सशस्त्र क्रांतिकारी व मानवकल्याण के विचारों के संवाहक महर्षि अरविंद

‘कारागार में मुझे एक संदेश प्राप्त हुआ है। ईश्वर ने मुझे यह बताया है कि सनातन धर्म की रक्षा और प्रचार-प्रसार के लिए मेरा जीवन है। मेरा आगे का जीवन स्वयं के लिए नहीं तो अपितु विश्व के कल्याण के लिए है। सनातन धर्म में चैतन्य निर्माण करने के लिए मेरा जीवन समर्पित करना है।’                                                                                                                                 -महर्षि अरविंद

अपने आसपास की सृष्टि को चराचर जगत कहा जाता है। इस चराचर जगत को ही मानव का कर्मक्षेत्र कहा गया है। यहां जन्म लेकर प्रत्येक व्यक्ति अपने सामर्थ्य के अनुसार कार्य करता है, किंतु इस चराचर जगत में उसी व्यक्ति का जीवन सार्थक माना जाता है, जो अपने महत्वपूर्ण कार्यों से अपने वंश, जाति, समाज, देश या मानवता का कल्याण करते हैं। उस व्यक्ति के द्वारा समाज के विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तन किया जाता है। वह व्यक्ति उस परिवर्तन का संवाहक होता है। ऐसे महान लोगों का जीवन और व्यक्तित्व दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत होता है। भारत की इस पावन भूमि पर ऐसे कई महापुरुष हुए हैं जिनका जीवन और व्यक्तित्व मानवता के लिए प्रेरणास्त्रोत रहा है। ऐसे महापुरुषों में से एक व्यक्ति हैं महर्षि अरविंद घोष। महर्षि अरविंद भारतीयों के हक की लड़ाई लडनेवाले राजनेता और मानवता की बात करने वाले आधुनिक संत माने जाते हैं, तभी तो उन्हें लोग महर्षि अरविंद के नाम से अब भी याद करते हैं।   सूट-बूट पहनने वाले और बचपन से अंग्रेजी माहौल में पले-बढे युवक का 1893 में इंग्लैंड से भारत आने का लक्ष्य अंग्रेजों के अन्याय से देश को आजाद कराना था। उनका जन्म 1872 में कोलकाता के पास एक ऐसे परिवार में हुआ था जो भारतीय होने पर भी अंग्रेजी भाषा एवं सभ्यता का उपासक था। उनके पिता की यही इच्छा थी कि अरविंद का समस्त व्यक्तित्व इसी ढांचे में ढले। अरविंद की बुद्धि तथा हृदय पर भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का प्रभाव ना हो इसी उद्देश्य से अरविंद को 7 वर्ष की आयु में शिक्षा के लिए अपने भाइयों के साथ इंग्लैंड रवाना किया गया और 14 साल तक अरविंद का बचपन मैंचेस्टर के एक अंग्रेजी परिवार के साथ बीता।

लेकिन जब उन्होंने भारत के सीने में उभर रहे गुलामी के दर्द को देखा तो वह दर्द युवा अरविंद ने भीतर तक महसूस किया था। दूर विदेश में भी उन तक भारतीयों के दुख-दर्द की कहानी पहुंचती थी, जिसे सुनकर  उनके दिल को वेदना होती थी। अंतत: एक रोज वे भारत लौट ही आए। उन्होंने भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षा दी, परंतु वे जानबूझकर अनुत्तीर्ण हो गए। महर्षि अरविंद के भीतर एक ओर अपने देशवासियों को मुक्त करने की कामना थी, तो दूसरे ओर भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता स्थापित करने की लालसा भी थी। उन्होंने भारत आने से पहले ही भारत के संदर्भ में बहुत कुछ पढ रखा था। भारत लौटने के बाद महाराजा सयाजीराव गायकवाड के आग्रह पर महर्षि अरविंद उनके निजी सचिव रहे और उसके बाद वहीं के एक कॉलेज में प्रधानाचार्य के रूप में उन्होंने अपनी सेवा आरंभ की। साथ ही उनके राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत क्रांतिकारी विचार उस दौर के तमाम प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित होने लगे थे। उस समय एक सुप्रसिद्ध अखबार में लिखे आलेख में अरविंद कहते हैं, ‘ब्रिटिश लोग भारत को एक समृद्ध देश के बजाए जंगल, नदी, जमीन, खेत, खलिहान के अलावा कुछ नहीं समझते, पर मुझे तो वह मेरी मां के रूप में दिखाई दे रही है।’ अरविंद विदेशी लोगों के बीच रहे। इस कारण उन्हें बहुत सारी विदेशी भाषाओं का ज्ञान था। लेकिन भारत आने के बाद उन्होंने विशेषत: बांग्ला, हिंदी, संस्कृत को आत्मसात किया। एक साल  में उन्होंने तीनों भाषाएं बोलनी और लिखनी भी सीख लीं।

युवा अरविंद भारत की राजनीति में सक्रिय हो रहे थे। तभी उन्होंने ‘फाउंडेशन ऑफ इंडियन कल्चर’ और ‘डिफेंस ऑफ इंडियन कल्चर’ नामक किताबें लिखीं। अपने विचारों से वह जनमानस तैयार कर रहे थे। वंदे मातरम नाम से अखबार निकालना भी उन्होंने इसी समय आरंभ किया था। इसी के साथ वे भारतीय कांग्रेस से भी जुड़ गए थे। 1903 में उन्होंने बंगाल के क्रांतिकारियों से संपर्क कर क्रांति में अपना सहयोग देना आरंभ कर दिया।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना होकर 8 साल हो गए थे। इस अवधि में कांग्रेस की नरम राजनीति देखकर युवा अरविंद के मन में यह विचार निश्चित हो गया था कि कठोर राजनीतिक नीतियां बनाकर ब्रिटिश सत्ता को उनकी जगह दिखाने का प्रयास करना चाहिए। उनकी भूमिका सिर्फ भारत देश को स्वतंत्र करना नहीं थी। वे सम्पूर्ण विश्व के हित के लिए भारत की स्वतंत्रता चहाते थे। विश्व का नेतृत्व करना भारत की नियति है, इस बात पर उनका अटल विश्वास था। उस समय की राजनीतिक परिस्थिति में दूसरों के गुलामी करनेवाला भारत विश्व का नेतृत्व करने में असमर्थ दिखाई दे रहा था। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सहभागी होते समय उनका दृष्टिकोण भारत के प्रति विशाल था। ’संपूर्ण स्वराज्य’ हेतु त्याग भाव से कार्य करने की प्रेरणा उन्होंने युवा शक्ति को प्रदान की थी। महर्षि अरविंद के इस क्रान्तिकारी और अलग विचारधारा के कारण नरमपंथी कांग्रेस नेतृत्व से उनकी बन नहीं पाई।  अरविंद ने बंगाल के क्रांतिकारियों को संगठित किया। बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व में होमरूल स्वराज्य की मांग की। साथ ही अपनी नीति के रूप में दो बातें चुनी, स्वावलंबन और सहयोग। पहली बात का अर्थ था राष्ट्रीय शक्ति को इस रूप में संगठित करना जिससे किसी भी क्षेत्र में सरकारी सहायता की आवश्यकता ना हो। दूसरी बात का उद्देश्य था विदेशी शासन एवं संस्थाओं का बहिष्कार। अरविंद को आशा थी कि कांग्रेस उनकी बात मान लेगी और इसे अपना लेगी। कांग्रेस की ओर से यहां भी उन्हें स्वीकृति नहीं मिली और उन्होंने अपनी ओर से जो आंदोलन प्रारंभ किया था, वह आंदोलन भी बल नहीं पकड़ पाया।

कहा जाता है कि उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर दुनिया का पहला क्रूड बम बनाया था, हालांकि उन्होंने कभी उसका उपयोग नहीं किया। जब 1908 में अलीपुर बम कांड हुआ और छापेमारी हुई तो उनकी बम बनाने की फैक्ट्री पकड़ी गई। उसके बाद महर्षि अरविंद को गिरफ्तार कर अलीपुर के कारागार में भेज दिया गया। कहते हैं कि उन्हें यहीं दिव्य अनुभूति हुई थी। उनमें पनप रही क्रांति की ज्योति आध्यात्मिक अनुभूति में परिवर्तित हो गई। अलीपुर कारागार में महर्षि अरविंद को परमात्मा का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हुआ। जहां उन्हें दिव्यवाणी सुनाई दी जिसका आशय यह था कि ’जिस स्वतंत्रता के लिए आप प्रयास कर रहे हैं, उसकी प्राप्ति के लिए मैंने अन्य व्यक्ति की नियुक्ति की है। इस पृथ्वी पर तुम्हारे हिस्से का नियत कार्य अलग है।’ यहीं से उनके जीवन को एक नया मोड़ प्राप्त हुआ। एक महान क्रांतिकारी अरविंद से महर्षि अरविंद का प्रवास यहीं से प्रारंभ हुआ।

इस घटना के बाद उनकी रुचि पूरी तरह से योग, धर्म, उपनिषद और धर्मग्रंथों की ओर जागृत हो गई। उन्होंने कई ग्रंथों की अनोखी व्याख्या  करते हुए एक नया दर्शन प्रस्तुत किया था। उन्होंने एक मंत्र लिखा था ‘ॐ आनंदमयी, चैतन्यमयी, सत्यमयी परमें’, जिसका अर्थ है ओम प्रसन्नता है, चैतन्य है, सत्य है।

अलीपुर बम प्रकरण के कारावास से मुक्त होने पर महर्षि अरविंद का कलकत्ता में अभिनंदन किया गया। उस अवसर पर उन्होंने जो भाषण दिया, वह बहुत प्रसिद्ध है। उस भाषण में महर्षि अरविंद ने कहा था, ‘कारागार में मुझे एक संदेश प्राप्त हुआ है। ईश्वर ने मुझे यह बताया है कि सनातन धर्म की रक्षा और प्रचार-प्रसार के लिए मेरा जीवन है। मेरा आगे का जीवन स्वयं के लिए नहीं तो अपितु विश्व के कल्याण के लिए है। सनातन धर्म में चैतन्य निर्माण करने के लिए मेरा जीवन समर्पित करना है।’ महर्षि अरविंद के कथन के अनुसार ईश्वर ने धर्म के पवित्र संदेश को मानव समाज में प्रसारित करने का कार्य उन्हें सौंपा था। महर्षि अरविंद यह मानते थे कि सनातन हिंदू धर्म के कारण ही हिंदुस्तान का अस्तित्व है। धर्म में चेतना का निर्माण करना ही देश में चैतन्य निर्माण करने जैसा है। उन्होंने समाज को बताया कि सनातन धर्म के विकास में ही इस राष्ट्र का विकास निहित है।

1912 में राजनीति छोड़ने के बाद योगी अरविंद पूर्णत: संत की भूमिका में आ गए। सफेद धोती और एक सफेद चद्दर उनका वस्त्र बन गया।  अध्यात्म की ओर झुकाव के बाद भी हजारों लोग उनसे जुड़ने लगे। इन लोगों ने उन्हें ‘महर्षि’ पदवी प्रदान की। वे 1926 से लेकर 1950 तक साधना में लगे रहे। सार्वजनिक सभा और भाषणों से दूर पांडिचेरी में मानवता के कल्याण के लिए उन्होंने एक आश्रम बनाया। वहां मानवता के कल्याण के लिए वे चिंतनशील बने। वहीं लिखी उनकी ‘द लाइफ डिवाइन’ यानी ‘दिव्य जीवन’ यह किताब दुनिया के लाखों लोगों के जीवन में अलौकिक परिवर्तन लाने के लिए मार्गदर्शक रही। इस किताब ने न जाने दुनिया के कितने लोगों की जिंदगी बदल दी है। ‘द लाइफ डिवाइन’ इस किताब की गिनती भारत की महानतम कृतियों में की जाती है। भारत के राष्ट्रपति अब्दुल कलाम इसी किताब से प्रेरणा लेते थे। वे अक्सर अरविंद आश्रम में जाया करते थे। 1950 में अनंत में विलीन होने के बाद पांडिचेरी के आश्रम में महर्षि अरविंद की समाधी बना दी गई। उनके निर्वाण के बाद भी यह आश्रम आज तक अध्यात्म और  ज्ञान का तीर्थक्षेत्र माना जाता है। सिर्फ भारत नहीं दुनियाभर से अपनी आध्यात्मिक तृष्णा को शांत करने के लिए लोग पांडिचेरी आते हैं। आज सामाजिक कार्य के साथ-साथ शिक्षा में नवाचार के लिए विभिन्न अभियान वहां पर चलाए जाते हैं। शिक्षा का महत्व जन-जन तक पहुंचाने हेतु पांडिचेरी का यह आश्रम अपना अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है।

विकास का पहला कदम जीवन, दूसरा मन एवं बुद्धि है। परा चेतना उसके भी ऊपर है। मनुष्य के पूर्ण विकास का अगला कदम वहीं पर है। जीवन चेतना से परा चेतना में पहुंचने के लिए विशेष प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता है और वह योग द्वारा ही संभव होती है। प्राचीन समय में यह अभ्यास निवृत्ति के रूप में किया जाता था। जहां साधक शरीर, बुद्धि, मन एवं प्राण से ऊपर उठकर आत्म जगत में पहुंचने का प्रयास करता था।  महर्षि अरविंद का कथन है कि उस पराचेतना को प्राप्त करने के लिए शरीर आदि से संबंध तोड़ने की आवश्यकता नहीं है। आत्मा इसी शरीर में रहते हुई मुक्ति का अनुभव कर सकती है।

महर्षि अरविंद ने ’सीक्रेट ऑफ वेदा’ यह ग्रंथ लिखा है। उनकी दृष्टि से वेद एवं उपनिषद केवल भारतीय धर्म का तत्वज्ञान नहीं अपितु कला, काव्य, साहित्य के अक्षय स्रोत भी हैं।

मनुष्य मात्र को अपने जीवन में आध्यात्मिकता एवं जीवन की सुयोग्य रचना करना अत्यंत आवश्यक है। ऐसा ना होने पर मनुष्य की जीवन शक्ति का ह्रास होता है। साथ ही समाज एवं देश भी हीन अवस्था तक पहुंचता है। केवल मन का शुद्धीकरण ना होकर अपने अंतर्मन पर जो मोह का पटल है वह दूर होना आवश्यक है। अंतर्मन का मूल अस्तित्व है शुद्धता। वह शुद्धतम अवस्था उसे प्राप्त होनी चाहिए। इसलिए हमें ईश्वर शक्ति को अपने आप में समाहित करना अत्यंत आवश्यक है। वह जब हमारे अंतर्मन में निवास करती है तो अपने पूर्ण पार्थिव में समा जाती है और हमारे अंतःकरण में समग्र परिवर्तन का भाव निर्माण होता है। वह अद्भुत होता है। अखिल विश्व में इस प्रकार के अद्भुत परिवर्तन लाने का उद्देश्य लेकर महर्षि अरविंद अत्यंत कठोर तप और योग साधना करते रहे।

आज के नवनिर्माण की बेला में यह महत्वपूर्ण प्रश्न है कि आज तक चले आए इस भारतीय भाव जीवन की आधारशिला क्या है? अपने भावी जीवन मंदिर का निर्माण कर विश्व मांगल्य की कामना किस प्रकार से की जाए? महर्षि अरविंद की अटूट आस्था और आत्मविश्वास के आधार पर यह कहना युक्तिसंगत है कि भारत का सनातन भाव जीवन इसलिए कभी नष्ट नहीं हो सका और कभी नष्ट नहीं होगा क्योंकि इस भारत के ऊपर केवल भारत का नहीं संपूर्ण संसार का अस्तित्व निर्भर है। मानवीय सृष्टि नष्ट हो जाने से बचाने केलिए भारत का भारत के मूल रूप में अस्तित्व बने रहना भी अपरिहार्य है। जब भारत का अस्तित्व रहेगा तभी यह सृष्टि सुरक्षित बनी रह सकती है। यह भाव जीवन अथवा भारतीय संस्कृति आज तक इसलिए जीवित है कि क्योंकि उसमें जीवित रहने की पात्रता है। भारतीय अथवा हिंदू संस्कृति के बने रहने का यह वो रहस्य है जो महर्षि अरविंद ने भारत के साथ संपूर्ण विश्व को बताने का प्रयास किया है।

 

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