संघर्षों का शुक्रिया!

डॉ. इंदर भान बशीन 11 वर्ष की उम्र में भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय भारत आए थे। जीवन में कड़ा संघर्ष करते हुए ऊंचाई तक पहुंचे। उच्च विद्या से विभूषित वे आयकर आयुक्त रह चुके हैेंं। यशस्वी उद्यमी, साहित्यकार, आध्यात्मिक लेखक, योग प्रचारक जैसे कई आयाम उनके व्यक्तित्व से जुड़े हैं। युवा अवस्था में साम्यवादी विचारों से प्रभावित रहे श्री बशीन पहले तो भगवान का अस्तित्व ही नकारते थे। जीवन में आए एक प्रसंग से वे ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करने लगे और आस्तिक बन गए। ईश्वर नाम का सहारा जीवन में आवश्यक है यह उन्हें महसूस हुआ। उसी क्षण से ईश्वर के अस्तित्व को जानने के लिए अध्ययन, प्रवास शुरु किया। इस भ्रमण से जो कुछ मिला उसे लोगों तक पहुंचाने के लिए आध्यात्मिक किताबें लिखीें। योग के प्रचार में सहयोग करते रहे।

डॉ. इंदर भान बशीन ने असीम दुख सहे, जीवन जीने के लिए अथक संघर्ष किया है। उनमें संकट से मार्ग खोजने की साहसी वृत्ति है, साथ में ‘जीवन का अर्थ’ जानने की संशोधक वृत्ति भी। उसी जीवन प्रवास की जानकारी देनेवाला साक्षात्कार…..

सिंधीयत के संदर्भ में आपके विचार स्पष्ट कीजिए?

– सिंधी और पंजाबी दोनों का दर्द एक ही है। दोनों ने विभाजन का दर्द झेला है। दोनों भाई हैं। इन दोनों मे एक समान भाव यह है कि सख्त से सख्त परिस्थितियों में भी वे अपना मार्ग नहीं छोड़ते। विभाजन पंजाबी और सिंधियों के लिए सब से ज्यादा संघर्ष का समय था। उस समय करोड़ों लोग विभाजित हुए। लाखों मर गये। इंसानियत शायद इससे नीचे कभी नहीं गिरेगी। इेंसान हैवान बन गया था। उस हैवानियत के दौर से भी पंजाबी और सिंधी निकल कर बाहर आ गये। दोनों ही आज हिंदुस्थान में उद्योग, सेवा जैसे क्षेत्रोें में अग्रसर हैं। सुख-दु:ख में जिंदगी जीना पंजाबी-सिंधियों से ही सीखना चाहिए। दोनों ने दुनिया को दिखा दिया कि कठिन से कठिन समय से भी हम पार पा सकते है।

समाज में सिंधियों का तेज विकास दिखाई दे रहा है इसका कारण क्या है?

सिंधियों के खून में ही उद्योग भावना है। वे जहां कहीं जाते हैं व्यापार से जुड़े विचारों से ही सोचते हैं। उद्योग से धन आता है। धन से जीवन में तरक्की होती है। सिंधी समाज के कुछ नेता ऐसे हैं जिन्होंने सिंधियों की तरक्की में योगदान का जिम्मा लिया है और उसे बखूबी निभा रहे हैं। इनमें लालकृष्ण अडवाणी हैं, हशु अडवाणी, सुचिता कृपलानी के नाम अग्रणी हैैं। सिंधियों ने धन का उपयोग अन्य समाज के विकास के लिए भी किया है। अस्पताल, स्कूल-कॉलेज, सेवाभावी ट्रस्ट, यह सिंधियों की समाज को देन है। सच्चे विचार सच्ची राह पर ले जाते हैं। सिंधी उद्यम में ही नहीं, समाजहित के अन्य कार्यों में भी अग्रसर हैं।

विभाजन का दर्द आपकी बातों से महसूस हो रहा है। इसे क्या और स्पष्ट करेंगे?

विभाजन के समय मेरी उम्र 12 साल की थी। आज मैं …… साल का हूं। पर वह मंजर नजर के सामने आते ही आज भी मेरी आंखें भर आती हैं। मेरा जन्मे पाकिस्तान के हैबर बखतून खवा में हुआ, जो अफगानिस्तान की सीमा के पास है। वहां हम पंजाबी 1 प्रतिशत थे और पठान 99 प्रतिशत। जब हालात खराब हुए तब हम पंजाब में आए। 8 घंटे के सफर के लिए 8 दिन लग गये। हर समय मौत सिर पर मंडराती थी। पाकिस्तानी मुसलमान ट्रेन से सफर कर रहे हिंदुओं को लूटने के लिए घात लगाये बैठते थे। लेकिन, सिख और गोरखा रेजिमेंट के जवानों ने पूरी ट्रेन को सुरक्षा प्रदान कर हमें सुरक्षित रखा। मेरा बड़ा भाई, भाभी, उनका परिवार, मैं, मेरा छोटा भाई और छोटी बहन इतने लोग, हम भारत के होशियारपुर के एक स्कूल में शरणार्थी होकर रुके थे। वहीं से हमारा भारत में रैन बसेरा शुरू हुआ। मेरे माता-पिता मेरी बड़ी बहन की शादी करवाने हरिद्वार ले गये थे। इस झमेले में कोई मुसलमान मेरी बहन को उठाकर न ले जाए इसलिए वह पहले ही हरिद्वार गये थे। अब वे हमारे साथ नहीं थे। वे हमसे बिछुड़ गये थे। विभाजन के पहले का जमींदार हमारा परिवार अत्यंत लाचारी की जिंदगी जीने लगा था। खाने के दाने-दाने के लिए हम तरसते थे।

जिंदगी रुकती नहीं, आगे बढ़ती ही है। बढ़ती जिंदगी के साथ हमारा परिवार भी संघर्ष करते जी रहा था। कभी समाज के सहारे, कभी अपने रिस्तेदारों के सहारे, तो कभी अपने खुद के विश्वास के सहारे हम आगे बढ़ रहे थे। कुछ समय के बाद विस्थापितों के कैम्प से हमने हमारे माता-पिता को भी ढ़ूंढ निकाला। परिवार के सभी सदस्य एकत्रित हो गये।

आपकी बातों से सिर्फ संघर्ष महसूस हो रहा है। आज आप निवृत्त आयकर आयुक्त, उद्योजक, समाजसेवी, व्यक्तित्व का जीवन जी रहे हैं। अपनी जीवन में इतना परिवर्तन आप किस प्रकार ला पाए?

विभाजन का दर्द पूरे जीवन भर हम से जुदा नहीं हो पाया। पैसा हमारे लिए जरूरी था। मेरे पिताजी जो जमींदार थे, यहां वॉचमैन का काम करते थे। मन को बड़ा दर्द होता था। जीवन के ऐसे पल इंसान को जुझारूे बनाते हैें। मेरा भी ऐसा ही हुआ। मैंने मन में उच्च शिक्षा लेकर अपना जीवन स्तर बढ़ाने का निश्चय कर लिया। और, आगे बढ़ता गया। मैंने नकारात्मक बनने के बजाय सकारात्मक रहने का निश्चय किया। बच्चों के ट्यूशन लेने से लैब में नौकरी करने तक हर तरह का काम किया। काम करते समय और किसी भी संकट के दौरान अपनी पढ़ाई से ध्यान विचलित नहीं होने दिया। परिवार के लोग चाहते थे कि मैं कोई भी छोटी-मोटी नौकरी कर लूं। तब परिवार के लिए पैसे की बहुत जरूरत थी। परंतु, कठिन समय में भी मैंने अपनी दूरदृष्टि बनाए रखी।

मैंने जो सपना देखा वह पूेरा हुआ। वित्त विभाग में राजपत्रित अधिकारी के रूप में मुझे नौकरी मिल गई। उसी नौकरी में मैंने आयकर आयुक्त तक के पद तक का सफर किया। आज मैं आयकर आयुक्त के रूप में भले निवृत्त हो चुका हूं, परंतु उन दर्दनाक यादों को मैं नहीं भूला पाया। यहां तक पहुंचने में उन संघर्षों ने ही मुझे ताकद दी है। मैं उन संघर्षों का तहेदिल से शुक्रिया अदा करता हूं। 1964 मे मेरी शादी एक उच्च शिक्षा प्राप्त युवती ………. से हुई। उनका भी मेरे जीवन में बड़ा सहयोग मिला।

Dr. Inder Bhan Bashin’s Books
1. Philosophy of Self Realisation of Swami Yogeshwaranad Sarswati.
2. Swami Yogeshwaranand Saraswati. A Great Himalayan Yogi.
3. Guldasta – e- Sakhan (Urdu Poetry)
4. Ek Shola Siah Posh (Urdu Poetry)
5. Hatha Yoga-Asanas Made Easy
6. Sajid Zaheer’s period of Captivity
7. Beads of Serwous Part VII
(Discourses of Swouri Yogeshwara Sarswati)

आपने आध्यात्मिक विषयों पर जादातर किताबें लिखी हैं। पहले संघर्ष, फिर अर्थ और बाद में अध्यात्म यह प्रवास कैसे संभव हुआ?

यह प्रश्न मेरे जीवन के परिवर्तन से जुड़ा प्रश्न है। वैसे तो प्रारंभिक जीवन में आए संघर्षों से मेरा भगवान, ईश्वर से विश्वास ही उठ गया था। शायद जीवन में जो दर्द मिला था उसकी सब जिम्मेदारी मैं भगवान के सिर फोड़ रहा था अर्थात भगवान से खफा था। ऐसे में युवा अवस्था में कम्युनिस्टों के साथ जुड़ गया तो भगवान का अस्तित्व अमान्य करनेवाले आंदोलनों में सहभागी होता था। बड़े-बड़े फलक लेकर भगवान का अस्तित्व नकारने वाली घोषणाएं देता था। यह सिलसिला बहुत सालों तक चलता रहा। आज से चालीस साल पहले मेरे जीवन में जैसे अंधेरा लाने वाला समय आ गया था। यकायक मेरी एक-एक करके दोनों आंखों की दृष्टि कम होने लगी। डॉक्टर को भी न सुलझने वाली आंखों की बीमारी मुझे हो गई थी। मेरा पूरा करिअर दांव पर लगा था। मन सोचता था कि क्या मैं फिर घूम फिर कर बचपन के उसी दर्दनाक मंजर पर पहुंच रहा हूं? उस बीमारी की दवाइेयां भी भारत में उपलब्ध नहीं थीं। बड़ा कठिने समय आ गया था।

एक दिन मैं दरवाजा बंद करके खूब रोया, आंखों से जैसे पानी बह रहा था। मन हलका हो गया। मन की जड़ता मेरी आंखों के पानी के साथ बह गयी। मेरा मन तरल भाव पर आ गया और महसूस हो रहा था कि कोई है, कोई अद्भुत शक्ति है जो मुझे इस मुश्किल से बाहर निकालेगी। उस पर विश्वास करना चाहिए। यह विश्वास गहरा होना चाहिए। मैंने अपनी सारी तकलिफों को उस अब तक अनजाने ईश्वर पर छोड़ दिया। उससे हाथ जोड़कर कहा, ‘मैंने पूरे विश्वास से मेरी सारी मिुश्कलें तुम पर छोड़ दी हैं। अब रब तेरी जो मर्जी हो।’

मैं एक उच्च शिक्षा विभूषित पढ़ा-लिखा इेंसान हूं। मैं फिजूल की बातों पर विश्वास नहीं करता हूं। परंतु, मेरे समर्पण की बात के 15 दिन के भीतर ही मेरी आंखें एकदम ठीकठाक हो गइैं। डॉक्टर भी आश्चर्य व्यक्त करने लगे। मैं एक मानता हूं, मेरी आंखों की रोशनी के साथ मन का अंधियारा भी दूर हो गया था। जीवन में एक नई रोशनी मिली थी। आज चालीस साल के बाद कभी भी मुझे आंखों की तकलीफ नहीं है।

अब मेरे मन में सवाल आने शुरू हो गये कि मुझे ठीक किसने किया? डॉक्टर, मेरी बीवी, मेरे बच्चे इन सब ने उम्मीदें छोड़ दी थीं। वह कौन है जिसने मुझे ठीक किया है? वह ईश्वर ही है, जिस पर मैंने सब कुछ छोड़ दिया था। मैंने मन में तय किया कि ‘मैंने ईश्वर को खुद जानना है। मैंने सभी मंदिरों, गुरुद्वारों, आश्रमों में जाकर वहां की बातें महसूस कीं। आध्यात्मिक किताबों का अध्ययन किया। वेद, वेदांत को समझने का प्रयत्न किया। इस सभी प्रयासों से जो पाया वह मेरा आज का जीवन है। मैंने अध्यात्म और अन्य विषयों पर 9 किताबें लिखी हैं। जिसमें अष्टांग योग पर महत्वपूर्ण ज्ञान देनेवाली किताबें हैं। योग के प्रचार प्रसार के लिए मैंने प्रयास किया है।

जीवन में सुख दु:ख के पड़ावों को महसूस कर आप यहां तक पहुंचे हैं। आज समाज के हित के लिए आपके मन में कौन सी धारणा है?

भूख के दर्द को मैंने झेलो है, गरीबी के दर्द को महसूस किया है। धर्मांधता क्या होती है इसे भी देख चुका हूं। आज मैं मेरे स्तर पर व्यक्तिगत रूप में समाज के अलग-अलग हिस्से में किस प्रकार योगदान देना जरूेरी है, वहां पहुंचने का प्रयास दिल से करता हूं। मैं, मेरी पत्नी, मेरा बेटा इन बातों पर विश्वास से काम करते हैं। यह मेरे लिए संतोष की बात है। मैं जो कार्य कर रहा हूं, उन्हें अपने मुंह से बताना मेरे सिद्धांतों के विरुद्ध हैं। पर मैं इतना अवश्य कहूंगा, ‘किसी भूखे का दर्द, किसी गरीब का दर्द मुझे उनकी सहायता करने पर मजबूर करता है।’ डॉ. इंदर भान बशीन

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