मजब्ाूत विपक्ष की आवश्यकता

सोलहवीं लोकसभाके चुनाव में हारी हुई राजनीतिक पार्टियों की कुंठा और अवसाद के अब कुछ कम होने की आशा हम सब कर सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस चुनाव ने इतिहास रचा है। सन 1984 में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को भारी बहुमत प्राप्त हुआ था। उसके 30 बरस बाद अब भाजपा को अपने बलबूते सत्ता प्राप्त हुई है। आज की सत्ताधारी मोदी सरकार सही मायने में ‘बगैर कांग्रेसी सरकार’ है। इसके पूर्व केंद्र में पहली ‘बगैर कांग्रेसी सरकार’ मार्च 1977 में जनता दल की सरकार थी। लेकिन इस सरकार में से लगभग सभी विशेष विभागों के मंत्री पूर्व कांग्रेसी ही थे। खुद प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की सारी जिंदगी कांग्रेस में ही बीती थी। दूसरी ‘बगैर कांग्रेसी सरकार’ थी सन 1989 की वी. पी. सिंह सरकार। वी.पी. सिंह ने भी अपनी जिंदगी कांग्रेस में ही बिताई थी। इसलिए ये दोनों सरकारें सही मायने में ‘बगैर कांग्रेसी सरकारें’ थीं, ऐसा कहा नहीं जा सकता।

उसके पश्चात सन 1996 से 1998 तक केंद्र में सत्ताधीश थी संयुक्त मोर्चे की सरकार। वैसे तो यह एक मोर्चे की बनी सरकार थी। और तो और इसमें भी कई पूर्व कांग्रेसी नेता थे। इनमें से दूसरे प्रधानमंत्री स्व. इंदर कुमार गुजराल स्वयं नेहरुवादी थे। उसके बाद सन 1998 से 1999 और 1999 से 2004 तक सत्ताधारी बनी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार। इसमें भाजपा के 182 सांसद थे, फिर भी भाजपा कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों की तिलांजलि देने पर बाध्य हुई। नमूने के तौर पर ‘समान नागरी कानून’ अथवा कश्मीर संबंध में विवादग्रस्त धारा 370 आदि को बगल में पर रखना प़डा। ठीक इन्हीं बातों पर मोदीजी प्रशंसा के पात्र हैं। उनके नेतृत्व में भाजपा ने अपने ही बलबूते केंद्र में सत्ता प्राप्त की है।

इस चुनाव में भाजपा ने भले ही अकेले भारी बहुमत प्राप्त किया हो, फिर भी भाजपा को राष्ट्रीय जनतांत्रिक दल में सम्मिलित सहयोगी दलों का विस्मरण नहीं हुआ। मोदीजी ने हर एक सहयोगी दल को अपने मंत्रिमंडल में उचित स्थान बहाल किया है। पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऐसा ही कुछ किया करती थी। सन 1977 से लगभग 34 वर्ष उस राज्य में सत्ताधारी रही वाम मोर्चा की सबसे ब़डी पार्टी माकपा थी। माकपा विधानसभा चुनावों में कई बार ऊंची सफलता पाती थी और खुद अपने विजयी विधायकोंके बलब्ाूते सरकार बनाने में सक्षम होते हुए भी माकपा ने वाम मोर्चे के सहयोगी दलों के जीते हुए विधायकों को मंत्रिमंडल में जगह दी थी।

मोदीजी ने भी इसी ढंग की सर्वसमावेशक राजनीति अपनाई है, ऐसा कहा जा सकता है। तभी तो शिवसेना, अकाली दल आदि दलों के सांसदों को भी मोदी ने अपनी कैबिनेट मेंजगह दी है।

लेकिन, ऐसा सर्वसमावेशक चित्र आज की लोकसभा की ओर देखते, दिखाई नहीं दे रहा। विद्यमान लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की संख्या काफी कम है। सोलहवीं लोकसभा में मुस्लिम सांसद इने-गिने 23 ही हैं। भारत में मुस्लिम समाज की जनसंख्या लगभग 20 करो़ड है। इससे पहले की लोकसभाओं का चित्र इससे कहीं भिन्न था, ऐसा नहीं कहा जा सकता। सन 1980 की लोकसभा में 49 मुस्लिम सांसद थे। उसके बाद उनकी संख्या घटती दिखाई दी। सन 1991 की लोकसभा में सिर्फ 25 मुस्लिम सांसद थे। सन 1999 में वे ब़ढकर 32 बने, तो सन 2004 में 35 हुए। सन 2009 की लोकसभा में यह संख्या घटकर 30 पर आ पहुंची। अब आज तो केवल 23 मुस्लिम सांसद हैं। इस संदर्भ में प्रतिशत पर सोचा जाना चाहिए। सन 1980 में लोकसभा में मुस्लिम सदस्य 9 प्रतिशत थे, तो देश की जनसंख्या में मुस्लिम समाज का प्रतिशत 11 था। आशय यही कि 11 प्रतिशत समाज को लोकसभा में 9 प्रतिशत प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ था। इन आंक़डों को 2014 की लोकसभा के संदर्भ देखा जाए तो इसकी गंभीरता का अहसास हो जाता है। आज की लोकसभा में मुस्लिम सांसद केवल 4 प्रतिशत हैं, तो भारत की कुल जनसंख्या में मुस्लिम समाज का प्रतिशत 13.4 है। यह स्थिति चिंतजनक है। इतने विशाल समुदाय का प्रतिनिधित्व इने-गिने 4 प्रतिशत, यह स्थिति उचित नहीं लगती। इस संदर्भ में क्या किया जाए, इसे लेकर तुरंत सोचा जाना चाहिए। इतने विशाल समुदाय का संसद में केवल 23 सांसद प्रतिनिधित्व करें, यह उचित नहीं लगता है।

हमारे समाज का दूसरा सामाजिक घटक है दलित समाज। इसमाज को भी विद्यमान लोकसभा में अधिक प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। इस समाज की स्वयं की पार्टी है उत्तर प्रदेश की बसपा। इसे कांशीराम ने सन 1984 में स्थापित किया था। पिछले कुछ सालों से सुश्री मायावती इसकी जिम्मेदारी संभाल रही हैं। इस पार्टी को स्वयं के प्रदेश अर्थात उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं मिली। ऐसी ही स्थिति रामविलास पासवान की पार्टी की भी है। उनकी पार्टी को भी बिहार में एक भी सीट नहीं मिली।
हालांकि दलितोम के लिये आरक्षित सीटों से दलित सांसद चुनकर आते हैं उनकी संख्या पक्की होती है। हमारे लोकतंत्र को अगर अधिक प्रगल्भ करना हो तो उन सीटों से भी दलित उम्मीदवार बडी संख्या में जीतने चाहिये जो आरक्षित नहीं है। सन 1998 में हुए लोकसभा चुनावों में चार दलित सांसद जीते गैर अरक्षित सीटों से जीते थे। उनमें से एक थे आरपीआई के रामदास आठवले। उन्होंने भाजपा के प्रमोद महाजन को हराया था। उस समय प्रमोद महाजन ने कहा था कि मैं भले ही हार गया हूं परंतु गैर आरक्षित सीटों से चार दलित उम्मीदवार जीते हैं इसका हमारी पार्टी को आनंद है। विद्यमान लोक सभा में ऐसा नहीं कहा जा सकता।

ऐसा ही एक समाज और है अन्य पिछडी जातियों का। इसे हम अंग्रेजी में ओबीसी कहते हैं। इस समाज की उत्तर भारत की पार्टी है मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी। इस पक्ष ने भी सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खडे किये थे। उत्तरप्रदेश में सत्तारूढ़ होने के बावजूद भी इसे केवल 5 ही सीटें मिली थीं। ओबीसी समाज को राजनीति क्षेत्र में आरक्षण नहीं यह बात भी अब ध्यान में आ गयी है।

मोदी विजय का दूसरा आयाम हैं, यह भी गौर करने लायक है। इसलिए कि लोकसभा चुनावों में विपक्षी दलों का, खासकर कांग्रेस का सफाया हुआ है। इस लोकसभाचुनाव की घोषणा के समय से ही कांग्रेस की हार के लक्षण दिखाई दे रहे थे। लेकिन कांग्रेस यहां तक नीचे गिरेगी, इसका अनुमान किसी को भी न था। आज की लोकसभा में कांग्रेस के इने-गिने 44 सांसद हैं। सन 2009 की लोकसभा में कांग्रेस के 205 सांसद थे। इसके मायने यही कि कांग्रेस को लगभग 150 स्थानों पर हार माननी प़डी। वर्तमान लोकसभा में दूसरे क्रमांक का विपक्षी दल है अण्णा द्रमुक, जिसके 39 सांसद चुने गए हैं।

विभिन्न विपक्षी दलों की इस अवस्था को देखते, यह साफ दिखाई दे रहा है कि मौजूदा लोकसभा में ‘अधिकृत विपक्षी दल’ होगा ही नहीं। ‘अधिकृत विपक्षी दल’ का दर्जा प्राप्त करने किसी भी राजनीतिक दल के लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के कम से कम दस प्रतिशत सदस्य निर्वाचित होने चाहिए। इसलिए वे कम से कम 56 होने चाहिए। ‘अधिकृत विपक्षी दल’ अगर होगा, तो उस दल के नेता को ‘अधिकृत विपक्षी नेता’ का दर्जा प्राप्त होता है। उस सदस्य को कैबिनेट मंत्री का दर्जा, उसके योग्य कार्यालय, वेतन तथा अन्य सुविधाएं उपलब्ध होती हैं। विशेष रूप से बहुत ही महत्त्वपूर्ण, खासकर गोपनीय स्वरूप के निर्णय करते समय उसे शामिल करना आवश्यक होता है। आज की हालत में किसी भी राजनीतिक दल को ऐसा दर्जा प्राप्त नहीं हुआ है, यह चिंताजनक है।

संसदीय जनतंत्र में विपक्षी दलों का महत्त्व होता है। अपने यहां द्विदल पद्धति चाहे न हो, तो भी संसदीय प्रणाली होने से अपने यहां भी अधिकृत विपक्षी दल का प्रावधान है। जनतांत्रिक शासन प्रणाली में अपनी यात्रा कुछ ही समय पहले शुरू कारने से, अपना जनतंत्र परिपक्व नहीं था। उसके परिणाम स्वरूप सन 1969 तक अपनी लोकसभा में विपक्षी दलों के होते हुए भी ‘अधिकृत विपक्षी दल नहीं था। जुलाई 1969 में कांग्रेस में जब, सीधी दरार प़डी, तभी पहली बार कांग्रेस (ओ) इस दल को ‘अधिकृत विपक्षी दल’ का दर्जा प्राप्त हुआ। इससे सन 1969 तक अपने देश का जनतंत्र कमजोर था, ऐसा नहीं कहा जा सकता। उस अवधि में विपक्षी दलों में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, डॉ. राम मनोहर लोहिया जैसे दिग्गज नेता थे। उनकी तोपें गरजने लगतीं तो लोकसभा में भारी बहुमत होते हुए भी कांग्रेस पसीना-पसीना हुआ करती थी। इस तथ्य के होते हुए भी अपने देश में सन 1969 तक ‘अधिकृत विपक्षी दल’ नहीं था, यह भी सही है।

अब सन 2014 में फिर वही हालत बनी हुई है। लोकसभा की कार्यप्रणाली के अनुसार कम से कम 10 प्रतिशत सांसद किसी दल के होने पर ही उस दल को लोकसभा में ‘अधिकृत विपक्षी दल’ का दर्जा प्राप्त होता है। आज की लोकसभा में सन 1885 में स्थापित कांग्रेस के इने-गिने 44 सदस्य हैं।

संसदीय शासन प्रणाली में दो शक्तिशाली दलों का होना जरूरी है। इंग्लैंड में ऐसी स्थिति है। वहां एक दल सत्तारू़ढ होता तो दूसरा विपक्षी दल होता है। गौर करने लायक तथ्य यह है कि वहां सत्ताधारी दल और विपक्षी दल की सदस्य संख्या में कुछ खास अंतर नहीं होता। वहां की संसद में मुकाबला लगभग दो समान ताकतवर राजनीतिक दलों के बीच होता है। उसमें आखिर चलकर जीत जनता की ही होती है। इसका कारण वहां रू़ढ बनी ‘शैडो कैबिनेट’ प्रणाली है। ‘शैडो कैबिनेट’ यानी वैकल्पिक मंत्रिमंडल। सत्ताधारी दल का कैबिनेट होता है, जिसमें गृहमंत्री, वित्तमंत्री आदि होते हैं। इसी प्रकार विपक्षी दल का प्रधानमंत्री होता है। कैबिनेट भी होता है, जिसमें वित्तमंत्री होते हैं, गृहमंत्री होते हैं। विपक्षी दल के कैबिनेट को ‘शैडो कैबिनेट’ कहा जाता है।

यह शैडो कैबिनेट जनता के समक्ष वैकल्पिक नीति रखता चलता है। नमूने के तौर पर सरकार का बजट आने पर तुरंत विपक्षी दल का बजट जनता के समक्ष पेश होता है। कितने ही महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को लेकर ऐसा ही कुछ होता है। आज यूरोेप में यूक्रेन की समस्या गूंज रही है। उस पर शैडो कैबिनेट का विदेश मंत्री विपक्षी दल की नीति घोषित करेगा। इसके फलस्वरूप वहां विपक्षी दल ‘जिम्मेदार विपक्षी दल’ की भूमिका निभाता है। अपने यहां अभी तक ऐसा कुछ हुआ नहीं है। अपने यहां आज भी कई प्रसंगों में ‘विरोध के लिए विरोध’ करने की ही मानसिकता दिखाई देती है।

ऐसी पृष्ठभूमि पर आज की लोकसभा का रूप कैसा हो, इसे देखना जरूरी है। भाजपा के अपने 282 सांसद, अन्य सहयोगी दल मिलकर राजद के कुल 336 सांसद। यह हुई सत्ताधारी गठबंधन की शक्ति। कांग्रेस के 44 और अण्णा द्रमुक के 39 सांसद हैं। मायावती के बसपा जैसे राष्ट्रीय दल का एक भी सांसद मौजूदा लोकसभा में नहीं है। सन 1984 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने जब 414 सीटों पर विजय हासिल की थी, तब राजीव गांधी का कहना था, ‘मैंने विपक्षी दलों को 10 प्लस 2 प्लस 3, इस ढंग से समाप्त किया। तब लोकसभा में जनता दल के 10 सांसद, भाजपा के 2 और समाजवादियों के 3 सांसद चुने गए थे। उसके 30 वर्ष बाद अब स्थिति में आमूलाग्र परिवर्तन हुआ है।

स्थिति में परिवर्तन होते हुए भी संसदीय शासन व्यवस्था की आवश्यकता में कुछ परिवर्तन नहीं हुआ है। इस शासन पद्धति में मजबूत विपक्षी दल का होना जरूरी है, अन्यथा सत्ताधारी दल के ऊपर कहीं अंकुश नहीं होता। जनतंत्र में किसी एक ही दल के हाथों निरंकुश सत्ता का होना सर्वथा अनुचित है। सत्ताधारी दल के सामने शक्तिशाली तथा प्रगल्भ विपक्षी दल का होना निहायत जरूरी होता है। उस संदर्भ में लोकसभा की वर्तमान अवस्था को चिंताजनक कहा जा सकता है। मोदीजी का कर्तृत्व प्रशंसनीय तो है ही, लेकिन उसके फलस्वरूप संसदीय जनतांत्रिक शासन व्यवस्था कहीं कुंठित न हो इसका डर बना रहता है।
खैर, हालत निहायत बुरी नहीं है। पहले निर्देश हुआ है कि पहली चार लोकसभाओं में विपक्षी दल सदस्य संख्या को लेकर काफी कमजोर था। इसमें अब दूसरा सूत्र जो़ड देना जरूरी लगता है। विपक्षी दलों के बेंचों पर मधू लिमये, रामभाऊ म्हालगी आदि व्यासंगी नेता थे, यह सही होते हुए भी इनमें से किसी को भी सरकार चलाने का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं था। उससे उनकी टीका-टिप्पणी में अपने अनुभवों का वजन होना संभव न था। आज की स्थिति वैसी नहीं है। विपक्षी दलों में पी. चिदंबरम जैसे पूर्व वित्तमंत्री हैं, ए.के. एंटनी तथा मुलायम सिंह यादव जैसे पूर्व रक्षामंत्री हैं, तो शरद पवार जैसे पूर्व कृषि मंत्री हैं। इन लोगों ने राजनीति में एक लंबे अर्से से काम किया है। अपने अनुभवों के सहारे वे मोदी सरकार को सही अवसर पर टोकने से नहीं चूकेंगे। और तो और उनकी आलोचना में स्वानुभवों का वजन होने से उनकी आलोचना केवल ग्रांथिक न होगी।

इससे सीखने लायक सबक यही कि संसदीय शासन पद्धति में सशक्त विपक्षी दल का हो निहायत जरूरी है। इंग्लैंड में तो ऐसी मान्यता है कि संसदीय राजनीति माने एक तरह से क्रिकेट का खेल है, जहां एक संघ (सत्ताधारी दल) बल्लेबाजी कर रहा है और दूसरा संघ (विपक्षी दल) उस अवधि में क्षेत्र रक्षण कर रहा है। बल्लेबाजी करने वाले संघ को समय आने पर क्षेत्र रक्षण करना होगा ही। यह परिवर्तन आम तौर पर हर पांच साल बाद होने वाले आम चुनावों के माध्यम से होता है। ऐसा होने से दोनों संघ आपस में एक-दूसरे का आदर करते हुए खेलें और खास बात यह है कि विकेट खराब न होने दें। इसका कारण यही कि अब जो संघ बल्लेबाजी कर रहा है, उसे कुछ समय बाद क्षेत्र रक्षण करना होगा। विकेट को खराब करने से उसी का नुकसान होगा। इसीलिए इंग्लैंड में सत्ताधारी दल को चरक्षशीीूं’ी र्ठीश्रळपस झरीीूं तथा विपक्षी दल को चरक्षशीीूं’ी जििेीळींळेप झरीीूं कहा जाता है। उनमें से एक संघ बल्लेबाजी कर रहा है, तो दूसरा क्षेत्र रक्षण कर रहा है। खेल रोमांचक हो, इसके लिए दोनों संघ ताकत में बराबर होने चाहिए, अन्यथा खेल एकतरफा होता है। भाजपा की विजय की प्रशंसा करते समय इसका ख्याल रखना आवश्यक है।

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