पूर्वोत्तर समस्याएं और समाधान

पूर्वांचल तथा शेष भारत के बीच सम्पर्क तथा संवाद बढ़ाने की आवश्यकता है। संतुलित विकास हो तो वहां आर्थिक उन्नति होगी, यातायात और शिक्षा के साधन बढ़ेंगे, व्यापार बढ़ेगा तथा युवक आतंकवादी संगठनों के बहकावे में नहीं आएंगे। इस नवोदय की ओर बढ़ना हम सब पर निर्भर है।

भारत के उत्तर पूर्वांचल में सात राज्य थे। उसमें अब सिक्किम भी जुड़ गया है। इस पूरे भूभाग की जनसंख्या और आर्थिक स्थिति का आंकलन करें तो यह पूरे देश का आठवां हिस्सा है। भारत की सीमा पर चल रही विद्रोही गतिविधियों एवं आतंकवाद का आकलन करें तो पूरे देश में चल रही ऐसी गतिविधियों का ६०% प्रतिशत हिस्सा इन्हीं राज्यों में है। दिल्ली में बैठी सरकार का इस क्षेत्र के विकास की ओर कोई ध्यान नहीं है, इस प्रकार की शिकायत यहां के लोग वर्षों से कर रहे हैं। यहां के समझदार नागरिकों के बीच व्याप्त निराशा और कुंठा लगातार बढ़ रही है।

सर्वाधिक भ्रष्टाचारः पूरे देश में फैले भ्रष्टाचार का सबसे अधिक अनुपात भी इन्हीं राज्यों में हैं। नगालैंड, असम, मणिपुर जैसे राज्यों में आतंकवादी एवं देशद्रोही संगठन सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों और व्यापारियों से खुलेआम वसूली करते हैं। यदि मांग पूरी नहीं की गई तो हत्या तक कर देना मामूली बात है। असम में बांग्लादेश की सीमा से लगे गांवों में मुस्लिम घुसपैठियों द्वारा वहां के बोडो, दिमाशा, कछारी, कारबी, राभा, राजवंशी जैसी हिन्दू जन जातियों को लूटा जा रहा है, और इनकी जमीन पर जबरन कब्जा किया जा रहा है। पाठकों को स्मरण होगा कि पिछले साल कोकराझार में बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों के एक दल ने बोडो जनजाति के लोगों को उनकी ही जमीन पर शरणार्थी बनने को मजबूर कर दिया। इधर असम सरकार ने इन जनजातीय लोगों को न तो सांत्वना दी, न उनके साथ सरकारी मशीनरी खड़ी रही। यही नहीं तो सरकार ने केवल वोट बैंक की हवस में बांग्लादेशी घुसपैठियों को ही संरक्षण भी दिया।

असम के चालीस प्रतिशत विधान सभा क्षेत्रों में बड़ी संख्या में इन घुसपैठियों को मतदाता पत्र जारी हुए हैं। परिणामस्वरूप अब यह वोट बैंक राज्य की राजनीति को प्रभावित करने में सफल हो रहा है।

हिन्दी पर प्रतिबंधः

आतंकवादियों के दबाव के चलते पिछले कई वर्षों से हिन्दी पर प्रतिबंध लगा हुआ है। इम्फाल, चूडाचांदपूर जैसे शहरों में तो ‘‘इंडियन गो बैक’’ लिखे पोस्टर भी दिखाई देते हैं। यहां दो-दो, तीन-तीन महीने तक बंद व हड़ताल का होता सामान्य बात है। ऐसे समय में डीजल व पेट्रोल १३० से २०० रुपये प्रति लीटर बिकता है। घरेलू गैस डेढ़ से दो हजार रुपये प्रति सिलेंडर तक बिकती है। किसी भी पाठ्य पुस्तक के प्रारम्भ में या अंत में राष्ट्रीय उत्सव भी कड़े सुरक्षा प्रबंधों के बीच आयोजित किया जाता है। अकेले मणिपुर में दस से भी अधिक आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं। इन आतंकवादी संगठनों को विदेशों से मिलने वाले शस्त्रों एवं धन के बल पर भारत में विद्रोह की आग फैलाई जाती है। यही स्थिति त्रिपुरा में भी हैं। यहां त्रिपुरा नेशनल लिबरेशन फ्रंट जैसा संगठन आतंक व विद्रोह का वातावरण बनाने का काम पिछले कई वर्षों से कर रहा है।

 अभिवादन का प्रतीक ‘जयहिन्द’- अरुणाचल

पूरे देश में सर्वाधिक प्राकृतिक सम्पदा एवं बलिष्ठ देशभक्त युवकों के प्रांत के रूप में अरुणाचल प्रदेश प्रसिद्ध है। पूर्वांचल का यही एक ऐसा राज्य है जहां गांव गांव में हिन्दी बोली जाती है। विधान सभा का कामकाज भी हिन्दी में ही चलता है। यहां ‘जयहिन्द’ कह कर अभिवादन करने की लोकप्रिय परम्परा भी है। दुर्भाग्य से यहां के ८०% गांवों में अभी भी बिजली नहीं है। सीमावर्ती क्षेत्रों में तो सड़कों का अता पता भी नहीं है।

उत्तर पूर्वांचल यह भारत का मुकुट है। यह देवी-देवताओं का प्रदेश है। प्राकृतिक सौंदर्य से सजा हुआ है। इस क्षेत्र को अप्सराओं का क्षेत्र भी कहा जाता है। यहां के नयनाभिराम सरोवर, नदियां, पर्वत एवं यहां के निवासी भारत का गौरव है। सारी दुनिया में यह अनन्य है। परन्तु ये राज्य केवल आतंकवाद एवं अराजकता की काली छाया के ही शिकार नहीं हैं, बल्कि ये राज्य दिल्ली में बैठे पत्थर-हृदय शासकों की उपेक्षा के शिकार भी हैं।

 अलगाववाद के कारण

सम्पर्क का अभावः यह दिखाई देता है कि सम्पर्क का अभाव तथा इन प्रदेशों के विषय में अज्ञान ही यहां के अलगाववाद का मूल है। इन प्रदेशों के नाम व राजधानियों के नाम सामान्य भारतीय नामों से अलग होने के कारण अनेक लोगों को ऐसा लगता है कि ये पूर्व की ओर के देश हैं। वहां के असंख्य नागरिकों की शक्ल चीन, जापान आदि देशों के नागरिकों से मिलती जुलती है। जब पूर्वांचल के ये नागरिक भारत के अन्य भागों में किसी कारणों से जाते हैं तो उन्हें चीनी या जापानी समझने की भारी भूल हम लोग करते हैं। कई बार तो ऐसे अवसर भी आते हैं, जब सुरक्षा कर्मियों या पुलिस द्वारा उनसे पासपोर्ट या वीजा भी मांगा जाता है। पूर्वांचल के अशांत वातावरण से परेशान होकर शेष भारत में पढ़ने आने वाले पूर्वांचल के लगभग सवा लाख विद्यार्थियों को एक ओर इन परिस्थितियों का समाना करना पड़ता है तो दूसरी ओर हिन्दी-अंग्रेजी का उन्हें पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण ये विद्यार्थी यहां के लोगों के साथ ठीक से संवाद भी नहीं बना पाते।

 आंतरिक सम्पर्क का अभाव

पूर्वांचल की भौगोलिक स्थिति विविधतापूर्ण है। दुर्गम पर्वतों, घने जंगलों, विशाल नदियों से यह क्षेत्र भरा पड़ा है। वहां रहने वाली बहुभाषी जनजातियों को इन दुर्गम पर्वतों के कारण शेष भारत से अनेक वर्षों तक दूर रहना पड़ा। सब की अपनी अपनी स्वतंत्र भाषा, संस्कृति, पूजा पद्धति तथा आचार विचार होने के कारण उनमें समरसता पैदा होना कठिन था ही; ऊपर से यह भौगोलिक दुर्गमता थी ही। अलग अलग भाषा बोलने के कारण एक दूसरे की भावनाओं को समझ नहीं सकने के कारण आपस में संघर्ष होना स्वाभाविक था। उस संघर्ष को रोकने के लिए एक भाषा का सूत्र रूप में प्रयोग जरूरी था, पर दुर्भाग्य से वैसा हो नहीं पाया। पूर्वांचल में कुल मिलाकर १८० जन जातियां हैं। उनकी सब की भाषाएं एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं। उप भाषाओं की संख्या तो सात सौ के आसपास है। (इसकी निश्चित संख्या किसी के पास उपलब्ध नहीं है।) इन जनजातियों की, प्रत्येक की जनसंख्या बहुत कम है, कुछ की जनसंख्या तो पांच हजार से भी कम है। आसपास रहने वाली जनजातियों की भाषा अलग होने से उनके साथ वे समरस तो हो ही नहीं पाते, ऊपर से दूसरी जनजाति हमारे उपर प्रभुत्व तो नहीं जमा रही है इसका काल्पनिक भय हमेशा बना रहता है। वहीं से अस्मिता तथा अस्तित्व का संघर्ष भी दिखाई देता है। इन सभी जनजातियों में थोड़ी बहुत मात्रा में पहचान का संकट भी पैदा हुआ है।

इस काल्पनिक संकट को सही मानकर चलने वालों के पीछे विदेशी शक्तियों का तथा इस संघर्ष की आग पर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने वाले राजनीतिक दलों का भी बड़ा हाथ होता है।

लगभग तीस वर्ष पूर्व तक यह पूरा भू भाग एक प्रांत था। छोटे राज्यों की मांग पूरी होने के बाद एक एक राज्य की संरचना ही ऐसी हो गई है कि इनके बीच भौगोलिक कारणों से सम्पर्क कठिन हो गया है। उदाहरण के लिए मेघालय तथा अरुणाचल के एक जिले से दूसरे जिले में जाने के लिए असम से होकर फिर दूसरे रास्ते से उस राज्य में प्रवेश करना पड़ता है।

 राजनीतिक उपेक्षा

स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर अब तक पूर्वांचल लगातार राजनीतिक उपेक्षा का शिकार रहा है। भूटान, चीन, ब्रह्मदेश व बांग्लादेश इन चार देशों की सीमाओं से घिरे पूर्वांचल को सिलिगुड़ी का केवल ७० किलोमीटर का एक पट्टा शेष भारत से जोड़ता है। जरूरी यह था कि नेताओं को इस क्षेत्र के विकास की तथा सुरक्षा की सबसे पहले सुध लेनी चाहिए थी, पर दुर्भाग्य से यही महत्वपूर्ण भूभाग सर्वाधिक उपेक्षित रहा। हिन्दी-चीनी भाई भाई के सपने देखने वाले पूर्व प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू एवं पूर्व रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन दोनों ने ही अरुणाचल प्रदेश की चीन से लगी सैकड़ों मील लम्बी अंतरराष्ट्रीय सीमा को खुला छोड़ दिया। इस उपेक्षित क्षेत्र में अल्प सुरक्षा साधनों के साथ कम संख्या में उपस्थित सैनिकों को १९६२ में चीन के युद्ध का सामना करना पड़ा।

 असंतुलित विकास

शासकीय अदूरदर्शिता तथा उपेक्षा के कारण हमारे देश का विकास असंतुलित रूप से हुआ। शुरुआती दौर में तो ब्रह्मपुत्र पर पुल बनाने की बात हो, गुवाहाटी ब्राडगेज लाइन हो, असम में प्राप्त होने वाले तेल की रिफायनरी का सवाल हो, या गुवाहाटी यूनिवर्सिटी की बात हो, कोई भी सुविधा असम की जनता को बिना आंदोलन किए, बिना संघर्ष किए प्राप्त नहीं हुई। आवागमन की दृष्टि से महत्वपूर्ण राष्ट्रीय राजमार्ग या रेलमार्ग बनाने का विचार भी केन्द्र सरकार ने नहीं किया। बेरोजगारी को दूर करने के लिए पूर्वांचल में जैसा औद्योगिक विकास होना चाहिए था और बाकी राज्यों की तुलना में एक प्रतिशत भी विकास नहीं हुआ।

 दूरदृष्टि का अभाव एवं स्वार्थ की राजनीति

पिछले पचास वर्षों में कांग्रेस के नेतृत्व का यह दुर्गुण है। सुनियोजित षड्यंत्र के तहत पूर्वांचल के मैदानी भागों में की गई घुसपैठ को पहले से रोकना जरूरी था। स्वतंत्रता प्राप्ति के तत्काल बाद योजनापूर्वक इसे रोका गया होता तो भस्मासूर की तरह बढ़ने वाली इस समस्या आज अस्तित्व में ही नहीं होती। उसी प्रकार पर्वतीय क्षेत्रों में होने वाले धर्मांतरण को कानूनी तौर पर रोकना चाहिए था। महात्मा गांधी ने भी ईसाई मिशनरियों पर प्रतिबंध लगाने की बात कही थी। घुसपैठ व धर्मांतरण के दूरगामी परिणामों पर विचार न करते हुए, तात्कालिक क्षुद्र राजनीतिक लाभ के लिए सामूहिक मतांतरण तथा घुसपैठ को प्रोत्साहित करने का ही काम कांग्रेस ने किया। परिणामस्वरूप आज पूरा पूर्वांचल अलगाव की आग में झुलसता दिखाई दे रहा है।

 स्वार्थी तथा क्षुद्र राजनीति

घुसपैठ व धर्मांतरण से होने वाली हानि से कांग्रेस अनभिज्ञ थी, ऐसा नहीं है। परन्तु केवल वोटों की राजनीतिक सुविधा के लिए उसने इस समस्या को खादपानी देकर बढ़ाने का काम किया। जनजातियों के बीच उत्पन्न पहचान के संकट का निराकरण करने के बजाय इसे बढ़ावा देकर अपना राजनीतिक हित साधा, फूट डालो व राज करो की अंग्रेजों की नीति का अनुसरण कर कांग्रेस ने वोट की क्षुद्र राजनीति की। एकात्मता निर्माण करने के लिए समान राजभाषा के सूत्र का उपयोग करने की ओर ध्यान नहीं दिया। अरूणाचल प्रदेश के अपवाद को छोड़ कर कहीं पर भी हिन्दी के प्रचार का प्रयास भी नहीं किया गया।

 आंतरिक सुरक्षा तथा सेना की उपेक्षा

पूर्वांचल में समय समय पर हुए आंदोलनों के हिंसक होने पर उन्हें ंवीरतापूर्वक रोकने का प्रयास तो किया ही नहीं गया, उलटे सीमा की सुरक्षा में लगी तथा आंतरिक सुरक्षा में लगी सेना की योजनाओं को स्वीकृत भी नहीं किए जाने की राजनीति की गई। आतंकवाद के विरुध्द जो कड़ी कार्रवाई अपेक्षित थी वह न करते हुए, उनके प्रति नरम दृष्टिकोण की नीति अपनाई गई।

समाधान

पूर्वांचल की समस्याओं के समाधान के लिए उनके कारणों की जड़ में प्रत्येक समस्या का अलग अलग स्तर पर विचार करना होगा।

प्रभावशाली सम्पर्क तथा जन जागरण पूर्वांचल व शेष भारत के बीच सम्पर्क तथा संवाद के अभाव को दूर करने के लिए कुछ भ्रांतियों को पहले दूर करना होगा।

अपने ही देश के कुछ बुध्दिजीवियों के अनुसार अंग्रेजों के कारण ही हमारे देश को एक राष्ट्र का स्वरूप प्राप्त हुआ अन्यथा भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा। यह विचारधारा पूर्वांचल के अलगाववाद को और बढ़ा रही है। इसी विचार का हवाला देकर विघटनकारी तत्व कहते हैं कि १५ अगस्त १९४७ से ही हम भारतीय बने अन्यथा हमारा भारत के साथ कोई सम्बंध नहीं था।

अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो नीति को मजबूत करने वाली मैकॉले की शिक्षा पध्दति में आज भी सिखाया जाता है कि पूर्वांचल की सभी जनजातियां मंगोल हैं, वे क्रूर जंगली तथा हिंसक हैं। परन्तु उनमें प्रचलित अनेक रीतियां तथा परम्पराएं शेष भारत की परम्पराओं से लेशमात्र भी अलग नहीं हैं। यदि कहीं कोई एक दो जनजातियां बाहर से भी आई होंगी तो उनको वहां की संस्कृति ने आत्मसात कर लिया है। अब उनमें से कोई जंगली, क्रूर और हिंसक न होकर दिल से उदार, विश्वसनीय तथा पवित्र हैं। अतिथि देवो भव की परम्परा तथा प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव जैसे समानता के बिन्दु अंग्रेजों की कूटनीति का पर्दाफाश करते हैं।

वर्षों से चली आ रही एक दूसरे के प्रति भ्रांतियों को दूर कर एकात्मता का भाव पैदा करने के लिए पूर्वांचल तथा शेष भारत इन दोनों के बीच सम्पर्क तथा संवाद बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके लिए नीचे कुछ उपाय सुझाव प्रस्तुत हैं ः-

 शिक्षा पद्धति

शेष भारत के विद्यार्थियों को दी जाने वाली शिक्षा में पूर्वांचल की जानकारी के लिए स्वतंत्र अध्याय होने चाहिए। जिससे विद्यार्थियों को पूर्वांचल का ज्ञान हो सके। पूर्वांचल के ऐतिहासिक व्यक्तियों, वीर पुरुषों तथा स्वतंत्रता सेनानियों की जानकारी भी सम्बंधित विषयों का एक भाग होना चाहिए। आज शेष भारत के कितने लोग लाचित बड़फुकन (असम), रानी मां गाईडीनल्यू, नगालैण्ड, तिरचसिंह, कियेंग नागबा (मेघालय) आदि महापुरुषों के विषय में जानते हैं? जबकि इनका जीवन चरित्र भी शिवाजी, राणा प्रताप, लक्ष्मीबाई जैसा ही प्रेरणादायी है।

 मार्गदर्शन केन्द्र

पूर्वांचल के विद्यार्थियों, व्यवसायियों, मरीजोंं तथा पर्यटकों के लिए विशेष मार्गदर्शक केन्द्र आवश्यक स्थानों पर खोलना चाहिए, जिससे शेष भारत में उनकी यात्रा या उनसे सम्बंधित कार्य सुविधाजनक तरीके से सम्पन्न हो सके।

 प्रसार माध्यम

प्रसार माध्यमों को भी पूर्वांचल के विषय में पर्याप्त जानकारी देना चाहिए। आज प्रचार माध्यम पूर्वांचल में होने वाली दुर्घटनाओं की भर जानकारी देता है परन्तु उसकी कारणमीमांसा करते हुए, उन्हेंे रोकने के उपायों पर भी जनजागरण होना चाहिए। इसके अलावा वहां की संस्कृति, विविधता, परम्परा, खानपान, आचार-विचार की जानकारी प्रसार माध्यमों के द्वारा हो सकती है। पूर्वांचल की लोककलाओं, वहां के महापुरुषों के जीवन पर आधारित कार्यक्रम भी बनाए जा सकते हैं। वहां की अनुपम प्रकृति की जानकारी प्रभावकारी तरीके से दी जा सकती है, जिसमें शेष भारत के लोगों का पूर्वांचल में पर्यटन के लिए प्रोत्साहन मिल सके।

 गैर शासकीय सेवा संस्थाएं

शेष भारत में कार्यरत सामाजिक- सांस्कृतिक संगठन, विद्यार्थी संगठन, उसी प्रकार सेवा कार्य में लगे संगठन तो इस संवादहीनता को दूर करने में बहुत बड़ी भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। पूर्वांचल से आए विद्यार्थियों के पूर्वाग्रहों को दूर करने में इन संस्थाओं को प्रयास करना चाहिए। तीज त्यौहारों में स्थानीय परिवारों में इन विद्यार्थियों का भोजन व त्यौहार में सहभागिता से यह दूरी दूर हो सकती है। उनके लिए अलग छात्रावास की व्यवस्था की जाए। वहां उनके तीज त्यौहारों को सामूहिक रूप से मनाए जाए तथा उसमें स्थानीय लोगों की भी भागीदारी हो। इस अवसर पर वहां के सांस्कृतिक कार्यक्रम स्थानीय लोगों की उपस्थिति में आयोजित किए जाए। दोनों ओर से जीवनदर्शन की यात्राएं आयोजित की जा सकती हैं, जिसमें रहने की व्यवस्था परिवारों के बीच की जाए। एक दूसरे को समझने तथा निकट आने का यह एक महत्वपूर्ण माध्यम बन सकता है। पत्र मित्र बनाने के कार्यक्रम भी परिणामारी हो सकते हैं।

 प्रयास पूर्वांचल में भी होना चाहिए

ऊपर दिए गए प्रयास पूर्वांचल की धरती पर भी होना जरूरी है। पूर्वांचल की विविध जनजातियों की सामाजिक, सांस्कृतिक समानता के बिन्दुओं से एक दूसरे को परिचित कराकर परस्पर एकात्मता का भाव जागृत किया जा सकता है। प्रतिवर्ष अलग-अलग राज्यों में सांस्कृतिक महोत्सवों का आयोजन हो। अपनी परम्परा तथा संस्कृति के विषय में सम्मान का भाव जगाने के लिए योजना बने। उसमें भी ‘‘केवल हमारा समाज‘‘ के स्थान पर ‘‘हम सब‘‘ के भाव का जागरण हो। शेष भारत के विषय में वहां प्रचलित भ्रांतिया दूर हों। वहां की सामाजिक-सांस्कृतिक, सेवा संस्थाओं तथा विद्यार्थी संगठनों का शेष भारत के संगठनों के साथ संवाद बने। इस प्रकार के अनेक प्रयत्नों को साकार रूप देने से ही एक दूसरे के बीच का दुराव समाप्त होगा। पूर्वांचल के अंातरिक संवाद तथा सम्पर्क के  लिए भी यही बातें सार्थक होंगी। इसके अतिरिक्त वहां आंतरिक सम्पर्क के लिए रास्तों, रेलमार्ग आदि को बढ़ाने की बहुत गुंजाइश है।

 उचित राजनैतिक दृष्टिकोण तथा जमीनी प्रयास

पूर्वांचल की समस्याओं के निराकरण के लिए राजनीतिक नेतृत्व को दूरदृष्टि के साथ प्रयास करना होगा। संवादहीनता की स्थिति को समाप्त करने के लिए किए जाने वाले उपरोक्त प्रयासों में राजनैतिक तथा प्रशासनिक निर्णयों की सहभागिता भी आवश्यक है। पूर्वांचल की समस्याओं का सभी आयामों से गहराई के साथ विचार कर मीमांसा करनी होगी। प्रत्येक चुनाव के बाद नेतृत्व बदलते रहने के कारण इस काम को केवल राजनैतिक नेतृत्व के भरोसे न छोड़ कर एक गैर राजनैतिक समिति को यह काम सौंपना चाहिए, जिसमें विधि विशेषज्ञ, सेना विशेषज्ञ, तथा समाज सुधारकों का समावेश हो। उन्हें पूर्वांचल के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक तथा अन्य क्षेत्रों के लिए अल्पकालिक तथा दीर्घकालिक योजनाएं बनाना चाहिए।

पूर्वांचल में विपुल मात्रा में उपलब्ध प्राकृतिक सम्पत्ति पर आधारित उद्योगों की स्थापना की गई तो उससे रोजगार निर्मिति होगी और आज आतंकवाद की ओर मुड़ने वाला युवा वर्ग कल आत्मनिर्भर होकर राष्ट्र के विकास में सहभागी होगा। उन स्थानों पर जहां घुसपैठिए हैं, वहां आर्थिक व सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए। इन तरीकों को अपनाने पर ही बांग्लादेशी घुसपैठिए उन स्थानों से भागेंगे।

 ईसाई मिशनरियों के कार्यकलापों पर प्रतिबंध

भारत में सक्रिय विदेशी मिशनरियां-सेवा तथा उपासना पंथ की अपेक्षा राजनीति में तथा उससे भी आगे विघटनकारी कार्यकलापों में अधिक सक्रिय है, यह बात साफ साफ दिखाई देने के बावजूद हमारी सरकार किस आधार पर उनको प्रोत्साहन देती है? केवल इसलिए कि पाश्चात्य राष्ट्रों से मिलने वाली सहायता के बदले हमने मिशनरियों के कार्यकलापों को संरक्षण देने का कोई वचन दिया है? परंतु कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र इन कार्यकलापों की अनदेखी नहीं कर सकता, सारी विदेशी मिशनरियों एवं संस्थाओं पर प्रतिबंध लगाकर ऐसे विदेशी नागरिकों के भारत प्रवेश पर रोक लगा देना चाहिए। हमारे देश के लोगोंं के उद्धार के लिए विदेशी मिशनरियां काम करेें यह हमारा अपमान है। कुछ वर्ष पूर्व चीन में आए भयंकर भूकम्प के बाद चीन ने किसी भी प्रकार की विदेशी सहायता को नकार दिया। हमारा समाज और हम अपने बूते इस विपत्ति का सामना करेंगे ऐसा दृढ़ मानस चीन ने बनाया। उस आदर्श को हमें सामने रखना चाहिए। हमारे देश में ईसाई मिशनरियों के कार्यकलापों का सूक्ष्म अवलोकन सरकार को करना चाहिए। इन संस्थाओं को मिलने वाली करोड़ों डालर की विदेशी सहायता को या तो प्रतिबंधित कर देना चाहिए या उसका भुगतान सरकार के माध्यम से होना चाहिए। जिसका पारदर्शी हिसाब किताब रखा जाए।

जबरिया या लालच दिखाकर किए जाने वाले धर्मांतरण पर प्रतिबंध तो हो ही परन्तु सेवा कार्य का उपयोग धर्मांतरण के लिए किया जाना भी कानूनी अपराध की श्रेणी में किस प्रकार लाया जाए इसका भी विचार होना चाहिए। इसी प्रकार का कानून अमेरिका में १९८६ में ‘फ्रीडम ऑफ रिलिजन एक्ट’ इस नाम से बना। यदि मिस्र, सऊदी अरब जैसे अनेक राष्ट्र इस्लाम से अन्य उपासना पदधति में होने वाले मतांतरण पर पूरा प्रतिबंध लगा सकते हैं, तो इन राष्ट्रों से मतांतरण के लिए आने वाले धन को हम अपने देश में क्यों आने दे रहे हैं। दुर्भाग्य से नगालैण्ड, मिजोरम, मेघालय जैसे ईसाई बहुसंख्यक राज्यों में इस्कॉन जैसी हिन्दू संस्थाओं को प्रतिबंधित किया जाता है। ईसाई संस्थाओं पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जा सकता? केन्द्र सरकार को इस प्रकार दोहरी नीति चलाकर आखों में धूल झोंकना बंद करना चाहिए। अल्पसंख्यकों के नाम पर चल रहे तुष्टीकरण को बंद कर समान नागरिक कानून लागू करना चाहिए।

 अतंरराष्ट्रीय षड्यंत्र को करारा जवाब दो

इस क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय शक्तियों के हस्तक्षेप तथा सीमा पर चल रहे आतंकवादियों के प्रशिक्षण केन्द्रों की जानकारी होने के बावजूद केन्द्र सरकार ने अपना दृष्टिकोण इतना दब्बू क्यों रखा? भारत को भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी बात को निर्भीकता से रखना चाहिए, तथा आंतकवाद की जमीन को नेस्तनाबूद कर देना चाहिए। सामाजिक संगठनों को समय-समय पर जनजागृति के द्वारा अमेरिका, चीन, पकिस्तान आदि देशों के द्वारा भारत में किए जा रहे हस्तक्षेप को जनता के सामने लाना चाहिए। स्वदेशी की भावना को जागृत कर उन देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बहिष्कृत किया जाना चाहिए।

पूर्वांचल में अलगाववाद के बीज अंग्रेजों के काल में ही बो दिए गए थे। उग्र रूप धारण किए इस अलगाववाद की जड़ें बहुत गहराई तक फैली हैं। इस समस्या का उपाय तभी होगा जब इसे जड़ से समाप्त कर दिया जाए। आज यह कार्य कठिन जरूर लग रहा है पर असम्भव नहीं है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि शासन तथा शेष भारत दोनों को इस समस्या का हल निकालने की ईमानदार पहल करनी होगी। दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ शेष भारत के लोगों को मिल कर पूर्वांचल की ओर सहयोग का हाथ बढ़ाया तो विशाल हृदय वाले पूर्वांचल के बंधुओं की ओर से सार्थक प्रतिक्रिया ही प्राप्त होगी। सब लोगों ने मिल कर यदि १० वर्षों तक कठिन प्रयास किए तो पूर्वांचल भी अन्य राज्यों की तरह शांत दिखाई देगा।

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  1. Anonymous

    बहुत गन्दी राजनीति हो रही है देश मे ,

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