प्राकृतिक आपदा और प्रशासन का ‘मिस मैनेजमेंट’

मनुष्य होते हुए हमने नदियों, झीलों, तालाबों और जंगलों सबके साथ हर स्तर का दुराचार किया है तो प्रकृति किसी न किसी रूप में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करेगी ही। हालांकि ग्लोबल वार्मिंग के चलते प्राकृतिक आपदाएं तो आती रहेंगी लेकिन इससे निपटने के लिए शासन-प्रशासन का मिस मैनेजमेंट भी काफी हद तक जिम्मेदार है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि आपदाओं से निपटने हेतु दूरदृष्टि का परिचय देते हुए जो सुरक्षा इंतजाम किये जाने चाहिए, उसकी पूर्व तैयारियां आज भी नहीं दिखाई देती।

उस दृश्य को पूरे देश ने देखा होगा जब मध्य प्रदेश के दतिया जिले के कोटरा गांव का जायजा लेने गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा नाव से पहुंचे और एक पेड़ उन पर गिर गया। मुश्किल से उनके सुरक्षाकर्मी उन्हें पानी से निकालकर गांव के एक घर में ले गए। करीब एक घंटे तक वे बाढ़ से घिरे रहे। सूचना मिलने पर मध्य प्रदेश प्रशासन ने आपातकालीन व्यवस्था कर रेस्क्यू टीम को भेजा, जहां एअरलिफ्ट द्वारा उन्हें बाहर निकालना पड़ा। यह एक दृश्य बताने के लिए पर्याप्त है कि बाढ़ की स्थिति कितनी विकट है। वैसे तो मौसम के अनुसार हल्के-फुल्के बाढ़ का इतिहास भारत के ज्यादातर क्षेत्रों में रहा है किंतु अनेक प्रदेश कभी बाढ़ ग्रस्त नहीं माने गए लेकिन मध्यप्रदेश कभी बाढ़ प्रदेश नहीं रहा।

बारिश ने मचाया हाहाकार

पंजाब, हिमाचल और महाराष्ट्र आदि राज्यों में भी बाढ़ आते हैं लेकिन वे बाढ़ प्रदेश नहीं रहे। बाढ़ के लिए बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बंगाल, उड़ीसा असम और दक्षिण के संयुक्त आंध्र, कर्नाटक के कुछ हिस्से और केरल आदि प्रदेश जाने जाते हैं। यहां बाढ़ के भयावह दृश्य भारत से लेकर विदेश की मीडिया तक की सुर्खियां बनते हैं किंतु पिछले कुछ सालों से राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, पंजाब और हिमाचल आदि भी लगातार बाढ़ ग्रस्त हो रहे हैं।

बाढ़ की क्षति का आकलन असंभव

फलस्वरूप बाढ़ का प्रकोप होना ही है। नीति आयोग का आकलन है कि बाढ़ से हर वर्ष 40 लाख हेक्टेयर जमीन पर असर होता है और करीब 5649 करोड़ रुपए की फसल नष्ट हो रही है। यह तो केवल फसलों के नुकसान का एक आकलन है। बाढ़ से होने वाली समग्र क्षति का आकलन संभव ही नहीं है। वैसे मौसम विभाग बता रहा है कि साल 1953 से अब तक बाढ़ के कारण लगभग 293 हजार करोड़ रुपए की फसल का नुकसान हुआ है और 20 करोड़ लोगों की जिंदगी प्रभावित हुई है। लोगों को पलायन करना पड़ा है क्योंकि उनकी जीवन भर की कमाई बह गई है।

बाढ़ की विभीषिकाओं के दृश्य जब हम देखते हैं, तो निश्चित रूप से हमारा दिल दहलता है। अंतर्मन में तस्वीर यह बनती है कि राहत और बचाव की हमारे देश में अभी तक पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। इसमें एक हद तक सच्चाई भी है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में राहत और बचाव स्थिति में संतोषजनक प्रगति हुई है। अब केंद्र तथा कई राज्यों के आपदा बल यानी एनडीआरएफ और एसडीआरएफ प्रशंसनीय भूमिका निभा रही है किंतु एक साथ अगर वृहद क्षेत्रों में जल प्लावन हो जाए तो सारी सरकारी मशीनरी मिलकर भी तत्काल सभी को बचाने या उन तक राहत पहुंचाने में सफल नहीं हो सकती।

भारत ने बचाई लोगों की जान

चीन की बाढ़ राहत व बचाव को बेहतर माना जाता है लेकिन वहां भी यह संभव नहीं हुआ कि बाढ़ आने के बाद किसी को कोई कष्ट न हो। पश्चिमी देशों की भी लगभग यही स्थिति है। हम मानते हैं कि भारत का राहत और बचाव ढांचा इन देशों से थोड़ा कमजोर है लेकिन इसी ढांचे ने पड़ोसी देशों को संकट से उबारने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अगर इनका आकलन करेंगे तो भारत में ही न जाने कितनी करोड़ की संपत्तियों के साथ कितने लाख लोगों की जान बचाई गई हैं। वैसे भी यह संभव नहीं कि अचानक तेज बारिश हो जाए तो किसी को कष्ट नहीं हो।

भारत में लंबे समय तक लोग बाढ़ के के आगमन की प्रतीक्षा करते थे। उसका स्वागत भी किया जाता था। वस्तुत: बाढ़ अपने साथ लहलहाती फसलों के लिए उर्वरा सामग्रियां लाता था। बाढ़ आया और उसके जाने के साथ फसलों के लिए उपजाऊ मिट्टी तैयार हो जाती थी। बाढ़ का सामना करने की स्वाभाविक जीवन शैली और स्थानीय ढांचे समाज में विकसित थे लेकिन हमने आधुनिक विकास के ऐसे ढांचे खड़े दिए कि अब बाढ़ व्यापक पैमाने पर त्राहि तथा विनाश का दृश्य उत्पन्न करता है। बड़े-बड़े बांध, जलभराव के क्षेत्रों में पक्के निर्माण और सड़कें आदि ने पानी के धरती में समाने तथा बचे हुए के बह जाने के स्थलों को काफी सीमित कर दिया है।

जलवायु परिवर्तन का असर

विकास के अंधानुकरण ने जलवायु में ऐसा परिवर्तन लाया है कि मौसम लगातार करवट बदलता रहा है। निर्माण महंगे होंगे तो उसके क्षति भी उतनी ही बड़ी होगी। बाढ़ संभावित क्षेत्रों में किसी तरह के निर्माण के लिए मानक मौजूद हैं और इसका पूरी तरह पालन किया जाना चाहिए। ज्यादातर जगह स्थिति इसके विपरीत है। इसके साथ मनुष्य होते हुए हमने नदियों, झीलों, तालाबों और जंगलों सबके साथ हर स्तर का दुराचार किया है तो प्रकृति किसी न किसी रूप में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करेगी ही। मौसम विभाग के अनुसार साल 1915 से 2015 के दौरान हिंद महासागर में समुद्र के सतह का तापमान करीब एक डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है।

भारत पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अनुसार साल 1901 से 2018 के बीच भारत में सतही हवा का तापमान 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। तापमान बढ़ने से हवा में अधिक नमी बन रही है। इस कारण बादल फटने की घटनाएं हो रही हैं। चक्रवाती तूफान ज्यादा आने लगे हैं। अरब सागर की ओर से आने वाले तूफान मानसून की तारीख को प्रभावित कर रहे हैं। राजस्थान में पहले 20 सितंबर तक मानसूनी बारिश बंद हो जाती थी, लेकिन अब 28 सितंबर तक मानसून देखा जा रहा है। मध्यप्रदेश में मानसून 15 जून से आता था। इस समय यह 20 जून तक पहुंच रहा है, तो राहत और बचाव के ढांचे मजबूत किए जाएं लेकिन सबसे गंभीर प्रश्न हमारे विकास ढांचे पर है। तत्काल इस पर तो विचार किया ही जाए कि आखिर बाढ़ क्षेत्रों में निर्माण तथा नदियों के बांध को लेकर क्या नए सिरे से पुनर्विचार संभव है?

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