पौराणिक संबंध

सामान्य रूप से यात्रा पर जाना वहां के समाज में घुलमिल जाने की एक अनौपचारिक शिक्षा ही थी जिसने इस भूमि को युगों से आत्मीय, अक्षुण्ण, अभंग और एकात्म रखा है। ऐसे हमारे अनेक धागे पूर्वांचल के साथ जुड़े हुए हैं- सृष्टि उत्पत्ति के समय से, रामायण, महाभारत काल से। आज पूर्वांचल नाम से प्रचलित भूभाग देश का ईशान (मराठी में ‘ईशान्य’) -पूर्वोत्तर कोना है- ईश्वर की दिशा, जहां ईश्वर का निवास है ऐसा स्थान।

चित्र, पात्र, वस्त्र, क्षेत्र। ये चारों संस्कृति  के परिचायक, धारक, वाहक हैं। किसी भी व्यक्ति एवं उसका चिंतन उस समाज की व्याप्ति, विशालता प्रकट करता है। अपने घर में लगाए हुए चित्र उस व्यक्ति की अभिरुचि का प्रकटीकरण करते हैं। पात्र-बर्तन उसकी धातु, नाम, आकार हमारे शरीर, मन पर प्रभाव डालते हैं, वस्त्र मनुष्य की रुचि, उसकी सांपत्तिक स्थिति, पर्व आदि को सूचित करते हैं। वधु वेष, वर वेष से वधुवर, संन्यासी उनके परिधान से पहचाने जाते हैं। क्षेत्र-स्थूल रूप से हम उसे जमीन कहते हैं परंतु पवित्रतम स्थान के लिए यह शब्द अधिक मायने रखता है। हमारे यहां प्रचलित शब्द हैं तीर्थक्षेत्र, धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र आदि। प्रत्येक भूमि की अपनी विशेषता होती है। कभी वह विशिष्ट फसल के कारण, कभी किसी ऋषिमुनियों की तपस्या के कारण, कभी किसी के बलिदान के कारण वह प्रसिद्ध होती है। अनेक क्रांतिकारियों को ब्रिटिशों ने अंडमान में रखा उसे -काले पानी-की सजा कहते थे। वहीं स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी ने -कमला- काव्य लिखा- आज वह हमारा राष्ट्रीय तीर्थ बन गया है। यात्रा, कुंभ मेले विशेष पर्व पर देश के हजारों लोग बिना आमंत्रण- बिना सूचना वहां पहुंचते हैं- भाषा, प्रांत, जाति, खानपान की दीवारें वहां टूट- सी जाती हैं। अपने देश का वह हिस्सा उसे एक नई ऊर्जा, जीवन को एक नई दिशा देता है। पं. मालवीय जी को किसी ने कुंभ के बारे में पूछा- इतने लोगों से किसने और कैसा संपर्क किया? उन्होंने उत्तर दिया – आठ आने के पंचांग ने- पंजी ने। कौनसा कुंभ कब? अम्बुवाचि कब? परशुराम यात्रा कब? यह सब पंचाग से पता चलता है। अपने रुचिनुसार, अपनी कुल परंपरानुसार, व्यवसाय के अनुसार मनुष्य अपना स्वयं का आर्थिक नियोजन कर वहां पहुंच जाता है। हमारे खंडप्राय भारत देश को, विविधताओं को एकात्म रखने में हमारे यात्रा-पर्वों की भूमिका-अहं भूमिका रही है। वे प्रांत-प्रांत को व्यक्ति- व्यक्ति को जोड़ने वाले अद्भुत और अतीव मजबूत सांकल हैं। न पराधीनता का काल उसे रोक सका, न आंधी-तूफान, न भूचाल। जल जैसा जल और माटी जैसी माटी- कभी पीली मिट्टी (हल्दी घाटी की), लाल, काली-माटी वह वृंदावन की है तोे भगवान कृष्ण के जन्मग्राम की माटी के रूप में सिर माथे पर लगती है। गो-रज, संत चरण रज की भी तो यहीं महिमा है न। जल गंगा जल है तो अंतिम क्षण में मुंह में डालने के लिए संजोया जाता है। यात्रा के निमित्त जब किसी क्षेत्र में जाते हैं तो हमारा इतिहास, भूगोल और वहां का नागरिक शास्त्र आज की भाषा में -कम्युनिटी लिविंग- अनायास ही पता चलता है। सामान्य रूप से यात्रा पर जाना वहां के समाज में घुलमिल जाने की एक अनौपचारिक शिक्षा ही थी जिसने इस भूमि को युगों से आत्मीय, अक्षुण्ण, अभंग और एकात्म रखा है। ऐसे हमारे अनेक धागे पूर्वांचल के साथ जुड़े हुए हैं- सृष्टि उत्पत्ति के समय से, रामायण, महाभारत काल से। अन्य देशों में ४ ही दिशाएं मानते हैं, हमारे देश में दशदिशाओं की मान्यता है। आज पूर्वांचल नाम से प्रचलित भूभाग देश का ईशान (मराठी में ‘ईशान्य’) -पूर्वोत्तर कोना है- ईश्वर की दिशा, जहां ईश्वर का निवास है ऐसा स्थान। यहीं वह स्थान जिसे सूर्य किरणों का स्पर्श सर्व प्रथम होता है। शिव, शक्ति, श्रीकृष्णपूजक, निसर्गपूजक यह भूमि है।

कामरूप- कामाख्या

असम एक समय का प्रागज्योतिषपुर है, उसे कभी कामरूप कहते थे। ब्रह्मदेव ने नवग्रहों की निर्मिति यहीं की। ज्योतिष विद्या का मानो यह आद्यपीठ है।

पुरातन काल में कभी देवों को असुरों का पराभव असंभव हुआ। कैसे निकलेंगे इस परिस्थिति से बाहर? सभी की आशाएं टिकी थीं -शिव पार्वती को होने वाली संतान पर। दीर्घकाल हो गया, शिव जी अपनी समाधि स्थिति से बाहर ही नहीं आ रहे थे। देवगणों के लिए असुरों का प्रभुत्व असहनीय हो रहा था। अतः योजनापूर्वक कामदेव को भेजा गया- शिव जी को समाधि स्थिति से बाहर लाने के लिए। कामदेव के प्रभाव से शिव जी समाधि स्थिति से बाहर आए, देवगणों का कार्य संपन्न हुआ परंतु शिव जी के कोप ने कामदेव को भस्म किया। कामदेव की पत्नी रति विलाप करने लगी। भगवान शंकर ने उसे समझाया – उठो, उसकी रक्षा लेकर प्रागज्योतिषपुर जाओ। रति वहां गई, आश्चर्य हुआ। शिव कृपा से मदन को नया रूप प्राप्त हुआ। दोनों वहां शिवार्चन में लीन हुए। कामदेव और रति के निवास स्थान को यथोचित नाम प्राप्त हुआ कामरूप। (आज भी कोलकाता से गुवाहाटी जाने वाली एक ट्रेन का नाम कामरूप एक्स्प्रेस है। कामरूप में वर्तमान असम, अरुणाचल, नगालैण्ड, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा सभी सम्मिलित थे। एक समय बिहार का पूर्णिष्ठा, बांग्ला देश के रंगपुर और मैमनसिंह जिले भी  कामरूप में समाविष्ट थे)।

भीम शंकर

कामदेव और रति के शिवार्चन के कारण ही आज भी पूर्वोत्तर भारत की अधिकतम जनजातियां शिवोपासक हैं। यह किरातों का प्रदेश हैै। महाभारत में किरातार्जुन युद्ध ऐसा अध्याय है। वैसे ही कवि भारवि का -किरातार्जुनीयम्- प्रसिद्ध है। कछारी, दिमासा, कोच, ळाळुंग, गारो, राभा, खांसी, कारबी, नगा मिजो, मिकीर सभी जनजातियां किरात हैं। किरात उनका विशेष नाम है। और ये सभी शिवप्रेमी हैं। ‘बायौ बूढ़ा’ बोडो के शिव जी हैं, तो ‘शयौ बूढ़ी’ अर्थात् पार्वती है। बा का अर्थ है पांच और थौ अर्थात् तत्व- पांच तत्व की समष्टि, पंचमहाभूतों का आधार परमेश्वर वह है। बोडो उसे कहते हैं बोराय बाथौ। सिनू वृक्ष पंचतत्व पंचमहाभूतों का पृथ्वी, आप, तेज, वायु, आकाश का प्रतीक है। उसकी पांच शाखाएं होती हंैं और उसकी पूजा की जाती है। बोडो ईश्वर को कहते हैं कि बोराय बाथौ और शिवजी को कहते हैं सिब्राई। कंटकमय जीवन को मधुमय बनाने के लिए बोराय बाथौ की पूजा की जाती है। यह प्रदेश शिवोपासक होने के कारण गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्रा के एक छोटे से द्वीप पर उमानंद मंदिर है, दोनों तटों पर गुवाहाटी बसा हुआ है। उमा – पार्वती, नंद-महादेव। वैसे ही यहां भीमाशंकर भी हैं। ‘डाकिन्यां भीमशंकरम्’ ऐसा १२ ज्योतिर्लिंग स्तोत्र में कहा जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि यहीं ज्योतिर्लिंग है।  यहां का दूसरा परम आराध्य है कामाख्या। एक पहाड़ी पर कामाख्या का मंदिर है। शिवपत्नी पार्वती अपने पिता अर्थात दक्ष के घर यज्ञ में गई थी। वहां अपने पति की उपेक्षा देख कर वह दुखी हुई और उसने आत्मत्याग किया। उसका शव कंधे पर लेकर शिव जी चलने लगे। भारत के विभिन्न प्रांतों में उसका एकेक अंग गिरता गया। गुवाहटी में सती की योनी गिर गई। यही कामाख्या है। कामाख्या ५२ शक्तिपीठों में से एक है। कामाख्या का अम्बुवाचि मेला बहुत बड़ा होता है और संपूर्ण भारतवर्ष से शाक्तपंथ के लोग हजारों की संख्या में यहां पहुंचते ही हैं। त्रिपुरा में कभी त्रिपुरासुर का राज्य था। वहां के उदयपुर मंदिर में त्रिपुरसुंदरी का मंदिर है। सती का दाहिना पैर वहां गिरा था। त्रिपुरा में ही धर्मनगर से कुछ दूरी पर कैला शहर के निकट उनकुटी में ३३ करोड़ भगवान (पाषाण प्रतिमाएं) हैं। मकर संक्रांति के समय वहां मेला लगता है।

 वसिष्ठाश्रम

ईक्ष्वाकु वंश के गुरु वसिष्ठ जी का आश्रम भी गुवाहाटी में है। ( गुवाहाटी किसी समय सुपारी का प्रसिद्ध बाजार था। सुपारी अर्थात् गुवा और हाट अर्थात् बाजार। कुछ लोग कहते हैं कि यह गोरु अर्थात् गायों की भिन्न-भिन्न नस्ल के बाजार के रूप में विकसित था।) वसिष्ठ का आश्रम जहां है, वह स्थान इसी नाम से प्रसिद्ध है। बड़े-बड़े पत्थरों से कल कल छल छल करते हुए बहने वाला प्रवाह मन को प्रसन्न करता है। वह इतना सुंदर स्थान है कि उस मधुर नैसर्गिक गीत से सत्वगुणी व्यक्ति अवश्य ही समाधि सुख का अनुभव लेता है।

दशावतार में परशुराम जी का क्रमांक छठवां है। जमदग्नि मुनि और रेणुका माता की वह संतान है। रेणुका, विश्वामित्र की बहन, गाधी राजा की कन्या है। परशुराम मातुल वंश से क्षत्रिय हैं और पिता की ओर से ब्राह्मण। उनके व्यक्तित्व में दोनों का अद्भुत मेल पाया जाता है- इदं ब्राह्मं इदं क्षात्रम् का दर्शन होता है।

एक दिन रेणुका माता पानी भरने नदी पर गई। वहां कार्तवीर्यार्जुन की अपने पत्नियों के साथ चल रही जलक्रीडा देखने में रम गई। जमदग्नि क्रोधित हुए। पिता के कहने पर परशुराम ने अपनी मां का अपने परशु से सिर काट दिया। उनका हाथ परशु को चिपक गया। वह बात उनके मन को चुभ रहीं थी। पिता ने कहा, तीर्थयात्रा करो। जहां कुछ लोकोपयोगी कार्य होगा वहां तुम्हारा हाथ परशु से अलग होगा। सुदूर क्षेत्र से परशुराम यात्रा करते करते पूर्वोत्तर में आए। वहां पानी के अभाव में लोगों को तड़पते देखा।  बाद में वे मानस सरोवर की ओर गए। वहां लबालब पानी देख कर उन्होंने कुछ योजना बनाई और मानस से एक प्रवाह निकाला, वहीं ब्रह्मपुत्रा है। लोहित तक आने के बाद उसे फिर से उचित दिशा दी नहीं तो वह प्रवाह वहां की पहाड़ियों में बह जाता। यहीं उनका हाथ परशू से मुक्त हुआ। यहां परशुराम कुंड और साथ में उनका एक छोटा मंदिर भी है। कुछ वर्ष पूर्व वहां तक पहुंचना कठिन होता था। यहां ब्रह्मपुत्रा को लोहित कहा जाता है। परशुराम का मूल मंदिर कोकण में चिपलूण में है। वहां से इतने दूर जाकर उन्होंने वहां जनजीवन सुजल, सुफल, शस्यश्यामला बनाया। अतः वहां के लोगों ने कृतज्ञता से उनका मंदिर बनाया। मकर संक्रमण के दिन यहां बड़ा मेला लगता है। ब्रह्मपुत्रा में स्नान करने के बाद गीले हुए कपड़े वहीं छोड़ देने की प्रथा है। परशुराम ने कोकण एवं केरल की भूमि का निर्माण किया, पूर्वोत्तर में जलधारा प्रवाहित की। यहां के कुछ गौरवर्णीय लोग कहते हैं, हम परशुराम के साथ यहां आए थे और यहीं बस गए। तब से हमारा उनसे सम्पर्क और संबंध है।

 रुक्मिणी स्वयंवर

महाभारत के अनेक पृष्ठों पर हमें पूर्वोत्तर भारत के धागेे बिखरे हुए मिलते हैं। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय त्रिपुरा का राजा चित्रायुद्ध इंद्रप्रस्थ गया था। युधिष्ठिर ने उसे श्वेत छत्र दिया। त्रिपुरा के राजघराने में उसकी पूजा की जाती थी।

श्रीकृष्ण और कामरूप का तो अति निकट का संबंध है। श्रीकृष्ण की पट्टरानी रुक्मिणी अरुणाचल की ही थी, ऐसा वहां के लोग मानते हैं। (हमारी मान्यता है कि वह विदर्भ की, अमरावती के निकट के कौंडिण्यपुर की है।) लोहित जिले में कुण्डिल नदी के किनारे भीष्मक नगरी थी। वहां का राजा था भीष्मक। रुक्मिणी  भीष्मक की बेटी, और बेटा रुक्मी थे। रुक्मिणी श्रीकृष्ण के गुणों पर मोहित थी। अतः उसके पत्रानुसार श्रीकृष्ण वहां पहुंचे। भीष्मक नगरी से दस कि.मी. दूरी पर तामे्रश्वरी मंदिर है। रुक्मी की इच्छा अपनी बहन का विवाह चैत्य देश के शिशुपाल के साथ करने की थी, लेकिन रुक्मिणी उसके अनुकूल नहीं थी। उसने स्वयं ही श्रीकृष्ण का पति के रूप में वरण किया था। रुक्मी के विरोध के कारण श्रीकृष्ण ने उसका अपहरण किया। रुक्मी के साथ उनका भीषण युद्ध हुआ। इसमें भाई के प्राणों को खतरा है, यह ध्यान में आते ही बहन का मन द्रवित हुआ। उसने भाई को जीवित रखने की प्रार्थना की। अतः उसके बाल कान के ऊपर से काट कर उसे विद्रूप कर जीवदान दिया। आज भी वहां -इदूमिशमी- लोग स्वयं को रुक्मी के वंशज मानते हैं और वैसे ही बाल रखते हैं।

 अश्वक्लांत तीर्थ

ऐसी मान्यता है कि सुदूर से आते आते कृष्ण के घोड़े थक गए। उन्हें पानी पिलाने श्रीकृष्ण ने बाण से जल प्रवाहित किया। वही अश्वक्लांत तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। यह भी स्थान गुवाहाटी में है।

 नरकासुर वध

रुक्मिणी वहां की होने के कारण पूर्वांचल की गतिविधियों का बारीकी से जानकारी रखते थे। प्रागज्योतिषपुर का राजा नरकासुर विष्णुभक्त था। (उसका ही एक नाम भौमासुर था। कहते हैं कि उसकी पत्नी मायादेवी विदर्भ की राजकन्या थी) कुछ समय के पश्चात् वह दुष्ट प्रवृत्ति का बना। उसने १६००० महिलाओं को बंदी बना कर रखा था। उसकी करतूतों का पता भारत के पश्चिम क्षेत्र की द्वारकानगरी के अधिपति को हुआ। ‘परित्राणाय साधुनाम्’ यह उनका संकल्प था। अतः वे इतनी दूरी पार कर ससैन्य वहां पहुंचे। उनकी रणकुशल पत्नी सत्यभामा भी उनके साथ थी। श्रीकृष्ण के साथ आने के लिए मना करते ही उसने कहा, जब आप नरकासुर का वध कर उसकी बंदी बनाई गई महिलाओं को मुक्त करेंगे तो वे किसके साथ अपने मन की बात बांटेगी? एक महिला के साथ ही न? और इस तरह युद्ध में वह साथ रही। पश्चिम ने पूरब को आतंकमुक्त किया। कितनी भावात्मक एकात्मता! शरीर के पैर के अंगूठे को ठेस लगे तो वेदना सिर तक पहुंचती है और हाथ उसे सहलाने वहां तक पहुंच ही जाता है। उसी स्वाभाविकता से यह बात हुई है। भौमासुर के बेटे भगदत्त की पुत्री का विवाह महाभारत के खलनायक दुर्योधन के साथ हुआ था। बेटियां सुखपूर्वक अपने ससुराल में रहती थीं। भाषा, भूषा, भोजन उसमें बाधक नहीं हुए। महाभारत की १८ अक्षौहिणी सेना में भगदत्त की एक लाख किरात सेना और दस हजार हाथी दुर्योधन की सेना में सम्मिलित थे। पूर्व, उत्तर, पश्चिम में रोटी-बेटी व्यवहार सहजता से हो रहे थे।

 अग्नि घर

श्रीकृष्ण की पोता बहू उषा भी इसी क्षेत्र की थी। शोणितपुर अर्थात आज के तेजपुर के असुरराज बाणासुर की वह कन्या थी। बाणासुर शिवभक्त था। (असुर शिवोपासक थे, शूर थे, सुंदर थे परंतु महत्वाकांक्षा और विलासिता के कारण समाज के लिए उपद्रवकारी बन जाते थे) आज भी उसके द्वारा स्थापित विशाल शिवलिंग, बड़े नगाड़े वहां हैं। श्रीकृष्ण रुक्मिणी का बेटा, प्रद्युम्न का विवाह रुक्मी की बेटी रुक्मावती के साथ हुआ था। उनका पुत्र अनिरुद्ध। दिखने में सुंदर, शूर, पराक्रमी। अपनी सखी चित्रलेखा से उसका वर्णन सुन कर उषा ने उसके साथ गुप्त रूप से गांधर्व विवाह किया। बाणासुर को पता चलने के बाद उसने उसे कारागृह में रखा। उसकी सुरक्षा एवं मुक्तता के लिए श्रीकृष्ण वहां पहुंचे। बाणासुर ने अपनी ओर से युद्ध करने शिव जी को आमंत्रित किया और वहां हरि-हर युद्ध हुआ। शायद तभी से वैकुंठ चतुर्दशी को हरिहर भेंट मंदिरों में मनायी जाती है। तेजपुर में उषा-अनिरुद्ध का स्मारक बनाया हुआ है। अतीव सुंदर ऐसी पहाड़ी है- नीचे से ब्रह्मपुत्रा बहती है। आज भी अग्निघर इस नाम से यह विख्यात है। बाणासुर ने उषा की रक्षा के लिए वहां चारों ओर अग्नि प्रज्वलित रखी थी। अतः वह अग्निघर कहलाता है।

शायद इन सभी के कारण ही यहां कृष्ण कथा प्रचलित है। संत शंकरदेव ने भागवत का प्रसार किया। नामघर बनाए, जहां मूर्ति नहीं, भागवत ग्रंथ रखा जाता है, पढ़ा जाता है, गाया जाता है। शंकरदेव और उनके शिष्य दोनों ने मिलकर रामायण भी लिखा है।

मणिपुर का रास लीला नृत्य प्रसिद्ध है। इम्फाल में गोविंद स्वामी का मंदिर है। भोजन में १०८ व्यंजनों का भोग लगता है। कांस्य धातु की थाली, कटोरी सभी बहुत बड़ी रहती है। एक-दो नहीं, पंद्रह-बीस कटोरी रहती है। वह देखने के बाद मेरी प्रथम प्रतिक्रिया थी, यह तो भीम की ही थाली लग रही है।

 हैडम्ब वंश

पांडवों का भी यहां के अन्यान्य प्रांतों से निकट संबंध रहा। भीम की पत्नी हिडिम्बा नगालैण्ड की- दीमापुर की अर्थात  हिडिम्बपुर की थी। आज भी वहां हिडिम्बा महल है। उनका पुत्र घटोत्कच। भीम और हिडिम्बा से ही हैडम्ब वंश प्रारंभ हुआ। हैडम्ब वंश की १८० पीढ़ियों की सूचि (वंश परंपरा) उपलब्ध है। घटोत्कच को ही उसका मूल पुरुष मानना चाहिए। भीम और घटोत्कच शतरंज खेला करते थे। उस समय के पत्थर के प्यादे और शतरंज आज भी वहां सुरक्षित रखे हैं। महाभारत युद्ध को निर्णायक मोड़ देने वाला घटोत्कच ही है। डिमासा स्वयं को घटोत्कच के वंशज मानते हैं। घटोत्कच का पुत्र बर्बरिक भी अत्यंत शूर था। श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया। उसके अमात्य -मूर-ने भी रणक्षेत्र में वीरगति प्राप्त की। उसकी कन्या थी मौर्वी उपाख्य कामकण्टकटा। यह स्वयं शूर थी। अपने पिता की मौत के प्रतिशोध के लिए उसने युद्ध किया। कहते हैं कि कामाख्या देवी की मध्यस्थता से उसे विराम दिया गया। बाद में घटोत्कच और मौर्वी का विवाह हुआ- उनका पुत्र बर्बरिक है। मां एवं पिता दोनों के शौर्य गुणों से परिपूर्ण था बर्बरिक। महाभारत युद्ध में उसने कहा था जो पक्ष पराभूत हो रहा है ऐसा दिखेगा, उसकी ओर से युद्ध कर एक दिन में युद्ध जीतूंगा। श्रीकृष्ण की कूटनीति ने उसके जीवन को विराम दिया।

तृतीय पांडव अर्जुन एक वर्ष के वनवास के समय मणिपुर में रहा। उसका विवाह राजा चित्रवाहन की बेटी चित्रांगदा से हुआ। उनका पुत्र बभ्रुवाहन। इसने भी महाभारत युद्ध में अतुलनीय पराक्रम किया। पांडवों का विजयी अश्व अपने पराक्रम से रोकने वाला बभु्रवाहन ही है। अर्जुन की और एक पत्नी उलूपी एक नागकन्या थी। उनके पुत्र का नाम था ऐरावन/इरावान था। श्रीराम के पुत्र कुश का विवाह भी नागकन्या से हुआ था। रावण के पराक्रमी पुत्र- मेघनाद की पत्नी भी नागकन्या थी।

भारत का अति प्राचीन पंथ है- नाथ पंथ। अध्यात्म ज्ञान की गंगा इसी पंथ से प्रवाहित है। इस पंथ के मच्छिंद्रनाथ भ्रमण करते-करते मणिपुर पहुंचे और प्रमिला रानी के जाल में फंस गए। बाद में उनके शिष्य गोरखनाथ उन्हें यहां आकर लेकर गए ऐसा उल्लेख नाथ इतिहास में मिलता है।

जतिंगा- पक्षियों का मृत्यु स्थान

हाफलांग के निकट एक गाव है- जतिंगा। जतिंगा नदी के किनारे बसा हुआ है जतिंगा। यहां देशविदेश से पक्षी आते हैं और एक विशिष्ट स्थान पर उनकी मृत्यु होती है। बताया जाता है कि किसी काल में यहां एक सुंदर शिवमंदिर था। घना जंगल था। अतः दुर्वासा मुनि यहां तप करने आए थे। दुर्वासा अतीव क्रोधी थे। प्राचीन ग्रंथों में उनके क्रोध की, शाप की अनेक कथाएं हम सुनते हैं। अपना क्रोध शांत करने हेतु वे इस प्रदेश में तप करने के लिए आए। दीप ज्योति जलाई और ध्यान प्रारंभ करने के समय एक पक्षिणी वहां आई और उसने चिल्लाना प्रारंभ किया और लगातार चिल्लाती ही रही। ध्यान लगाना असंभव सा हुआ। मुनि नाराज हो गए। क्रोध पर काबू प्राप्त करना था। अतः उन्होंने सोचा आज रहने देते हैं ध्यान, कल से करेंगे। परंतु दूसरे दिन भी यह क्रम जारी रहा। यह स्थिति अनेक दिनों तक जारी रही। मुनि दीप जलाते और पक्षिणी आकर चिल्लाना प्रारंभ करती। आखिर एक दिन मुनि का धीरज छूट गया। उन्होंने उसे शाप दिया, तुम और पूरे विश्व की तुम्हारी पक्षी जाति यहां आकर मृत्यु प्राप्त करेगी। आज भी वह क्रम जारी है। उस विशिष्ट समय में जनवरी में अनेक लोग यह देखने के लिए आते हैं।

आधुनिक काल में रानी मां गाईदिनिल्यू तिनडवाङ भगवान से मिलने भुवन पहाड़ पर जाती थीं। इस भुवन पहाड़ पर आज भी महाशिवरात्रि के दिन मेला लगता है।

पूजा पर्व

यहां के पूजा पर्व भी एक जैसे ही हैं। धान आने के बाद घर घर में नए चावल का भात बनाकर अड़ोस-पड़ोस के घरों को या गाव को ही बुलाया जाता है। त्रिपुरा में गरिया पूजा होती है। जमातिया, रियांग -होजागिरी- (कोजागिरी) मनाते हैंं। रियांग समाज नव वर्ष के दिन पूजा घर में पूजा करने के लिए घड़ा भर कर चावल लक्ष्मी के प्रतीक रूप में रखते हैं। जमातिया में -बुइसु- इस प्रमुख त्यौहार पर लक्ष्मीपूजा की जाती है। गाय, बकरी आदि पशु धन को माला पहना कर उनकी भी पूजा की जाती है। नगाओं में बहु के गृहप्रवेश पर केले के पत्ते पर चावल, लोहे का डंडा, या धातु का सिक्का, दीप आदि रख कर सुंदर तरीके से सजाकर रखते हैं। वह अपने दाहिने पैर से उसे स्पर्श कर घर में प्रवेश करती है। महाराष्ट्र, दक्षिण के प्रांंंंंत, पंजाब आदि में भी इसी के जैसी प्रथा है।

भारत के विविध प्रांतों में भाषा, भूषा, अलग हैं, परंतु संस्कारों में विलक्षण एकता है। पहले अपने घरों में नया झाडू उपयोग में लाते समय हल्दी-कुमकुम लगाया जाता था। कहते हैं यह लक्ष्मी है। अतः लक्ष्मीपूजा के दिन भी उसे पूजा घर में रखते हैं या पूजा हेतु अवश्य ही नया खरीदा जाता है। वही भाव त्रिपुरा में हमने अनुभव किया। झाडू के पेड़ को कहते हैं रमा। रमा, लक्ष्मी का ही एक नाम है। जहां सफाई है, रमणीयता है, वहां मन रमता है, लक्ष्मी भी रमती है कितना सार्थ नाम है और आसेतुहिमाचल देश में एक ही भावना-एक ही शब्द का प्रयोग। वैसे ही और कुछ शब्द-रसोई घर के लिए प्रयुक्त शब्द है रांधते घर, रांधण घर आदि। श्राद्ध में चावल का पायस सर्वदूर एक जैसा हैै। मृत्यु के बाद अशौच पालन हैै। बालकों के संस्कारों में से मणिपुर में कर्णवेधन या अन्नप्राशन बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।

पूर्वांचल के ग्राम के नाम भी बहुत मायने रखते हैं- श्रीरामपुर, गोसाईगाव, कामाख्यागुडी, तेजपुर, सिलचर के निकट करीमगंज एक समय कूर्मगंज था, आदि आदि।

इसी कारण स्वाधाीनता संग्राम में देश की स्वाधीनता हेतु अनेक जनजातीय बंधुओं ने अपना रक्त बहाया। गोलियों की बौछार में भी हाथ में पकड़ा तिरंगा नीचे न गिरने देने वाली  कनकलता, कुधल कोनवार- गोलाघाट, हेम बरुआ- असम, मणिराम देवान, भोगेश्वरी फौकानी, लाचित बडफूकन, शंभुधन, तिरोत सिंह- मेघालय, शूरवीर कोंगचेरा- मिजोरम, मटमूर जामोह- अरुणाचल प्रदेश, पौना ब्रजबाशी- मणिपुर, वीर जादोनांग, रानी मां गाईदिनिल्यू और उसके साथ लड़ने वाले अनेक शूरवीर, फांसी के फंदे झूलनेवाले अनगिनत नाम हैं।

 क्योंकि-

 संस्कृति सब की एक चिरंतन, खून रगों में हिंदू है-

 विशाल भारत समाज अपना, हम सब उसके बिंदू हैं

की अनुभूति देने वाली और भी बातें हैं, परंतु शब्दमर्यादा के कारण यही लेखनी को विराम देती हूं।

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