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गढ़वाल की आंचलिक संस्कृति

गढ़वाल की आंचलिक संस्कृति

by डॉ. सुशील कुमार कोटनाला
in उत्तराखंड दीपावली विशेषांक नवम्बर २०२१, विशेष, संस्कृति
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मांस-भक्षण करने वाले गढ़वाली कहते हैं कि यह बाणासुर की धरती है इसलिए यहां आसुरी परम्परा है। यह उनकी बुद्धि का भ्रम है जो ॠषि भूमि को अपने अज्ञान से इस प्रकार कलुषित करते हैं। ब्राह्मणों की कितनी ही जातियां है जो मांस खा लेती है और कितनी ही ऐसी भी है जो मांसाहारी नहीं हैं। मद्य के विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि इनमें से कोई नहीं पीता या सभी पीते हैं। यह उनकी रूचि पर निर्भर है।

अब तक के गढ़वाल-भ्रमण से मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि गढ़वाल के प्रत्येक गांव में सनातन संस्कृति की ज्योति विद्यमान है। प्रत्येक गांव का अपना ग्राम-देवता होता है। यही नहीं दिशाओं तक के देवता गढ़वाल में माने जाते हैं, ये सब वैदिक मान्यताओं के अनुरूप हैं। सम्पूर्ण गढ़वाल ही तीर्थ क्षेत्र है, गढ़वाल के किसी भी जनपद में जाइये आप वहां कोई न कोई प्रतिष्ठित तीर्थ अवश्य देखेगें। छोटे-बड़े हजारों तीर्थस्थल गढ़वाल के कोने-कोने में फैले हुए हैं।

गढ़वाल का जन-जीवन पूर्णत: ग्रामीण है। गढ़वालवासी ग्राम को प्रमुखता देता है। वह गांव में रहकर कृषि एवं पशुपालन आदि के द्वारा अपने जीवन का निर्वाह करता है। सीढ़ीनुमा खेतों का जटिल कृषि-कार्य, सुदूर पथरीले व बीहड़ वनों पर आधारित पशु-पालन कार्य (इन पथरीले व दुर्गम वनों में जाकर पहाड़ी-महिलाएं पशुओं के लिए घास लाती हैं, अपने चूल्हों को जलाने के लिए लकड़ियां लाती हैं।) चारों ओर पहाडियों से घिरे गांव का एकाकी जीवन, ये सारी परिस्थितियां भले ही गढ़वाल से बाहर के किसी व्यक्ति के लिए मनोरंजन से परिपूर्ण हों लेकिन गढ़वाल के भूगोल से जूझने वाले गढ़वालियों के लिए बड़ी कष्टकारी हैं। गीत का जन्म इसी कष्ट की देन है। गढ़वाली लोकगीतों में पहाड़ियों का पहाड़ सा दर्द पिघलकर सामने आया है। गढ़वाली कण्ठ जब गाता है, तो गढ़वाली व्यक्ति को उससे ऊर्जा प्राप्त होती है। मेरा तो मानना है कि गढ़वाली लोकगीतों की रचना में जितना योगदान इन मेहनती स्त्रियों का होता है शायद ही उतना पुरुषों का होता हो। गढ़वाल में जाकर देखिए वहां कौन रहता है- पुरुष रोजगार के लिए मैदानी क्षेत्रों व नगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। कई गढ़वाली पुरुष भारतीय सेना में कार्यरत हैं तो कई अन्य राजकीय सेवाओं में, इसके अलावा गढ़वाली युवकों का एक बहुत बड़ा वर्ग होटलों से भी जुड़ा हुआ है। गढ़वाल के निर्धन युवकों के द्वारा घरेलू नौकरों के रूप में भी अपनी पहचान बनाई गई है। इसलिए कहा जा सकता है कि गढ़वाल में स्त्रियां व वृद्ध ही अधिक संख्या में रहते हैं यहां के अधिसंख्य नौजवान पलायन कर रहे हैं। यह स्थिति गढ़वाल के हित में नहीं है। पत्थर व मिट्टी के बने कुड़ों (मकानों) में अपना जीवन-यापन करने वाले गढ़वाली अपनी प्राचीन परंपराओं को आज भी सुरक्षित रखे हुए हैं। इन परंपराओं के निर्वाह से गढ़वालियों को एक विशेष प्रकार की स्फूर्ति प्राप्त होती है, इसी स्फूर्ति से अपने अकेलेपन को दूर करते हुए गढ़वाली मन झूमने लगता है। वह नाचना चाहता है, गाना चाहता है।

गढ़वाल में कच्ची शराब पीने का बहुत प्रचलन है, अवैध रूप से बनाई जाने वाली इस कच्ची शराब के प्रयोग के कारण गढ़वाल के संदर्भ में ‘सूर्य अस्त-गढ़वाल मस्त’ की उक्ति गढ़ दी गई है। गढ़वाल का दो तिहाई पुरुष वर्ग इस शराब की चपेट में आकर संस्कारविहीन होता जा रहा है। अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए और भौगोलिक एकाकीपन को तोड़ने के लिए इस कच्ची शराब का चलन बढ़ता चला जा रहा है। पूर्व में भौगोलिक परिस्थितियों के कारण गढ़वालियों के द्वारा शराब का सेवन किया गया होगा, जो कालान्तर में गढ़वाली अप संस्कृति का ही एक अंग बन गया है। वैसे गढ़वाल की अनेक सवर्ण जातियां मांस, मदिरा व अन्य तामसी भोजन से सर्वथा दूरी बनाए रखती हैं। भगवान बद्रीनाथ को भोग लगाने वाले सरोला ब्राह्मण हों अथवा सामूहिक भोजन व्यवस्था की पवित्रता को बनाए रखने वाले  उच्च ब्राह्मण (सरोला) हों ये सभी ब्राह्मण सात्विक जीवन यापन करने वाले हैं और ऐसी ही अनेक राजपूत जातियां भी हैं।  गढ़वालियों का सामाजिक जीवन सबका एक समान नहीं है। सामाजिक जीवन गढ़वाल के प्राचीन निवासियों अर्थात् खसिया और अनुसूचित जातियों का अपने ढंग पर और ब्राह्मणों व क्षत्रियों का अपने ढंग का पाया जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि लौकिक रिवाजों की वास्तव में कुछ खिचड़ी सी प्रतीत होती है। परन्तु धार्मिक रिवाज बिल्कुल पृथकता रखते हैं। गढ़वाल के ब्राह्मणों व क्षत्रियों में केवल ब्राह्म विवाह की रीति से विवाह होते हैं। विवाह वाक्दान, संकल्प, पाणिग्रहण, सप्तपदी, होम इत्यादि वैदिक रीतियों से सम्पन्न होते हैं।

गढ़वाल की अनुसूचित-जातियों में विवाह संस्था अब ब्राह्मण विवाह रीति पर आधारित हो रही है। पहले यह आसुरी रीति पर चलती थी। तब उनके बीच हजारों रूपये कन्या शुल्क देकर विवाह होते थे। संकल्प, सप्तपदी पाणिग्रहण आदि कोई रीति काम में नहीं लाई जाती (वर्तमान में सवर्ण जातियों की देखा-देखी असवर्णों में भी वैदिक कर्मकाण्ड का प्रचलन बढ़ने लगा है।) अनुसूचित जातियों की लड़कियां सधवा अवस्था में भी पति का घर छोड़कर दूसरा विवाह कर अपना दूसरा घर बसा सकती थीं। विधवाओं के पुनर्विवाह में भी कोई परेशानी नहीं थी। उनके यहां पुनर्भू और पौनर्भव बेटे की वही इज्जत है जो एक विवाहिता स्त्री और उससे पैदा हुए पुत्र की होती है। उनके बीच भाई की विधवा को घर में रखने और  उससे सन्तति पैदा करने का भी रिवाज प्रकट रूप से था। ब्राह्मणों व क्षत्रियों में स्त्री के पुनर्विवाह का रिवाज नहीं बल्कि उसे जातिच्युत होने का कारण मानते हैं। ब्राह्मण व क्षत्रियों में नामकर्म, जातकर्म, अन्नप्राशन, उपनयन संस्कार वेदविहित होने की परम्परा है। जब तक लड़के का उपनयन न हो जाय और कन्या का विवाह न हो जाय तब तक उस लड़के या लड़की के हाथ से न तो भोजन किया जाता है न वह लड़का या लड़की चौके में बैठकर माता-पिता अथवा अन्य कुटम्बियों के साथ भोजन कर सकते है। (वर्तमान में इस परंपरा का निर्वाह नाममात्र के लिए ही हो रहा है) परन्तु अनुसूचित जातियों में नामकर्म, जातकर्म, अन्नप्राशन आदि नाममात्र रिवाजी तौर पर होते है, वेद विहित नहीं।

गढ़वालियों में खानपान के विषय में बडी विचित्रता है। दाल, भात, खीर इत्यादि सिक्तान्न के खाने में विशेष भेद पाया जाता है। रोटी, पूरी, प्रसाद (हलुवा) का भेद केवल अनुसूचित जाति को छोड़कर अन्य सवर्णो में नहीं है। अर्थात सभी सवर्ण जातियां आपस में रोटी, पूरी व हलुवा एक दूसरे के हाथ का बना हुआ खा लेती हैं लेकिन अनुसूचित जातियों से दूरी बनाए रखते है। सिक्तान्न (दाल, भात, खीर) सरोला ब्राह्मण के द्वारा पका हुआ चौके के अन्दर सब लोकग खा लेते हैं। कुछ ब्राह्मणों और क्षत्रियों की ऐसी भी जातियां है जो सरोला ब्राह्मणों के हाथ से बना हुआ दाल-भात भी नहीं खाते। अनुसूचित जातियां सवर्ण जातियों द्वारा पकाया हुआ दाल भात खा लेती हैं, उनमें चौके का रिवाज नहीं है, अनुसूचित जातियों का छुआ हुआ जल या कोई तरल पदार्थ (तेल, घी, शहद के अतिरिक्त) और पका हुआ अन्न कोई भी सवर्ण नहीं खाता है। (यह हिन्दू समाज का दुर्भाग्य है, जिस पर संवदेनशील सवर्णो का ध्यान जाना चाहिए और अस्पृष्यता समाप्त होनी चाहिए।)

गढ़वाल में भक्ष्य मांस भक्षण की प्रथा प्राचीन काल से है। ‘उत्तरे मांस भक्षणें’ की कहावत परम्परा से चली आ रही है। शीत प्रधान अंचल भारतवर्ष में जितने भी हैं उनमें मद्य-मांस-सेवन की प्रथा न्यूनाधिक संख्या में अवश्यमेव पाई जाती है। इसके दो कारण प्रतीत होते हैं- एक तो शीत की अधिकता से बचने के लिए गरम प्रकृति वाले पदार्थों का सेवन करना, गरम वस्त्र धारण करना यह प्रकृति की प्रेरणा है। दूसरा कारण है आध्यात्मिक शिक्षा का अभाव जो अब तक भी गढ़वालियों में विशेष रूप से विद्यमान है। मांस-भक्षण करने वाले गढ़वाली कहते हैं कि यह बाणासुर की धरती है इसलिए यहां आसुरी परम्परा है। यह उनकी बुद्धि का भ्रम है जो ॠषि भूमि को अपने अज्ञान से इस प्रकार कलुषित करते हैं। ब्राह्मणों की कितनी ही जातियां है जो मांस खा लेती है और कितनी ही ऐसी भी है जो मांसाहारी नहीं हैं। मद्य के विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि इनमें से कोई नहीं पीता या सभी पीते हैं। यह उनकी रूचि पर निर्भर है। बिरादरी के लोग निन्दा करते हैं परन्तु बिरादरी से च्युत भी नहीं कर सकते।

गढ़वाल में प्रतिवर्ष दोनों नवरात्रियों (चैत्र मास नवरात्रि व अश्विन मास नवरात्रि) में जो झोटे कालिका को बलिदान दिए जाते थे, उनका मांस कुछ अनुसूचित जातियां खा लेती थीं, कुछ परहेज रखती थीं। जबकि बकरे का मांस सवर्ण जातियां भी खा लेती हैं (वैसे बलिदान की प्रथा गढ़वाल में समाप्त होती जा रही है। विशेषत: झोटे का बलिदान अब कुछ ही स्थानों पर होता है।) गढ़वाल स्मार्त धर्मालम्बी हैं, परन्तु अधिकांश जनता आसुरी विधानों को अधिक पसन्द करती है अर्थात भूत-प्रेतों को पूजना, देवी देवताओं को नचाना, उनको तरह-तरह के बलिदान देने और उनसे अपने कायिक और मानसिक रोगों की निवृत्ति के लिए प्रार्थनाएं करना और उन पर विश्वास रखना इत्यादि।

पत्र-पुष्प-फल-तोय की श्रद्धा का अनुसरण करते हुए गढ़वाली समाज बद्रीनाथ, केदारनाथ और गंगाजी के प्रति विशेष श्रद्धा-भक्ति रखता है, यह गढ़वाली जनता की सात्विक मनोवृत्ति को दर्शाता है। कुछ अपवादों को छोड़कर गढ़वाल में एक ही विवाह का प्रचलन है व कोई मनुष्य अपने से ऊंची जाति की कन्या से विवाह नहीं कर सकता। गढ़वाल की जनता का पाण्डवों से बड़ा स्नेह है। ऐसा कोई गांव नहीं होगा, जिस गांव में प्रतिवर्ष एक बार पाण्डव नृत्य न होता हो।

गढ़वाल में मृतक शरीर श्मशानों मे जलाये जाते हैं और उनकी अंत्येष्टि क्रिया भी यथोचित रीति से होती है। पितरों का श्रद्धा तर्पण ठीक उसी तरह होते है जैसे कि शास्त्रों में लिखा है, परन्तु एक और विचित्र प्रथा यह है कि मनुष्य की मृत्यु के पश्चात् ठीक एक महीने में उसी तिथि पर एक कृत्य होता है जिसको लिगं-वास कहते है। इसमें क्रियाकर्मकर्ता एक पत्थर ले जाकर उस स्थान पर जहां प्रत्येक जाति का एक छोटा सा घर बना रहता है, जिसको पितृ-कुड़ा (पितृ-गृह) कहते हैं, उस पत्थर (लिगं) का पूजन करके पितृ-कुड़ा के अन्दर रख देता है और उसका दरवाजा बन्द कर देता है। इस परम्परा की नींव यह है कि गढ़वाल केदारनाथ की भूमि कहा जाता है, इसलिए मृतक शिवलिंग के रूप में बना दिया जाता है।

यह अत्युक्ति या पक्षपात नहीं है कि गढ़वाली लोग प्रकृति से ही सादगी सच्चाई और देशभक्ति के एक उदाहरण हैं। द़ृढ़ता और वीरता में गढ़वाली अन्य पहाड़ी जातियों (गोर्खा इत्यादि) से किसी प्रकार से भी कम नहीं हैं। भारत की सीमाओं पर जब भी विदेशियों ने आंख उठाकर देखने का प्रयास किया है, तो उसका मुंह तोड़ जवाब देकर गढ़वाली नौजवानों ने अपनी देशभक्ति व वीरता का समय-समय पर परिचय दिया है।

अब तक के विवेचन से स्पष्ट है कि गढ़वाल की आंचलिक-संस्कृति अपना विशिष्ट स्थान रखती है। गढ़वाल का भूगोल गीतों की प्रेरणा देता है। गढ़वाल का खगोल पर्वत-घाटी के निवासियों को एकाकीपन देता है लेकिन साथ ही व्यर्थ की भागदौड़ से छुटकारा भी दिलाता है। व्यर्थ की भागदौड़ से आशय महानगरों की रुग्ण प्रतिस्पर्धा से है। अपनी विशिष्ट संस्कृति को आत्मसात करता हुआ गढ़वाली अपने ढंग से प्रकृति की गोद मे तरुण मृग की भांति कुलांचें भरता हुआ मस्त रहता है। वह मेहनत करता है, उसकी मेहनत से गीतों के स्वर फूटते हैं, उसकी स्वेद-कणिकायें गीतों को तरलता देती हैं। मन्द-सुगन्ध-शीतल-पवन उसकी कल्पना को दिशा देती है। गढ़वाली भोला होता है, उसका मन छद्म-व्यावसायिकता से दूर मानवीय-भावनाओं व संवेदनओं के निकट होता है, इसीलिए वह आर्य पंरपराओं का पोषक है, वेद ॠचाओं का उद्गाता है, संस्कारों का विधाता है और गीतों का निर्माता है। ॠषि-परंपरा का अनुसरण करता हुआ गढ़वाली मंगल की कामना करता है। ‘द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष शान्ति: पृथिवी शन्ति:’ आदि का उद्घोश उसके मांगल-गीतों में सुनाई पड़ता है। एक-एक वेद वाक्य का अनुसरण करते हुए उसके मंगल गीत उसके उद्घोशक प्रतीत होते हैं।

चीड़, केला, देवदार, बांज, बुरांश के वृक्षों से उसे प्रकृति के प्रति स्नेह रखने का संदेश मिलता है। वह वृक्षों से बोलता है, उनसे शिक्षा लेता है और फिर अपने संस्कारों को गढ़ता है। ऐसे ही वातावरण में संस्कार गीत जन्म लेते हैं। घुघती का बासना गढ़वालियों को बहुत अच्छा लगता है। उनका सुकोमल मन कल्पना की ऊंची उड़ान भरते हुए कब कविता, गीत, छन्द व मांगल रच देता है इसका उनको पता ही नहीं चलता।

गढ़वाल की स्त्रियां गढ़वाली संस्कृति की रीढ़ हैं। गढ़वाल की अर्थव्यवस्था भी उन्हीं के श्रम पर आधारित है। वास्तव में मन की पीड़ा की गहराई से निकली आवाज ही गीतों का रूप ले लेती है। मांगल गीतों में अनेक ऐसे गीत है, जिनसे सुनने वाले को रोना आ जाता है। ससुराल व मायके दोनों का हित चाहने वाली स्त्री ही मांगल गीतों की रचयित्री होती है। मैंने गढ़वाल के सुदूर गांवों में जाकर देखा है, जितने भी संस्कार या मांगल गीत गाए जाते हैं वे सब प्राय: नवयुवतियों अथवा सुहागन स्त्रियों के द्वारा ही गाये जाते हैं। औजी, दास व वाद्यी जिन मांगल-गीतों को गाते हैं वे ज्यादातर पिष्टपेशण से युक्त होते हैं, हां बढ़ई बजाने की कला और ढोल-शास्त्र के ज्ञाता वे अवश्य होते हैं। लेकिन मांगल में जो नित नवीन संशोधन होते रहते हैं और नए-नए गीत सामने आते हैं, इसका श्रेय गढ़वाली स्त्री को ही जाता है।

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डॉ. सुशील कुमार कोटनाला

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