पूर्वोत्तर में वनवासी कल्याण आश्रम का कार्य

कल्याण आश्रम के कार्यों का विस्तार वर्ष १९७७-७८ में पूर्वोत्तर के सभी राज्यों के वनवासी क्षेत्रों में करने का निश्चय किया गया। १९७७ में पश्चिम बंगाल में ‘पूर्वांचल कल्याण आश्रम’ नाम से संस्था को पंजीबध्द किया गया था। प्रारंभ में इसी नाम से कार्य करने की योजना बनी। इस क्षेत्र के क्षेत्रीय संगठन मंत्री वसंतराव भट्ट ने संपूर्ण क्षेत्र का प्रवास किया। उद्देश्य था वहां की सामाजिक तथा भू-राजनैतिक स्थितियों की जानकारी लेना, उसको देखना, अनुभव करना।

सर्वप्रथम तो वहां की भौगोलिक विषम परिस्थितियों का रौद्र स्वरूप भयप्रद रहता है। जब बड़ी नदियों में बाढ़ आती है तो हजारों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र लंबे समय तक पानी के अंदर रहता है। नदी पर पुलों की संख्या कम है। इस मैदानी क्षेत्र में निवास करने वाले वनवासियों की जनसंख्या भी बड़ी है। शेष भाग मानो दुर्गम पहाड़ों से अटा पड़ा है। घने जंगल हैं। संभवत: इस क्षेत्र में अन्य राज्यों से सर्वाधिक वनभूमि का क्षेत्र है। सारा क्षेत्र देखा तो लगता है कि समतल भूमि यहां नहीं है। इसीलिए इस क्षेत्र को असम कहा गया। यहां रेल मार्ग कम है। सड़कें सीमित हैं। अत: प्रवास करने में  समय अधिक लगता है। सुविधाएं अल्प हैं। प्राणी जगत और वनस्पति जगत की विविधताएं भी अधिक देखने को मिलती है। जल की अधिकता है। वातावरण नमीयुक्त रहने से मच्छरों की अधिकता है, मलेरिया व्यापक रूप से है। कुछ क्षेत्र में बारहों मास मच्छरदानी आवश्यक है।

ऐसे क्षेत्र में काम का प्रारंभ करना आसान तो नहीं हो सकता। पहले असम के मैदानी क्षेत्र की जनजातियों के बीच में कार्य का प्रारंभ हुआ १९७८ में। बाद में असम के पहाड़ी क्षेत्रों में भी कल्याण आश्रम के प्रकल्प खुलते गए। प्रारंभ में स्वाभाविक रूप से भारत के विभिन्न प्रांतों से आए हुए कार्यकर्ताओं ने प्रकल्पों का संचालन किया। आखिर में कार्यकर्ताओं की उपलब्ध्ता के आधार पर ही कार्य विस्तार होता है। आज भी सब मिलाकर कार्यकर्ता कम ही हैं। प्रारंभ करने में सबसे अधिक कठिनाइयों का सामना क्रमष: मिजोरम, नागालैंड और मेघालय में करना पड़ा था। सौभाग्य से मेघालय के जयंतियां पहाड़ी जिले में बावन शक्तिपीठोें में से एक मां जयंति देवी का मंदिर है और जयंतियां जनजाति में अन्य खासी-गारों जनजातियों से मतांतरित ईसाइयों का प्रतिशत कुछ कम है। एक चिकित्सक ने यहां पर अपनी सेेवाएं कुछ समय के लिए प्रदान की और एक विशेष कठिन प्रांत में १९७९ में कार्यारंभ हुआ। उनके जाने के बाद कुछ समय तक काम बंद हुआ जो बस्तर में कार्यानुभव प्राप्त युवा चिकित्सक के आने से खासी पहाड़ों में प्रारंभ हो सका। इस दरम्यान खासी जिले में आश्रम के एक कार्यकर्ता ने वहां के सामाजिक क्षेत्र के वयोवृध्द कार्यकर्ता, जो परंपरागत धर्म-संस्कृति की रक्षा के लिए सक्रिय थे, से परिचय किया। एक अन्य खासी व्यक्ति, जो पादरी बनने के लिए प्रशिक्षित हो रहा था, जातिगत स्वाभिमान को मिशनरियों के द्वारा ठेस पहुंचाने से व्यथित होकर मिशन का त्याग कर परंपरागत धर्म-संस्कृति रक्षक ‘सेंग खासी’ के कार्य से जुड़े। इन दोंनों महानुभावों के साथ और एक-दो लोगों को लेकर कार्यकर्ता ने कल्याण आश्रम के कार्य को देखने के लिए प्रवास आयोजित किया। उन्होंने उडीसा के चकापाद, मध्य-प्रदेष के कुछ केंद्र और जशपुर का प्रवास १९८५ में कराया। इन केंद्रों को देखकर सभी प्रभावित हुए और उत्साहित होकर अधिक कार्य करने के लिए प्रवृत्त भी हुए।

खासी जिले में कल्याण आश्रम का कार्य चल रहा है। यहीं की एक घटना का उल्लेख करूंगा। बालासाहब देशपांडेजी, कल्याण आश्रम के तत्कालीन अध्यक्ष में शिलांग में रुके थे। वहां पर भोजन करके देशपांडेजी तृप्त हुए। उन्होंने पूछा कि ऐसा स्वादिष्ट भोजन किसने बनाया? तब एक खासी वृद्धा, जो छोटे ग्राम से भोजन बनाने आई थी, उसको सामने खड़ा किया गया। नाम था माइपासा। देशपांडेजी ने पूछा कि आप दूर ग्राम से भोजन बनाने के लिए क्यों आई हैं? तो उसने बताया कि हमारे क्षेत्र में तो केवल ईसाई पादरी ही घूमते हैं। मैंने सुना कि हमारा हिंदू पादरी भी पहली बार इस क्षेत्र में आया है। अत: सेवा के लिए आ गई। देखो, हिंदू समाज के द्वारा इस क्षेत्र में अपने ही भाइयों के प्रति कितना अधिक दुर्लक्ष किया गया है! स्थानीय वनवासियों के लिए भी यह एक पहेली है।

‘सेंग खासी’ के संस्थापक जीवन राम ने आज से शताधिक वर्षों पूर्व परंपरागत धर्म-संस्कृति की रक्षा के लिए यह संस्था स्थापित की थी। उन्होंने गीता पर खासी भाषा में तब भाष्य लिखा था! वैसे वनवासी समाज सोया हुआ तो नहीं था। हां, वह अवश्य ही मजबूर था, असहाय था। इस बात को भी सभी को स्मरण रखना चाहिए। कल्याण आश्रम के प्रयासों से मेघालय (खासी जिला) में जागृति आई। खासियों का परंपरागत उत्सव एक सार्वजनिक स्थान पर ही बड़े स्वरुप में पचीस वर्षों से मनाया जा रहा है जिसमें हजारों जनजाति सदस्य एकत्रित होते हैं। यहां परंपरागत रूप से पहाड़ (भूमि) की पूजा होती है, धार्मिक विधि के साथ का परंपरागत गीत-नृत्य का, उपासना के रूप में, कार्यक्रम होता है, जो परंपरागत पगड़ी, धोती आदि वस्त्र धारण करके मनाया जाता है। पगड़ी व धोती पहनना प्रारंभ में सिखाना पड़ा था। हजारों अन्य दर्शक भी आते हैं।

दूसरा अति दुर्गम प्रांत रहा नागालैंड। इनर लाईन परमिट लेकर कोई भी आए तो वह विशेष रूप से पर्यटक या शासकीय या स्थानीय संस्था कार्य को लेकर आता है। कुछ अन्य लोग, जैसे विवेकानंद केन्द्र या अन्य धार्मिक-सांस्कृतिक क्षेत्र के कार्यकर्ता, वहां कार्य कर नहीं पाते ऐसे अनुभव रहे हैं। परंतु १९८१ अक्टूबर माह के कल्याण आश्रम के ७०० कार्यकर्ताओं के वर्ग में नागालैंड के हरक्का एसोसिएशन एवं कांग्रेस (आई) के बड़े कार्यकर्ता श्री एन. सी. जेलियांग को, विशेष रूप से कार्य को देखने व समझने के लिए अपने १५-२० युवा कार्यकर्ताओं को लेकर, आमंत्रित किया था। प्रसिध्द स्वतंत्रता सेनानी और संत रानी मां गाइदीन्लीयु के वे अनुयायी थे। ये भी पादरी बनने के लिए मिशन की संस्था में प्रशिक्षण ले रहे थे। उनको भी उसी कटु अनुभव का सामना करना पड़ा। वहां के मिशनरी नागा धर्म-संस्कृति को राक्षसी कह रहे थे। उन्होंने अत: स्वयं को अपमानित अनुभव करके मिशन को छोड़ा और रानी मां के निष्ठावान अनुयायी बन गए। जेलियांग ने दिल्ली के वर्ग में आते ही देशपांडेजी से कहा ‘देषपांडेजी आप हमारे धर्म-संस्कृति की रक्षार्थ मिशनरियों का सामना कर रहे हैं। मैं भी ऐसे ही कार्य में लगा हूं। मैं हिंदू नहीं हूं यह भी याद रखिए।  वह वर्ग में ६-७ दिन रहे। रात्रि में बाहर विश्रामार्थ चले जाते थे। वर्ग की समाप्ति पर लौटते हुए श्री देशपांडेजी से कहा – ‘‘पता नहीं क्यों, लेकिन लग रहा है कि मैं भी हिंदू हूं। आप नागालैंड के अंदर कार्य करने के लिए आइए। मैं नागालैंड के प्रवेश द्वार के रूप में रहूंगा। अन्यथा नागालैंड में प्रवेश करके कार्य करना असंभव होता है।’’ अस्तु, वर्ग पश्चात वहीं से नागालैंड में जाने के लिए एक युवा कार्यकर्ता तैयार हो गया। नागालैंड के एक शासकीय कर्मचारी वर्ग में आए थे। श्री जेलियांग इंदिरा गांधी की अनुमति लेकर ही इस वर्ग में उन कर्मचारियों के मैत्रीपूर्ण आग्रह के कारण आए थे। उनकी संस्था ‘हरक्का एसोसिएशन’ द्वारा ही ग्राम टेनिंग में शाला, छात्रावास एवं चिकित्सा केंद्र का प्रारंभ वर्ष १९८२ में किया गया। यहां पर १९८५ में हुए परंपरागत धर्मिक नागा उत्सव को सार्वजनिक रूप से ग्राम जालुकी में जनवरी मास में मनाना तय हुआ। यहां की जेमी, लियांगमेइ और रोंगमेई इन तीन नागा जनजातियों का यह उत्सव नागालैंड में पहली बार मनाया जा रहा था। पहले यह उत्सव नागालैंड से लगे असम और मणिपुर में ही मनाया जाता था; क्योंकि मतांतरित ईसाई नागाओं का प्रतिरोध करना उनके लिए असंभव ही था। इससे नागालैंड की सामाजिक परिस्थियां कैसी रही होंगी यह ध्यान में आएगा। लगभग तीन वर्षों से कल्याण आश्रम रुपी अखिल भारतीय सशक्त संस्था का सहयोग मिलने के कारण नागालोग यह उत्सव वहां पर मनाने के लिए हिम्मत जुटा सके।

कल्याण आश्रम के प्रतिनिधि के नाते मुझे जालुकी गांव में उपस्थित रहने का अवसर मिला। मैं पहले भी यहां प्रवास कर चुका था। लगभग आठ वर्षों के उपरांत नागालैंड में फिर गया। इस बार प्रकल्प केंद्र टेनिंग गांव में गया था। अपने प्रकल्प का कार्य देखा और फिर वहां के कैथालिक मिशन और बाप्तिस्त मिशन की शालाओं का कार्य भी देखा। हरक्का की शाला का स्तर उस तहसील में शीर्ष पर था। प्राय: अस्सी प्रतिशत विद्यार्थी ईसाई थे। अपनी शाला में गणतंत्र व स्वाधीनता दिवस पर तिरंगा लहराता है और राष्ट्र गीत भी होता है।  अधिकांश बड़े गांवों की शालाओं में भी उन दिनों राष्ट्रगीत नहीं होता था। वहां के कार्यकर्ता मुझे वहां के हारे हुए पूर्व विधायक जे. आझू न्यूमइ के पास ले गए। खूब समय तक अनौपचारिक बातें हुई। वातावरण मुक्त हो गया। चायपान के बाद जब विदा ले रहा था तो उन्होंने मुझे तीन बातें बताई – (१) रानी गाईदिन्लीयु ने अच्छा काम किया है; (२) कल्याण आश्रम अच्छा कार्य कर रहा है, हम लोगों को पढ़ा रहा है, सेवा कर रहा है; और (३) अब मैं अपना शेष जीवन नागा कल्चर के लिए पुनरुत्थान के लिए लगाऊंगा। और, मुझे यह बात सामान्य सी लगी। परंतु साथ में आए हुए कार्यकर्ता ने बताया कि ऐसी तीन बातें किसी ईसाई नागा के मुंह से पहली बार ही सुनी है। अन्यथा ये सभी नागा कल्चर को डेमोनिक (राक्षसी) कल्चर ही कहते हैं और, कल्याण आश्रम के कार्य और गाइदिन्लीयु के कार्य से घृणा ही करते हैं।

परिस्थितियां भी अब पहले से बहुत अच्छी हो गई हैं। परंतु कार्यकर्ता को प्रारंभ में बड़ी परीक्षाओं से गुजरना पड़ा। अक्टूबर १९८१ में दिल्ली के वर्ग में अंतिम दिन पूछा गया कि नागालैंड मेंंं कार्य करने के लिए कौन जाएगा? तब एक युवा कार्यकर्ता आगे आया और कहा कि मैं यहीं से नागालैंड के कार्यकर्ता के साथ जाने के लिए तैयार हूं। वह गया। वह कोहिमा पहुंचा और नागालैंड के कार्यकर्ता के घर में रुका। एक दोपहर में पास के मैदान से भीड़ का शोर-शराबा कान तक पहुंचा। क्या हो रहा है यह देखने के लिए वह वैसे ही चलते हुए निकला। मैदान में पहुंचते ही ३-४ हट्टे-कट्टे नागा युवाओं ने उसका हाथ पकड़ा, और जबरदस्ती भारत के अन्य प्रांतों से आए कुछ लोगों की कतार में खड़ा किया। लात घूंसे मारे कुछ समयोपरांत एक वाहन में इन सब को बिठाया और कहा कि दीमापुर में चले जाओ और वहां से अपने-अपने गांव चले जाना। नागालैंड में फिर से आना नहीं। सौभाग्य से क.आ. के कार्यकर्ता को हरक्का के नागा कार्यकर्ता ने इशारे से समझा दिया कि – दीमापुर में जाकर वह राह देखे। हरक्का कार्यकर्ता दीमापुर पहुंचा। क.आ.के कार्यकर्ता को पूछा कि क्या वह उसके साथ वापस कोहिमा लौटेगा? वह कार्यकर्ता उसके साथ दूसरे दिन कोहिमा गया। अपने कार्य को करने के लिए। इससे कार्यकर्ताओं को प्रारंभ में कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा इसकी कल्पना की जा सकती है। कोहिमा के उन नौकरी पेशा कार्यकर्ता ने मुझे कहा था कि उन नागाओं का मार खाते समय ऐसा विचार आया था कि हम शेष भारत के लोगोें नेे इन कठिनाइयों से ग्रस्त नागाओं की स्वतंत्रता प्रप्ति के बाद भी सुध नहीं ली, उस पाप के प्रायश्चित्त के रूप में हम इस मार कोे सहन करते हैं। सभी के लिए यह बात क्या विचारणीय नहीं हैं?

एक दिन नागालैंड के चायवाले के दुकान पर चाय पी रहा था। दुकान के दर्शनीय भाग पर लिखा हुआ था ‘नागालैंड फॉर क्राइस्ट’ क्या ‘एक सेक्युलर राज्य में’ ऐसे पोस्टर, जो अनेक स्थानों पर चिपके थे, का प्रदर्शन उचित कहा जाएगा? ढोंगी सेक्युलरिस्टों के कारण इस पर कोई आपत्ति नहीं कर सकता। पर यह असहिष्णुता उनमें किसने डाली? यह सब विचारणीय है।

अब मिजोरम की बात। असम में क. आ. के एक कार्यकर्ता ने मिजोरम में प्रवेश किया। यह १९८०-८१ की बात होगी। अंदर जाने पर एक गांव के पढ़े लिखे मिजो व्यक्ति के घर पर पहुंचा। घर में दोनों बैठे। कार्यकर्ता ने अपना परिचय दिया और असम में किस प्रकार के सामाजिक कार्य से जुड़े है यह बताया। उस व्यक्ति ने शांति से सब बातें सुनीं। कार्यकर्ता विदा लेते हुए उठा तब उस व्यक्ति ने कार्यकर्ता को बताया कि आप मिजोरम में चालीस वर्ष विलंब से पहुंचे हैं। तात्पर्य यह था कि आपका आना फिजूल रहेगा। वह मिजो ईसाई था। लगभग यही बात मैंने ४५ वर्ष पूर्व नयी भजन मंडली स्थापित करते समय एक व्यक्ति से जशपुर के देहात में सुनी। हम सब जानकारी के आधार पर  कह सकते हैं कि ९९ प्रतिशत मिजो आबादी ईसाई हैं। शायद दसेक हजार ही अपनी मूल संस्कृति और धर्म (मिजो भाषा में साखुआ) को मानने वाले होंगे। लगभग ४०,००० रियांगों में से लगभग आधे ईसाई हो चुके हैं। सभी रियांगों को वंश और भाषा के नाम पर, हिंसक उपद्रव करके, मिजोरम से आज से १५-१६ वर्षों पूर्व भगा दिया था! क्या आप इसे जानते हैं? ये सभी असम व त्रिपुरा में निर्वासित जीवन अभी भी बिता रहे हैं, जैसे कि कश्मीर घाटी के ३.५ लाख पंडित जन। सुडो सेक्युलरिस्टों को इन बातों से जरा भी दु:ख नहीं होता, इसको याद रखें। १९४७ के विभाजन के पश्चात मिजोरम से लगे बांग्लादेश के पहाड़ी क्षेत्र में बसे बुध्द धर्मी चकमा वनवासियों को भारत में भगा दिया गया। वे जो सभी त्रिपुरा और मिजारम में बसे, या कहें कि भारत शासन ने बसाया। इनके क्षेत्र में वसंतराव भट्ट ने कल्याण आश्रम का कार्य चालू किया। कुछ शालाएं आदि चल रही हैं। मिजोरम में मिजो लोगों में कार्य करने के लिए एक कार्यकर्ता को भार सौंपा। उसको सिल्चर में रहना पड़ा। परमिट प्राप्त करके वह मिजोरम में कई वर्ष तक जाता रहा। वहां के स्थानीय ‘साखुआ’ को मानने वाले मिजोरम के प्रमुख लोगों से मुश्किल से परिचय प्राप्त करने में सफल हुआ। कुछ वर्षों के पश्चात उनका विश्वास भी प्राप्त कर लिया। जब मानो वह पारिवारिक सदस्य के रूप में स्वीकृत मिजोरम में रहने की स्वीकृति ४-६ वर्षों पूर्व ही प्राप्त कर सका।

अब त्रिपुरा में कार्य प्रारंभ होने के बाद की एक घटना का संक्षेप में उल्लेख करूंगा। बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्व पाकिस्तान) से भगाए गए बांग्ला भाषी हिंदुओं को त्रिपुरा, मध्यप्रदेश, असम, बंगाल आदि प्रांतों में शासन ने बसाया, या वे स्वयं बस गए। स्वाभाविक रूप से तीन दिशाओं से बांग्लादेश से घिरे त्रिपुरा में भी वे बहुत बड़ी संख्या में बस गए। अत: कुछ तनाव इसके कारण बढ़ा। १९८० के आसपास् राजनीतिज्ञों की पैंतरेबाजी और अन्यायों के कारण, नासमझी और उकसावों के कारण, हिंसक घटनाएं दोनों समुदायों में हुई। कइयों को, कुछ समय के लिए क्यों न हो, विस्थापन का दु:ख झेलना पड़ा। तब कल्याण आश्रम का छात्रावास चल रहा था। इस छात्रावास में शरण लेने के लिए वहां के जनजाति के लोग और बांग्ला भाषी (हिंदू ही शिकार हुए थे) लोग अच्छी खासी संख्या में आए। यहां के वातावरण के कारण वनवासी और शेष बांग्ला भाषी विस्थापित लोग परस्पर सहयोग देते हुए शांति के साथ, मैत्री भाव से रहे। स्थानीय आकाशवाणी के अगरतला केंद्र ने इस समाचार को विवरण देते हुए प्रसारित भी किया था।

अब अरूणाचल की थोड़ी सी बात। यहां पर ८० के दशक के अंत में कार्य का प्रवेश हुआ। आश्रम के संगठन मंत्री द्वारकाचार्य ने प्रभावी धार्मिक- सांस्कृतिक नेतृत्व वाले लोगों से परिचय किया। इनमें से एक काफी अधिक प्रभावी धार्मिक नेता तालुम रुकबो का हमारे अ. भा. संगठन मंत्री भस्कररावजी से, वे जब अरुणाचल पहुंचे तब, परिचय कराया। काफी बातें कीं। वे मिशनरियों के अन्य धर्म और संस्कृति वालों को नामशेष करने के लिए होने वाले मतांतरण के कार्यों से अति चिंतित थे। कौन है जो अपने समाज को समाप्त होते हुए देख कर चिंतित नहीं हों? वह खुश कैसे हो सकता है? भास्कररावजी बहुत अनुभवी कार्यकर्ता थे। उन्होंने इन महोदय को यह ध्यान में ला दिया कि मजबूत संवेदनशील सामाजिक संगठन हो तभी समाज इस आक्रमण का सामना सफलता के साथ कर सकता है। ऐसा संगठन करना है तो उसका आधार धार्मिक हो। संगठन करने एवं धर्म-संस्कृति के संरक्षण एवं उस पर श्रध्दा दृढ़ करने के लिए मंदिर आवश्यक है जहां गांव के लोग एकत्रित हो। परंतु यहां पर भी जनजातियों का पूजा या प्रार्थना स्थल मात्र प्राकृतिक ही रहा। यहां पर वर्ष भर में एक या दो बार ही एकत्रित कार्यक्रम होते हैं। नियमित, कम अंतराल पर एकत्रीकरण नहीं होता। प्राय: सभी वनवासी समाज में ऐसी ही व्यवस्था रहती है। मंदिर में मूर्ति भी हो। मूर्ति किसकी हो, उसका आकार आदि कैसा हो, इसका निर्धारण सभी धार्मिक पुजारी एकत्रित होकर करेंगे तो वह सारे समाज को स्वीकृत होगा। यह कार्य दो वर्षों के अंदर हो गया। फिर वहां उनके मंदिर निर्माण कार्य में कल्याण आश्रम ने सहयोग देना प्रारंभ किया। आज विभिन्न जनजातियों में मूर्ति निर्धारण और मंदिर निर्माण कार्य अरुणाचल में स्थानीय धार्मिक संस्थाओं द्वारा होने लगा है। इससे जागृति आई है, श्रध्दा का जागरण हो रहा है और समाज संगठित होने लगा है। स्मरण रहे कि लगभग १९७०-७५ तक मिशनरियों को अरुणाचल में कार्य करना कठिन था। फिर उन्होंने रणनीति बदली। १९७०-७५ से असम में, किंतु अरुणाचल की सीमा के निकट वाले गांवों में, शाला-छात्रावासों का जाल बुना एवं अरुणाचल के निर्धन बच्चों को रख कर पढ़ाने लगे। कहना आवश्यक नहीं है कि इनको व परिवारों को वे मतांतरित करने लगे और १९७० के दशक में ही इन मतांतरितों के माध्यम से अरुणाचल में उनका प्रवेश हो चुका था। बस, तभी से मतांतरण के इस कार्य ने गति पकड़ ली।

असम के गुवाहाटी में वर्ष २००२ दिसंबर में उत्तर-पूर्वांचल की जनजातियों का सांंस्कृतिक व धार्मिक नेतृत्व करने वाले लोगों का पहली बार तीन दिवसीय सम्मेलन हुआ। इसमें ४०-५० जनजातियों के लगभग ३०० पुजारी-नेता सम्मिलित हुए। सभी ने एकमत से सभी जनजातियों की अपनी-अपनी अस्मिता के रक्षार्थ एक मंच पर एकत्रित होते होने का संकल्प किया। तीन-चार वर्षों के उपरांत वर्ष २००६ में फिर से गुवाहाटी में क्षेत्रीय जनजातियों के युवाओं का सम्मेलन हुआ जिसमें लगभग ४,५०० युवा एकत्रित हुए। एक दिन इन युवाओं की शोभायात्रा गुवाहाटी की सड़कों पर से निकली। अंतिम दिन गुवाहाटी के सैकड़ों परिवार अपने साथ में ३-४ जनजातीय युवाओं के लिए भोजन पदार्थ लेकर आए। प्रत्येक परिवार के साथ इन युवाओं का रात में मैदान में भोजन हुआ। परस्पर आत्मीयता व प्रेमभाव सबके मुख पर झलक रहा था। गुवाहाटी के एक नागरिक ने बताया कि इसके पहले जनजाति युवा या अन्य युवाओं का प्रदर्शन होता था तो नगर के लोगों की धड़कन बढ़ जाती थी। आशंका प्राय: सच भी साबित होती। कुछ उपद्रव अवश्य होते थे। दुकानें भी बंद रहती थीं। परंतु इस प्रदर्शन में देशभक्ति के नारे लगे और अनुशासन दिखाई दिया। शोभायात्रा प्रारंभ से अंत तक शांतिपूर्ण वातावरण में संपन्न हो सकी। चार वर्षों के बाद फिर से सांस्कृतिक और धार्मिक क्षेत्र के लगभग १२५ पुजारियों तथा विद्वानों की ५०-६० जनजातियां जिसमें उपस्थित रही, तीन दिन की विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। इसमें लगभग एक सौ शोधपत्र आए थे। इस सारी कार्यवाही को, शोधपत्रों को, हेरीटेज फाउंडेशन, गुवाहाटी, ने छापा। सार रूप में कहा जा सकता है कि प्राय: सभी जनजाति के लोग एक सर्वशक्तिमान, सर्वत्र व्याप्त ऐसे एक दिव्य चैतन्य तत्व को मान्यता देते हैं।

एक और अपने आप में आश्चर्यजनक बात जानने को मिली- प्रवास के दौरान। मेघालय के खासी जनजाति के वृध्द व सयाने व्यक्ति ने बताया कि उनकी मान्यता है कि उनकी जनजाति के लोग भारत के पश्चिमी भाग से आए हैं। खासी क्षेत्र में साप्ताहिक बाजार सातवें दिन पर नहीं, परंतु आठवें दिन लगता है। तात्पर्य उनका ‘सप्ताह’ आठ दिनों का होता है। महाराष्ट्र और गुजरात में साप्ताह को ‘आठवड़ा’ और ‘आठवाड़िमुं’ कहा जाता है, परंतु यह आठवड़ा आठ दिन का नहीं सात दिन का होता है।

राष्ट्र को सशक्त और अनेकता रखते हुए भी संगठित एक राष्ट्र के रूप में खड़ा करने के लिए समर्पित इस कार्य में अधिकाधिक सहयोग समाज दे यह अपेक्षा है।

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