कुमाऊंनी-गढ़वाली लोक संस्कृति की पहचान

कुमाऊं एवं गढ़वाल लोक संस्कृति की दृष्टि से समृद्ध हैं। प्रदेश में विभिन्न उत्सवों, पर्वों, धार्मिक अनुष्ठानों, देव यात्राओं, मेलों-खेलों, पूजाओं और मांगलिक कार्यक्रमों का वर्ष भर आयोजन होता रहता है ये आमोद-प्रमोद और मनोरंजन के सर्वोत्कृष्ट साधन होने के साथ ही लोक जीवन के आनंद और उल्लास को भी व्यक्त करते हैं।

संस्कृति किसी देश की आत्मा होती है। देश का भौगोलिक विस्तार, प्राकृतिक सम्पदा आदि उस देश के शरीर स्वरूप होते हैं। राष्ट्र के निवासियों का रहन-सहन, खान-पान, सामाजिक मान्यताएं, रीति-रिवाज, धार्मिक विश्वास, परम्पराएं उस राष्ट्र की वैज्ञानिक व आध्यात्मिक उन्नति आदि सभी तत्व जो अमूर्त हैं, इन्हीं तत्वों से उस राष्ट्र की संस्कृति का निर्माण होता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार- ‘सभ्यता समाज की बाह्य व्यवस्थाओं का नाम है, संस्कृति व्यक्ति के अन्तर के विकास का।’ इस संदर्भ में महादेवी वर्मा का मत भी समीचीन है कि ‘संस्कृति की विविध परिभाषाएं सम्भव हो सकती हैं, क्योंकि वह विकास का एक रूप नहीं, विविध रूपों की एक ऐसी समन्वयात्मक सृष्टि है जिसमें एक रूप स्वत: पूर्ण होकर भी अपनी सार्थकता के लिए दूसरे का सापेक्ष्य है।’

किसी राष्ट्र की संस्कृति और वहां की लोक संस्कृति में मूलभत अंतर होता है। राष्ट्र की  संस्कृति वहां निवास करने वाली जाति की आध्यात्मिक, धार्मिक, साहित्यक और बौद्धिक साधना का फल होती है। वहीं लोक संस्कृति किसी भी क्षेत्र विशेष की अन्त: सलिला की भांति होती है, जो उस क्षेत्र के जन-जीवन को रसासिक्त एवं विशिष्ट बना देती है। लोक-संस्कृति पर सभ्यता का आवरण नहीं चढ़ा होता। उसका सहज, सरल और अकृत्रिम रूप-माधुर्य अपना सम्मोहनकारी प्रभाव लोक हृदय पर छोड़ता है।

भारत के उत्तरी भाग में स्थित उत्तराखंड राज्य दो मण्डलों में विभाजित है- कुमाऊं मंडल और गढ़वाल मंडल। इन दोनों मंडलों की लोक संस्कृति- कुमाऊंनी लोक संस्कृति और गढ़वाली लोक संस्कृति अपनी विशिष्ट पहचान रखती हैं। कुमाऊं क्षेत्र की संस्कृति अपने विशिष्ट पर्व, उत्सव, मेले, आभूषण, खान-पान, लोकगाथा, लोककथा, लोकनृत्य, कहावत, मुहावरों और लोकोक्तियों की अतिशय सौन्दर्य एवं समृद्धता से अभूतपूर्व है। गढ़वाली लोक संस्कृति की विश्व संस्कृति में अपनी एक विशेष पहचान है। देवभूमि नाम के अनुरूप ही यहां कई मंदिर और धार्मिक स्थल हैं। यह क्षेत्र हिमालय, नदी-झरनों, एवं घाटियों की सुन्दरता से परिपूर्ण है। यहां की संस्कृति अपनी विशिष्ट छाप छोड़ती है चाहे फिर वे महिलाओं की पारंपरिक वेशभूषा हो या स्वादिष्ट व्यंजन। लोकनृत्य ‘लंगवीर’ हो या लोकगीत ‘थडिया’, यहां की हर चीज लोगों को आपस में एक अटूट बंधन में जोड़ती है।

खान-पान

खान-पान की दृष्टि से दोनों ही संस्कृतियां समृद्ध हैं- कुमाऊंनी व्यंजन बहुत साधारण और स्वादिष्ट होते हैं। भट्ट की चुणकानी कुमाऊं और गढ़वाल के लोकप्रिय भोजन में से एक है। गहेत के डुबके, गहेत की दात उत्तराखंड में बहुत मात्रा में होती है। अनेक बीमारी में औषधि का काम करती है। इसके अतिरिक्त उत्तराखंड में विभिन्न प्रकार की दालों से डुबके बनाए जाते हैं-चने, गहेत, भट्ट आदि को सिलबटे में पीस कर डुबके बनाये जाते हैं। यह खाने में बहुत स्वादिष्ट होते हैं। झोली भात कुमाऊं के लोगों के प्रमुख भोजन में से एक है, इसे दही या छाछ (मठ्ठा) से बनाया जाता है। मड़वे की रोटी बनाई जाती है बड़ अर्थात् उड़द के पकौडे बनाएं जाते है। स्थानीय मौसमी सब्जियां- लाई, गड़ेरी, अरबी, तुरई, लौकी, कद्दू, मूली, पालक, आलू, प्याज, भिन्डी, बैंगन व शिमला मिर्च आदि विभिन्न तरीकों से बनाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त कई प्रकार की जंगलों में होने वाली चीजों से भी सब्जी बनाई जाती है जैसे- सेमल, बिच्छू घास या कंडाली, लिगड, कुशव के फूल व गेठी आदि अनेक प्रकार की सब्जी लोकप्रिय है। कापा मुख्य रूप से सरसों और पालक से तैयार किया जाता है। इसके अतिरिक्त भांग की चटनी भी कुमाऊंनी लोगों के भोजन का एक विशेष भाग है। सामान्य तौर पर कुमाऊंनी और गढ़वाली व्यंजनों में अधिक भिन्नता नहीं है। रस-भात, रोट, छानछयोड आदि गढ़वाल में अधिक प्रसिद्ध हैं।

परिधान

लोक जीवन पद्वति अर्थात् रहन-सहन और वेशभूषा आदि भी उस क्षेत्र विशेष की लोक-संस्कृति के महत्वपूर्ण तत्व होते हैं। यहां परिधान कुमाऊंनी और गढ़वाली संस्कृति का परिचायक है। कुमाऊं क्षेत्र में घाघरा-चोली, लहंगा, आंगडी, खानू, चोली, धोती, पिछौड़ा आदि महिलाओं की पारंपरिक वेशभूषा है। पारंपरिक रूप से गढ़वाल की महिलाएं भी घाघरा तथा आंगडी, धोती तथा पुरूष चूड़ीदार पजामा व कुर्ता पहनते हैं परंतु अब धीरे-धीरे इनके स्थान पर पेटीकोट ब्लाउज व साड़ी का प्रचलन हो गया है। जाड़ों में ऊनी कपडों का उपयोग होता है। विवाह आदि शुभ अवसर पर कई क्षेत्रों में अभी भी सनील का घाघरा पहनने की परंपरा है।

कुमाऊं की पारम्परिक नर पोशाक लोनी-कपड़ा धोती या लुंगी जिसे निचले परिधान के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। कुमाऊंनी के पुरूष कुर्ता पहनते हैं। धोती, पैजामा, सुराव, कोट, कुर्ता, भोटू, कमीज, मिरजै, टांक (साफा) टोपी आदि पुरूष के मुख्य परिधान होते हैं। गढ़वाल में भी धोती, चुडीचार, पायजामा, कुर्ती, मिरजई, सफेद टोपी, पगडी, बास्कट, (मोरी) आदि। पुरूषों के पारंपरिक परिधान हैं।

आभूषण  

उत्तराखंड के पारंपरिक आभूषण का सदियों से अपना खास एक महत्व होता है, एक समय में पुरूष कानों में कुंडल धारण करते थे जिसे मुर्की, बजनि या गोरख कहा जाता है। उत्तराखंड में महिलाओं के लिए सिर से लेकर पांव तक हर अंग के लिए विशेष प्रकार के आभूषण है। कुमाऊंनी में आभूषणों को जेवर या हतकान (हाथ-कान) कहते हैं। यहां महिलाएं सिर पर शीशफूल, सुहाग बिन्दी, मांगटीका धारण करती हैं। नाक में नथुली, नथ, बुलाक, फूल, फुली आदि पहनती है। कानों में मुर्खली, बाली, कर्णफूल, तुग्यल, गोरख, झुमके, झुपझुपी, उतरौले, जल-कछंव, मछली आदि सोने-चांदी के से बने इन आभूषणों को पहनती हैं। गले के लिए गुलूबंद, लॉकेट, चर्यों, हंसुली, कंठीमाला, मूगों की माला, चवनीमाला, चंदरोली, चंपाकली आदि का विशेष महत्व है। हाथों में धागुला, पौछी, अंगूठी या गुंठी, चूड़ी, कंगन, गोखले आदि पहनती हैं। पैरों के लिए भी कण्डवा, पैटा, लम्छा, पाजेब, इमरती, झिवंरा, प्याल्या, बिछुवा आदि आभूषण हैं इनमें से पाजेब झांजर, झिंगोरी, पौटा और धागुले आदि अपना-अपना विशेष स्थान रखते हैं। कुमाऊं में तगड़ी या तिगड़ी कमर पर पहने जाने वाला प्रमुख आभूषण भी है। गढ़वाल में भी पारंपरिक रूप से यहां की महिलाएं गले में गलोबंद, चरयो, जै माला, तिलहरी, चंद्रहार, सूत या हंसुली, नाक में नथुली, नुलाक या नथ, कानों में कर्णफूल, कुण्डल पहनती हैं। साथ ही सिर में शीषफूल, हाथों में सोने या चांदी के पौंजी, नग एवं बिना नग वाली मुंदरी, या अंगूठी, धागुला, स्यूण-सांगल, पैरो में विघुए, पायजब, कमर में ज्यैडि आदि परंपरिक आाभूषण पहनती हैं।

कुमाऊं एवं गढ़वाल लोक संस्कृति की दृष्टि से समृद्ध हैं। प्रदेश में विभिन्न उत्सवों, पर्वों, धार्मिक अनुष्ठानों, देव यात्राओं, मेलों-खेलों, पूजाओं और मांगलिक कार्यक्रमों का वर्ष भर आयोजन होता रहता है ये आमोद-प्रमोद और मनोरंजन के सर्वोत्कृष्ट साधन होने के साथ ही लोक जीवन के आनंद और उल्लास को भी व्यक्त करते हैं। विभिन्न तीर्थ स्थल, विश्वास मान्यताएं, लोकगीत, लोककथा, लोकगाथा, लोकनृत्य, लोकसंगीत आदि यहां की लोक संस्कृति को विश्व में एक अलग पहचान दिलाती हैं। लोककला की दृष्टि से भी उत्तराखंड बहुत समृद्ध है। विभिन्न अवसरों पर नामकरण चौकी, सूर्य चौकी, जन्मदिन चौकी, यज्ञोपवित चौकी, विवाह चौकी आदि बनाई जाती है। यहां की कांगडा शैली विश्व प्रसिद्ध है।

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कुमाऊंनी-गढ़वाली संस्कृति की अपनी प्राचीन सांस्कृतिक विरासत है, जो विभिन्न रूपों से परिपूर्ण है।

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