इस हिंसा को गंभीरता से लेना जरूरी 

महाराष्ट्र के कई शहरों की डरावनी हिंसा ने फिर देश का ध्यान भारत में बढ़ रहे कट्टरपंथी तंजीमों की ओर खींचा है। 12 नवंबर को मुस्लिम समुदाय के अलग-अलग संगठनों द्वारा आयोजित जुलूस, धरने व रैलियों से कुछ समय के लिए हिंसा का जैसा कोहराम मचा सामान्यतः उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। देशभर में अलग-अलग संगठन समय-समय पर अपनी मांगों के समर्थन में या किसी घटना पर धरना, प्रदर्शन, रैली, जुलूस आदि के रूप में विरोध जताते हैं। अपने मुद्दों पर प्रशासन की अनुमति तथा उनके द्वारा निर्धारित मार्ग एवं समय सीमा में किसी को भी धरना प्रदर्शन करने का अधिकार है।  अगर प्रदर्शन लक्षित हिंसा करने लगे और उसके पीछे कोई तात्कालिक उकसाने वाली घटना नहीं हो तो मानना चाहिए कि निश्चय ही सुनियोजित साजिश के तहत सब कुछ हो रहा है। महाराष्ट्र में वैसे तो अनेक जगह मुस्लिम संस्थाओं व संगठनों के आह्वान पर विरोध प्रदर्शन आयोजित हुए लेकिन अमरावती, नांदेड़, मालेगांव, भिवंडी जैसे शहर हिंसा के सबसे ज्यादा शिकार हुए। अमरावती में कर्फ्यू तक लगाना पड़ा।

हिंसा की थोड़ी भी गहराई से विश्लेषण करेंगे तो साफ दिख जाएगा की वह अचानक या अनियोजित नहीं था । उदाहरण के लिए अमरावती में पुराने कॉटन मार्केट चौक में पूर्व मंत्री जगदीश गुप्ता के किराना प्रतिष्ठान पर पत्थरों से हमला हुआ। हमलावरों को मालूम था कि यह किसका प्रतिष्ठान है। पुराने वसंत टॉकीज इलाके मे जिन प्रतिष्ठानों व दुकानों पर हमले हुए वे सब हिंदुओं के थे। पूर्व मंत्री व विधायक प्रवीण पोटे के कैंप कार्यालय पर पथराव किया गया। मालेगांव में जुलूस के रौद्र रूप ने गैर मुस्लिमों को अपने घर में बंद हो जाने या फिर दुकानें बंद करने के लिए मजबूर कर दिया । जहां भी हिंदुओं से जुड़े संस्थान, दुकानें खुली मिली वही भीड़ का पथराव हुआ। पूरा माहौल भयभीत करने वाला बना दिया गया था। रैपिड एक्शन फोर्स पर हमला किया गया। हालांकि महाराष्ट्र के गृह मंत्री और पुलिस महानिदेशक स्थिति को इतना गंभीर नहीं मान रहे हैं तो यह सब पुलिस के रिकॉर्ड में आएगा नहीं। किंतु जो लोगों ने  आंखों से देखा, भुगता उन सबको भुलाना कठिन होगा। 

यह सवाल भी उठेगा कि किस आधार पर इस तरह के बंद एवं विरोध प्रदर्शनों की अनुमति मिली? कहा गया कि त्रिपुरा हिंसा का विरोध करना था। पिछले कुछ समय से देश में तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं एवं पत्रकारों के एक समूह ने सोशल मीडिया पर त्रिपुरा में मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा की जो खबरें और वीडियो वायरल कराए वो पूरी तरह झूठी थी। बांग्लादेश में दुर्गा पूजा के दौरान दुर्गा पंडालों, हिंदू स्थलों तथा हिंदुओं पर हमले के विरोध में त्रिपुरा में शांतिपूर्ण जुलूस निकाला गया था।  हल्के फुल्के तनाव हुए लेकिन कुल मिलाकर आयोजन शांतिपूर्ण ढंग से समाप्त हो गया। अफवाह फैलाई गई कि जुलूस ने मुसलमानों पर और मस्जिदों पर हमले कर दिए। न कोई घायल हुआ न कहीं किसी मस्जिद को कोई क्षति पहुंची। उच्च न्यायालय ने खबर का संज्ञान लिया। वहां  त्रिपुरा के एडवोकेट जनरल सिद्धार्थ शंकर डे ने दायर शपथ-पत्र में कहा कि बांग्लादेश में दुर्गा पूजा पंडालों और मंदिरों में हुई तोड़फोड़ के खिलाफ विश्व हिंदू परिषद ने 26 अक्तूबर को रैली निकाली थी। इसमें दोनों समुदायों के बीच कुछ झड़पें हुई थीं। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर आरोप लगाए। तीन दुकानों को जलाने, तीन घरों और एक मस्जिद को क्षतिग्रस्त करने का आरोप लगा। शपथ पत्र में भी केवल आरोप की बात है। पुलिस की जांच में इसका कोई प्रमाण नहीं मिला। आयोजकों ने भी अपने जुलूस पर हमले करने का आरोप लगाया।

जरा सोचिए जहां कुछ बड़ी घटना  हुई ही नहीं वहां के बारे में इतना बड़ा दुष्प्रचार करने वाले कौन हो सकते हैं और उनका उद्देश्य क्या होगा? त्रिपुरा में जांच के लिए एक दल पहुंच गया जिसमें पत्रकार तथा कथित मानवाधिकारवादी व वकील शामिल थे। इनका तंत्र देशव्यापी नहीं विश्वव्यापी है। पुराने वीडियो डालकर सोशल मीडिया तथा मुख्यधारा की मीडिया के माध्यम से दुष्प्रचार होता रहा। असामाजिक तत्वों ने इसका लाभ उठाकर पूरे देश में मुस्लिम समुदाय को भड़काया है। त्रिपुरा पुलिस ने जांच करने के बाद ट्विटर से ऐसे 100 लोगों का अकाउंट बंद करने तथा इनकी पूरी जानकारी की मांग की। कुछ लोगों पर जब कठोर धाराओं में मुकदमा दायर हुआ तो बचाव के लिए उच्चतम न्यायालय तक पहुंच गए। कहने का तात्पर्य कि महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ उसको केवल वही की घटना मत मानिए । पता नहीं देश में कहां-कहां ऐसे ही उपद्रव की प्रकट परोक्ष तैयारियां चल रही होंगी। महाराष्ट्र में विरोध प्रदर्शन व बंद का आह्वान वैसे तो रेजा अकादमी ने किया था किंतु अलग-अलग जगहों पर कुछ दूसरे संगठन भी शामिल थे । मालेगांव में बंद का आह्वान सुन्नी जमातुल उलमा, रेजा अकादमी और अन्य संगठनों ने किया था।  भिवंडी में भी रजा अकादमी ने बंद का आह्वान किया था लेकिन बंद को एमआईएम, कांग्रेस, एनसीपी और सपा का समर्थन था। तो जो कुछ भी हुआ उसके लिए इन सारे संगठनों को जिम्मेदार माना जाना चाहिए। हालांकि इसके विरोध में सड़कों पर उतरने वाला चाहे भाजपा के हो या अन्य संगठनों के लोग,उन्हें भी शांतिपूर्ण प्रदर्शन करना चाहिए था। अमरावती में उन्होंने हिंसा की और पुलिस को इनके विरुद्ध कार्रवाई का अवसर मिल गया। आप देख सकते हैं कि इनकी हिंसा, तोड़फोड़ और आगजनी के वीडियो प्रचुर मात्रा में चारों और प्रसारित हो रहा है वैसे ही महाराष्ट्र में मुस्लिम समूहों के द्वारा की गई हिंसा के वीडियो इतनी मात्रा में नहीं मिलेंगे। इसलिए विरोध करने वालों को भी अपने ऊपर नियंत्रण रखने की आवश्यकता है। महाराष्ट्र पुलिस ने जिस तत्परता से इनको नियंत्रित किया वैसा ही वह 12 नवंबर को करती तो स्थिति बिगड़ती नहीं।

यहां यह प्रश्न भी उठता है कि किसी देश में हिंदुओं, सिखों आदि के विरुद्ध हिंसा हो तो  भारत के लोगों को उसके विरोध में प्रदर्शन करने का अधिकार है या नहीं? यह मानवाधिकार की परिधि में आता है या नहीं? त्रिपुरा की सीमा बांग्लादेश से लगती है और वहां आक्रोश स्वाभाविक था जिसे लोगों ने प्रकट किया। अगर किसी ने कानून हाथ में लिया तो पुलिस का दायित्व है उनको संभालना। जिन लोगों के लिए त्रिपुरा फासीवादी घटना बन गई उनके लिए बांग्लादेश में हिंदुओं के विरुद्ध हिंसा मामला बना ही नहीं। बांग्लादेश की हिंसा का भी एक सच जानना आवश्यक है। बांग्लादेश की मीडिया में यह समाचार आ चुका है कि दुर्गा पूजा पंडाल तक पवित्र कुरान शरीफ इकबाल हुसैन ले गया। इकराम हुसैन ने 999 फोन नंबर पर पुलिस को सूचित किया तथा फयाज अहमद ने उसे फेसबुक पर डाला। इन तीनों का संबंध किसी न किसी रूप में जमात-ए-इस्लामी या अन्य कट्टरपंथी संगठनों सामने आया है। वहां आरंभ में पुलिस ने पारितोष राय नामक एक किशोर को गिरफ्तार किया था। इससे क्या यह साबित नहीं होता कि कट्टरपंथी मुस्लिम समूह किस मानसिकता से काम कर रहे हैं? इसलिए महाराष्ट्र की घटना को उसके व्यापक परिपेक्ष्य में पूरी गंभीरता से लेना चाहिए। जिन्होंने हिंसा की केवल वे ही नहीं जिन लोगों ने देशव्यापी झूठ प्रचार कर लोगों को भड़काया उन सबको कानून के कटघरे में खड़ा किया जाना जरूरी है।

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