पौराणिक इतिहास

तिब्बत में बने प्रसिद्ध थोलिंग मठ जाने का रास्ता (पैदल) माणा होते हुए सरस्वती नदी के किनारे खड़ी चढ़ाई से होकर जाने वाला एक अत्यंत दुर्गम कठिन पथ है। प्राचीन काल में साधु संत इसी मार्ग से पवित्र मानसरोवर व कैलास यात्रा पर चले जाते थे।

भारत वर्ष की उत्तरी सीमा में स्थित अटल प्रहरी नगाधिराज हिमालय को शास्त्रों के अनुसार पांच खण्डों में विभक्त किया गया है। यथा:-

खण्डा: पंच हिमालयस्थ कथिता नैपाल कूर्माजलौ।

केदाराथ जलधरोथ रुचिर: काश्मीर संज्ञोन्तिम॥

अर्थात नेपाल, कूर्मांचल (कुमाऊ), केदारखण्ड (गढ़वाल), जालंधर (पूर्व पंजाब प्रदेश का पर्वतीय भाग) तथा अंतिम भाग है कश्मीर। केदारखंड समान्यत: गढ़वाल के नाम से जाना जाता है। वर्तमान उत्तराखंड राज्य को जो कि हिमालय की उपत्यका में स्थित है उसे सामान्यत: दो भागों में बांटा जाता है। पूर्वी भाग है कुर्मांचल (कुमाऊ) एवं पश्चिमी भाग है गढ़वाल (केदारखंड)। प्रसिद्ध केदारेश्वर शिव मंदिर के कारण पौराणिक काल में इस क्षेत्र को केदाखण्ड नाम से जाना जाता था। लेकिन जैसे-जैसे यहां छोटी-छोटी राजशाहियां विकसित होती गईं तो पहाड़ों की चट्टानों के ऊपरी भाग में किलेनुमा गढ़ विकसित होते गये। ये गढ़ ठाकुरी राजाओं, सरदारों एवं थोकदारों (जमीदारों) के थे। ठीक इसी प्रकार के किले मराठा सरदारों के भी पाये जाते है। इससे पता चलता है कि यहां के निवासी पूर्व में महाराष्ट्र से भी पलायन कर मुगलों आदि (मुस्लिम विधार्मियों) के धर्मांतरण से बचने के लिए इन पहाड़ी प्रदेशों में बस गये थे। यहां के गावों के घरों की वास्तुकला तथा पुरुषों की टोपियां भी महाराष्ट्र की ही तरह लगती हैं। इन छोटे-छोटे गढ़ों के राज्यों के नाम भी अलग-अलग थे। जो कि अब प्राय: परगनो (तहसील) एवं पटवारी पट्टियों के नाम हो गये हैं।

जब ई.सन 888 में मालवा से आये पंवार वंशज महाराजा कनकपाल के वंशज अजयपाल ने गढ़वाल के सब ठाकुरी राजाओं और सरदारों को विजित कर सब गढ़ों को एकत्रित कर दिया तो गढ़ों की अधिकता एवं प्रधानता के कारण इस प्रदेश का नाम गढ़वाल रखा गया।

इस प्रदेश का गढ़वाल नाम सन 1500 से 1515 ई. रखा जाना पाया जाता है।

मुसलमान इतिहास लेखकों ने इस देश का नाम शिवालिक या कुमायू इंगित किया है। वस्तुत: यह गलत है, क्योंकि शिवालिक की छोटी-छोटी पहाडियां सहादनपुर के मैदानी क्षेत्र एवं देहरादून के बीच हैं, कुमाऊ में भी मुसलमान केवल वर्तमान उधमनसिंह नगर जिले या तत्कालीन नैनीताल जिले के तराई क्षेत्र तक ही जा सके। उन्हें इस देश के ऊपरी हिमालय पर्वतीय भूभाग के बारे में कुछ पता ही नहीं था। इसीलिए दारा शिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह ने औंरंगजेब से बचने के लिए गढ़वाल नरेश पृथ्वी शाह के कार्यकाल स.1646-1676 में गढ़वाल की तत्कालीन राजधानी श्रीनगर (गढ़वाल) में शरण ली थी।

यहां तक कि अंग्रेज भी इस बिकट पर्वतीय भूभाग को विजित नहीं कर पाये थे। सन 1803 में वर्तमान नेपाल के गोरखाओं ने तत्कालीन गढ़वाल नरेश प्रद्युम्नशाह को हरा कर ई.स. 1815 तक शासन किया  तो गढ़वालियों ने अंग्रेजों सेना से मदद मांगी। उस समय प्रद्युम्न शाह मारे गये थे व उनके उत्तराधिकारी सुदर्शनशाह नाबालिक थे। राज्य का खजाना खाली हो चुका था। अत: युद्ध में गोरखाओं को हराकर भगाने के बाद राजा को अंग्रेजों को राज्य का पूर्वी भाग युद्ध के मुआवजे के रूप में देना पडा। इस भाग को जो कि अलकनन्दा नदी के पूर्वी भाग में पड़ता है, ब्रिटीश गढ़वाल या पौड़ी गढ़वाल कहा गया क्योंकि यह अंग्रेजों के अधीन हो गया तथा पौड़ी इसकी राजधानी बनी। तत्कालीन राजधानी (गढ़वाल) भी पौड़ी में पड़ती थी अत: महाराजा सुदर्शन शाह को अपनी राजधानी टिहरी ले जानी पड़ी। यह नगर भागीरथी तथा भिलंगना नदियों के संगम पर बसाया गया। अत: सुदर्शन शाह अब गढ़वाल नरेश की बजाय मात्र टिहरी गढ़वाल नरेश रह गये।

ब्रिटिश शासन के पौड़ी को जिला मुख्यालय बनाकर वहां एक डिप्टी कमिश्नर नियुक्त कर दिया। यह शहर 1840 ई. में बसाया गया। यह स्थान गढ़वाल की प्राचीन राजधानी श्रीनगर से 8 मील दूर दक्षिण पश्चिम में एक सुरम्य पहाड़ी पर स्थित है।

गढ़वाल हरिद्वार से प्रारंभ होकर तिब्बत की सीमा तक फैला हुआ है, हरिद्वार के अतिरिक्त हिंदुओं के पवित्र हिमाच्छदित चार धाम, बद्रिनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री एवं यमुनोत्री इसी गढ़वाल क्षेत्र में आते है। यद्यपि उपरोक्त प्रमुख चार धामों के अतिरिक्त यह हिमालय प्रदेश सहस्त्रों तीर्थों से भरा पड़ा है, जिनका वर्णन महर्षी वेदव्यास (बादरायण)ने स्कन्द पुराण के केदारखंड में किया है।

बद्रिनाथ धाम वर्तमान चमोली जिले के परगना पैनखंडा में माणाधारी में स्थित है। माणा गांव देश का अंतिम गांव है। उसके  आगे हिमाच्छदित पर्वत चोटियां ही हैं और फिर तिब्बत(चीन) स्थित है। तिब्बत में बने प्रसिद्ध थोलिंग मठ जाने का रास्ता (पैदल) माणा होते हुए सरस्वती नदी के किनारे खड़ी चढ़ाई से होकर जाने वाला एक अत्यंत दुर्गम कठिन पथ है। प्राचीन काल में साधु संत इसी मार्ग से पवित्र मानसरोवर व कैलास यात्रा पर चले जाते थे। यही अदर पझी, काक मुसंडी का भी निवास पर्वत पाया जाता है। बद्रिनाथ धाम की उंचाई समुद्र स्तर से 10,826 फिट है। बद्रिनाथ का विशाल मंदिर आदि शंकराचार्य द्वारा निर्मित बताया जाता है। हालांकि इसका कई बार जीर्णोद्धार हो चुका है। मंदिर के ठीक पीछे कुछ अंतर पर तप्त कुंड है। जहां यात्रीगण कडकड़ाती सर्दी में सुख पूर्वक गरमपानी में स्नान करते है। बद्रिनाथ मोक्ष भूमि है। यहां की मूर्ति पद्मासन युक्त विष्णू की मानी जाती है। जिसकी पूजा दक्षिण भारतीय नम्बुदरी ब्राह्मण (रावल)करता है। मंदिर अलकनन्दा के तीर पर स्थित है।

केदारनाथ वर्तमान रुद्रप्रयाग जनपद के परगना नागपुर में स्थित है। इसकी ऊंचाई 11,656 फीट है, केदारनाथ द्वादश ज्योर्तिलिंग में से एक है। इसका इतिहास वायुपुराण, केदारकल्प तथा केदारखंड में पाया जाता है। मंदिर मंदाकिनी नदी घाटी में समस्थान पर भव्य रुप से बना है। सन 2013 की आपदा में पूरी केदारभूमि नष्ट हो गई थी, लेकिन मंदिर बच गया था। अब पुननिर्माण कर पुन: सुन्दर पुरी बसा दी गई है।

गंगोत्री मंदिर भागीरथी तट पर है। इसकी उंचाई 10,020 फीट है। यह स्थान केदार पहाड़ के ठीक पीछे स्थित है। पौराणिक काल में साधुजन सदैव इस दुर्गम हिमाच्छदित पथ पर पैदल यात्रा करने का साहस करते थे। यहां एक भागीरथ शिला भी है। कहते हैं इसी में स्थित होकर भागीरथ ने तपस्या की थी।

यमुनोत्री यमुना नदी का उगम स्थल है। यमुना, यमराज की भगीनी तथा सूर्य की पुत्री है। यह स्थान समुद्रतल से 10,849 फीट ऊंचाई पर है।

यद्यपि गढ़वाल में सर्वशक्तिसंपन्न एक छत्र गढ़वाल राज्य निश्चित रूप से सन 888 ई. में पंवार वंशी राजा कनकपाल की चांदपुर गढ़ी का छत्रप बनने के पश्चात प्रारंभ होता है।

पंवार वंश बाद में दिल्ली के बादशाह से पदवी मिलने के बाद शाह वंश कहलाया। इस वंश का राज्य टिहरी गढ़वाल में स्वतंत्रता प्राप्ति तक रहा। इनके अंतिम राजा महाराजा मानवेंद्र शाह हुए, जो कि कई वर्षों तक भाजपा के सांसद रहे। वर्तमान में टिहरी की लोकसभा सांसद उनकी पुत्रवधु महारानी रत्ना लक्ष्मी शाह हैं।

पंवार वंश से पहले कई प्रमुख गढ़ों पर कत्यूरा वंश का राज्य रहा। उनका राज्य कुमायु की भी कुछ गढ़ियों पर था। इस प्रकार कत्यूरा राजवंश यहां का सर्वप्रथम स्थापित राजवंश रहा है। लेकिन उससे भी बहुत पहले प्राचीन काल में यहां तीन प्राचीन राजवंशों का विवरण मिलता है।

पुराणों में इस परम पावन उत्तरीय हिमालय में सिद्ध, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर जातियों की सृष्टि बताई जाती है। उनका राजा कुबेर बताया जाता है। उसी पर आश्रित रहकर ऋषि मुनी तप साधना करते थे, कालीदास कृत ‘रघुवंश’ में राजा रघु की उत्तर हिमालय की निवासी किरात, कम्बोज जातियों से युद्ध का वर्णन मिलता है। ‘कुमार संभव’ में भी कालीदास भागीरथी के निकट बसने वाली किरात जाती का वर्णन करते हैं।

महाभारत के वन पर्व अध्याय 140 में राजा सुबाहु का वर्णन है जो किरात मील, तगण जाति का राजा था व पांडव उसके अतिथि रहे। मिहिराचार्य ने बराही संहिता के ध्याय 14 में यहां की जातियों का वर्णन मिलता है।

इस प्रकार विभिन्न इतिहासकारों की समीक्षा के बाद प्रसिद्ध गढ़वाल इतिहासकार तथा टिहरी राज्य के भूतपूर्व वजीर पं. हरिकृष्ण लिखते हैं कि यहां मूल रूप में पुलिंद, तंगण जाति रहती थी, उनका ठोस राजतंत्र नहीं था, अत: वे निर्बल थे। उनपर पश्चिम की काकेसस पहाडियों (तुर्किस्तान) की खसिया जाति के दलों ने व कैस्पियन सागर के समीप भी खसिया जाति के साथ साथ असम के पहाड़ की संगठित खसिया जाति ने आक्रमण कर मूलनिवासी पुलिंद, तंगण आदि को दास बना दिया। आज पहाड़ में खसिया जाति की करीब 2000 उपजातियां है तथा वे ब्राम्हण, ठाकुर व डोम जाति से संख्या में अधिक हैं। अब वे अपनी गिनती क्षत्रियों में करते हैं।

महाराजा अशोक के बुद्ध धर्म के प्रचार के समय एक शिला स्तंभ देहरादून जिले के परगना जौनसार के कालसी नामक कस्बे में लगाया जिस पर आज भी पाली भाषा में 10 बुद्ध आदेश अंकित है। तब यहां भी अधिकांश खसिया जाति ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। लेकिन धीरे-धीरे बौद्ध धर्म में तंत्र ने इतनी पैठ बना ली कि उस धर्म की बड़ी हानि हुई। लोग पुन: सत्य सनातन हिंदू धर्म की ओर आशा भरी दृष्टि से देखने लगे।

शंकराचार्य का अभिर्भाव- ऐसे कठिन समय में दक्षिण मालाबार देश के ब्राम्हणकुल में शंकराचार्य का जन्म हुआ। उन्होंने हिंदू धर्म की पुनर्जागरण किया। वे अपनी बाल्यावस्था में (11वर्ष) ही बद्रिकाश्रम चले आये। वे 5 वर्ष वहां रहे, वेदों पर 16 भाष्य लिखे। ज्योतिर्लिंग की स्थापना की तथा 32 वर्ष की अवस्था में उनकी मृत्यु पवित्र केदारनाथ में हुई। जहां आज भी उनका समाधि मंदिर है। शंकराचार्य के भ्रमण के पश्चात कई सवर्ण जातियां यहां तीर्थ हेतु आने लगीं। धीरे-धीरे ठाकुर राजाओं का यहां अधिपत्य हो गया। उनके साथ-साथ उच्च कुलीन ब्राम्हण भी यहां बसने लगे। जो आज यहां के समाज में प्रभावशाली हैं।

महाभारत का समय लगभग 5000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। जो कि कलयुग का प्रारंभ भी माना जाता है। उस काल में यहां की प्रमुख तीन शक्तियों का वर्णन इतिहास पुराण में मिलता है। राजा-सुबाहु जिसकी राजधानी श्रीपुर (श्रीनगर) थी। वह पुलिंद, तंगण, किरात जाति का राजा था।

दूसरी शक्ति था राजा विराट, जिसकी राजधानी कालसी के कुछ दूर ऊंचाई पर वैराटगढ़ थी। उसके राज्य में पांडवों ने गुप्तवास(अज्ञातवास) किया था तथा उसकी लड़की उत्तरा से अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु का विवाह हुआ था।

तीसरी शक्ति थी बाणासुर, जिसकी कन्या उजा से कृष्णचंद्र के पौत्र अनिरुद्ध को प्रेम हुआ था। इन तीनों में बाणासुर सबसे बड़ा व शक्तिशाली था। उसका राज्य तिब्बत तक फैला था।

 

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