मणिपुरी रास नृत्य

गानों को मुख्य आधार मानकर, उसी प्रकार गानों व नृत्य के एकीकृत आविष्कार से होने वाला रास नृत्य राधा कृष्ण के पवित्र प्रेम पर आधारित होता है।

मणिपुर के पास समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है।      जिन्होंने यहां के प्राकृतिक सौदर्य का तथा संस्कृति का निकट से दर्शन किया है, उनका मन यहां से निकलने को नहीं करेगा। यही जादू पर्यटकों को यहां बार-बार आने के लिए प्रवृत्त करता है।

भारत के प्रमुख नृत्यों में से एक रास नृत्य का मणिपुर के संस्कृति में विशेष स्थान है। इस संदर्भ में यहां एक लोक कथा प्रचलित है। मणिपुर के राजा भाग्यचंद्र को सपने में भगवान गोविन्दजी ने दर्शन देकर एक मूर्ति स्थापित करने के लिए कहा। राजा ने इसे ईश्वर की आज्ञा मान कर कटहल के पेड़ से भगवान की मूर्ति बनवाई। ई.स. १७७९ के कार्तिक मास में शुक्र एकादशी के दिन मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की गई, पूर्णिमा तक पूरे पांच दिन चले इस आयोजन में नृत्य संगीत चलता रहा। उसी समय से मणिपुर में रास नृत्य की परम्परा आरंभ हुई।

गानों को मुख्य आधार मानकर, उसी प्रकार गानों व नृत्य के एकीकृत अविष्कार से होने वाला रास नृत्य राधा कृष्ण के पवित्र प्रेम पर आधारित होता है। नृत्य के द्वारा शारीरिक, शाब्दिक, सात्विक तथा आहार्य इन चार प्रकार के अभिनय की प्रस्तुति की जाती है। मणिपुर के इस रास नृत्य के पांच प्रकार हैं। राजा भालचंद्र के काल में ‘महारास’, ‘कुंजरास‘, ‘वसंतरास‘, वैसे ही राजा चंद्रकीर्ति के काल में ‘नित्यरास’ तो राजा चूडाचंद के काल में ‘दिवारास’ नृत्यों का चलन शुरू हुआ। इस कला को राज्याश्रय के साथ साथ जन आश्रय भी प्राप्त हुआ।

इन पांचों रास नृत्यों का मंचन अलग अलग समय पर किया जाता है। श्रीमद्भागवत के पांचवें अध्याय के श्लोकों पर आधारित ‘महारास’ कार्तिक पूर्णिमा के दिन किया जाता है। गोविन्द लीलामृत पर आधारित ‘कुंजरास’ आश्विन पूर्णिमा को होता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण पर आधारित ‘वसंतरास’ वैशाखी पूर्णिमा के दिन किया जाता है। इसमें कवि जयदेव का गीत गोविन्द, संगीतकार माधव का पद कल्पतरू, उसी प्रकार रास उत्तम तंत्र के कुछ हिस्सों का समावेश होता है। राजा चंद्रकीर्ति की आज्ञा से स्थानीय नृत्य गुरुओं ने नित्य रास विकसित किया। ‘दिवारास’ किसी भी मास में पर केवल दिन में ही किया जाता है। उसी प्रकार ‘नित्यरास’ किसी भी मास में पर रात्रि के समय ही किया जाता है। अन्य तीन प्रकार के रास देर रात को किए जाते हैं।

इन रास नृत्यों का आयोजन दो प्रकार से किया जाता है- श्री गोविन्द जी के मंडप के बीचो-बीच राधा-गोविन्द की मूर्ति की भद्रचक्र पर स्थापना की जाती है। कलाकार सअभिनय गोपिकाओं के नृत्याविष्कार की प्रस्तुति देते हैं। इसमें राधाकृष्ण के, वैसे की कृष्ण के नृत्य प्रसंग की प्रस्तुति नहीं की जाती। दूसरा प्रकार जो विजय गोविन्द जी के मंडप में या किसी अन्य स्थान पर पर किया जाता है। इसमें छोटे बच्चे राधाकृष्ण के नृत्य के साथ अभिनय तथा गोपिका नृत्य प्रस्तुत करते हैं। नृत्य के पहले एक कलाकार गुरु वंदन, सभा वंदन, मृदंग वादन, उसी प्रकार गायन के द्वारा कृष्ण रूप का वर्णन करता है। इसे गौरचंद्रिका गायन कहते हैं और इस परम्परा को पूर्वरंग कहा जाता है।

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