उ. तिरतसिंह

कैप्टन लिस्टर पहले राजकीय एजेंट बने। उन्होंने उ.तिरतसिंह को बर्मा में ‘‘सरीम तेना’’ जेल में भेजने का आदेश दिया। बाद में कोलकाता की ब्रिटिश कौंसिल ने निर्णय बदलकर उ.तिरतसिंह को ढ़ाका की जेल में भेजा। वहां एक घर में उन्हें नजरबंद रखा गया। सन १८३४ में उनका देहान्त हुआ।

पूर्वोत्तर में आज जो सात छोटे छोटे राज्य हैं यही स्थिति पहले भी थी। पहले तो यह पूर्वोत्तर और छोटे राज्यों-कबीलों में बंटा था। कुछ राज्य तो मात्र ५-७ गावों तक सिमटे थे।

ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसे गुवाहाटी शहर को उस समय ‘‘प्रागजोतिषपुर’’ कहते थे। गुवाहाटी शहर के दक्षिण भाग में स्थित पहाड़ियों में खासी एवं जयंतिया जनजाति के लोग रहते थे। वहां तीस छोटे-छोटे राज्य थे। उसमें ‘‘नांग्खलौ’’ राज्य प्रमुख था। प्रकृति की पूर्ण कृपा ‘‘नांग्खलौ’’ पर थी। रिमझिम बरसात के कारण हमेशा यह राज्य हराभरा रहता था। शहर के बीचों- बीच स्थित मैदान में आज राज्य के सारे प्रजाजन उपस्थित थे। विषय था राजा की मृत्यु हो चुकी थी एवं नए राजा को नियुक्त करना था।

खासी परंपरा के अनुसार ‘‘उशाजेर’’ या ‘‘उसिन्तौ’’ घराने से ही राजा बन सकता था। अड़चन थी कि उपरोक्त दोनों घरानों में कोई भी वयस्क पुरुष नहीं था जो राजकार्य संभाल सके। केवल एक ही लड़का था उ तिरतसिंह जो मात्र १० वर्ष की उम्र का था। सभी उपस्थित लोगों ने तय किया कि उ. तिरतसिंह को राजा बनाया जाए। उसकी मां काक्सान के राजकाज संभालने पर आपत्ति थी क्योंकि वह स्त्री थी। परंतु समुदाय के अन्य लोगों ने कहा कि याद रखिए यह स्त्री राज्य है। कबीले के कायदे के अनुसार संपत्ति की वारिस मां के बाद छोटी लड़की ही होती है। अंत में उ.तिरतसिंह को राजा एवं काक्सान को उसके वयस्क होने तक राजकाज संभालने हेतु अधिकृत किया गया।

सिल्चर स्थित अंग्रेज सेना के कमांडर स्कॉट को जब कैप्टन व्हाही से इस घटनाक्रम की जानकारी मिली तो उन्होंने इस स्थिति का फायदा उठाने की रणनीति बनाने का काम शुरू किया। स्कॉट ने व्हाईट से कहा कि हम सिल्चर तक आ गए हैं। गुवाहाटी में कंपनी का मुख्यालय है। परंतु जब तक सिल्चर से गुवाहाटी तक पक्का रस्ता तैयार नहीं होता तब तक दोनों स्थानों पर स्थित सेना एक दूसरे की मदद नहीं कर सकती। यह रास्ता नांग्खलौ होकर ही बनेगा। यदि एक बार यह रास्ता बन जाता है तो हमें नांग्खलौ सहित सभी खासी राज्यों पर कब्जा करने में आसानी होगी। परंतु स्कॉट की इस योजना को इंग्लैंड से अनुमति मिलने में १२ साल लग गए। तब तक उ.तिरतसिंह की उम्र २५ वर्ष हो चुकी थी।

स्कॉट ने अपना प्रस्ताव उ. तिरतसिंह के सामने रखा परंतु उसने इसे नकार दिया। स्कॉट बहुत चालाक था उसने उ. तिरतसिंह की मां काक्सान से बात की एवं उसे तरह-तरह के प्रलोभन दिए। अंत में मां की दबाव के आगे, झुकते हुए उ.तिरतसिंह ने स्कॉट को नांग्खलौ होते हुए रास्ता बनाने की अनुमति दे दी।

परंतु जैसा कि अंग्रेजों की चाल थी उन्होंने रास्ता बनाने के साथ साथ आस-पास के लोगों पर जुल्म ढ़ाना प्रारंभ कर दिया। महिलाओं से छेड़खानी एवं बलात्कार आम बात हो गई। प्रजा इससे बहुत परेशान हो गई एवं इसकी शिकायतें राजभवन तक पहुंचने लगीं। राजा ने मंत्रियों एवं विशिष्ट सभासदों की बैठक बुलाई एवं उसमें निश्चय किया गया कि स्कॉट को जो रास्ता बनाने की अनुमति दी गई है उसे तत्काल रद्द किया जाए।

उ.तिरतसिंह ने तुरंत एक पत्र स्कॉट को इस विषय में भेजा। स्कॉट ने उसे एवं उसकी मां को समझाने का प्रयत्न किया परंतु दोनों ने ही उसकी बात का नकारात्मक उत्तर देकर सात दिनों के अंदर काम रोकने को कहा।

स्काट चालाक था। उसने अपनी सेना के संरक्षण में रास्ते का कार्य प्रारंभ रखा। अंत में जब उ. तिरतसिंह ने देखा कि काम बंद नहीं हो रहा है, तो उसने अंग्रेजों के विरुध्द युध्द की घोषणा कर दी। राजा ने दस दिन इंतजार किया एवं एक दिन अचानक रास्ते का काम कर रहे लोगों एवं अंग्रेजों पर बाणों की वर्षा प्रारंभ कर दी। २ अंग्रेज अधिकारी घायल हो गए एवं कुछ अंग्रेजों की मृत्यु हो गई। चारों ओर जीत की खुशी मनाई जाने लगी। जखमी अंग्रेज अपने मृत साथियों के शवों को लेकर अपने तंबू में लौट गए। रास्ता निर्माण का काम बंद हो गया।

कमांडर स्कॉट ने तुरंत ४४ सिलहट लाईट इन्फेन्ट्री को बुलाया जिसका कमांडर लिस्टर था। उसी प्रकार गुवाहाटी से ४२ असम इन्फेन्ट्री को लेकर कैप्टन बैंच ने नांग्खलौ की ओर कूच किया।

अंग्रेज पूरी तैयारी से थे। संख्याबल एवं शस्त्रों में अच्छे थे। उ.तिरतसिंह ने अपनी सेना का मनोबल बढ़ाते हुए चार वर्ष तक युध्द किया। खास बात यह थी कि स्त्रियों ने भी अपनी सेना बनाकर युध्द में भाग लिया। एक अंग्रेज इतिहासकार के अनुसार ‘‘यह चार साल का युध्द बहुत दुःखद था। कई अंग्रेज सेनापति-अधिकारी इसमें शहीद हुए। नांग्खलौ के आस-पास के राज्यों में हमने प्रचार किया कि हम तुम्हारे खिलाफ नहीं हैं। फिर तुम लोग क्यों उ.तिरतसिंह का समर्थन कर रहे हो। कमांडर स्कॉट ने आस-पास के राजाओं को विभिन्न भेंटवस्तुएं देकर, प्रलोभन देकर अपनी ओर कर लिया। कमांडर स्कॉट की जगह आए कमांडर रॉबर्टसन् ने भी यही नीति जारी रखी। उ.तिरतसिंह ने राजाओं को समझाने का प्रयत्न किया कि रास्ते के बहाने हमें गुलाम बनाने का अंग्रेजों का षड्यन्त्र है परंतु वे सभी अंग्रेजों के बहकावे में आ गए। मिल्लोन में अंग्रेजी सेना का नेतृत्व कर रहे मिस्टर इंग्लिश ने एक और चाल चली। वहां की प्रथा के अनुसार तलवार पर नमक रख कर कसम खाई कि यदि उ.तिरतसिंह बातचीत के लिए आगे आते हैं और यदि बातचीत असफल भी होती है तो भी हम उ.तिरतसिंह को वापस जाने देंगे। इसके कारण खासी लोग बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने उ. तिरतसिंह पर दबाव बनाया। दबाव के आगे झुकते हुए उ.तिरतसिंह वार्ता के लिए मिल्लोन पहुंचे। मिस्टर इंग्लिश ने उनका स्वागत किया। एवं पुनः एक बार तलवार पर नमक रखकर शपथ ली। वार्ता दूसरे दिन की निश्चित कर उ.तिरतसिंह अपने विश्रांति स्थल पर वापस आ गए।

परंतु विश्वासघाती अंग्रेजों ने रात्रि में ही उनका विश्रांतिस्थल घेर लिया। उनके सभी साथियों को निःशस्त्र कर उन्हें बंदी बना लिया। उ.तिरतसिंह ने जब सुबह यह देखा कि वे बंदी बना लिए गए हैं तो वे आगबबूला हो गए। उन्होंने मि. इंग्लिश को याद दिलाया कि उन्होंने तलवार पर नमक रखकर शपथ ली है। धूर्त इंग्लिश ने जवाब दिया कि कल १३ जनवरी थी तब आप स्वतंत्र थे, आज १४ जनवरी है और आप हमारे कैदी हैं। आप अभी भी हमसे समझौता कर हमें रास्ता बनाने दें। हम आपका राज्य आपको वापस कर देंगे परंतु आपको हमारे अधीन रहना होगा। उ.तिरतसिंह ने उत्तर दिया कि, तुम्हारा गुलाम राजा बनने की बजाय मैं साधारण मनुष्य के रुप में मरना पसंद करूंगा।

दूसरे दिन खासी लोगों ने देखा कि उनके प्रिय राजा को बेड़ियों से जकड़कर कैप्टन लिस्टर की सेना गुवाहाटी ले गई। उ.तिरतसिंह मातृभूमि के विरह से रो रहे थे। उनकी कैद के कारण खासी समुदाय की प्रतिकार शक्ति समाप्त हो गई। शेष सैनिकों ने अंग्रेजों का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। सिलचर गुवाहाटी रास्ता बनाने की अनुमति दी गई। बदले में खासी समुदाय को अंतर्गत स्वायत्तता देने का आश्वासन दिया गया।

कैप्टन लिस्टर पहले राजकीय एजेंट बने। उन्होंने उ.तिरतसिंह को बर्मा में ‘‘सरीम तेना’’ जेल में भेजने का आदेश दिया। बाद में कोलकाता की ब्रिटिश कौंसिल ने निर्णय बदलकर उ.तिरतसिंह को ढ़ाका की जेल में भेजा। वहां एक घर में उन्हें नजरबंद रखा गया। सन १८३४ में उनका देहान्त हुआ।

आज उ.तिरतसिंह नहीं है, अंग्रेज भी नहीं है परंतु नांग्खलौ की पर्वतमाला में यह आवाज आज भी गूंजती है कि ‘‘गुलामी स्वीकार कर राजा बनने की अपेक्षा मेरा सामान्य व्यक्ति के रूप में मरना हजार गुना श्रेष्ठ है’’।

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