सिकुड़ती जा रही संसद में रचनात्मक बहस

सत्रहवीं लोकसभा का 80% और राज्सभा का 74% स’ सदन के विभिन्न हिस्सों के प्रावधानों और हंगामें के कारण बर्बाद हो गा है। संसद की 1 दिन की कार्रवाई पर लगभग 2 करोड के आसपास रुपए खर्च होते हैं। जनता के टैक्स से जनता के लिए चलने वाली संसद को बाधित करना राष्ट्री अपराध जैसा है।

मुझे संसद भवन में अनेक बार जाने का अवसर मिला है। संसद भवन की बाहरी दीवार पर अंकित सुनहरी सूक्तियां भारतीय संस्कृति का जयघोष करती हैं। यह सत्य है कि राजनीति का अर्थ है हर हाल में राज कायम रखने की नीति। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि यह सब सत्य की प्रतिष्ठा के लिए हो रहा है या असत्य की प्रतिष्ठा के लिए। संसद की दीवारों पर अंकित ’सत्यमेव जयते’ संदेश देता है कि सत्य की जय सुनिश्चित करना ही राजनीति का लक्ष्य होना चाहिए। राज्यसभा के प्रवेश द्वार पर ‘सत्यं वद धर्म चर” वाक्य अंकित है। यह वाक्य ही सत्य की प्रतिष्ठा में आश्वासक हो सकता है इस बात को प्रस्तुत करता है।

मुझे यह बात अब रह-रह कर याद आ रही है, कारण संसद में पिछले कुछ दिनों से जो हंगामा हो रहा है वह मुझे इस बात पर सोचने के लिए मजबूर कर रहा है। यह कोई पहली बार नहीं हुआ है जब संसद का पूरा का पूरा सत्र ही हल्ला हंगामे की भेंट चढ़ गया है। लगभग हर बार संसद का सत्र शुरू होने से ठीक पहले या सत्र के बीच में एक खूफिया रिपोर्ट आती है, जिसमें किसी खास सरकारी योजना में गड़बड़ी पाई जाने की बात कही जाती है या राजनीति से जुड़े हुए कुछ लोगों के फोन टैपिंग की बात कही जाती है। भ्रष्टाचार के कुछ मुद्दों की ओर इंगित किया जाता है और विपक्ष इसके विरोध में सरकार से इस्तीफा मांगता है। संसद की कार्यवाही में हंगामा करके विरोधक उसके कार्य में गतिरोध खड़ा करने का प्रयास करते हैं।

संसद में और क्या होता है? जो नारे सड़कों पर लगने चाहिए वह संसद में लगते हैं। जो चर्चा संसद में चलनी चाहिए वह चाय-पान की दुकानों पर और तेल- साबुन के विज्ञापनों के बीच टीवी स्क्रीन पर चलती है। कुल मिलाकर नतीजा यह निकलता है कि संसदीय कार्य का रास्ता रुक जाता है। सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों के कारण संसदीय कार्यवाही रोकने का असर कई स्तरों पर होता है। देश के बाहर इसका यह संदेश जाता है कि भारत एक उपद्रव ग्रस्त देश है। भारतीय राज्य व्यवस्था कोई निश्चित प्रशासकीय नीतियां नहीं बना सकती। इस कारण विदेशी निवेशक भारत में पैसा लगाने से बचते हैं। उन्हें लगता है कि राजनीतिक कारणों से उनका कारोबार कभी भी गड़बड़ा सकता है।

पहले राम मनोहर लोहिया, मधु लिमये, मधु दंडवते, अटल बिहारी वाजपेई , जॉर्ज फर्नाडीज जैसे दिग्गज नेताओं की बात संसद में ध्यान से सुनी जाती थी। अब हालत यह है कि प्रधानमंत्री का भाषण भी हंगामे की भेंट चढ़ जाता है। पिछले दो दशकों का रिकॉर्ड देखें तो पता चलता है कि हमारी संसद में सार्थक बहस का समय निरंतर घटता जा रहा है, जबकि हंगामे की भेंट चढ़ने वाले वक्त का निरंतर विस्तार हो रहा है। गहराई में जाने पर पता चलता है कि असली कारण मौजूद चुनाव व्यवस्था है जो धनबल, बाहुबल और किसी परिवार की चाकरी  जैसे दोषों के चंगुल में फंसी हुई है। एक ओर परिवारवाद और चुनावी खर्च बढ़ता जा रहा है, तो दूसरी ओर देश के विकास के लिए संसद में होने वाली रचनात्मक बहस का समय सिकुड़ता जा रहा है।

सुधि पाठकों को याद होगा, संसद में तेलंगाना के मुद्दे पर उग्र व्यवहार हुआ था। उस समय सत्तारूढ़ दल के सदस्यों के अतिरिक्त मंत्री द्वारा अपना रेल बजट भाषण छोड़कर हंगामे में शामिल होना। संसद के परिसर में गाली गलौज तक की नौबत आई थी। दिल्ली के कांग्रेसी सांसद संदीप दीक्षित द्वारा विपक्षी सांसदों को ‘देखता हूं कैसे दिल्ली में रहते हो की धमकी’, आपराधिक तरीके से मिर्च स्प्रे का छिड़काव, हाथापाई, दबंगता, अनेक सांसदों को अस्पताल ले जाने के दृश्य के बाद तेलंगाना बिल को पास करने के लिए लोकसभा कार्यवाही का सीधा प्रसारण रोका गया और फिर सारे दरवाजे बंद करके आगे की कारवाई की गई मानो कोई आपातकालीन संकट की स्थिति हो। इस बार का संसद का अधिवेशन इससे कुछ अलग नहीं था।

लोकतंत्र के लिये इससे दुखद बात कौन सी हो सकती है। अराजकता क्या होती है? क्या हम अराजक हैं? हम भारतीयों के मन-मस्तिष्क को बेचैन करने वाली, भारतीय संसद में होने वाली यह कोई पहली घटना नहीं थी। हर बार अराजकता का प्रमाण मिलता रहा है। लोकतंत्र में मत भिन्नता की सदैव गुंजाइश रहती है। लेकिन अराजकता और आतंक सड़क से संसद तक हर जगह खतरनाक है। आखिर आतंकवाद, अलगाववाद, घुसपैठिए, बढ़ती जनसंख्या इन विषयों पर बिल पास करते समय पारदर्शी ढंग से कार्य ना करने की विपक्ष की भूमिका को  उचित कैसे कहा जा सकता है।

सबसे बड़े लोकतंत्र का यह मंदिर आज सवालों के घेरे में है। क्या संसद जनता को सकारात्मक परिणाम देने में कमजोर होती जा रही है? उसकी उत्पादकता घट रही है? गरिमा कम हो रही है? 1952 से लेकर 1967 तक 3 लोकसभाओं में औसतन 600 दिन की बैठक हुई थी। पहली लोकसभा से अब तक की लोकसभा के 70 साल के सफर पर नजर डालें तो पता चलेगा कि न केवल बैठक की संख्या और कामकाज के घंटों में बल्कि कामकाज में भी गिरावट आई है। चाहे वह प्रश्नकाल हो, वह विधेयकों पर चर्चा हो या फिर गैर सरकारी कामकाज। सत्रहवीं लोकसभा का 80% और राज्यसभा का 74% समय सदन के विभिन्न हिस्सों के प्रावधानों और हंगामे के कारण बर्बाद हो गया है। संसद की 1 दिन की कार्रवाई पर लगभग 2 करोड के आसपास रुपए खर्च होते हैं। इस तरह हंगामा करके जनता के टैक्स पर जनता के लिए चलने वाली संसद को बाधित करना राष्ट्रीय अपराध जैसा है।

सांसदों की भाषा का स्तर भी लगातार गिर रहा है। लिहाजा सदन के स्पीकर और चेयरमैन को बार-बार ऐसे शब्दों को कार्यवाही से निकालने के निर्देश देने पड़ते हैं। सदन में सांसदों की घट रही मौजूदगी के पीछे यह भी एक कारण हो सकता है, संसद में लगातार हो रहा हंगामा, गंभीर सवाल पूछने और बहस में भागीदारी लेने वाले सदस्य को निराश करता है। सवाल यह है कि हंगामा और स्थाई गतिरोध से हम देश और दुनिया की नजरों में अपने संसद भवन की क्या छवि बना रहे हैं? पहले गांधी जी की प्रतिमा के सामने प्रदर्शन होता था। फिर वेल में होने लगा। फिर प्ले कार्ड आ गया। कांग्रेस और विरोधियों ने बैनर और विरोध के स्लोगन वाले कपड़े पहनने का नया कल्चर शुरू किया। कुछ सदस्य तो सारी सीमाएं पार कर स्पीकर के आसन तक पहुंच कर उनके मुंह के सामने प्लेकार्ड लगा देते हैं। लोकसभा अध्यक्ष पर  कुछ सदस्य पक्षपात के आरोप लगाते हैं। यह नितांत अशोभनीय है।  माना जाता है कि जब से कार्रवाई का सीधा प्रसारण शुरू हो गया, तब से सांसदों ने इसे अपने क्षेत्र में, लोगों, पार्टी, मीडिया के बीच सुर्खियां पाने का माध्यम बना लिया है। जितना बड़ा हंगामा उतनी बड़ी सुर्खियां।  इसलिए अब संसद में होने वाली बहस के संपादित अंश बाहर आने का प्रस्ताव आया है ।

संसद के कामकाज के गिरावट पर विचार के लिए 2001 में देशभर के पीठासीन अधिकारी, मुख्यमंत्री, संसदीय कार्य मंत्री, विभिन्न दलों के नेताओं और विचारकों की बैठक बुलाई गई। इसमें सहमति बनी कि संसद में कम से कम 110 दिन तक काम होना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो इसके लिए संविधान में संशोधन किया जाए। लेकिन इस पर अमल नहीं हो सका। इससे पहले 1997 में जब अटल बिहारी वाजपेई विपक्ष के नेता थे तो संसद की कार्यवाही को ठीक ढंग से चलाने के लिए 14 बिंदुओं पर आम सहमति बनी थी। लेकिन उस पर भी अमल नहीं हो पाया। संसद की गरिमा बरकरार रखने की जिम्मेदारी पक्ष और विपक्ष दोनों की है, अगर विपक्ष ना चाहे तो सत्ता पक्ष क्या कर सकता है? बेहतर होगा कि सभी सांसद अपनी जवाबदेही को समझे और संसद की गरिमा कायम रखने के लिए मिलकर कार्य करें।

अब विरोधी पक्ष की भूमिका में बैठी कांग्रेस और अन्य पार्टियों को मोदी सरकार से ठोस विरोध करने का कोई मुद्दा नहीं मिल रहा है। इस कारण किसी भी मुद्दे को आधार बनाकर वे बार-बार संसद की कार्यवाही में बाधा डालने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि लोकसभा में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी का पूर्ण बहुमत होने के कारण यहां  पूर्ण सम्मति से विधेयक पास करने में कोई कठिनाई नहीं आती है।  संसद का मानसून सत्र भी कांग्रेस ने इसी तरह बर्बाद किया है । कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों के इस अडियल रवैये के कारण संसद के कामकाज में निरंतर हंगामे का ग्रहण लग रहा है। सत्ताधारी पार्टी और प्रमुख विपक्षी पार्टी में तालमेल का अभाव होने के कारण टीका टिप्पणी हो रही है। यह बात ध्यान में आते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रमुख विपक्षी दलों को विश्वास में लेने के प्रयास किए। उसके बावजूद भी कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल विविध कारणों से संसद के कामकाज में बाधा डालने का प्रयत्न करते रहे। कांग्रेस और विपक्षी दलों का यह बर्ताव लोकतंत्र प्रेमी भारतीय नागरिकों को अस्वस्थ कर रहा था।

अराष्ट्रीय मंसूबे

केंद्र सरकार पर जासूसी का आरोप रखकर कांग्रेस और सभी विपक्षी दलों ने देश की जनता के मन में भ्रम निर्माण करने का प्रयास किया है।  संसद के मानसून अधिवेशन के प्रारंभ से अंत तक संसद का कामकाज पूरी तरह से रोकने का प्रयत्न किया गया। पेगासस फोन टेप करने के लिए उपयोग किया जाने वाला इस्राएली सॉफ्टवेयर है। इस सॉफ्टवेयर के माध्यम से केंद्र सरकार ने राहुल गांधी के साथ, कुछ प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं और भारतीय जनता पार्टी के दो मंत्रियों के फोन टेप किए हैं ऐसे आरोप संसद शुरू होने से एक दिन पहले ही लगने लगे थे।  जिस समय यह आरोप लग रहे थे तब यह बात ध्यान में आ रही है कि यह भारत के खिलाफ रचा हुआ बहुत बड़ा षड्यंत्र है। एक बात हमें ध्यान में रखनी चाहिए कि इस षड्यंत्र की रचना भारत के बाहर हुई है और भारत के विपक्षी दल के नेताओं को कठपुतली बनाकर इस षड़यंत्र को अंजाम देने का काम कोई अंतरराष्ट्रीय शक्ति कर रही है। भारत में जो विकास हो रहा है उस विकास कार्य में रोडे डालना, अंतररास्ट्रीय स्तर पर भारत को बदनाम करना जैसे अराष्ट्रीय उद्देश्यों  को लेकर ये आरोप संसद अधिवेशन कीपूर्व संध्या से जारी हुए। किसानों के मुद्दे पर विरोध करने के लिए सभी विपक्षी दल अपने ध्येय एवं उद्देश्यों को अलग रखकर मोदी सरकार के विरोध में इकट्ठे हो      गए। देश के विकास कार्य में रोडे डालना और मोदी सरकार के संदर्भ मे देश की जनता का मनोधेर्य भंग करने का प्रयास इस षड़यंत्र  के माध्यम से हो रहा है। विपक्षी दलों ने प्रश्न उपस्थित करने चाहिए और उन प्रश्नों के उत्तर देने का अवसर सत्ताधारी पक्ष को मिलना चाहिए,  देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह भूमिका रखी थी। इसके बावजूद  कांग्रेस और विपक्षी दलों ने जो हंगामा संपूर्ण संसद सत्र में किया है, जिससे कांग्रेस और विपक्षी दलों ने देश की संसदीय गरिमा और  लोकसभा-राज्यसभा की प्रतिष्ठा को कलंकित करने का प्रयास कांग्रेस और विपक्षी दलों ने किया है। और अपने अराष्ट्रीय मंसूबे को देश की जनता के सामने प्रस्तुत किया है।

संसद के कामकाज से ही देश के सम्मुख उपस्थित प्रश्नों का निपटारा  होता है। सामान्य लोगों का जीवन सुखी करने के लिए संसद का  कामकाज होना अत्यंत आवश्यक है। देश के सम्मुख उपस्थित विविध प्रश्नों पर संसद में अभ्यासपूर्ण चर्चा होनी अपेक्षित है। विरोधियों द्वारा सत्ताधारी पक्ष के काम करने के तौर-तरीके पर अपने आक्षेप प्रभावी ढंग से उपस्थित करने चाहिए। संसदीय उपकरणों का प्रयोग करके सत्ताधारी पक्ष को सही राह पर चलने के लिए बाध्य करना विपक्षी दलों का काम होता है। लेकिन कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को अपनी इस जिम्मेदारी का विस्मरण हो गया है। लोकसभा चुनाव में हुए पराभव के सदमे से कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल अब तक संभल नहीं पाए हैं।  यही बात कांग्रेस और विरोधियों के शोर-शराबा करने की पद्धति से महसूस हो रही है। अगर संसद का हर अधिवेशन इसी प्रकार के हंगामे से समय की बर्बादी करके समाप्त हो जाए तो लोकतंत्र की व्यवस्था का कोई मतलब ही नहीं रहता।

इस मानसून अधिवेशन के पहले, मन में आशा निर्माण हुई थी कि देशभर में चलने वाले महंगाई के मुद्दे पर, बाढ़ के कारण देश भर में हो रहे नुकसान पर, किसानों की स्थिति पर, कोरोना के कारण जो स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं खडी हुई हैं उन विषयों पर, नैसर्गिक विपदा पर पर्यावरणीय हल ढूंढने जैसे विषयों पर सार्थक चर्चा होगी पर वह आशा हर बार की तरह इस बार भी धूल में मिल गयी है।

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