किसान आंदोलन के पीछे छिपे साजिशी चेहरे

कृषि कानूनों के स्थगन व उन पर विचारार्थ समिति गठित करने का उच्चतम न्यायालय का हालिया आदेश न सरकार के विरुद्ध है, न आंदोलनरत संगठनों और विरोधियों के पक्ष में। तभी तो विरोधी दलों की प्रतिक्रिया तिलमिलाहट भरी रही है। यह कैसे संभव है कि जिनको विरोधी चाहे, जिनके नाम आंदोलनकारी संगठन और उनके पीछे खड़े छिपे चेहरे सुझाएं उन्हीं लोगों की समिति बन जाए? असल में उच्चतम न्यायालय को भी नकारने वाली ये शक्तियां आंदोलन खत्म होने देना नहीं चाहतीं। इस साजिश को समझने की जरूरत है।

कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलनरत संगठनों और नेताओं ने अभी तक जिस तरह का व्यवहार किया है उसे देखते हुए यह मानना कठिन है कि ये लोग आंदोलन को निकट भविष्य में खत्म होने देंगे। उच्चतम न्यायालय सबसे बड़ी उम्मीद थी। हालांकि जिन्होंने इस आंदोलन में प्रकट और परोक्ष रूप से सक्रिय शक्तियों को जांचा-परखा है, उनके विचारों को सुना है उनका मानना है कि इस आंदोलन को आसानी से ना स्थगित कराया जा सकता है, न खत्म ही। वास्तव में उच्चतम न्यायालय भले कहे कि हमें लोगों की जान और माल की चिंता है, आंदोलन के कारण लोग मर रहे हैं, कोविड का भी खतरा है और इन कारणों से हम समाधान चाहते हैं लेकिन इन शक्तियों पर ऐसे संवेदनशील और भावुक बातों का कोई असर नहीं है; तभी तो यह उच्चतम न्यायालय पर भी प्रश्न उठा रहे हैं। पहले उन्होंने भूमिका ली थी कि हम तो उच्चतम न्यायालय गए नहीं थे, हमें उच्चतम न्यायालय नहीं चाहिए… हम तो इन तीनों कानूनों को पूरी तरह खत्म करने की मांग कर रहे हैं और यह सरकार कर सकती है। जब उच्चतम न्यायालय ने 12 जनवरी को कानूनों के लागू होने पर अगले आदेश तक रोक लगाते हुए चार सदस्यीय समिति गठित कर दी तो उन्होंने उनके सदस्यों पर ही प्रश्न उठाना शुरू कर दिया। वैसे आंदोलनरत संगठनों के अनेक नेता बयान दे चुके थे कि हमें समिति नहीं चाहिए और हम समिति में जाएंगे नहीं। निश्चित रूप से उच्चतम न्यायालय के माननीय न्यायमूर्तियों के सामने भी ये सारे बयान रहे होंगे। बावजूद उन्होंने एक पहल की है।

उच्चतम न्यायालय पर कोई टिप्पणी काफी सोच-विचार कर की जानी चाहिए। आखिर संविधान और कानूनों की समीक्षा की वह शीर्षतम संवैधानिक इकाई है। अगर हमने उच्चतम न्यायालय को ही प्रश्नों के घेरे में या कटघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया तो फिर कौन सी संस्था देश में बचेगी? लेकिन आप देख लीजिए जो कांग्रेस 11 जनवरी को न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों की टिप्पणियों को उद्धृत करके सरकार की निंदा कर रही थी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जिद्दी और अधिनायक तक करार दे रही थी…. नसीहत दे रही थी कि अब तो सुधर जाओ कानून वापस कर लो, वही समिति पर प्रश्न खड़ा करने लगी। कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने चारों सदस्यों पर कृषि कानूनों के समर्थक होने का आरोप चस्पां कर दिया। आंदोलन से जुड़े नेता तो कर ही रहे थे। इसे क्या कहेंगे? यह उच्चतम न्यायालय की अवमानना नहीं तो और क्या है? कल्पना करिए अगर यही बात भाजपा या सरकार की ओर से कही गई होती कि हम समिति में नहीं जाएंगे तो इस समय देश में कितना बड़ा तूफान खड़ा हो चुका होता। सरकार को फासीवादी से लेकर संवैधानिक संस्थाओं का दमन करने वाला और ना जाने क्या-क्या करार दिया जाता। लेकिन इस आंदोलन के पीछे की सोच, रणनीति और लक्ष्यों को ध्यान में रखें तो इनका यह रवैया आपको कतई आश्चर्य में नहीं डालेगा।

अगर आंदोलन कृषि कानूनों को लेकर किसानों के मन में उठती आशंकाओं को दूर करने के लिए होता, उन आशंकाओं के आधार पर कानून में बदलाव या संशोधन कराने के लिए होता और कुल मिलाकर यह किसानों का, किसानों के लिए और किसानों के हित वाला आंदोलन होता तो इसका आचरण बिल्कुल अलग होता। 9 दिसंबर 2020 को सरकार की ओर से 20 पृष्ठों में जो 10 सूत्रीय प्रस्ताव दिया गया था उसके बाद यह आंदोलन समाप्त हो चुका होता। उन प्रस्तावों में न केवल इनके द्वारा उठाई गई आशंकाओं का समाधान था, प्रश्नों के उत्तर थे और उन सबके संदर्भ में स्पष्टीकरण दिया गया था बल्कि इनकी मांगों के अनुरूप कानूनों में संशोधन करने की भी बात स्वीकार की गई थी। उदाहरण के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी खत्म करने की आशंका को खारिज करते हुए प्रस्ताव में साफ कहा गया था कि सरकार इसका लिखित भरोसा देने को तैयार है। बाजार समितियों की ओर से स्थापित मंडियों के कमजोर होने और किसानों के निजी मंडियों के चंगुल में फंसने की आशंकाओं के समाधान के लिए सरकार ने कानून में इस तरह संशोधन करने की बात कही है जिनसे राज्य निजी मंडियों में भी निबंधन की व्यवस्था कर सके। हां, सरकार ने यह स्पष्टीकरण अवश्य दिया कि नए प्रावधान पुराने विकल्प को जारी रखते हुए किसानों को अधिक विकल्प उपलब्ध कराएंगे, किसान मंडियों के अलावा कोल्ड स्टोरेज से, सीधे अपने खेतों से या फैक्ट्रियों में जाकर भी अपनी फसल बेच सकेंगे। इसके अनुसार किसानों को ज्यादा पैसा मिल सके और ज्यादा प्रतिस्पर्धा रहे, इसलिए नए विकल्प लाए गए। मंडी समितियों में और एमएसपी पर फसल बेचने के पुराने विकल्प भी बरकरार हैं। आंदोलनकारियों की आशंकाओं व मांग वाले दस्तावेज में लिखा था कि कोई विवाद हो जाए, तो नया कानून कहता है कि किसान सिविल कोर्ट में नहीं जा सकते। सरकार का जवाब है कि 30 दिन में समस्या का हल हो सके, ऐसा प्रावधान किया गया है। सुलह बोर्ड के जरिए आपसी समझौते की भी व्यवस्था है। प्रस्ताव है कि विवाद की स्थिति में सिविल कोर्ट जाने का विकल्प भी संशोधन द्वारा दिया जाएगा। कहा गया कि कृषि करारों के निबंधन की व्यवस्था नहीं है। सरकार ने कहा है कि नए कानून के तहत राज्य सरकारें निबंधन की व्यवस्था शुरू कर सकती हैं। वे निबंधन ट्रिब्यूनल भी बना सकती हैं। बावजूद प्रस्ताव दिया गया है कि जब तक राज्य सरकारें निबंधन का ढांचा नहीं बनातीं, तब तक करार होने के 30 दिन के अंदर उसकी एक कॉपी एसडीएम ऑफिस में जमा कराने की व्यवस्था करेंगे। किसानों की जमीन पर बड़े उद्योगपतियों द्वारा कब्जा कर लेने की शंका का तो कानून में कोई आधार ही नहीं है। कृषि करार अधिनियम के अनुसार खेती की जमीन की बिक्री, लीज और मॉर्गेज पर किसी भी तरह का करार नहीं हो सकता। किसान की जमीन पर कोई स्थायी ढांचा भी नहीं बनाया जा सकता। अगर किसी तरह का ढांचा बनता है, तो फसल खरीदने वाले को करार खत्म होने के बाद उसे हटाना होगा। यदि ढांचा नहीं हटा, तो उसकी मिल्कियत किसान की होगी। यह साफ किया जाएगा कि किसान की जमीन पर ढांचा बनाए जाने की स्थिति में फसल खरीदार उस पर कोई कर्ज नहीं ले सकेगा और न ही ढांचे को अपने कब्जेे में रख सकेगा। जमीन कुर्क होने के भय के जवाब में प्रस्ताव में कृषि करार अधिनियम की धारा 15 को उद्धृत किया गया है जिसके अनुसार किसान की जमीन के विरुद्ध किसी प्रकार की वसूली या कुर्की नहीं की जा सकती है। खरीदार के खिलाफ तो बकाया रकम पर 150 प्रतिशत जुर्माना लग सकता है, लेकिन किसानों पर जुर्माना का प्रावधान नहीं है। सरकार के प्रस्ताव में यह भी कहा था कि इन सबके बावजूद कोई सफाई चाहिए, तो उसे जारी किया जाएगा।

वास्तव में अगर आप गहराई से इस आंदोलन की शुरुआत से लेकर अब तक की गतिविधियों पर नजर रखेंगे तो साफ हो जाएगा कि यह कृषि कानूनों के विरोध में आरंभ किया गया आंदोलन अवश्य दिखता है, इसमें किसानों और कृषि के मुद्दे उठाए जा रहे हैं लेकिन इसके पीछे सुनियोजित गहरी राजनीतिक रणनीतियां हैं। कृषि कानूनों के लागू होने के साथ ही पंजाब की कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार ने जिस तरह इसका विरोध शुरू किया, धीरे-धीरे अन्य कांग्रेसी और दूसरी विरोधी पार्टियों की सरकारों ने भी इसकी मुखालफत आरंभ की… जिस तरह दूसरी गैरदलीय शक्तियों, समूहों, एक्टिविस्टों, एनजीओवादियों, वामपंथी संगठनों-चेहरों ने इसके विरुद्ध गोलबंदी शुरू की…. उन सबसे साफ होता गया कि आने वाले समय में ये सब इसके बारे में गलतफहमी और भ्रम पैदा करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधा और उनकी सरकार पर हमला करने तथा इसके आधार पर उनके विरुद्ध घेरेबंदी और माहौल निर्मित करने की हर संभव कोशिश करेंगे। राजधानी दिल्ली की घेराबंदी इन सबकी ही परिणति थी जिसका विस्तार हम अभी तक जारी आंदोलन में देख रहे हैं।

उच्चतम न्यायालय ने अपनी कुछ सीमाओं का ध्यान रखते हुए इसमें व्याप्त राजनीति की अनदेखी कर किसी तरह गतिरोध खत्म करने और विश्वास का वातावरण बनाकर बातचीत के जरिए हल करने की कोशिश की है। मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना और वी राम सुब्रमण्यम की पीठ ने आदेश देते हुए यह कहा कि दोनों पक्ष इसे सही भावना से लेंगे और समस्या का निष्पक्ष, न्यायसंगत व उचित हल निकालने का प्रयास करेंगे ऐसी उम्मीद हम करते हैं। न्यायालय के आदेश को किसी भी तरह सरकार के पराजय के रूप में नहीं देखा जा सकता। सरकार की ओर से बातचीत में स्वयं ही समिति बनाने का प्रस्ताव दिया गया था। ध्यान रखिए, न्यायालय द्वारा समिति गठित करने का महाधिवक्ता ने समर्थन किया। दूसरे, न्यायालय ने कानून के केवल अमल पर रोक लगाई है। उसे न खारिज किया है और ना उसकी संवैधानिकता पर कोई प्रश्न उठाया है। हालांकि न्यायालय में महाधिवक्ता ने कानून के अमल पर रोक लगाने का विरोध करते हुए कहा कि किसी भी याचिकाकर्ता ने यह नहीं बताया कि कानून का कौन सा उपबंध किसानों के खिलाफ है। ऐसे में संसद द्वारा पास कानून पर रोक नहीं लगाई जानी चाहिए विशेषकर तब जबकि कानून संवैधानिक हो। वास्तव में सभी निष्पक्ष लोग स्वीकार करेंगे कि लंबे समय से किसानों की फसलों को आवश्यक वस्तु अधिनियम से मुक्त किया जाने की मांग की जाती रही है। इसी तरह यह मांग भी लंबे समय से थी कि किसानों को सरकारी मंडियों के परे अपनी फसल बेचने तथा उन्हें वाजिब दाम मिल सके इसके लिए कानून और उसके साथ उपयुक्त ढांचों का निर्माण किया जाए। कृषि क्षेत्र को बेहतर करने, उसे सम्मानजनक कार्य बनाने और किसानों की आय वृद्धि के लिए निजी निवेश की मांग तो सभी पार्टियों और ज्यादातर संगठनों की रही है। आखिर तीनों कानून इन्हीं मांगों को तो पूरा करते हैं। तो फिर इनके तीखे विरोध का कारण क्या हो सकता है इसका उत्तर देने की आवश्यकता नहीं है। नरेंद्र मोदी सरकार जब से सत्ता में आई है तब से इस देश का एक बड़ा समूह जो अपने को वैचारिक स्तर पर वामपंथी से लेकर सेक्यूलरवादी, उदारवादी और न जाने क्या क्या मानते हैं उनका एजेंडा बिल्कुल साफ है। किसी तरह इस सरकार को परेशानी में डालो, इसके विरोध में जन असंतोष पैदा करो, इसको देश के अंदर और बाहर जितना संभव है बदनाम करो और कोई भी असंतोष या विरोध सरकार के संदर्भ में कहीं उभरता है तो उसको इतनी ऊपर तक ले जाओ कि अशांति और अस्थिरता का माहौल पैदा हो तथा इसको सत्ताच्यूत करने का आधार बन सके। ये सारी शक्तियां नागरिकता संशोधन विरोधी कानून में इकट्ठी हो गईं थीं। इन्होंने ही अब कृषि कानूनों के विरोध में हो रहे आंदोलन को अपने शिकंजे में कस लिया है। वास्तविक किसान संगठनों में जो सरकार के साथ समझौते के पक्ष में थे वे भी कन्नी काट रहे हैं। क्यों? यह बनाए गए माहौल का परिणाम है। वस्तुतः ऐसा माहौल बना दिया गया है कि वास्तविक किसान संगठनों का कोई नेता अगर समझौते की बात करता है तो वह हाशिए पर फेंक दिया जाएगा। इसलिए यह तो मान कर चलिए कि आंदोलन अभी आगे खींचेगा। न्यायालय अपनी जगह है। राजनीति से निपटना उसका काम नहीं। यह कार्य भाजपा और मोदी सरकार के साथ उन राज्य सरकारों और दलों को करना होगा जो कृषि कानूनों को सही मानते हैं तथा इनकी कुत्सित रणनीति का समझ रहे हैं।

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