विभिन्न प्रांतीय संगीत

संगीत भारतीय जीवन की आत्मा है। यह संगीतमय भाषा अपने आप में पूर्ण है। यह अधिक सांस्कृतिक है। विभिन्न भाषी संगीत तो उस खूबसूरत रंगीन, सुगंधित फूलों का एक अनुपम गुलदस्ता है, जो विविध रूपों को एक साथ बांधे हुए है।

भा रतीय संस्कृति का मूलाधार भारतीय संगीत है। संगीत से ही भारतीय जीवनशैली अनुप्रेरित रही है। सृष्टि के निर्माण से मानव जीवन के ग्रंथ का कोई भी पृष्ठ ऐसा नहीं है जो संगीत से शून्य हो। जन्म लेते ही जो गीत सुने उसका संगीत जीवन पर्यंत उसकी रग -रग में रचता गया और अंतत : इसी संगीत से अंतिम काल तक उसका सान्निध्य रहा है। यह संगीत मानव शरीर की सत्ता का स्वरूप है – ‘क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, पंच रचित यह अधम सरीरा ’ यही पंच तत्व जीवन आधार है। वैज्ञानिकों ने इस बात की पुष्टि की है कि इन पांच तत्वों में निहीत प्रकृति के आधार में संगीत की प्रचुरता है। भारतीय संस्कृति में प्रकृति प्रदत्त ये पांच तत्व संगीतमय साकार होकर भारतवासियों के तन -मन में प्रतिष्ठित हैं। भारतीय संगीत इंद्रधनुषी रंग की तरह अनेकता में एकता का दर्शन कराता है। भारत के उत्तर से दक्षिण एवं पूर्व से पश् चिम के विभिन्न प्रांतों में अक्षुण्ण धरोहर के रूप में संगीत विद्यमान है।

महात्मा गांधी के शब्दों में, ‘‘संगीत जन -जन की भाषा है। यह हमारी संस्कृति का पहरेदार है। ’’ मेरा मानना है कि लोक द्वारा निर्मित, लोक द्वारा प्रयुक्त संगीत ही लोक संगीत है। यही संगीत देशी है। संगीत की लोक गीत परंपरा ही देशी संगीत है। लोक धुनें स्वत : स्फूर्त निर्मित होती हैं। इन्हीं से तो शास्त्रीय संगीत का निर्माण हुआ। लोक धुनों में कितने ही राग छुपे हुए हैं। शास्त्रीय संगीत इन्हीं के रागों का ही विस्तृत -विकसित रूप है।

भारतीय संगीत के विषय में कुमार गार्ंधव का कहना है – ‘‘संगीत का मूल आधार लोक संगीत है। ’’

भारतीय ललित कलाओं में संगीत ही श्रेष्ठतम भाषा है। यह हृदय की भाषा है। विभिन्न प्रांतीय भाषाएं भी संगीत की भाषा में एकरूप एक भावना से प्रभावित करती हैं। एकत्व -एकात्मकता की सशक्त भाषा है। संगीत भारतीय जीवन की आत्मा है। यह संगीतमय भाषा अपने आप में पूर्ण है। यह अधिक सांस्कृतिक है। विभिन्न भाषी संगीत तो उस खूबसूरत रंगीन, सुगंधित फूलों का एक अनुपम गुलदस्ता है, जो विविध रूपों को एक साथ बांधे हुए है।

भारतीय संगीत की इस रस धारा में कितने विषयों की विशालता समाई है, जिसे इस रूप में समझ सकते हैं –

१ . भौगोलिक दृष्टि से, २ . ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में, ३ . धार्मिक आस्था में, ४ . सामाजिक आदर्श -नियम -सिद्धांत के पक्ष में, ५ . आर्थिक दृष्टि से, ६ . मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से, ७ . दर्शन के रूप में।

भौगोलिक दृष्टि से भारत की भूमि की आबो -हवा भिन्न -भिन्न है। उत्तर में कश्मीर, उत्तरांचल, हिमाचल ; प्ाूर्व में असम, मणिपुर, मेघालय में ऊंची हिमालयी पर्वत श्रृंखलाएं और हिमाच्छादित छटा, शीतलता देता पवन और उसका संगीत। उत्तर प्रदेश में गंगा -यमुना नदियों की पवित्र धाराओं और राजस्थान के रेतीले टीले से भी प्रभावित है भारतीय संगीत। कश्मीर की गीत शैली, असम का बीहू, जम्मू का फूम्मनी, छम, जब्रो, कुड तो उत्तर प्रदेश का मांगल पोवाडा, जागर, चौफुला, बारहमासा, चैता, सोहर, बन्ना -बन्नी, बिरहा, बधावा, मल्हार, ठुमरी और दादरा। पंजाब का टप्पा, हीर, जिंदुआ मशहूर है। बंगाल का कीर्तन, जत्रा, सारी, भवाइया, सोहर, पवारा झूमर -गंभीरा, बिहार का खेलना, सगुन घटारी, पवारा, मुरलिया, शापदेह लोकप्रिय है। हिमाचल का घुघती, बनजारा, मणिपुर का होई रोहया, पाओथा इशे, नुपोपाला, सिक्किम का शापदोह, मध्य प्रदेश का आल्हा, फाग, सावनी, रसिया, बधावा, सांजी, गौरा -गणपति को कौन नहीं जानता ? महाराष्ट्र की ओवी, लावणी, मैसूर का फसल गीत, चक्के, तमिलनाडु का कुरवंजीकावडी, गुजरात का गरबा का गरबा सर्वविदित है। केरल का तिरुओडम, आंध्र का माथुरी, लंबाडी, ओडिशेा का छाऊ, घुमुरा, भुइया, करमा, सावरा तो अंडमान का बैरोग, जगेर, रंगडा आदि कितने तो संगीत प्रकार हैं।

राजस्थान के ऋतु कालीन वर्षा गीत मांड, बधावा, स्वांग गीत, सोहर, घूमर, हिचलकी, ईडाणी, चिरमी, मोरिया, कुरजा, कागा विनायक ढोला मारु। पंजाब के भांग़डा, बोली, गिद्दा गीत, बैसाखी गीतों के इसकेअलावा ङ्गसलों को लेकर, वर्षा, शीत, शरद पूर्णिमा अनेकों प्रसंग और प्रकृति से जु़डे गीतों का भंडार है।

सामाजिक व्यवस्था -संयुक्त परिवार के आपसी पवित्र संबंधों पर बहुआयामी और अंतरंग गीत हैं। सभी प्रांतों में जन्म उत्सव व विवाह संस्कार को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है। जच्चा -बच्चा के गीत, सोहर सभी गाते हैं। विवाह के अवसर पर बेटी की विदाई के साथ ही दोनों परिवारों की मर्यादाओं का सम्मान रखने को गीतों के जरिए सीख दी जाती है। बुंदेलखंड में भी लगन लिखवाना, मा़डव गीत और पंजाब का सुहाग गीत – ‘‘बेटी तू तो चि़िडया की तरह उ़ड जायेगी, घर आंगन सूना कर देगी ’’ और भोजपुरी का ‘‘धनि धनि भाग के आए कवन बाबा ’’ जैसे गीत कितने भावुक होते हैं।

ऐतिहासिक गीतों में तो प्रत्येक प्रांत का इतिहास मौखिक परंपरा में गीतबद्ध है। चारण -भाट राजा महाराजाओं के स्तुति गान के रूप में इतिहास के प्रमाण बने हैं।

धार्मिक अनुष्ठान पूजा – अर्चना के गीत भक्तिभाव से संपन्न हैंे। हिंदी प्रांतीय क्षेत्र में ॐ जय जगदीश हरे – गणपति, दुर्गा के गीत हैं। मथुरा वृंदावन, भरतपुर कृष्ण भक्ति और १६वीं शताब्दी में नवधा भक्ति पुष्टिमार्गी, ध्रुपद धमार के रूप में स्थापित है। कई भक्त -संतों ने भारत भूमि पर अवतरित होकर भक्ति मार्ग प्रशस्त किया। राजस्थान के चितौ़ड की मीरा, महाराष्ट्र के संत तुकाराम, नामदेव, कबीर पंथी, गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी, दक्षिण भारत के कीर्तनमु, गुजरात के रास, गरबा गीत अपनी अनमोल थाती के रूप में भक्ति मार्ग से मानव जीवन को कल्याणकारी बनाने में सक्षम हैं। धन प्रधान भारतीय संगीत का उद्भव हुआ राजा – महाराजाओं, सामंतों के द्वारा। इन लोगों ने संगीत के गुणी जनों को राजाश्रय दिया। चारण -भाट -जोगी जैसे ग्रामीण गायकों की टोली को स्तुति गान व ऐतिहासिक घटना -समाचार -संवाद -लेन -देन के रूप में धन देकर कर रखा। यहां तक कि देवदासी के रूप में मंदिरों में, कीर्तनकार के रूप में गायकों को रखा। लखनऊ, बनारस में तो मुगल बादशाहों ने संगीत को कोठे के रूप में ही स्थापित किया। किंतु बनारस और लखनऊ की ठुमरी गायकी उर्दू, हिंदी, अवधी, ब्रज भाषाओं में ठुमकती गणिकाओं और वेश्याओं की धरोहर बन गई। वाजिद अली शाह ने १५०० से अधिक ठुमरियों की रचना कर दी। कृष्ण भक्ति की ये बेजो़ड ठुमरियां श्रृंगार रस की धारा में तब्दील हो गईं, लेकिन संगीत के प्रति निष्ठावान गायिकाओं में जोहरा और मुश्तरी, गौहरजान, तौकी बाई, हुस्नाबाई का संगीत बेजो़ड भारतीय ठुमरी का अस्तित्व बना रहा।

वर्तमान में भारत के लोक संगीत व शास्त्रीय संगीत का प्रचार -प्रसार रेडियो, टेलीविजन और राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाए हुए है। मनोविज्ञान भारतीय संगीत का विज्ञान है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि मानव को बाल्यकाल से जीवन के लिए निश् चित क्रियाओं को प्रभावशाली करने और उनमें सामंजस्य -समायोजन कर सकने की क्षमता का विकास करने में भारतीय प्रांतीय संगीत ही सक्षम रहा। संगीत के सुर -ताल -लय जीवन की प्रत्येक मो़ड पर मानसिक संतुलन बनाने में सक्रिय रही है। व्यक्ति का शारीरिक और मानसिक विकास तो भारतीय संगीत की चुनौती रही है। आशीळलरप र्उेािीींशी ऊळलींळेपरीू में लिखा है – खीं ळी री लशर्रीींळर्षीश्र ळप ळींी ींशलहपर्ळिींश री ळप ळींी िीशीशपींरींळेप . आचार्य कैलाश चंद्र देव बृहस्पति ने ‘संगीत चिंतामणी ’ में लिखा है – संगीत, गीत, वाद्य, नृत्य के समन्वय हृदय को छू लेने की शक्ति है। मन की अमूर्त भावना को मूर्त रूप संगीत ही देता है। यह जीव प्रकृति, तथा समस्त सृष्टि के कण -कण में विराजित है।

भारतीय संगीत व्यक्ति व समष्टि दोनों को जीवन निर्देशन, संरक्षण, अपनत्व, समाज परिवार का सम्मान, और चरित्र निर्माण करता है। संगीत के एकल व सामूहिक गान की परंपरा एकता के साथ स्वर – सहभावना का उदाहरण है। हमें मंदिरों की आरती, गिरजा घर की प्रार्थना, गुरुद्वारे में गुरु वाणी के रूप में समूह मानसिकता मिलती है। समूह गान का यह स्वरूप वैदिक काल से है, जिसे भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में ‘कुतप ’ कहा है। सामाजिक व धार्मिक अवसरों पर परिवार, गांव, खणियों, बस्तियों में ऐसा मधुर और सारगर्भित समाजोपयोगी भावना से ओतप्रोत संगीत तो भारत का मूल मंत्र है।

प्रांतीय भाषा के गीतों में देशप्रेम, निष्ठा मिलती है। मराठी गीत ‘आता उठवु सारे रान ’हो या सिंधी गीत ‘मुहिजो वतन ’, अथवा पंजाबी गीत ‘असि देश दी चडेदी लाली ’ हो, गुजराती गीत ‘आकाश गंगा सूर्य, चंद्र तारा ’ या हिंदी गीत लता दीदीा का गाया ‘ए मेरे वतन के लोगों ’ जैसी प्रांतीय भाषाओं के गीतों में देशप्रेम झलकता है।

भारतीय संगीत का दर्शन तो सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् है। अनेकता में एकता का मूलाधार भारतीय संगीत है।

अंत में राजस्थान का प्रसिद्ध मांड गीत –

केसरिया बालम आओ नी,

पधारो म्हारे देस, पधारो म्हारे देस जी,

मुरधरिया राजन एजी हो,

जो़डी रा बालम,

एजी हो पधारो म्हारे देस।

केसर सू प्रग धावती,

सो भला पधारया पीव,

और बधोई काई करुं,

मैं पल पल वारुं जीव।

साजन आया ए सखीं,

सोई काई भेंट करुं,

याल भीर गज मोतियां और ऊपर नैण धरुं।

मारू थारां देस में सो निपजे तीन रतन,

एक ढोलूं, दूजी मारवण और तीजो कसुमल रंग।

कागा सबतन खाइजो,

सो चुन चुन खाइजो मांस ये दो नैना मत खाइजो,

म्हाने पिया मिलन री आस।

और –

कहे को बियाहे बिदेस, सुन बाबुल मोरे।

हम तो बावुल तोरे बागों की कोयल, कुहुकत घर घर जाऊं हम तो बाबुल तोरे खेतों की चि़िडयां – सुन …चुग्गा चुगत उ़िड जाऊं ….सुन बाबुल मोरे।

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