पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों का संकट

पेट्रोल-डीजल के दामों में लगातार वृद्धि और उससे बढ़ती महंगाई की मार से लोग परेशान दिखाई देते हैं। यदि राज्य सरकारें जनहित को देखते हुए केंद्र की ही तर्ज पर वैट की दर कुछ घटा दें तो राज्यों में पेट्रोल-डीजल की कीमतें 15 रुपये तक कम हो जाएंगी, जो बहुत बड़ी राहत होगी; क्योंकि जनता 75 से 80 रुपये प्रति लीटर पेट्रोल को अब सामान्य मानने लगी है।

पेट्रोल और डीजल पर पिछले कुछ महीनों से हाहाकार मचा है। फरवरी में देश के कुछ हिस्सों में पेट्रोल के दाम 100 रुपये प्रति लीटर को भी लांघ गए, जिसके बाद जनता ने भी इस पर आक्रोश जताना शुरू कर दिया है। पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ना कोई नई बात नहीं है और इनमें अक्सर बढ़ोतरी होती रहती है मगर जिस समय कोरोना महामारी करोड़ों नौकरियां लील गई हो, लाखों कारोबारी दिवालिया हो गए हों, रोजमर्रा की महंगाई बढ़ती जा रही हो, उस समय पेट्रोल और डीजल इतना महंगा होना किसी को बरदाश्त नहीं हो रहा है।

पेट्रोल की महंगाई आसानी से दिख जाती है; क्योंकि हर हफ्ते वाहनों में तेल डलवाते समय हम दाम देख लेते हैं। मगर असली परेशानी तो डीजल के दाम बढ़ने से होती है, जिस पर हमारी नजर ही नहीं जाती। देश में समूची माल-ढुलाई डीजल वाहनों से होती है, कारखानों में भी डीजल ही काम आता है। ऐसे में अगर डीजल के दाम बढ़ते हैं तो उसका असर हर सामान की लागत पर होता है और उपभोक्ता को महंगा सामान मिलता है। पिछले दो महीनों में महंगाई बढ़ने की असल वजह पेट्रोल और डीजल ही हैं।

ऐसा नहीं है कि सरकारें या राजनीतिक दल इस बात को समझ नहीं रहे हैं। उन्हें भी जनाक्रोश का अहसास है। यही वजह है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान बार-बार पेट्रोलियम उत्पादों को वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के दायरे में लाने की बात कह रहे थे। साथ ही बढ़ती कीमतों का ठीकरा कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय दामों पर भी फोड़ा जा रहा था। केंद्र के साथ ही विपक्षी दल भी पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों पर हायतौबा मचा रहे थे। लेकिन दिलचस्प है कि इनमें से कोई भी कर या शुल्क घटाने को तैयार नहीं है। केंद्र उत्पाद शुल्क और उपकर घटाने की बात बिल्कुल नहीं कर रहा और उसकी आलोचना कर रहे विपक्षी दल अपने शासन वाले राज्यों में पेट्रो उत्पादों पर मूल्यवर्द्धित कर (वैट) घटाने को तैयार नहीं दिख रहे, जबकि करों का बोझ कम हो जाए तो पेट्रोल-डीजल खासे सस्ते हो जाए।

करों का बोझ

2013 में कच्चा तेल 110 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गया था और 2014 के बाद तो इसकी अंतरराष्ट्रीय कीमत घट कर 40 डॉलर प्रति बैरल तक आई। कुछ समय के लिए तो तेल इससे भी नीचे चला गया था। मगर आम उपभोक्ता को शायद ही इसका फायदा मिला हो। जब तेल की कीमतें एकदम पाताल में पहुंचीं तो कुछ समय खुदरा दाम में मामूली कटौती के बाद एकाएक उत्पाद शुल्क बढ़ा दिया गया और कहा गया कि इससे बफर तैयार हो रहा है, जिसका फायदा कीमतें ज्यादा बढ़ने पर दिया जाएगा यानी उस समय शुल्क घटाकर कीमतें हद से ज्यादा बढ़ने नहीं दी जाएंगी। लेकिन शुल्क में कमी शायद ही देखने को मिली हो।

सन 2014 में पेट्रोल पर 9.48 रुपये प्रति लीटर का केंद्रीय उत्पाद शुल्क वसूला जा रहा था। डीजल पर शुल्क 3-56 रुपये प्रति लीटर था। इसके बाद लगातार शुल्क बढ़ोतरी के कारण 2020 की शुरुआत में पेट्रोल पर 19.98 रुपये और डीजल पर 15.83 रुपये प्रति लीटर उत्पाद शुल्क हो गया था। मगर कोरोना महामारी के दौरान तेल के दाम और मांग झटके से गिरे और केंद्र ने दो झटकों में पेट्रोल पर शुल्क 32.98 रुपये और डीजल पर शुल्क 31.83 रुपये प्रति लीटर कर दिया। अब मांग बढ़ी है तो इनमें कटौती सरकार का कर्तव्य है मगर सरकार उस पर विचार करने को ही तैयार नहीं है। शायद उसकी अपनी मजबूरियां हों।

राज्यों की अंगुलियां घी में

राज्य सरकारें पेट्रो उत्पादों पर वैट वसूलती हैं और यह वैट केंद्र के शुल्क की तरह स्थिर नहीं होता बल्कि एड वेलोरम होता है यानी कीमत पर वसूला जाता है। इसे ऐसे समझिए। दिल्ली में पेट्रोल पर 30 प्रतिशत वैट वसूला जाता है और केंद्रीय शुल्क लगने के बाद जो कीमत होती है, उस पर वसूला जाता है। यदि दिल्ली में डीलर की लागत और केंद्रीय शुल्क के बाद पेट्रोल की कीमत 50 रुपये प्रति लीटर होती है तो 30 प्रतिशत की दर से दिल्ली सरकार 15 रुपये वैट वसूल लेगी। मगर अंतरराष्ट्रीय दाम बढ़ने पर यदि कीमत बढ़कर 60 रुपये हो गई तो दिल्ली के खजाने में 15 के बजाय 18 रुपये बतौर वैट जाएंगे। यानी अंतरराष्ट्रीय दाम बढ़ने पर राज्यों की कमाई बढ़ती जाएगी। हां, यदि केंद्र अपने शुल्क में 10 रुपये की कमी कर देता है तो दिल्ली को एक बार फिर 15 रुपये ही मिलेंगे। मगर ध्यान देने की बात है कि केंद्र सरकार को 1 लीटर पेट्रोल पर 10 रुपये कम मिलेंगे तो दिल्ली सरकार को केवल 3 रुपये की कटौती झेलनी होगी और वह भी एड वेलोरम वैट होने की वजह से अपने आप हो जाएगी, दिल्ली सरकार की मंशा उसमें नहीं होगी।

दिल्ली सरकार के उलट महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसी सरकारें वैट के बाद तगड़ा उपकर भी लगा रही हैं। महाराष्ट्र सरकार ने तो पिछले 5-6 वर्ष में उपकर लगाने और बढ़ाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने दिया। लेकिन जिस वजह से उपकर लगाया गया, उसके खत्म होने पर भी उपकर खत्म नहीं किया गया। कुल मिलाकर राज्य सरकारों की भी नीयत राहत देने की नहीं लगती। इसकी वजह भी है। उन्हें पता है कि हायतौबा कितना भी हो, लोग पेट्रोल और डीजल खरीदना बंद नहीं कर सकते। जनता की इसी विवशता का फायदा उठाकर सरकारें शोषण में जुटी हैं।

जीएसटी पर टालमटोलजी

ऐसे में बात एक बार फिर जीएसटी पर आ जाती है। मगर वित्त मंत्री ने 15 दिसंबर को लोकसभा में साफ कह दिया कि फिलहाल पेट्रो उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने का कोई प्रस्ताव नहीं है। उन्होंने कहा कि संविधान के प्रावधानों के मुताबिक जीएसटी परिषद जब तक इसकी सिफारिश नहीं करती तब तक पेट्रोलियम को इस कर के दायरे में नहीं लाया जा सकता। मगर जीएसटी परिषद में केंद्र के साथ राज्य भी शामिल हैं और लगता तो यही है कि दोनों में से कोई भी पेट्रोल-डीजल को इस कर के दायरे में लाना नहीं चाहता। क्यों नहीं चाहता, यह आप समझ ही चुके होंगे। 2019-20 में ही केंद्र और राज्य सरकारों को पेट्रोलियम उत्पादों पर करों के जरिये 4.24 लाख करोड़ रुपये मिले थे। अप्रैल से दिसंबर 2020 तक सरकारें इनसे 3.72 लाख करोड़ रुपये कमा चुकी थीं, जबकि लॉकडाउन के कारण उस दौरान पेट्रोल-डीजल की खपत बहुत कम रही थी। अगर खपत बहुत नहीं बढ़ी होती तो भी इस साल 31 मार्च तक सरकारों को इनसे 4.5 लाख करोड़ रुपये की कमाई हो जाती। जिस तेजी से अर्थव्यवस्था पटरी पर आ रही है उसे देखते हुए अब आंकड़ा ज्यादा रह सकता है।

अगर इन्हें जीएसटी के दायरे में लाया जाता है तो 12, 18 और 28 प्रतिशत की दर से ही कर वसूला जा सकता है। विलासिता के नाम पर अतिरिक्त कर वसूलें तो भी दर 40-42 प्रतिशत से ऊपर नहीं जाने वाली। दर इतनी रखी गई तो राजस्व के मोर्चे पर जबरदस्त घाटा होगा। अगर घाटे से बचना है तो 100 प्रतिशत से भी अधिक कर वसूलना होगा क्योंकि इस समय पेट्रोल पर 150 प्रतिशत से भी अधिक कर लिया जा रहा है। मगर कोई भी राजनीतिक पार्टी ऐलानिया अंदाज में 100 प्रतिशत से ऊपर कर नहीं वसूल कर जनता की कोपभाजन नहीं बनेगी। इसीलिए सब पिछले दरवाजे से यानी कई करों और शुल्कों की शक्ल में 160 प्रतिशत तक कर वसूलना पसंद करते हैं। यही वजह है कि राज्य ईंधन को जीएसटी के दायरे में लाने की सिफारिश बिल्कुल नहीं करेंगे और केंद्र को भी उत्पाद शुल्क से हाथ नहीं धोना होगा। यानी वित्त मंत्री जानती हैं कि न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी!

फिर क्या हो उपाय?

अर्थव्यवस्था को झटका लगने के कारण राजस्व वसूली में कमी नहीं की जा सकती और जीएसटी के दायरे में ईंधन को लाने की मंशा नहीं है तो राहत कैसे मिले? महा लेखा परीक्षक के आंकड़े बताते हैं कि अप्रैल-नवंबर 2020 के दौरान केंद्र का उत्पाद शुल्क संग्रह 1,96,342 करोड़ रुपये तक पहुंच गया, जबकि अप्रैल-नवंबर 2019 में आंकड़ा 1,32,899 करोड़ रुपये ही था। ध्यान रहे कि उस समय लॉकडाउन चल रहा था और तमाम तरह का उत्पादन ठप था, बिक्री सुस्त थी। उसके बाद भी राजस्व बढ़ने के पीछे एक ही वजह रही और वह थी पेट्रोल-डीजल पर शुल्क बढ़ोतरी। मगर अब तो मांग सामान्य हो चुकी है और लॉकडाउन से पहले के स्तर पर पहुंच चुकी है। अब तो शुल्क में कटौती की मांग वाजिब है। बेशक अर्थव्यवस्था ठप रहने से सार्वजनिक व्यय के मद में सरकार ने काफी खर्च किया और खजाना डांवाडोल हो गया है मगर पूरी कमी की भरपाई केवल ईंधन से ही कर लेने के पीछे क्या तुक है?

 

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