धार्मिक शिक्षण संस्थानों को सरकारी अनुदान?

न्यायालय ने यह भी पूछा है कि क्या धार्मिक शिक्षा देने वाले अन्य धर्मों के लोगों लिए भी प्रदेश में कोई शिक्षा बोर्ड है? कोर्ट ने सरकार से यह भी जानना चाहा है कि क्या मदरसा बोर्ड से मान्यता प्राप्त व राजकीय सहायता प्राप्त मदरसों में लड़कियों को प्रवेश दिया जाता है अथवा नहीं?

वैसे तो यह बहस बड़ी पुरानी है कि मदरसे आदि शैक्षणिक संस्थान जो केवल अपने धार्मिक समूहों के लोगों को शिक्षा प्रदान करते हैं, उन्हें सरकार द्वारा वित्तीय सहायता दिया जाना संविधान सम्मत है अथवा नहीं?  अभी इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक आदेश ने इस चर्चा को पुनः प्रासंगिक बना दिया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मदरसा बोर्ड द्वारा मान्यता प्राप्त ‘मदरसा अंजुमन इस्लामिया फैजुल उलूम’ नामक एक शिक्षण संस्थान द्वारा दाखिल ऐसे ही एक रिट याचिका की सुनवाई करते हुए कुछ प्रश्न खड़े किए। यह याचिका उक्त संस्थान द्वारा अपने यहां विद्यार्थियों की बढ़ती संख्या के आधार पर अध्यापकों के अतिरिक्त पदों का सृजन करने व उसके अनुसार अन्य प्रकार की वित्तीय सहायता दिए जाने के अनुरोध करते हुए दाखिल की गई है।

प्रकरण की सुनवाई करते हुए मा उच्च न्यायालय ने अपने आदेश दिनांक 19, 08 2021 द्वारा राज्य सरकार से 04 सप्ताह में जवाब दाखिल करने के लिए कहा है। न्यायालय ने राज्य सरकार को मदरसों के पाठ्यक्रम, शर्तें, मान्यता का मानक, खेल मैदान की अनिवार्यता का पालन किया जा रहा है अथवा नहीं आदि तथ्य को अपने जवाब में उल्लेख करने का निर्देश दिया है। न्यायालय ने यह भी पूछा है कि क्या धार्मिक शिक्षा देने वाले अन्य धर्मों के लोगों लिए भी प्रदेश में कोई शिक्षा बोर्ड है? कोर्ट ने सरकार से यह भी जानना चाहा है कि क्या मदरसा बोर्ड से मान्यता प्राप्त व राजकीय सहायता प्राप्त मदरसों में लड़कियों को प्रवेश दिया जाता है अथवा नहीं?

याचिका में उठाए गए तथ्यों और पक्षकारों की बहस सुनने के पश्चात मा न्यायालय कुछ प्रश्न खड़े किए, जिनके उत्तर की अपेक्षा पक्षकारों से है, जो निम्नलिखित हैं-

क्या भारत के संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द के आलोक में धार्मिक शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षण संस्थाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करने की राज्य सरकार की नीति संविधान की योजना के अनुरूप है?

क्या सरकार से वित्तीय सहायता प्राप्त धार्मिक अल्पसंख्यकों द्वारा चलाए जा रहे धार्मिक शिक्षा देने वाले संस्थान संविधान के प्रावधानों, विशेष रूप से अनुच्छेद 25 से 30 प्रावधानों के संदर्भ में देश में सभी धार्मिक विश्वासों विशेषकर धार्मिक अल्पसंख्यकों को प्रदत्त संवैधानिक संरक्षण को ईमानदारी से लागू करते हैं?

क्या ऐसे संस्थान जो विविध विषयों की शिक्षा प्रदान करते हैं और धार्मिक शिक्षा भी पाठ्यक्रम में शामिल करते हैं, वे धार्मिक शिक्षा या धार्मिक पूजा वाक्यांश के दायरे में आते हैं या केवल वे स्कूल ही धार्मिक शिक्षा प्रदान करते हैं, वे भारत के संविधान के अनुच्छेद 28 के दायरे में आते हैं?

क्या मदरसों और अन्य धार्मिक शिक्षण संस्थानों को मान्यता देने के लिए भारत के संविधान में अनुच्छेद 21 व अनुच्छेद 21 ए द्वारा प्रदत्त बच्चों के अधिकारों जैसे खेल के मैदान आदि अनिवार्यता प्रावधान का किया गया है?

क्या अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी धार्मिक स्कूल चलाने के लिए सरकारी सहायता प्रदान की जाती है?

क्या धार्मिक स्कूलों में महिलाओं के छात्रों के रूप में आवेदन करने पर प्रतिबंध है। यदि ऐसा है, तो क्या ऐसा प्रतिबंध संविधान द्वारा निषिद्ध भेदभाव का कार्य है?

धर्म के मामले में पूर्णता तटस्थ

प्रकरण अभी विचाराधीन है, जिसमें सुनवाई की अगली तिथि 06 अक्टूबर 2021 लगी है। भारत आदिकाल से एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र रहा है, जिसका तात्पर्य सभी को अपने विश्वास के अनुसार किसी भी धर्म को मानने तथा किसी भी ढंग से ईश्वर की पूजा करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान सदैव रही है इसलिए जब भारत का संविधान बना तो उपरोक्त जीवन दर्शन को उसमें आत्मसात किया गया। इस संदर्भ में संविधान के मूल अधिकार अध्याय में अनुच्छेद 14-18 में समता का अधिकार प्रदान करते हुए यह उपबंध किया गया कि राज्य द्वारा धर्म के आधार पर किसी के विरुद्ध विभेद नहीं किया जाएगा। वहीं अनुच्छेद 25 से 28 में सबको अपने धार्मिक विश्वास के आधार आचरण करने व जीवन यापन का अधिकार प्रदान किया गया। बाद में संविधान में 42वें संविधान संशोधन द्वारा प्रस्तावना में ‘पंथनिरपेक्ष’शब्द को भी जोड़ा गया, जिसका तात्पर्य है कि राज्य धर्म के मामले में पूर्णता तटस्थ रहेगा।

हालांकि इसकी अनावश्यकता और यह जिन परिस्थितियों में जोड़ा गया, उसके मंतव्य पर सवाल सदैव उठते रहे हैं। लेखक का भी ऐसा मानना है कि पंथनिरपेक्षता की अवधारणा संविधान की विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता शब्दावली में विवक्षित थी। इसे जोड़कर केवल और स्पष्ट करने की कोशिश की गई है। इससे भी आगे बढ़कर भारत के संविधान में अल्पसंख्यकों को शिक्षा और संस्कृति के संबंध में विशेषाधिकार प्रदान किए गए हैं। संविधान का अनुच्छेद 29 व 30 अल्पसंख्यकों के संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकारों की उद्घोषणा करता है।

अनुच्छेद 30 का गहन अर्थ

अनुच्छेद 29 (1) भारत क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों के किसी भी वर्ग को जिनकी अपनी विशेष भाषा लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए रखने का अधिकार प्रदान करता है। इस अनुच्छेद का उद्देश्य भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों के हितों को सुरक्षित करना है। कोई भी समूह अपनी भाषा लिपि और संस्कृति को अपनी रुचि के संस्थानों को स्थापित करके ही सुरक्षित रख सकता है। अतः अनुच्छेद 30 में उन्हें अपने रुचि के शिक्षण संस्थान चलाने का अधिकार प्रदान किया गया है। अनुच्छेद 30 (1) के अनुसार सभी भाषाई व धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी रूचि के अनुसार शिक्षण संस्थान स्थापित करने और उन्हें संचालित करने का अधिकार है। इसी प्रकार इसी अनुच्छेद का खंड 2 में इस अधिकार को और भी पुष्ट करते हुए कहा गया है कि राज्य शिक्षा संस्थानों को सहायता देने में किसी विद्यालय के विरुद्ध इस आधार पर भी भेद नहीं करेगा कि वह धर्म एवं भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक के प्रबंधन में है।

महिलाओं का प्रवेश है निषेध

यही नहीं इनमें महिलाओं को भी प्रवेश नहीं है। वहीं जिन्होंने मान्यता देने में अन्य संस्थानों की तरह मानकों का कठोरता से पालन नहीं किया है, ऐसे में यह संस्थान अनुच्छेद 30 (2) के उपबंधों का लाभ प्राप्त करने के अधिकारी नहीं है। हालांकि उन्हें संविधान के उपबंधों के गलत निर्वाचन के कारण अब तक यह सहायता दी भी जाती रही है। यह भी उल्लेखनीय है कि माननीय न्यायालय ने भी अपने उक्त आदेश में इंगित किया है कि अनुच्छेद 29 द्वारा सिर्फ धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी धार्मिक शिक्षा, लिपि व संस्कृति को सुरक्षित करने के लिए अपनी रुचि के संस्थान खोलने और उन्हें संचालित करने का विशेषाधिकार प्रदान किया गया है, किन्तु जो शिक्षण संस्थान अपने यहां विविध विषयों की शिक्षा प्रदान करते हैं क्या वे अनुच्छेद 29 के अर्थ में अल्पसंख्यक संस्थान होने और इस दृष्टि से विशेषाधिकार प्राप्त होने का दावा कर सकते हैं?

अल्पसंख्यक के दावे हैं खोखले

आज देश में प्राथमिक से लेकर उच्चतर शिक्षा देने वाले,  इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज भी अल्पसंख्यक वर्ग से संबंधित व्यक्ति को प्रबंधक रख व अपने संस्थान के नाम के आगे अल्पसंख्यक वर्ग से जुड़ा शब्द जोड़कर अपने आपको अल्पसंख्यक संस्थान होने का दावा करते हैं। वे इसके आधार पर सरकार के तमाम नियमों से प्रशासित होने में छूट का दावा करते हैं, जो संविधान निर्माताओं की मंशा के एकदम विपरीत है। हालांकि यह सवाल पहले भी संवैधानिक न्यायालयों के समक्ष उठ चुके हैं। इस मामले में टीएमए’पई नाम का एक महत्वपूर्ण वाद अभी भी माननीय उच्चतम न्यायालय की वृहत्तर पीठ के समक्ष विचाराधीन है। माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने उक्त आदेश में इन्हीं बिंदुओं को उठाया है। यद्यपि माननीय उच्च न्यायालय द्वारा याचिका में उठाए गए प्रश्न पक्षकारों से है किंतु इसका उत्तर सम्पूर्ण विधि जगत व समाज को तलाशना है। इस मामले में अभी न्यायालय का अंतिम निर्णय आना शेष है किंतु इससे एक रुकी हुई संवैधानिक बहस पुनः शुरू हो गई है और इस बार इसे परिणित तक पहुंचने के पूरे आसार हैं।

 

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