राजनीतिक सामाजिक हालातों की चिंताजनक कहानी

राज्य गठन के बाद उत्तराखंड को अटल सरकार ने दस साल के लिए औद्योगिक पैकेज दिया था। इसके तहत राज्य के मैदानी इलाकों में इंडस्ट्री तो आयी लेकिन पैकेज सब्सिडी अवधि खत्म होने के बाद उत्पादन ठप्प कर दिया। नतीजतन स्थानीय युवकों को रोजगार के संकट से गुजरना पड़ा और भू माफियाओं की दखलंदाजी बढ़ने से कृषि योग्य भूमि भी घटती चली गई।

हंसते है सितारे कि गगन बदला है,

चहकती है चिड़िया कि चमन बदला है,

शमशान की खामोशी कहती है मगर,

है लाश वही सिर्फ कफन बदला है।

उत्तराखंड 21 साल का हो गया लेकिन अधिकतर नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने राज्य के विकास को विशेष तौर पर प्रभावित किया। 21 साल में 10 सीएम बने। 2017 से तो तीन सीएम कुर्सी पर बैठ चुके हैं। कांग्रेस-भाजपा के बीच अपने सीएम बदलने की होड़ लगी रही। केवल नारायण दत्त तिवारी ही पूरे पांच साल कुर्सी पर रहे। यह भी ध्रुव सत्य है कि अगर उत्तराखंड के 21 साल के इतिहास में 4 ही पूर्व मुख्यमंत्री होते तो राज्य की तस्वीर कुछ अलग ही कहानी बयां कर रही होती।

21 साल में 10 मुख्यमंत्री

उत्तराखंड के साथ बने छत्तीसगढ़ में दो व्यक्ति ही सीएम बने। भाजपा ने 9 नवम्बर 2000 को उत्तराखंड राज्य बनाया। पहले मुख्यमन्त्री नित्यानंद स्वामी को लेकर भाजपा के एक गुट ने विरोध कर आसमान उठा लिया। भगत सिंह कोश्यारी और निशंक असंतुष्टों के नेता बने फिर मुख्यमन्त्री बदल की फ़िल्म जो शुरू हुई वह आज तक उत्तराखंड के पटल पर चल रही है। नारायण दत्त तिवारी को अपवादस्वरूप छोड़ दें तो भाजपा के खंडूरी, निशंक की कुर्सी भी रातों रात गई। कांग्रेस के विजय बहुगुणा और हरीश रावत भी अपनों की कूटनीति के शिकार हुए। स्वामी, खंडूरी व निशंक की तरह विजय बहुगुणा और हरीश भी पूरे पांच साल राज्य को नहीं चला सके।

भाजपा ने की एक बड़ी गलती

दरअसल राज्य गठन के समय ही भाजपा मुख्यमन्त्री के चयन में गलती कर गई। नित्यानंद स्वामी उत्तर प्रदेश विधानसभा में सभापति रहे और काफी इज्जत भी पाई। चूंकि, स्वामी जी और अटल बिहारी पुराने मित्र रहे। लिहाजा, अटल दोस्ती का हक अदा कर गए। उत्तराखंड मूल के नेताओं ने स्वामी को बाहरी बताकर जबरदस्त विरोध का झंडा उठा लिया। जिस तरह 2002 में कांग्रेस ने हरीश रावत को दरकिनार कर दिग्गज व अनुभवी नारायण दत्त तिवारी के हाथ राज्य की बागडोर सौंपी। ठीक इसी तरह भाजपा भी अगर अपने दिग्गज मुरली मनोहर जोशी को पहले मुख्यमन्त्री का ताज पहनाती तो निशंक-भगत सपने में भी विरोध का स्वर बुलन्द न करते। साथ ही स्वामी को विधानसभाध्यक्ष की सम्मानित कुर्सी सौंपते। वरिष्ठ पार्टी नेता  मुरली मनोहर जोशी के सामने पार्टी की अंतर्कलह पहले दिन ही दम तोड़ देती। किसी भी नेता की महत्वाकांक्षा परवान न चढ़ती लेकिन ऐसा हुआ नहीं और स्वामी पार्टी के अंदर ही सॉफ्ट टारगेट बन गए। राज्य की नींव ही कलह की बुनियाद पर रख दी गई।  जबकि पार्टी के पहले मुख्यमन्त्री चयन में कांग्रेस ने भाजपा से सबक लेते हुए जानकार व अनुभवी तिवारी को छोटे राज्य का बड़ा मुख्यमन्त्री बनाया। उत्तर प्रदेश और केंद्र के अनुभव से लबरेज तिवारी ने पूरे पांच साल सरकार चला कर रिकॉर्ड बना दिया। 2002 से 2007 तक बना ये रिकॉर्ड अभी तक कायम है। इन दस सालों में बड़े-बड़े महारथी मुख्यमन्त्री बने और बेआबरू होकर पांच साल से पहले ही विदा हो गए।

2017 के बाद तीन सीएम बदले

इस राजनीतिक कलह के दुष्प्रभाव के चलते राज्य के सामाजिक व आर्थिक परिदृश्य पर भी विपरीत असर पड़ा। उत्तराखंड में लगभग 9 लाख रजिस्टर्ड बेरोजगार हैं। 18 साल से आंदोलनकरियों का चिन्हीकरण जारी है। उत्तराखंड का कर्जा 60 हजार करोड़ पार कर गया। साल 2020-21 में राज्य का वार्षिक बजट 53 हजार करोड़ को पार कर गया। 20 साल पहले राज्य का वार्षिक बजट 2 हजार करोड़ के आस-पास ही था। राज्य गठन के बाद उत्तराखंड में सड़कों की लम्बाई अवश्य बढ़ी। 20 साल पहले राज्य में 10 हजार किमी लंबाई की सड़कें थी। अब राज्य में लगभग 40 हजार किमी लंबाई की सड़कें हो गई। राज्य गठन के बाद उत्तराखंड को अटल सरकार ने दस साल के लिए औद्योगिक पैकेज दिया था। केंद्रीय उत्पाद शुल्क समेत अन्य कई प्रकार की छूट दी गयी। इसके तहत राज्य के मैदानी इलाकों में इंडस्ट्री तो आयी लेकिन पैकेज सब्सिडी अवधि खत्म होने के बाद उत्पादन ठप्प कर दिया। नतीजतन स्थानीय युवकों को रोजगार के संकट से गुजरना पड़ा। यही नहीं, राज्य बनने के बाद रियल स्टेट में भू माफियाओं की दखलंदाजी बढ़ने से कृषि योग्य भूमि भी घटती चली गई। मौजूदा समय में लगभग 15 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि घट गई।

 21 सालों में बढ़ा पलायन

इन 21 साल में राज्य की प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोत्तरीके आंकड़े भी सामने आए हैं। प्रति व्यक्ति आय 2 लाख प्रतिवर्ष हो गयी है लेकिन इसके साथ ही पलायन भी तेजी से बढ़ा। उत्तराखंड के पौड़ी व अल्मोड़ा जनपद से सर्वाधिक पलायन हुआ। त्रिवेंद्र सरकार ने पलायन आयोग का गठन भी किया। यह आयोग अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप भी चुका है। आयोग ने स्वरोजगार की सिफारिश करते हुए ग्रामीण इलाकों की आय बढ़ाने के लिए होम स्टे व हॉर्टिकल्चर को बढ़ावा देने के सुझाव दिए थे। प्रदेश में जारी जबरदस्त राजनीतिक अस्थिरता की वजह से पलायन आयोग के सुझावों का क्रियान्वयन भी अबूझ पहेली बना हुआ है। इसके अलावा राज्य में असंतोष की चिंगारी लगातार धधक रही है। तीन साल पहले उत्तराखंड देश के सबसे ज्यादा आंदोलन वाले प्रदेश की श्रेणी में आ गया। कई संगठन व बेरोजगार आज भी आंदोलित है। महिलाओं की आर्थिकी सुधारने के दावे भी खोखले ही साबित हुए। पहाड़ की ग्रामीण महिलाओं की पीठ का बोझ कोई भी सरकार कम नहीं कर पाई। प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में शिक्षा, स्वास्थ्य व पेयजल की कहानी बहुत ही बदतर है। कई ग्रामीण स्कूलों में छात्र संख्या दस से भी कम रह गई है। ग्रामीण महिलाओं की खुले में प्रसव की घटनाएं आये दिन सुर्खियां बनती रहती है। राज्य के गठन के बाद नेताओं, अधिकारियों व दलालों के स्टेटस का ग्राफ बहुत तेजी से बढ़ा। सिस्टम को दलाल व माफिया घेरे हुए हैं। कई नेताओं ने अकूत सम्पत्ति जमा कर ली है। भ्रष्टाचार पर कोई रोक नहीं लगा पाया। इन 21 साल में आर्थिक विषमता की खाई भी गहरी हुई। 60 हजार के कर्ज में दबे उत्तराखंड में 15 हजार करोड़ की ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना के अलावा 12 हजार करोड़ की चारधाम आल वेदर रोड का शोर मचा हुआ है।

उत्तराखंड में लगभग 57 हजार सरकारी पद रिक्त

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी ने अक्टूबर 2020 में देश की बेरोजगारी दर पर कुछ आंकड़े जारी किए थे। ताज्जुब की बात यह रही कि लगभग साल भर पहले बेरोजगारी दर में उत्तराखंड देश का नंबर वन राज्य बन गया। बेरोजगारी दर के मामले में छत्तीसगढ़ व झारखंड अपने समकक्ष राज्य उत्तराखंड से बहुत पीछे रहे, जहां उत्तराखंड पहले नंबर पर है। कुछ साल पहले तक राज्य में बेरोजगारी दर लगभग 14 प्रतिशत के आस-पास थी। राज्य में लगभग 57 हजार सरकारी पद रिक्त है। जबकि सेवायोजन कार्यालय में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या लगभग 9 लाख तक पहुंच चुकी है।

भाजपा सरकार का दावा : 7 लाख रोजगार दिए

अप्रैल 2017 से सितम्बर 2020 तक विभिन्न विभागों के अंतर्गत कुल 7 लाख 12 हजार से अधिक लोगों को रोजगार प्रदान किया गया। इनमें से नियमित रोजगार लगभग 16 हजार, आउटसोर्स अनुबंधात्मक रोजगार लगभग 1 लाख 15 हजार और स्वयं उद्यमिता प्राइवेट निवेश से प्रदान निर्माणाधीन परियोजनाओं से रोजगार लगभग 5 लाख 80 हजार है। उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग द्वारा की गई भर्तियों की दृष्टि से कांग्रेस शासन में वर्ष 2014 से 2017 तक 801 पदों पर चयन पूर्ण किया गया। जबकि वर्ष 2017 से 2020 तक कुल 59 परीक्षाएं आयोजित की गई जिनमें 6000 पदों पर चयन पूर्ण किया गया। वर्तमान में उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग में 7200 पदों पर अध्यापक भर्ती प्रक्रिया गतिमान है।

प्रदेश में चिकित्सकों की संख्या कांग्रेस शासन काल की अपेक्षा ढाई गुना हो चुकी है। शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया चल रही है। लोक सेवा आयोग ने गत डेढ़ वर्ष में साढ़े तीन हज़ार पदों पर चयन पूरा किया है।

इसके अलावा मनरेगा में प्रति वर्ष 6 लाख लोगों को रोजगार दिया जाता है। कोविड के दौरान इसमें अतिरिक्त रोजगार दिया गया है। पिछले वर्ष की तुलना में 84 हजार अतिरिक्त परिवारों (2 लाख अतिरिक्त श्रमिकों) को रोजगार दिया गया है। पिछले वर्ष की तुलना में 170 करोड़ रूपए अतिरिक्त व्यय किए गए हैं। आगामी तीन माह में कैम्पा के अंतर्गत 40 हजार लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने की कार्ययोजना है। युवाओं और प्रदेश में लौटे प्रवासियों के लिए मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना प्रारम्भ की गई। एमएसएमई के तहत इसमें ऋण और अनुदान की व्यवस्था की गई है। इसमें लगभग 150 प्रकार के काम शामिल किए गए हैं।

राज्य गठन के बाद अगर उत्तराखंड की सभी सरकारें हिमाचल की तर्ज पर बागवानी व उद्यान सेक्टर पर जोर देती तो ग्रामीण इलाकों की आर्थिकी सुधरने के साथ सामाजिक स्तर में भी बदलाव दिखता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

उत्तराखंड, नाशपाती, आड़ू, पुलम और खूबानी उत्पादन में देश में पहले तथा अखरोट उत्पादन में दूसरे स्थान पर है जबकि हकीकत यह है कि उत्तराखंड के बाजारों में हिमाचल प्रदेश और कश्मीर के फल बिक रहे हैं। साल 2019-20 के आंकड़ों के अनुसार राज्य के  कुल 181485  हेक्टअर क्षेत्रफल में 677369 मीट्रिक टन फल उत्पादन हुआ। उद्यान विभाग के इन आंकड़ों में भी झोल नजर आ रहा है। दरअसल, उत्तराखंड के पांच पहाड़ी जिलों में 1200 मीटर की ऊंचाई तक कहीं-कहीं घाटियों में आम बीजू के पौधे और उससे ऊपर के क्षेत्रों में खेतों के किनारे और गधेरों में अखरोट के पौधे देखने को मिलते हैं। इससे अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में माल्टा, पहाडी नीम्बू और चूलु-खूबानी बीजू के पौधे देखने को मिलेंगे। यात्रा सीजन, मई से अक्टूबर तक रास्ते में कहीं पर भी स्थानीय फल बिकते हुए नहीं दिखाई देते। कुमाऊं  मण्डल में भवाली, गर्म पानी, रानीखेत और कुछ अन्य स्थानों में जरूर स्थानीय फल बिकते हुए दिखाई देते हैं। द्वाराहाट व चौखुटिया क्षेत्र में गोला नाशपाती का उत्पादन होता है, लेकिन यहां भी काश्तकारों को इसका अच्छा भाव नहीं मिलता है।

उत्तराखंड में नाशपाती, आड़ू, पुलम और खूबानी के बहुत कम बाग हैं। उत्तराखंड के बाजार में हिमाचल प्रदेश और कश्मीर की मैक्स रैड और रैड बबूगोसा प्रजाति की नाशपाती बिकती है। यही स्थिति प्लम और आडू की है। अखरोट का भी राज्य में कोई बाग नहीं है। पिथौरागढ़, चमोली, पौड़ी, देहरादून और उत्तरकाशी जिले के कुछ क्षेत्रों में ही थोड़े-बहुत अखरोट के पौधे दिखाई देते हैं। अखरोट के कलमी पौध और बीज हिमाचल प्रदेश, कश्मीर से मंगाया जाता है।

सेब के पुराने बाग खत्म हो चुके हैं। नए बाग लगाने के प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन गलत नियोजन और क्रियान्वयन में पारदर्शिता न होने के कारण बहुत ज्यादा सफलता नहीं मिल पा रही है। उत्तरकाशी, देहरादून, टिहरी, पिथौरागढ़, तथा चमोली जिलों के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में सेब का अच्छा उत्पादन हो रहा है। इन क्षेत्रों में नए बाग भी विकसित हुए हैं। नैनीताल जिले के रामगढ़ क्षेत्र में अधिकतर कृषकों ने सेब के पुराने पेड़ हटाकर आड़ू, पुलम और नाशपाती के पेड़ लगाए हैं, जिनसे अच्छा उत्पादन मिल रहा है।

राज्य सरकार, वर्ष 2005 से उद्यान विभाग को राजस्व विभाग की मदद से फल उत्पादन के वास्तविक आंकड़े एकत्रित कर निदेशालय भेजने को कह रही है, लेकिन उद्यान विभाग ने 15 वर्ष बाद भी फल उत्पादन के वास्तविक आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए।

 

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