पूर्वोत्तर का छापामार युध्द

लेखक ने ५० वर्ष की सैन्य सेवा में से २२ वर्ष-१९६४ से २००२ के अंतराल में- पूर्वोत्तर भारत में सैन्य सेवा की है। असम, मिजोरम, नगालैण्ड में शांति स्थापना में योगदान किया है। इसलिए पूर्वोत्तर क्षेत्र के बारे में जमीनी हकीकत को वे अच्छी तरह जानते हैं।

पूर्वोत्तर भारत को अधिकांश लोग नॉर्थ ईस्ट के नाम से जानते हैं। यह क्षेत्र नगालैण्ड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश तथा असम से मिल कर बनता है। पूर्वोत्तर भारत का विद्रोह, गृहयुध्द, खर्पीीीसशपलू तथा कश्मीर की समस्या स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही हमारे साथ है। नगालैण्ड की समस्या लगभग ६० वर्ष पुरानी है। नगालैण्ड का विद्रोह विश्व का सब से लम्बे समय तक चलने वाला विद्रोह है। द्वितीय महायुध्द की समाप्ति तथा भारतीय स्वतंत्रता के समय से ही यह समस्या प्रारंभ हुई व आज २०१५ में भी इस समस्या का आशान्वित समाधान नहीं हुआ है। नवीन केन्द्र शासन द्वारा उठाए गए कदमों से सम्भवतः इस क्षेत्र में शीघ्र शांति स्थापित होगी ऐसी आशा बन रही है।

मैंने सर्व प्रथम १९६० में कॉलेज विद्यार्थी के रूप में असम का भ्रमण किया एन.सी.सी. के कैडेट के रूप में। पूर्वोत्तर भारत के अनेक युवकों से परिचय हुआ। सशस्त्र विद्रोह होने पर १९६४ में मैं एक तरुण सैन्य अधिकारी के रूप में नगालैण्ड में नियुक्त था। उस समय सशस्त्र विद्रोह अपनी चरम सीमा पर था। नगा विद्रोहियों ने स्वतंत्र नगालैण्ड की घोषणा की थी। उन्होंने संसद स्थापित की, सरकार का गठन किया, स्वतंत्र नगालैण्ड का ध्वज था। नगा आर्मी नाम का उनका सैन्य दल था। ऐसी अवस्था में भारतीय सेना को वहां जाकर शांति स्थापित करने के लिए बाध्य होना पड़ा। विद्रोह प्रारंभ होने के पहले नगालैंड, असम प्रांत का एक भाग था। स्वतंत्रता के समय पूर्ण पूर्वोत्तर भारत में असम, मणिपुर, त्रिपुरा के तीन राज्य थे। आज २०१५ में वहां ८ राज्य हैं। अभी और स्वतंत्र राज्यों की मांग की जा रही है। मैंने मेरे ४० वर्ष के सैन्य काल में २२ वर्ष पूर्वोत्तर भारत में सैन्य सेवा की है। इसी कारण मुझे वस्तुस्थिति की इतनी जानकारी है जितनी बहुत कम लोगों को होगी।

नगालैण्ड, मिजोरम, मणिपुर का विद्रोह ब्रिटिश शासन की भारत को विदाई के समय की देन है। द्वितीय महायुध्द के समय जापान ने ब्रिटिश भारत पर आक्रमण किया। बर्मा युध्द हमारे इतिहास में प्रसिध्द है। जापान की सेना वर्तमान नगालैण्ड की राजधानी कोहिमा तक आ गई थी। मणिपुर राज्य की राजधानी इंफाल के आसपास भी युध्द हुआ। भारतीय सैनिकों ने जापान को इस युध्द में विजयी नहीं होने दिया। युध्द काल में नगा आदिवासियों को छापामार (गुरिल्ला) युध्द का प्रशिक्षण दिया गया। शस्त्र सामग्री दी गई व जापानियों पर घात लगाकर आक्रमण करने के लिए उपयोग किया गया। जापानी सेना नगालैण्ड से वापस भागते समय बहुत बड़ी मात्रा में युध्द सामग्री, शस्त्र छोड़ गई। उसी प्रशिक्षण व युध्द सामग्री का उपयोग भारतीय सेना के विरुध्द नगा विद्रोहियों ने किया। भारत को स्वतंत्रता देते समय अंग्रेज सरकार ने नगा समुदाय को यह आश्वासन दिया था कि स्वतंत्र भारत में नगाओं को अपनी जीवन पध्दति, जीविका, तथा शासन व्यवस्था नगा समुदाय के रीति-रिवाजों के तहत करने का अधिकार होगा। नगा विद्रोहियों ने इसका अर्थ लगाया कि नागाओं को भारत से स्वतंत्रता प्राप्त करने का अधिकार होगा। यही बात आज भी युवाओं में भ्रम फैलाने के लिए बताई जाती है। यद्यपि भारत में नगालैण्ड के समुदाय को ‘नागा’ शब्द से जाना जाता है। परन्तु वास्तविकता में स्त्री व पुरुष अत्यंत शक्तिशाली, गोरे वर्ण के, सुडौल तथा प्रभावशील प्रतिमा के लोग हैं। पहाड़ी व जंगली क्षेत्र होने के कारण लोग मेहनती व ईमानदार प्रवृत्ति के हैं। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में लोग घरों में ताला नहीं लगाते हैं। खेती का धान्य खेतों में ही रखते हैं। लोग वहां चोरी नहीं करते हैं। अपराध बहुत कम होते हैं। स्त्रियों का मान सम्मान होता है। घर की बड़ी बेटी को अत्यंत सम्मानपूर्वक देखा जाता है। क्या यह सब भारत में अपने आपको सभ्य, शिक्षित, संभ्रांत समझने वाले समाज में दिखाई देता है? यह एक चर्चा का अलग विषय है।

बर्मा युध्द के समय अंग्रेज सैनिक वहां होने कारण ईसाई धर्म की नींव वहां रखी गई। नगालैंड निवासी किसी धर्म विशेष को नहीं मानते थे। मिशनरियों के प्रभाव में उनका धर्मांतरण हुआ। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद न केवल नगालैण्ड बल्कि पूरे पूर्वोत्तर भारत में धर्मांतरण एक पूर्व नियोजित चाल व कार्यक्रम के तहत किया गया है। नगालैंड, मिजोरम, मणिपुर राज्य का पहाड़ी क्षेत्र, अरूणाचल प्रदेश तथा असम में ईसाई धर्म के लोग ज्यादा हैं। इसीलिए यहां के निवासियों की पाश्चात्य जगत के प्रति धार्मिक व सांस्कृतिक आस्था है। ईसाई मिशनरियों ने पूर्वोत्तर भारत में असंतोष, विद्रोह तथा भारत के विरुध्द मानसिकता तैयार करने पूरा योगदान दिया है। नगालैण्ड के स्वयंभू नेता अंगामी झुपू फिजो (अन झकखनज) जो अंगामी जनजाति का था व भारतीय सेना में हवलदार के पद पर कार्यरत था, यूरोप में रह कर विद्रोह का संचालन करता था। उसने अपना पूर्ण विद्रोही जीवन यूरोप में मिशनरी के संरक्षण में व्यतीत किया। आज भी पाश्चात्य जगत का प्रभाव पूरे पूर्वोत्तर भारत में है।

१९६२ के चीन भारत युध्द के बाद चीन ने नगा विद्रोहियों को पूरी सहायता दी। युध्द प्रशिक्षण, सैन्य सामग्री, माओवादी विचारधारा, आर्थिक सहायता तथा अंतरराष्ट्रीय पटल पर नगा विद्रोहियों की पैरवी तथा भ्रामक प्रचार भी किया, और आज भी जारी है। केन्द्र सरकार तथा नेशनल कांउसिल ऑफ नगालैंड (आय.एम.) छडउछ (खच)के बीच जो समझौता ३ अगस्त २०१५ को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुआ है, उस समझौते में उपस्थित ज्यादातर नगा विद्रोही चीन में छापामार युध्द में प्रशिक्षित हैं। मुईवा का सैन्य प्रशिक्षण भी चीन में ही हुआ था। चीन की सहायता से ही ये सब विद्रोही नेता चीन के दक्षिण में स्थित यूनान प्रांत में, हांगकांग व थायलैंड में, बैंकाक में रहते थे। इनका वहां व्यवसाय है। बैंकों में पैसा लगा हुआ है। आज भी पूर्वोत्तर भारत में कार्यरत व सक्रिय विद्रोही संगठनों को हर प्रकार की सहायता, प्रोत्साहन, प्रशिक्षण व सुरक्षित आश्रय डरषश डरपर्वीीू, चीन, म्यांमार तथा बांग्लादेश में चीन के द्वारा प्राप्त कराई जाती है। वर्तमान भारतीय शाासन के पास इसके प्रमाण अवश्य ही होंगे।

नगालैंड में विद्रोह के बाद १९६३ में नगालैण्ड को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया, ताकि वहां के निर्वासियों को राजनीति, शासन, सुव्यवस्था में भागीदारी मिले। यह एक अच्छा कदम था। नगालैण्ड को राज्य का दर्जा मिलने के बाद मिजोरम में भी स्वतंत्रता व सार्वभौमिकता की मांग उठने लगी। १९६५ में पाकिस्तान-भारत युध्द में पाकिस्तान को पराजित होना पड़ा। बदले की भावना से प्रेरित होकर १९६६ में पाकिस्तान के सक्रिय सहयोग व सैन्य सहायता से मिजोरम में सशस्त्र विद्रोह हुआ।  सेना को प्रतिविद्रोही कार्रवाई करनी पड़ी। भारतीय सेना के लालडेंगा नामक राष्ट्र विद्रोही को पाकिस्तान में शरण प्राप्त हुई व पाकिस्तान के संरक्षण, नियंत्रण व निर्देशन में २२ वर्ष तक भारत के साथ छापामार युध्द किया। १९८८ में शांति समझौते के तहत लालडेंगा तथा विद्रोही भारत आए तथा लालडेंगा मिजोरम के मुख्यमंत्री बने। लालडेंगा की मृत्यु के बाद उनके सहयोगी व विद्रोही जोरामथांगा मिजोराम के मुख्यमंत्री बने।

सन १९६६ से लेकर १९७३-७६, १९८८-८९ में मैंने मिजोरम में सैन्य सेवा की है, इसलिए पूर्ण स्थिति व वास्तविकता की मुझे जानकारी है। विद्रोह के बाद मिजोरम, जो पहले असम प्रांत का ‘‘बुशाई हिल’’ नामक जिला था, केन्द्रशासित प्रदेश बना व बाद में पूर्ण राज्य बना। नगालैण्ड व मिजोरम के विद्रोह तथा बाद में पूर्ण राज्य की स्थापना के कारण पूर्वोंत्तर भारत के लोगों में एक धारणा बन गई कि शस्त्र उठाने पर ही भारत सरकार जागती है। इससे अन्य राज्यों में भी विद्रोह की भावना तथा गृहयुध्द की भावना बढ़ने लगी।

१९७१ के युध्द के पश्चात मेघालय, जो कि असम का ही भाग था, पूर्ण राज्य बना। नेफा छएऋअ, जो असम का ही एक भाग १९६२ के युध्द के समय था, पूर्ण राज्य बना। इस घटनाक्रम से असम प्रांत में उल्फा नामक देशद्रोही संगठन ने विद्रोह के लिए १९७८ में शस्त्र उठाया। असम में ही बोड़ो आदिवासियों ने स्वतंत्रता के लिए शस्त्र उठाए व विद्रोह किया। त्रिपुरा में भी शस्त्रों का प्रयोग किया गया व मणिपुर राज्य में भी देशद्रोही व विद्रोही संगठन कार्यरत है। भौगोलिक दूरी, स्थानीय भौगोलिक व सामाजिक स्थिति के कारण अलगाव की भावना पनपने लगी। विकास न होने के कारण पूर्ण पूर्वोंत्तर भारत को ‘‘ठशोींश रपव षेीसेींींशप लेीपशी ेष खपवळर ’’ की संज्ञा दी गई। इसका मानसिक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।

१९६२ के चीन भारत युध्द के समय स्थिति की वास्तविकता की जानकारी न होने के कारण तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने तो यहां तक कह दिया कि, ‘‘चू हशरीीं सेशी ुळींह ींहश शिेश्रिश ेष ईीरा ’’ इसका प्रचार असम के उल्फा विद्रोहियों ने किया व भ्रामक भावना फैलाई कि, ‘‘पंडित नेहरु ने असम को चीन के हवाले कर दिया था!!’’ राजनीति, कूटनीति व रणनीति में शब्दों का प्रयोग बहुत सोचसमझ कर करना चाहिए यह राष्ट्रनीति का एक महत्वपूर्ण सिध्दांत है। हर राजनैतिज्ञ को यह अच्छी तरह समझना आवश्यक है। इसी प्रकार तत्कालीन प्रधान मंत्री नरसिंह राव ने दिल्ली में लाल किले से राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए पूर्वोंत्तर भारत की स्थिति के बारे में कहा था, ‘‘दिल्ली से दूर तो दिल से भी दूर’’ यद्यपि यह सत्य है, यथार्थ भी हैं। परन्तु राष्ट्रनीति का एक और सिध्दांत है कि, ‘‘राजनीति, कूटनीति व रणनीति में सत्य बोलना आत्महत्या करने के बराबर होता है!!’’ क्या हमारे राजनैतिज्ञों ने इन सिध्दांतों का अभ्यास व विवेचन किया है? आज वास्तविकता है कि त्रिपुरा व मिजोरम राज्यों को छोड़ कर पूर्वोंत्तर के हर प्रांत में अशांति है, शस्त्रों से लैस आतंकवादी, अलगाववादी, राष्ट्रद्रोही तत्व सक्रिय हैं। सशस्त्र संघर्ष की स्थिति बनी है। यह स्थिति राजनैतिक, शासकीय अकर्मण्यता, अक्षमता, अयोग्यता तथा असंवेदनशीलता के कारण पिछले ६० वर्षों से बनी हुई है। पुलिस, कानून, न्याय, प्रशासन व्यवस्था जब अस्वस्थ हो जाती है तब अंततः सेना की सहायता ली जाती है।

सेना का प्रयोग करते समय भारतीय संविधान के तहत ईाशव ऋेीलशी डशिलळरश्र झेुशीी अलीं (अऋडझअ) को लागू किया जाता है। उसके तहत सेना को वही अधिकार होते हैं, जो पुलिस को होते हैं। इस कानून के बिना सेना शांति व्यवस्था स्थापित करने के लिए शक्ति प्रयोग नहीं कर सकती व अपना कार्य नहीं कर सकती। यह एक्ट राज्य शासन की सहमति से लगाया जाता है। इसीलिए पूर्वोंत्तर भारत व कश्मीर में अऋडझअ लागू किया गया है। यदि यह एक्ट न लगाया जाए तो सेना कुछ भी नहीं कर पाएगी। यह अच्छा प्रावधान है। कुछ लोग, राष्ट्रद्रोही तत्व, एन.जी.ओ., मानवाधिकार संगठन, भारतीय शासन को बदनाम करने के लिए तथा सेना के कार्य में बाधा डालने के लिए जानबूझकर भ्रामक प्रचार व प्रयास करते हैं। जनता को इसका विरोध करना चाहिए। शासन को भी ऐसे संगठन व तत्वों के विरुध्द कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए।

६० वर्षों से चल रहे गोरिल्ला युध्द को समाप्त करने में सेना को सफलता मिली है। राज्य शासन, पुलिस, अर्धसैनिक बलों के साथ कार्रवाई करने के कारण ही यह सफलता मिली है। इसमें स्थानीय जनता का भी महत्वपूर्ण योगदान है। मिजोरम, त्रिपुरा, असम राज्यों में शांति व्यवस्था कायम है। नगालैण्ड में भी स्थिति नियंत्रण में है। यदि अऋडझअ कानून हटा दिया जाए तो स्थिति फिर से बिगड़ सकती है। यह उल्लेखनीय बात है कि पूर्ण भारत का कोई भी छोटासा भाग बंदूक, आतंकवाद, हिंसा के कारण भारत से अलग नहीं हो पाया है, न ही भविष्य में अलग होगा। भारतीय जनता व सेना ऐसा नहीं होने देगी। परन्तु अलगाववाद एक मानसिकता है, मानसिक रोग है, इसे शासकीय माध्यम, राजनैतिक व मनोवैज्ञानिक माध्यम से ही दूर किया जा सकता है। सैन्यशक्ति, बंदूक, मिसाइल, हवाई ताकत के बल पर आतंकवाद, अलगाववाद, कट्टरवाद समाप्त नहीं होता है। विश्व का कोई भी देश, अमेरिका समेत, केवल सैन्य शक्ति के आधार पर सफल नहीं हो पाया है। वियतनाम, अफगानिस्तान, इराक में अमेरिका को सफलता नहीं मिली और न मिलेगी। सैन्य शक्ति की एक सीमा होती है, मर्यादा होती है। केवल लोगों को मारने से अलगाववाद, आतंकवाद, गोरिल्ला युध्द, गृहयुध्द समाप्त नहीं होता। लोगों का मन परिवर्तन, मत परिवर्तन व हृदय परिवर्तन करने की आवश्यकता होती है। इसी कारण आंतरिक युध्द जीतने के लिए मस्तिष्क तथा हृदय जीतना आवश्यक है। भारतीय सेना इसमें निपुण, दक्ष व तज्ञ है। आंतरिक सुरक्षा, आतंकवाद, अलगाववाद से निपटने में भारतीय सेना ने आज तक देश में असाधारण सैन्य शक्ति, गन, टैंक, हवाई ताकत का प्रयोग स्वतंत्रता प्राप्ति से २०१५ तक नहीं किया है। पूरा विश्व, संयुक्त राष्ट्र संघ, अमेरिका भारतीय सेना की सराहना करते हैं। यह स्वागत योग्य है। इसी कार्यक्षमता व कार्यकुशलता के कारण विश्व के अनेक भागों में भारतीय सेना को आमंत्रित किया जाता है। भारतीय सैनिकों की मांग है व सराहना भी की जाती है।

पूर्वोत्तर भारत में पूर्ण शांति कायम करने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका स्थानीय लोगों की है। जब तक शांति स्थापित नहीं होगी तब तक व्यापार, व्यवसाय, उद्योग नहीं बढ़ेंगे, आर्थिक उन्नति तथा विकास नहीं होगा। विकास नहीं होगा तो लोगों को रोजगार, नौकरी नहीं मिलेगी और अशांति फैलेगी। नौकरी देना यह शासन का कार्य नहीं है। शासकीय सेवा देना शासन का काम है। औद्योगिक, आर्थिक उन्नति के लिए वातावरण तैयार करना स्थानीय लोगों की, नेताओं की जिम्मेदारी है। जनता का दायित्व है, हर बात के लिए शासन को दोष देना व शासन पर निर्भर रहना उचित नहीं है।

भारत की आर्थिक उन्नति, औद्योगिक प्रगति में पूर्वोत्तर राज्य बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। बड़ा योगदान दे सकते हैं। यदि युवा वर्ग चाहे व प्रयत्न करें तो पूर्वोत्तर भारत को ठशोींश लेीपशी ेष खपवळर से ॠरींश ुरू ींे एरीीं ईळर के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। पूर्वोत्तर भारत की भौगोलिक, सामाजिक स्थिति पूर्व एशिया में काम करने के लिए उपयुक्त है। मानव संसाधन का उपयोग पूर्व एशिया में किया जा सकता है। तभी पूर्वोत्तर भारत की उन्नति होगी, प्रगति होगी तथा शांति स्थापित होगी। भारतीय संस्कृति का एक सिध्दांत है – शांति, सरस्वती, लक्ष्मी एक साथ निवास करती हैं। पूर्वोत्तर भारत में जब तक शांति नहीं होगी, सरस्वती डज्ञळश्रश्र ऊर्शींशश्रेिाशपीं, एर्वीलरींळेप नहीं होगी। शांति तथा सरस्वती नहीं होगी तो लक्ष्मी आएगी कैसे? लक्ष्मी वहीं आती है, जहां लक्ष्मी के आने के लिए वातावरण हो, शांति हो। यह वातावरण केवल पूर्वोत्तर भारत का युवा वर्ग ही कर सकता है। सैन्य शक्ति, सेना, पुलिस, मिशनरी, धार्मिक संस्थान, अलगाववादी, आतंकवादी नहीं कर सकते है।

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