पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने अलग-अलग राज्यों में मुस्लिम नेताओं और उनकी पार्टियों के साथ गठबंधन किया है जिसके चलते कांग्रेस का मुस्लिम परस्त चेहरा उभर कर सामने आया। इससे कांग्रेस के भीतर भी यह सवाल उठ रहा है कि क्या धर्मनिरपेक्षता के नाम पर चल रहा पाखंड कांग्रेस को नैतिक व राजनीतिक रूप से कमजोर कर रहा है?
पश्चिम बंगाल में वाम दलों के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ रही कांग्रेस पार्टी ने पश्चिम बंगाल में हुगली के फुरफुरा शरीफ दरगाह के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के इंडियन सेक्युलर फ्रंट के साथ भी गठबंधन कर लिया तो कांग्रेस के भीतर से ही कांग्रेस की मुस्लिम राजनीति को लेकर सवाल उपस्थित हो गया है। सवाल इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी इस्लाम और मुसलमानों के नाम पर पर्दे के पीछे से मजहबी वोट बैंक को साध रही है।
पश्चिम बंगाल में फुरफुरा शरीफ दरगाह के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की पार्टी के साथ कांग्रेस का गठबंधन तो केरल में मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन और असम में बदरुद्दीन अजमल के एआईयूडीएफ से कांग्रेस का चुनावी गठबंधन है। इस गठबंधन राजनीति से खुद कांग्रेस का ही मुस्लिम परस्त चेहरा उभर कर सामने आ गया है। इसलिए पार्टी के भीतर और बाहर से सवाल उठ रहा है। कांग्रेस की मुस्लिम राजनीति को लेकर पार्टी के भीतर पहले से ही सवाल उठते रहे हैं। लिहाजा, राहुल गांधी से लेकर प्रियंका गांधी खुद को हिन्दू साबित करने की कोशिश करते हैं।
कांग्रेस के फुरफुरा शरीफ के अब्बास सिद्दीकी के साथ गठबंधन पर पार्टी के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने सवाल खड़े किए हैं और इसे पार्टी की मूल विचारधारा के खिलाफ बताया है। कांग्रेस नेता आनंद शर्मा ने बंगाल में पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के साथ गठबंधन पर सवाल उठाते हुए कहा कि सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेस सिलेक्टिव नहीं हो सकती। कांग्रेस नेता आनंद शर्मा ने बंगाल कांग्रेस प्रमुख अधीर रंजन चौधरी की वाम दलों और आईएसएफ (इंडियन सेक्युलर फ्रंट) के साथ रैली के बारे में यह बात कही थी। उन्होंने ट्वीट कर कहा कि हमें सांप्रदायिकता के हर रूप से लड़ना है। रैली में पश्चिम बंगाल प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की उपस्थिति और समर्थन शर्मनाक है, उन्हें अपना पक्ष स्पष्ट करना चाहिए। एक दूसरे ट्वीट में उन्होेंने लिखा कि इंडियन सेक्युलर फ्रंट और ऐसी दूसरी पार्टियों से साथ कांग्रेस का गठबंधन पार्टी की मूल विचारधारा, गांधीवाद और नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ है, जो कांग्रेस पार्टी की आत्मा है। इन मुद्दों को कांग्रेस कार्य समिति में चर्चा होनी चाहिए थी। लेकिन दूसरी ओर पश्चिम बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि आनंद शर्मा को ऐसी बात नहीं करनी चाहिए। इससे कांग्रेस कमजोर होती है। कांग्रेस, वाम दल और इंडियन सेक्युलर फ्रंट का गठबंधन धर्मनिरपेक्ष गठबंधन है।
तो क्या इंडियन सेकुलर फ्रंट बना लेने से अब्बास सिद्दीकी धर्मनिरपेक्ष हो गए? आपको बता दें कि पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के विवादित वक्तव्य वाले कई कई वीडियो वायरल हो चुके हैं। एक वीडियो में वह कोरोना वायरस को लेकर कहते हैं कि भारत में अल्लाह इतने वायरस भेजें कि 50 करोड़ लोग मर जाए। दूसरे वीडियो में फ्रांस में जिहादी आतंकवादियों द्वारा सैमुअल पेट्टी के कत्ल का समर्थन करते हैं। हालांकि पीरजादा कहते हैं कि उन्हें बदनाम करने के लिए वीडियो निकाले गए हैं। पर असल में अब्बास सिद्दीकी जिस ढंग से मजहबी कट्टरता पर आग उगलते रहे हैं उनसे पश्चिम बंगाल के लोग वाकिफ हैं। तृणमूल कांग्रेस सांसद नुसरत जहां के मंदिर जाने पर उन्होंने कहा था कि वह बेहया है, उसे पेड़ से बांध कर पीटना चाहिए।
ममता की चोट बनाम भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या
देश की चुनावी राजनीति में सहानुभूति के जरिये लोगों के वोट पाने का पुराना इतिहास रहा है लेकिन यह निर्भर करता है कि संबंधित पार्टी या उम्मीदवार के साथ कितना बड़ा हादसा हुआ है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के पैर में चोट लगी और ममता ने इसे हमले का रूप देने की कोशिश की तो ममता की यह बात किसी के गले नहीं उतरी। इसमें कोई शक नहीं है कि ममता के पैर में चोट लगी लेकिन जांच के बाद यह भी साफ हो गया कि ममता के चोट किसी हमले की वजह से नहीं लगी। तो क्या सचमुच वह सिर्फ एक हादसा था या फिर चुनावी रणनीति के लिए लिखी गई कोई पटकथा? क्या ममता की चोट उस अभिनय का हिस्सा था जिसके तहत ममता व्हीलचेयर पर बैठकर सहानुभूति पाने का अभिनय करेंगी? इसका जवाब ममता या उनके चुनावी रणनीतिकार ही दे सकते हैं। वैसे नंदीग्राम में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के पैर में चोट कार के दरवाजे के कारण लगी थी, ऐसा पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव ने चुनाव आयोग को भेजी अपनी रिपोर्ट में कहा। तृणमूल कांग्रेस प्रमुख को दो दिनों के इलाज के बाद कोलकाता के एसकेकेएम अस्पताल से छुट्टी दे दी गई। कार के दरवाजे के कारण चोट लगने का जिक्र करते हुए, रिपोर्ट में ये साफ तौर से बताया गया है कि दरवाजे के कारण ममता बनर्जी के पैर मेेंं चोट लगी कैसी। घायल होने के बाद अपने पहले रोड शो में ममता ने जिस तरह से खुद को घायल बाघिन बताते हुए कहा कि खेले होबे’ यानी एक घायल बाघ सबसे खतरनाक होता है,इसमें उनकी चेतावनी के साथ कहीं न कहीं हार का डर का दर्द भी झलकता है। ममता की चोट इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि शुरुआती चरण के चुनाव पुरुलिया, बांकुड़ा, झाड़ग्राम जिलों में हैं। ये वे जिले हैं, जहां 2019 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल का प्रदर्शन भाजपा की अपेक्षा कमजोर था। दूसरी ओर वरिष्ठ भाजपा नेता और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह नेे एक चुनावी रैली में कहा कि ममता की चोट सच्ची है या कुछ और यह मैं नहीं जानता। चुनाव आयोग ने कहा कि उन पर हमला नहीं हुआ। इससे यह साबित हो गया कि ममता पर हमला नहीं हुआ। दूसरी बात ममता दर्द की कह रही हैं। उन्हें चोट लगी है उन्हें दर्द होगा। मुझे भी दर्द होता है जब मेरे भाजपा कार्यकर्ता की हत्या की जाती है।ममता दीदी के राज में मेरे भाजपा के 130 कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई। ममता जी को इन भाजपाा कार्यकर्ताओं के माता पिता के दर्द की भी चिन्ता करनी चाहिए। ममता दीदी को इसका भी जवाब देेेना चाहिए कि पश्चिम बंंगाल में रक्त रंजित राजनीति क्यों हुई? कौन है इस राजनीति के लिए जिम्मेदार। तृणमूल कांग्रेस को झूठ की राजनीति नहींं करनी चाहिए क्योंकि यह पब्लिक है सब जानती है।
अब्बास सिद्दीकी और उनकी इंडियन सेकुलर फ्रंट की बात करें तो अब्बास सिद्दिकी ने जनवरी 2021 में इंडियन सेकुलर फ्रंट नाम की पार्टी बनाई। इंडियन सेकुलर फ्रंट प्रमुख पीरजादा अब्बास सिद्दीकी मुस्लिम धर्मगुरू हैं। ये हुगली जिले के फुरफुरा शरीफ के मौलाना हैं। अजमेर शरीफ के बाद फुरफुरा शरीफ की सबसे ज्यादा मान्यता है। फुरफुरा शरीफ का असर सौ सीटों पर माना जाता है। अब्बास सिद्दीकी की सभाओं में भारी भीड़ जुटती है। ये कट्टरता और महिला विरोधी बयानों से विवादों में भी रहे हैं। अब्बास अपने समर्थकों के बीच भाईजान के नाम से पॉपुलर हैं। असदुद्दीन ओवैसी भी सिद्दीकी को साथ लेना चाहते हैं।
वामपंथी पार्टियां भारत में गैर भाजपाई सेक्यूलरवाद की राजनीति की पुरोधा रही हैं। यह अलग बात है कि शक्तिहीन होने के बाद से राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भूमिका शून्य हो चुकी है। क्या अब उनके पास सेक्युलरवाद का राग अलापने का कोई नैतिक आधार होगा? जो कांग्रेस दिन-रात भाजपा को सांप्रदायिक कहती है उससे समर्थक यह सवाल नहीं पूछेंगे कि अब्बास सिद्दीकी और उसका इंडियन सेक्युलर फ्रंट किस दृष्टिकोण से सेक्युलर हो गया?
तृणमूल कांग्रेस ने सिद्दीकी को साथ लाने की हर संभव कोशिश की। पिछले दो चुनावों में माना जाता है कि तृणमूल को मुसलमानों का वोट दिलवाने में थोड़ी भूमिका सिद्दीकी की भी थी। ममता बनर्जी ने पिछले दिनों कहा भी था कि फुरफुरा शरीफ के लोग उनके साथ हैं। जब सिद्दीकी दूसरे पाले में चले गए तो ममता बनर्जी ने उनकी प्रतिस्पर्धा में दूसरे मौलानाओं को खड़ा कर दिया है। क्या प. बंगाल और देश यह देख नहीं रहा कि सेक्यूलरवाद के नाम पर ये पार्टियां किस तरह कट्टर मजहबी सांप्रदायिक चेहरों का सहारा ले रही हैं?
साल 2011 में राज्य की सत्ता में आने के साल भर बाद ही ममता ने इमामों को ढाई हजार रुपए का मासिक भत्ता देने का ऐलान किया था। उनके इस फैसले की काफी आलोचना की गई थी। पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनावों में पहली बार 27 से 30 प्रतिशत मुस्लिम वोटरों को लेकर काफी खींचतान मची है। राज्य में बीते कम से कम पांच दशकों से तमाम चुनावों में अल्पसंख्यकों की भूमिका बेहद अहम रही है। इस तबके के वोटर तय करते रहे हैं कि सत्ता का सेहरा किसके माथे पर बंधेगा। पहले वाम दलों को लंबे समय तक इस वोट बैंक का सियासी फायदा मिला और अब बीते एक दशक से इस पर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का कब्जा है।
विधान सभा चुनाव से पहले ओवैसी की पार्टी और इंडियन सेक्युलर ़फ्रंट (आईएसएफ) की वजह से तृणमूल के इस वोट बैंक पर खतरा पैदा हो गया है। हुगली जिले में स्थित फुरफुरा शरीफ अल्पसंख्यकों का पवित्र जियारत स्थल है और दक्षिण बंगाल की क़रीब ढाई हज़ार मस्जिदों पर उसका नियंत्रण है। चुनावों के मौके पर फुरफुरा शरीफ की अहमियत काफ़ी बढ़ जाती है। लेफ्ट से लेकर टीएमसी और कांग्रेस तक तमाम दलों के नेता समर्थन के लिए यहां पहुंचने लगते हैं। असदुद्दीन ओवैसी के अलावा फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की पार्टी इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आईएसएफ) के मैदान में उतरने की वजह से इस तबके के मतदाताओं में संशय का माहौल है।
राहुल की तरह ममता के भी सुर बदले
क्या पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमों ममता बनर्जी का विश्वास डगमगा रहा है? यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि जैसे जैसे पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव की तारीख नजदीक आ रही है मुख्यमंत्री बनर्जी के सुर बदल रहे हैं। पिछले विधान सभा चुनाव के दौरान और उसके बाद भी ममता बनर्जी सार्वजनिक मंचों से कलमा पढ़ती नजर आती थी। वह ममता बनर्जी इस बार के विधान सभा चुनाव के दौरान मंच से चंडीपाठ का पाठ कर खुद को हिन्दू बता रही हैं। जय श्रीराम के जयकारा पर मुंह बनाने वाली ममता बनर्जी भगवान शिव की आराधना कर रही हैं। लिहाजा यह सवाल बंगाल में हर कोई पूछ रहा है कि क्या मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को राज्य में भाजपा की बढती ताकत का अंदाज हो गया है। भाजपा पर हिन्दूवादी राजनीति करने का आरोप लगाने वाली ममता बनर्जी खुद हिन्दुत्व का कार्ड क्यों खेल रही हैं? क्या ममता बनर्जी भी अचानक कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की तरह चुनावी समय देख हिन्दू बन रही हैं?
हिन्दुत्व के मुद्दे पर भाजपा पहले से ही सवार हैं। ऐसे में ममता अपनी उस छवि से बाहर निकलने की कोशिश कर रही है जिसके चलते उनकी छवि मुस्लिम परस्त राजनीति करने वाली बन रही थी या उन पर भाजपा और हिन्दूवादी संगठन मुस्लिम परस्त राजनीति करने का आरोप लगा रहे थे।
नंदीग्राम में चुनावी सभा को संबोधित करते हुए ममता बनर्जी ने कहा भी ‘मेरे साथ हिंदू कार्ड मत खेलना। मैं हिंदू की बेटी हूं, ब्राह्मण परिवार में पली-बढ़ी हूं। यदि हिंदू कार्ड ही खेलना है, तो पहले तय कर लो कि तुम अच्छे हिंदू हो या नहीं हो।‘ इस मौके पर ममता बनर्जी ने माता दुर्गा का पाठ किया और भगवान शिव की आराधना भी की। कई मंत्रोच्चार किए और हर मंत्रोच्चार के बाद मौजूद जनता से पूछा- खेला होबे?
ममता बनर्जी के इस रूप को देख लोग उनकी तुलना कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी से कर रहे हैं। दरअसल 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी ने भी इस तरह चुनाव से ठीक पहले हिंदू कार्ड खेलने की कोशिश की थी। राहुल गांधी ने खुद को जनेऊधारी ब्राह्मण बताया। मंदिर मंदिर देवी देवताओं की आराधना की और राहुल की तरह इस बार ममता बनर्जी ने पहले चरण के मतदान से पहले खुद को ब्राह्मण की बेटी के रूप में पेश कर रही। लिहाजा बंगाल की चुनावी राजनीति में हिन्दुत्व का मुद्दा भी केंद्र में आ गया है। और, इसीलिए ममता बनर्जी भी अब राहुल गांधी की राह पर चल पड़ी हैं।
पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव में दो राज्य ऐसे हैं जहां कांग्रेस का काफी कुछ दांव पर है। ये राज्य हैं असम और पश्चिम बंगाल। असम में कांग्रेस ने बदरुद्दीन अजमल की ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रैटिक फ्रंट से गठबंधन किया है। वहीं पश्चिम बंगाल में कांग्रेस-लेफ्ट के अलायंस में फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की पार्टी इंडियन सेक्युलर फ्रंट हिस्सेदार है। माना जा रहा है कि मुस्लिम वोट बैंक पर दावेदारी जताने के लिए कांग्रेस ने दोनों को दोस्त बनाया है। लेकिन क्या ये दोस्ती चुनाव में पार्टी को भारी पड़ सकती है? क्या रिवर्स पोलराइजेशन (उल्टा ध्रुवीकरण) जैसी सूरत बन सकती है? असम में बदरुद्दीन अजमल की पार्टी से कांग्रेस ने गठबंधन किया है। उनकी पार्टी मुस्लिमों के हित में काम करने की हिमायत और दावा दोनों करती है। असम की कुल आबादी तकरीबन साढ़े 3 करोड़ है। इसमें मुसलमानों की आबादी लगभग 34 प्रतिशत यानी एक तिहाई के आसपास है। राज्य की 33 सीटों पर मुस्लिम वोट निर्णायक भूमिका में हैं। 2016 के विधान सभा चुनाव में अजमल की पार्टी ने राज्य की 126 में से 13 सीटें जीती थीं। वहीं कांग्रेस ने 26 सीटों पर जीत हासिल की थी। बदरुद्दीन के साथ पहले भी कांग्रेस का गठबंधन रहा है। कांग्रेस अजमल का वोट शेयर लेना चाहती है।
गुवाहाटी में गृह मंत्री अमित शाह ने कांग्रेस पर जम कर हमला बोला है। उन्होंने कहा कि 20-25 सालों से हम मानते ही नहीं थे कि आंदोलन, हिंसा, घुसपैठ और आतंकवाद के बगैर असम हो सकता है। असम की अस्मिता की बात करने वाले घुसपैठ तक नहीं रोक पाए, असम की अस्मिता को क्या खाक बचाएंगे? आपकी गोदी में अजमल बैठा है और असम की अस्मिता की बात करते शर्म नहीं आती? कांग्रेस एक तरफ धर्मनिरपेक्षता की बात करती है और दूसरी तरफ यहां बदरुद्दीन अजमल के साथ है। केरल में मुस्लिम लीग के साथ बैठी है। मेरी तो समझ में नहीं आता कि ये कैसी धर्मनिरपेक्ष पार्टी है? इनकी धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा अनोखी है। केरल में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के गठबंधन पर भी सवाल है। केरल में मुसलमानों की आबादी करीब 26 फीसदी है। यहां मुस्लिम वोट बैंक पर हमेशा से इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग का दबदबा रहा है। एक मुस्लिम लीग का इतिहास भारत के विभाजन से जुड़ा हुआ है। अलबत्ता, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग खुद को ज्यादा प्रगतिशील सोच की मानती है। वह कट्टरवादी और नफरत वाली विचारधारा के खिलाफ काम करने का भी दावा करती है। लेकिन, तथ्य यही है कि इस पार्टी का गठन ठेठ धार्मिक आधार पर ही हुआ है। क्योंकि, केरल के करीब 18 फीसदी क्रिश्चियन समुदाय और बहुसंख्यक आबादी के बीच अपनी हैसियत बचाए रखनी है। लेकिन, कांग्रेस का यहां धर्म के आधार पर बनी इस पार्टी के साथ 1970 के दशक से गठबंधन है। इसके नेता ई अहमद यूपीए सरकार में मंत्री भी रहे हैं। वैसे कांग्रेस हमेशा से शिवसेना को सांप्रदायिक पार्टी मानती रही थी। लेकिन, आज महाराष्ट्र में शिवसेना के उद्धव ठाकरे की अगुवाई में महाविकास आघाड़ी की सरकार है, जिसमें कांग्रेस शामिल है। इसलिए कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता की नीति पर सवाल उठ रहा है। क्योंकि कांग्रेस पर खुल कर मुस्लिम पार्टियों का साथ देने का आरोप लग रहा है। केरल में मुस्लिम लीग से साझेदारी के लिए कांग्रेस पर हमला करने वाले लेफ्ट को, बंगाल में पीरजादा अब्बास के साथ गठबंधन पर जोर देने में ज्यादा पछतावा नहीं है। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर यही पाखंड कांग्रेस जैसे दलों को नैतिक व राजनीतिक रूप से कमजोर कर रहा है।