कोरोना की दूसरी लहर पहली की तुलना में अधिक भयावह है, यह किसी से छिपा नहीं है। दूर नजर आने वाली मौत की काली छाया अब घर की चौखट तक पहुंच चुकी है। जो लोग इस साए की चपेट में आकर अपनी जान गवां चुके हैं उनका तो क्या कहें परंतु जो लोग बच गए उनके अनुभव भी रौंगटे खड़े करने वाले हैं। यह सही है कि कोरोना से भयावह अन्य दूसरी बीमारियां भी विश्व ने देखी हैं परंतु वे ‘मास इफेक्टिव’ नहीं थीं। पूरी आबादी के कुछ प्रतिशत लोगों को प्रभावित करने वाली ही रहीं लेकिन कोरोना ने अधिकतम लोगों को अपनी चपेट में ले रखा है और अब तो मृत्यु की भयावहता भी बढ़ती जा रही है।
देश में कोरोना पीड़ित लोगों के, संक्रमित लोगों के और मृत्यु के आंकड़े दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। इन आंकड़ों के अलावा और भयावह स्थिति तो तब उत्पन्न होती है जब अपने आस-पास के लोगों की रोज मिलने वाली मृत्यु की खबरें सुनाई देती हैं। समाचारों में यह दिखाया जाता कि किस प्रकार एक ही चिता पर तीन-चार शवों का एक ही साथ अंतिम संस्कार किया जा रहा है। मरने वाले व्यक्ति के अंतिम दर्शन करना भी परिवार के सभी लोगों के लिए मुमकिन नहीं हो रहा है। दिल दहला देने वाली इतनी भयावह परिस्थिति उत्पन्न हुई कैसे? कोरोना पीड़ितों का और मृत्यु का आंकड़ा इतना बढ़ा कैसे? समाज के रूप में हमसे कहां चूक हो गई? सरकारों की तरफ से क्या कमी रह गई? अभी भी अगर इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढकर उन गलतियों को नहीं सुधारा गया तो मृत्यु का यह तांडव अबाधित रूप से चलता रहेगा और हम अपने देश की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा खो देंगे।
पिछले वर्ष जब देश में सरकार की ओर से धीरे-धीरे अनलॉक की प्रक्रिया शुरू की गई थी तो यह साफ जाहिर किया गया था कि इस प्रक्रिया का अर्थ यह नहीं है कि कई दिनों तक पिंजरे में बंद पंछियों की भांति हम उड़ने को लालायित हो उठें। कोरोना खत्म नहीं हुआ है, परंतु अर्थव्यवस्था को फिर से सुचारू रूप से चलाने के लिए सम्पूर्ण सावधानियों का पालन करके इस अनलॉक को मानने की अपेक्षा सरकार की ओर से की गई थी। परंतु हुआ क्या? जैसे-जैसे देश अनलॉक होता गया कोरोना का डर लोगों के मनों से जाता गया। वैक्सीन आने की खबर ने तो जैसे लोगों को बेफिक्र होकर घूमने की छूट ही दे दी थी। महानगरों में बसों, लोकल, मेट्रों में लोगों का हुजूम उमड़ने लगा। लोग तो मास्क भी केवल इस डर से पहनते थे कि कहीं महापालिका वाले पर्ची न काट दें। भारतीय समाज की इस बेफिक्री ने कोरोना को मुफ्त आमंत्रण दे दिया। जिस जोश से लोग घर के बाहर निकलने लगे थे, अब फिर मृत्यु के भय से उसी घर में कैद रहने को मजबूर हो गए हैं।
पर क्या सारा दोष समाज का ही है? क्या आम दिनों में समाज पर अपना एकाधिकार जताने वाली केंद्र और राज्य सरकारों की कोई जवाबदेही नहीं है? समाज ने सरकार को चुना ही इसलिए है कि वह समाज की हर आवश्यकता की पूर्ति कर सके। प्राचीन समाज व्यवस्था में जो अपेक्षाएं राजा से की जाती थीं, आज वे सभी अपेक्षाएं केंद्र तथा राज्य सरकारों से की जा रही है। अगर सम्पूर्ण भारत पर नजर डालें तो सुदूर पूर्वोत्तर को छोड़कर कोई ऐसा राज्य नहीं दिखाई देता जहां कोरोना के कारण मृत्यु के आंकड़े भयावह न हों। स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के कारण लोगों को जिन परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है उन्हें नजरअंदाज करके चुनावी रैलियां की जा रही हैं। रैलियों में भाग लेने वाले लोगों और उनके द्वारा फैलने वाला संक्रमण भविष्य की बड़ी चिंता होगी? समाज की नब्ज जानने का दावा करने वाले लोग यह अंदाजा क्यों नहीं लगा सके कि वे चाहे जितना समझा लें पर जनता तो पिंजरे से छूटे पंछियों जैसा ही व्यवहार करेगी। इसलिए जब तक वे कैद हैं, तब तक आसमान साफ कर दिया जाए या कम से कम इतनी व्यवस्था कर दी जाए कि कोई संक्रमित हो भी तो उसे तुरंत स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं। माना कि देश में पहले की अपेक्षा स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ी हैं परंतु उसका अनुपात आवश्यकता से बहुत कम रहा है। यह सच है कि सरकारें दूरदर्शी विचार करने में विफल रही हैं।
कोरोना का हर नया स्ट्रेन कुछ नए लक्षण लेकर आता है, जिसे पहले से समझना कठिन है परंतु सांस लेने में तकलीफ होना तो ऐसा लक्षण है जो शुरुवाती दौर से चल रहा है। सांस लेने में तकलीफ अर्थात शरीर में ऑक्सीजन की कमी अर्थात ऑक्सीजन सिलेंडर की मांग में वृद्धि। यह सीधा सा गणित समझने में सरकारें विफल क्यों हो गईं? वैक्सीन बना लेना अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धी है परंतु आम जनता तक इसे पहुंचाने के लिए जिस सुसूत्रता की आवश्यकता थी वह भी सरकारों में कम ही दिखी। जहां केंद्र और राज्य सरकारें अलग-अलग पार्टियों की हैं वहां तो स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव पर केवल राजनीति ही देखने को मिली। वर्तमान परिस्थिति को देखकर अगर आनेवाले वर्ष का नियोजन ये राजनेता नहीं कर पा रहे हैं तो भारत को वैश्विक महासत्ता बनाने का स्वप्न तो दिवा स्वप्न ही लगने लगेगा।
देश एक बार फिर से सम्पूर्ण लॉकडाउन के मुहाने पर खड़ा है। अगर इससे बचना है तो सरकार और समाज को एकत्रित प्रयास करने होंगे। फिर से एक बार अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य सुविधाएं और लॉकडाउन का गणित बिठाने की आवश्यकता दिखाई दे रही है। सरकारों को उद्योगपतियों के साथ मिलकर यह सोचना होगा कि किस प्रकार लोगों के कम से कम संख्या में बाहर निकलकर भी अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाया जा सकता है। समाज के हर वर्ग को भी यह सोचना होगा कि सरकार के द्वारा मुहैया कराई जाने वाली स्वास्थ्य सुविधाएं कम इसलिए पड़ रही हैं क्योंकि संक्रमण अधिक तीव्र गति से फैल रहा है और अनावश्यक होने पर घर से न निकलकर ही इसे रोका जा सकता है। सरकार लॉकडाउन नहीं लगा रही है तो भी घर से न निकलना ही बेहतर होगा। कोरोना से युद्ध में सरकार और समाज दोनों के एकत्रित प्रयास से ही सफलता प्राप्त हो सकेगी। अगर ऐसे प्रयत्न नहीं किए गए तो यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाएगा कि इतनी मौतों का दोषी कौन है?
बहुत शानदार व सटीक लेख! साथ ही राजनीतिक व्यवस्था पर भी करारा प्रश्नचिह्न, विचारपरक लेख के लिए आभार🙏