पांच पर्वों का महापर्व

दीपावली की रात्रि को यक्ष रात्रि भी कहा जाता है। वराह पुराण एवं वात्स्यायन के कामसूत्र में भी इसका उल्लेख है। बाद में शुभ्र ज्योत्सना के पर्व दीपावली से अनेक संदर्भ जुड़ते चले गए।

ज्योति पर्व दीपावली अत्यंत प्राचीन पर्व है।    यह पर्व विगत लगभग ३००० वर्ष पूर्व से मनाया जा रहा है। प्रारंभ में यह पर्व मात्र यक्षों का उत्सव था। यक्ष अपने सम्राट कुबेर के साथ जश्न मनाते थे और यक्षिणियों के साथ हास-परिहास करते थे। इसीलिए दीपावली की रात्रि को यक्ष रात्रि भी कहा जाता है। वराह पुराण एवं वात्स्यायन के कामसूत्र में भी इसका उल्लेख है। बाद में शुभ्र ज्योत्सना के पर्व दीपावली से अनेक संदर्भ जुड़ते चले गए।

दीपावली पर लक्ष्मी पूजन का चलन सर्व प्रथम ऋृग्वेद के श्री सूक्त में मिलता है, जो कि भगवान राम के समय से काफी पूर्व का है। भगवान राम, रावण आदि राक्षसों का संहार करके जब वनवास से आयोध्या वापस लौटे थे तब उनके स्वागत में अयोध्यावासियों ने समस्त अयोध्यापुरी को दीपों से सजाकर दीपावली मनाई थी। बौध्द धर्म के प्रवर्तक गौतम बुध्द १७ वर्ष बाद जब अपने गृहनगर कपिलवस्तु वापस लौटे थे तो उनके अनुयायियों ने गौतम बुध्द के स्वागत में असंख्य दीप जलाकर दीपावली मनाई थी। कार्तिक अमावस्या के ही दिन समुद्र मंथन के दौरान महालक्ष्मी का प्राकट्य हुआ था। आदि-आदि।

वर्तमान काल में दीपावली पांच त्योहारों धन्वन्तरि त्रयोदशी, नरक चतुर्दशी, दीपावली, अन्नकूट-गोवर्धन पूजा एवं यम द्वितीया का समूह पर्व है जो कि क्रमश: पांच दिनों तक अत्यन्त धूमधाम के साथ मनाया जाता है।

 धनतेरस

धन्वन्तरि त्रयोदशी का अपभ्रंश धनतेरस पर्व के रूप में प्रचलित है। धनतेरस धन की उपासना का पर्व है। ऐसी मान्यता है कि देवी का पहला वास धातु पर होता है। धातु के रूप में पहले पीतल और तांबे के बर्तनों की खरीद होती थी। इसका शुभांरभ कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी (धनतेरस) से होता है। विभिन्न धर्म ग्रंथों में  इस बात का उल्लेख है कि लक्ष्मी जी कहती है, हे धूमावती! अब आप गमन कीजिए। अब मेरा वास होगा।…इसीलिए धनतेरस धूमावती के गमन और लक्ष्मीजी के आगमन का प्रतीक है। धूमावती ही लक्ष्मी है, जिसके सहयोगी देवइंद्र और कुबेर हैं। धूमावती के निग्रह से धन और लक्ष्मीजी के १३ रूपों में आगमन के कारण धनतेरस का अस्तित्व सामने आया। इस दिन भगवान धन्वन्तरि की पूजा भी की जाती है। जिन्हें विष्णु के पुनर्जन्म के रूप में स्वीकार किया गया है। वे समुद्र मंथन के दौरान प्रकट हुए थे। उन्हीं के साथ आयुर्वेद का जन्म हुआ। अत: धनतेरस के दिन धन्वन्तरि भगवान की पूजा अर्चना स्वास्थ की सुरक्षा व दीर्घ आयु के लिए की जाती है।

इस रात दीपक भी घर की देहरी पर रखने का विधान है। दीपक रखने के बाद न तो कोई घर के बाहर जाता है और न ही अंदर आता है। यह एक प्रकार से यम को बांधना है। इसके मूल में यमराज द्वारा अपनी बहन यमुना को दिया गया यह वरदान है कि जो व्यक्ति धनतेरस के दिन उनके नाम से दीपदान करेगा उसकी अकाल मृत्यु नहीं होगी।

 नरक चतुर्दशी (छोटी दीपावली) 

बताया जाता है कि व्दापर युग में नरकासुर राक्षस ने संसार को इतना सताया कि भगवान श्री कृष्ण को उसका वध करना पड़ा। जिस दिन नरकासुर का वध हुआ उस दिन कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी थी। इस दिन भगवान से यह प्रार्थना की जाती है कि अब इस पृथ्वी पर नरकासुर के रूप में किसी का जन्म ना हो। साथ ही इसी दिन हनुमान जी ने अयोध्यावासियों को यह शुभ समाचार सुनाया था कि भगवान श्री राम १४ वर्ष का वनवास व्यतीत कर अयोध्या वापस लौट रहे हैं। इस पर अयोध्यावासियों ने अपने-अपने घरों में दीप जला कर खुशी मनाई थी। यह दिन छोटी दीपावली के रूप में मनाया जाता है। इसीलिए इस रात्रि को घर के मुख्य व्दार, रसोईघर, जल स्थान, गाय बांधने के स्थान, मंदिर और पीपल के पेड़ आदि पर पांच दीपक जलाए जाने का विधान है। घर के मुख्य व्दार पर जलाया जाने वाला दीपक चार बत्तियों वाला होता है। जिसे यम देवता के नाम पर जलाया जाता है।

 लक्ष्मी पूजन की रात्रि: दीपावली

कार्तिक कृष्ण अमावस्या को मनाई जाने वाली दीपावली मुख्यत: लक्ष्मी पूजन का पर्व है। इस दिन लक्ष्मीजी को प्रसन्न करने के लिए तथा उन्हें अपने घर में स्थायी रूप से रोकने के लिए उनकी पुजा-अर्चना की जाती है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार कार्तिक कृष्ण अमावस्या को अर्ध रात्रि के समय लक्ष्मी जी सदगृहस्थों के घरों में जहां तहां विचरण करती है। स्वेच्छ, शुध्द, सुशोभित एवं दीपों से प्रकाशित जिन घरों में लक्ष्मी पूजा हुई है उन घरों में वे स्थायी रूप से निवास करती है। इसीलिए सभी लोग दीपावली से पहले अपने अपने घरों को रंगाई पुताई एवं लीपपोत कर साफ सुथरा व शुध्द बनाते हैं। साथ ही दीपावली के दिन घरों को अच्छी तरह सजा कर एवं दीपों की रोशनी से प्रकाशित करके लक्ष्मी जी का पूजन करते है। दीपावली के दिन लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी के पूजन का भी विशेष महत्व है। माना जाता है कि लक्ष्मी यानी धन यदि अकेले आए तो वह व्यक्ति को पूर्णत लाभ नहीं पहुंचा पाता है बल्कि हानि भी कर सकता है। धन क े साथ ज्ञान व बुध्दि का होना भी आवश्यक है। तभी व्यक्ति अपने धन का सही उपयोग कर सकता है। ज्ञान व बुध्दि की प्राप्ति गणेश जी की ही कृपा से संभव है। अत: दीपावली के दिन गणेश व लक्ष्मी दोनों की ही पूजा-अर्चना करने का विधान है। ताकि लक्ष्मी और गणेश दोनों ही घर परिवार पर प्रसन्न हों। जिससे व्यक्ति अपने जीवन में बुध्दि का प्रयोग करते हुए अपने धन का सदुपयोग कर सके। इन दोनों की पूजा खील, बताशे, सुहाग सामग्री, सोने-चांदी, आदि से होती है। दीपावली पर अंबिका पूजन, गौरी पूजन, षोडस मातृका पूजन, कलश पूजन, नवग्रह पूजन, आदि भी शास्त्रानुसार विधि से किए जाते हैं। इस रात्रि को यज्ञ एवं रात्रि जागरण करने का भी विशेष महत्व है।

 अन्नकूट -गोवर्धन पूजा

दीपावली के अगले दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को अन्नकूट-गोवर्धन की पूजा की जाती है। जिसे व्दापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों के व्दारा की जाने वाली देवराज इन्द्र की पूजा के स्थान पर प्रारंभ की थी। इस पर इन्द्रदेव ने कुपित होकर निरंतर सात दिनों तक इतनी भयंकर वर्षा की कि समूचा ब्रजमण्डल डूबने लगा। यह देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने ग्वाल बालों की सहायता से अपनी तर्जनी पर सप्त कोस परिधि वाले विशालकाय गोवर्धन पर्वत को धारण कर लिया। जिसके नीचे समस्त ब्रजवासियों ने आश्रय प्राप्त किया। पूरे सात दिनों तक हुई घनघोर वर्षा के बावजूद किसी का भी बाल तक बांका नहीं हुआ। भगवान श्रीकृष्ण की इस अलौकिक लीला के प्रति नतमस्तक होकर देवराज इन्द्र ने स्वयं उनके सम्मुख आकर उनसे अपने किए हुए की क्षमा मांगी। बाद में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं गिरिराज गोवर्धन का पंचामृत से अभिषेक कर उन्हें ५६ प्रकार के व्यंजनों से भोग लगाया। साथ ही उनका विधिवत पूजन अर्चन किया। इसी दिन से भगवान श्रीकृष्ण का एक नाम गोवर्धनधारी भी पड़ गया। उसी परंपरा में आज भी दीपावली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा का पर्व सारे देश में अत्यंत श्रध्दा व भक्ति के साथ मनाया जाता है।

 यम व्दितीया भैया दूज

दीपावली के पांच त्योहारों का अंतिम त्योहार है यम व्दितीया। इसे भैया दूज भी कहा जाता है। यह त्योहार कार्तिक शुक्ल व्दितीया को मनाया जाता है। भाई यमदेव और बहन यमुना के प्रेम से जुड़ा यह पर्व भाई बहन के पवित्र रिश्ते की याद को ताजा करवाता है। इस दिन बहनें अपने भाइयों की दीर्घायु की कामना करते हुए उनका तिलक करती हैं। कहा जाता है कि यमुना ने इसी दिन अपने भाई यम देव को लोगों की बद्दुआओं से बचने के लिए व्रत रखकर उसकी दीर्घायु की कामना की थी। भगवान सूर्य ने यमुना की प्रार्थना से प्रसन्न होकर उसके भाई यमदेव को दीर्घायु होने का वरदान दिया था। कहा जाता है कि यमदेव को राजकाज में व्यस्त रहने के कारण भैया दूज के दिन अपनी बहन यमुना के पास जाना याद नहीं रहा। इस पर उनकी बहन यमुना ने उन्हें भैया दूज पर प्रतिवर्ष श्रीफल देना प्रारंभ किया जो उन्हें प्रतिवर्ष उनके पास आने का स्मरण करता रहे। तभी से भैया दूज के दिन भाइयों को बहनों के व्दारा श्रीफल देने की परंपरा पड़ी, जो कि अभी भी जारी है। एक बार यमदेव ने अपनी बहन यमुना के प्रेम से अभिभूत होकर उनसे कोई वरदान मांगने को कहा। इस पर यमुना ने उनसे कहा कि दीपावली के बाद यम व्दितीया के दिन जो बहनें अपने भाइयों का हाथ पकड़ कर यमुना में स्नान करें, उन्हें यमलोक न जाना पड़े। इस पर यमदेव ने कहा-तथास्तु। तभी से मथुरा में यमुना के विश्राम घाट पर यम व्दितीया के दिन भाई बहन का स्नान प्रारंभ हुआ। यहां आज भी देश के कोने कोने से आए असंख्य भाई बहन यम से मुक्ति की आस्था में एक दूसरे का हाथ पकड़ कर यमुना नदी में स्नान करते हैं। यहां अपने देश का एकमात्र यमराज मंदिर भी है। कहा जाता है कि यमुना ने भगवान श्रीकृष्ण के अवतार से पूर्व भूलोक पर आकर मथुरा के विश्राम घाट पर जल महल बनाया था और वहां पर घोर तपस्या की थी।

 

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