, सुगम संगीत, वादन, नृत्य आदि रूप में विभक्त कर सकते हैं। यह विभाजन की परंपरा प्राचीन समय से चली आ रही है। प्राचीन समय में ये शाखाएं गांधर्व और गान नाम से प्रचलित थीं। कालांतर में यही मार्गी और देशी नाम से पहचानी जाने लगीं। आधुनिक समय में यही शास्त्रीय और सुगम संगीत के नाम से विख्यात हैं।
संगीत का आरंभ गायन से हुआ ऐसा हम मान सकते हैं। मानव जाति की उत्पत्ति के पश्चात संगीत का भी जन्म हुआ होगा। मानव जाति की सामाजिक, सांस्कृतिक और विभिन्न परम्पराओं के साथ ही संगीत का भी विकास होता चला गया होगा। मानव जाति अपना हर्ष, उल्लास व्यक्त करने के लिए संगीत का प्रयोग, उपयोग अनादि काल से करती चली आ रही है। मानव जाति का गुण है कि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं करती है। यही गुण संगीत के लिए भी लाभदायी हुआ। प्राचीन काल से आधुनिक काल के सांगीतिक विकास के क्रम को देखने से यह स्पष्टतः परिलक्षित होगा।

प्राचीन सांगीतिक ग्रंथों के अध्ययन से पता चलता है कि मानव ने संगीत का आरंभ गायन से किया होगा। गायन के साथ जब उसे साथ संगत की कमी लगने लगी होगी तब उसने वाद्यों का निर्माण किया होगा। वाद्यों के निर्माण में भी संगत वाद्य, ताल वाद्य, समूह में बजाने वाले वाद्य, पारम्परिक वाद्य आदि प्रकार के वाद्यों को यथा संभव और आवश्यकतानुसार निर्मित करता चला गया होगा। तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप वाद्यों का निर्माण किया होगा।

अब प्रश्न यह आता है कि आखिर वाद्यों के निर्माण की ऐसी आवश्यकता क्यों हुई? संगीत के मूल तत्व स्वर और लय ये दोनों हैं। संगीतज्ञ इन दो तत्वों द्वारा बिना किसी की सहायता से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने की क्षमता रखता है। परंतु मानव जाति ने यह अनुभव किया होगा कि इसमें रंजकता, अभिव्यंजना का समावेश करना है तो किसी न किसी माध्यम को लेना नितांत आवश्यक है और यही आवश्यकता वाद्यों के प्रादुर्भाव का कारण बनी होगी। ऐसा प्रतीत होता है कि गायन में प्रयुक्त काव्य का संयोग इसे सार्वभौमिक बनाता है। जब इसमें शब्दों का महत्व घट जाता है तब वह शास्त्रीय संगीत और जब शब्दों का महत्व बढ़ जाता है तब वह सरल या सुगम संगीत कहलाता है। इन दोनों प्रकार की परिस्थितियों के निर्मित होने से इनमें प्रयुक्त वाद्यों के प्रकार भी अलग हो जाते हैं और इसीलिए अलग-अलग प्रकार के वाद्यों का प्रादुर्भाव हुआ होगा।

संगीत के तीनों आधार- गायन, वादन और नृत्य- संगीत के मूल तत्व स्वर और लय पर निर्भर होते हैं। अब गायन तथा नृत्य ये दोनों माध्यम ऐसे हैं जो बिना किसी वादन की सहायता से रंजकता पैदा कर ही नहीं सकते और संगीत का सबसे बड़ा गुण रंजकता प्रदान करना ही है। इसके अभाव में गायन एवं नृत्य दोनों ही कलाएं शून्य हो जाती हैं। इसलिए इन दोनों ही कलाओं की प्रस्तुति के लिए स्वर वाद्य एवं ताल वाद्य की आवश्यकता अत्यंत महत्वपूर्ण है।

जब कोई गायक गायन प्रस्तुत करता है तब इसमें प्रयुक्त शब्दों की महत्ता बढ़ जाती है। जब इसके साथ वाद्यों का प्रयोग होता है वह इनके भावार्थ को वहन करने में सहायक होता है। इस प्रकार का संगीत जब प्रस्तुत होता है तो रंजकता अधिक होती है। यही कारण है कि ऐसा संगीत मंत्रमुग्ध कर देता है। इसके विपरीत यदि वाद्यों की संगत न हो तो शब्दों का महत्व, उनका भावार्थ, इसकी रंजकता का आभास ही नहीं होता और फिर ऐसा संगीत नीरस सा लगाने लगता है। वाद्यों की संगती गायन में प्रयुक्त काव्य के भावों को विस्तृतता प्रदान करती है। इसके अभाव में गायक को उसके उच्च स्थान से गिरना भी पड़ सकता है और फिर ऐसी स्थिति में वाद्यों की संगत ही उसे उच्चतम शिखर पर पहुंचाने में सहायक होती है। संगीत की श्रेष्ठता की दृष्टि से गायन में इस प्रकार की जो कमी दिखाई पड़ती है, वह वाद्य संगीत में नहीं है। संगीत के तत्वों की दृष्टि से वाद्य संगीत में इस प्रकार की न तो कोई कमी आती है, न गिरावट आती है और न ही मिलावट होती है। यही कारण है कि वाद्य की श्रेष्ठता और महत्ता बढ़ जाती है।

अब हम किसी नृत्य कलाकार की बात करें। किसी भी नृत्य कलाकार को वाद्य का सहयोग तो नितांत आवश्यक हो जाता है। इतना ही नहीं उसे तो गायन के सहयोग की भी आवश्यकता रहती है। बिना गायन और वादन के उसका नृत्य प्रस्तुतीकरण निर्जीव सा प्रतीत होता है। यह बात केवल शास्त्रीय नृत्य के लिए नहीं अपितु किसी भी प्रकार के नृत्य के लिए उपयोगी है। गायन, नृत्य के साथ-साथ नाट्य कला के लिए भी वाद्य संगीत का होना आवश्यक होता है। यदि वाद्य संगीत का प्रयोग, सहयोग नाट्य विधा में न हो तो नाटक में रंजकता ही नहीं रहती। गायन, नृत्य और नाट्यकला में वाद्यों की संगत उसमें भाव, रस, रंजकता, आनंद, उल्लास की अनुभूति प्रदान करती है।

वाद्यों के प्रयोग के विधान के संबंध में संगीत के आदि आचार्य भरत ने अपने ग्रंथ नाट्यशास्त्र में लिखा है-

उत्सवे चैव याने च नृपाणां मंगलेषु च ।
शुभकल्याणयोगे च विवाह करणे तथा ॥18॥
ऊत्पाते संभ्रवे चैव संग्रामें पुत्रजन्मनि ॥
ईदृशेषु ही कार्येषु सर्वातोद्यानी वादयेत् ॥19 ॥
स्वभावगृहवार्तायामल्पभांण्डं प्रयोजयेत् ॥
उत्थानकार्य (व्य) बंधेषु सर्वातोद्यानी वादयेत् ॥20॥
अंगानां तु समत्वाच्च छिद्रप्रच्छादने तथा ।
विश्रामहेतो: शोभार्थं भाण्डवाद्यं विनिर्मितम् ॥21॥
भरत नाट्यशास्त्र , अध्याय 34
(संदर्भः भारतीय संगीत वाद्य, डॉ. लालमणि मिश्र)

वाद्यों की उपयोगिता एवं महत्व के संबंध में हम देख रहे है कि कुछ वाद्य, स्वर वाद्य (तानपूरा, एकतारा ), ताल वाद्य (तबला, पखावज, मृदंग, ढोलक आदि ), संगत वाद्य (सारंगी, वायोलिन, हारमोनियम आदि) हैं। कुछ ऐसे वाद्य हैं जो संगत के काम भी आते हैं और स्वतंत्र वादन के लिए भी उपयोगी हैं जैसे सितार, सरोद, वीणा, सुरबहार, बांसुरी, इसराज, दिलरुबा आदि। कुछ वाद्यों को प्रतीकात्मक एवं विशेष प्रयोजनों से भी जोड़ा गया है,जैसे मांगलिक कार्यों के लिए शहनाई, पूजा धार्मिक अनुष्ठानों के लिए शंख, घंटा, मंजीरा, करताल आदि। युद्ध क्षेत्र के लिए दुंदुभि, धोंसा, नगाड़ा, तबला, तुतारी आदि। इन विशिष्ट वाद्यों की ध्वनि सुनकर हमें स्थिति का आभास हो जाता है, यह वाद्यों की विशेषता है।

वाद्यों को सबसे महत्वपूर्ण एवं उपयोगी बनाने वाला कार्य है संगीत में उनका सहयोग। यदि वाद्य न होते तो संगीत नहीं होता, यह कहने में कोई अतिशयोक्ति न होगी। भारतीय संगीत में स्वरों के विश्लेषण के लिए प्रत्येक गायक को किसी न किसी वाद्य का सहारा लेना ही पड़ता है, प्रत्येक नर्तक को वाद्य का सहारा लेना पड़ता है। इतना ही नहीं तो प्राचीन संगीतज्ञों ने भी सांगीतिक श्रुतियों के प्रत्यक्षीकरण के लिए दो वीणाओं का सहारा लिया तथा श्रुतियों को प्रमाणित किया। तात्पर्य यह है कि संगीत संबंधी किसी भी विश्लेषणात्मक कार्य की प्रस्तुति एवं प्रमाणीकरण के लिए वाद्यों की नितांत आवश्यकता होती है।

उपरोक्त सभी दृष्टांतों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि संगीत के मूल तत्व (स्वर एवं लय) की दृष्टि से, स्वतंत्र या एकल कला की दृष्टि से, दूसरी कलाओं में रंजकता प्रदान करने की दृष्टि से, प्रतीकात्मकता की दृष्टि से, स्वरों के प्रत्यक्षीकरण एवं प्रमाणीकरण की दृष्टि से वाद्यों की उपयोगिता एवं महत्व जितना व्यापक, महत्वपूर्ण है, उतना शायद किसी कला का नहीं है।

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