पर्यटन नहीं तीर्थाटन

जिस प्रकार मक्का या वैटिकन सिटी पूरे विश्व में अकेले हैं, उसी प्रकार श्री बद्रीनाथ केदारनाथ धाम व हिन्दू धर्म के अन्य धाम भी अपनी तरह के अकेले हैं, जिनका कोई अन्य विकल्प नहीं है। इनको स्विट्जरलैड, थाईलैंड बनाकर सैकेंडरी बना कर यहां पश्चिमी पर्यटन पनपाकर इनकी मोनोपली को क्यों तोड़ें? और सैकेंडरी क्यों बने?

मानव के स्वयं का समाज, प्रकृति व सृष्टि का कल्याण करने के भाव को लेकर कोई यात्रा की जाती है, तो उसे तीर्थयात्रा कहते हैं। इसके विपरीत जब मात्र घूमने आनंद लेने सैर करने व विभिन्न प्रकार के भोगों को प्राप्त करके शारीरिक सुख प्राप्त करने का भाव होता है, तो वह भोगवादी चिंतन होता है। यही भोगवादी चिंतन वर्तमान पाश्चात्य पश्चिमी देशों के भोगवादी पर्यटन का आधार है। इंद्रिय सुख विभिन्न प्रकार के भोग, शारीरिक सुख और आनंद प्राप्त करना पश्चिमी पर्यटन का मूल विचार है। पर्यटन और तीर्थाटन दोनों ही यात्रा की क्रिया द्वारा संचालित होते हैं अर्थात दोनों में यात्रा की जानी आवश्यक है।

अब हम उत्तराखंड के तीर्थाटन और पर्यटन पर चर्चा करते हैं। हिंदू धर्म के अनुसार चार धाम प्रचलित है। इनमें से एक धाम श्री बद्रीनाथ या बद्रिकाश्रम है। कहते हैं कि आदि गुरु शंकराचार्य जी ने भारतवर्ष में चार धामों की स्थापना करके, पूरे भारत को एक सूत्र में जोड़ने की अनोखी परंपरा की आधारशिला रखी। अब प्रश्न यह उठता है कि संपूर्ण हिमालय क्षेत्र में केवल श्री बद्रीनाथ को ही चार धामों में संयुक्त क्यों किया गया? हिमालय के कई अन्य क्षेत्र भी हैं, लेकिन केवल श्री बद्रीनाथ को ही धाम की मान्यता दी गई। हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, दार्जिलिंग, अरुणाचल, सिक्किम, नगालैंड, असम आदि हिमालई क्षेत्रों में धाम की स्थापना क्यों नहीं की गई? उत्तर स्पष्ट है कि श्री बद्रिकाश्रम क्षेत्र आदिकाल से ही ऋषि-मुनियों की, देवताओं की पवित्रस्थली मानी जाती रही है। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों, पूर्वजों ने केवल उत्तराखंड, केदारखंड क्षेत्र को ही देव भूमि का दर्जा दिया। किसी अन्य प्रदेश को नहीं दिया क्योंकि यह क्षेत्र ध्यान, ज्ञान, तपस्या, विद्या, चिंतन व मोक्ष का क्षेत्र रहा है। पांडव भी मोक्ष प्राप्त करने यहीं आए और महाभारत वन पर्व में इसका विस्तृत वर्णन है।

यात्रा पर भोगवाद हावी

इसका कारण इस क्षेत्र की भूस्थलाकृति है। यह क्षेत्र हिन्दुओं का मोक्षक्षेत्र है। स्वर्गागमन का मार्ग है। मन, कर्म, वचन, प्राण, मस्तिष्क की शक्तियों की उन्नति और शुद्धीकरण का सबसे अहम क्षेत्र है। यह भारतवर्ष रूपी घर का पूजा का कक्ष है। यह विश्व में हिन्दुओं की सनातनी संस्कृति को जीवित रखने का शक्ति स्रोत है। अंग्रेजों ने इस क्षेत्र की धार्मिकता को समाप्त करने हेतु विचार किया। यहां भोगवादी चिंतन के तहत पाश्चात्य पर्यटन को योगवाद पर हावी करने के विभिन्न प्रयत्न किए। वे जानते थे कि हिन्दू धर्म के रहते भारतीयों में चरित्र, ईमानदारी, मातृभूमि के प्रति आदर व ममत्व समाप्त नहीं किया जा सकता। भारतीय तीर्थयात्रा-परंपरा एक ऐसी विलक्षण शक्ति है, जिसमें योगवाद है। इसे भोगवाद से ही तोड़ा जा सकता है। इसी भावना से भोगवादी पर्यटन का भारत में विस्तार किया गया। उत्तराखंड में तीर्थाटन के समानान्तर पर्यटन को बढ़ावा दिया गया। जगह-जगह डाक-बंगले बनाए जाने लगे। सड़कों, सुविधाओं को बढ़ाया जाने लगा ताकि पर्यटकों की संख्या बढ़ाई जा सके। ज्यों-ज्यों पर्यटन बढ़ेगा, भोगवाद भी बढ़ेगा। लोगों में बेईमानी, चरित्रहीनता और लालच आदि की बढ़ोत्तरी होगी। धर्म टूटेगा समाज बंटेगा।

तीर्थ स्थल क्यों बनेगा ड्राइंग रूम?

यात्रियों को किसी भी प्रकार की कमी या असुविधा भी श्री बद्रीनाथ केदारनाथ धाम के स्थानीय लोग नहीं होने देते थे और सम्पूर्ण भारत में केदारखंड क्षेत्र की यह प्रसिद्धि फैली थी। यह श्री केदारखण्ड का मूल स्वरुप था इसीलिए इसे देवभूमि का मान प्राप्त था। यह भारतवंशीयों  के घर का पूजा का कक्ष था, जिसे अब सरकारें ड्राइंग रूम बनाने पर तुली है क्योंकि-

1) पर्यटन तीर्थाटन को एक ही पैमाने से आंका जा रहा है।

2) कितनी बड़ी विडम्बना है कि भारत सरकार हो या किसी भी प्रदेश की सरकार, कहीं भी पर्यटन विषय विशेषज्ञों को पर्यटन तीर्थाटन विकास में सम्मलित ही नहीं किया गया है। जिसने पर्यटन तीर्थाटन पढ़ा व जाना नहीं वह पर्यटन तीर्थाटन के नीति निर्धारकों में संलग्न है।

3) स्विटरजरलैंड व कश्मीर आदि की नकल करने से ही सभी जगह उनकी तर्ज पर ही, पर्यटन तीर्थाटन का विकास नहीं किया जा सकता। हर क्षेत्र की अपनी स्थिति, भाषा, संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था है। उसके अनुसार ही वहां नियोजन किया जाना चाहिए।

4) भोगवादी पर्यटन पश्चिमी देशों की संस्कृति को बढ़ावा देता है। उनके लिए भौतिक व शारीरिक सुख, आनंद प्राप्त करना ही मुख्य ध्येय है। इसपर वे धन लुटाते हैं और गरीब लोग व गरीब देश ऐसे धन प्राप्ति के लिए आतुर हैं। वे बिना कुछ सोचे-समझे अपना सबकुछ बेचने को तत्पर रहते हैं। थाईलैंड, फिलिपींस और नेपाल आदि ऐसे ही देश हैं। उनकी संस्कृति, भाषा, रहन-सहन, चरित्र, ईमानदारी सब बिक्री पर लगाया जा चुका है।

5) कुछ देशों में पर्यटकों की औलादों की इतनी बड़ी संख्या है कि वे उस देश के लिए समस्या बन गए। थाईलैंड में पेइंग-गेस्ट योजना से ऐसी समस्या उत्पन्न हुई। अब उत्तराखंड में भी इसी प्रकार की योजना बनाई गई है।

6) बड़े विकसित देश अपने नागरिकों को लालच देते हैं। बड़े-बड़े देश अपने नागरिकों को रिफ्रेश होने व तनाव मुक्त होने के लिए भ्रमणावकाश देते हैं कि थकावट दूर करो।

7) जिस प्रकार मक्का या वैटिकन सिटी पूरे विश्व में अकेले हैं, उसी प्रकार श्री बद्रीनाथ केदारनाथ धाम व हिन्दू धर्म के अन्य धाम भी अपनी तरह के अकेले हैं, जिनका कोई अन्य विकल्प नहीं है। इनको स्विटरजरलैड, थाईलैंड बनाकर सैकेंडरी बना कर यहां पश्चिमी पर्यटन पनपाकर इनकी मोनोपली को क्यों तोड़ें? और सैकेंडरी क्यों बने?

8) यदि धार्मिक ताना-बाना टूटेगा तो समाज ही नहीं बल्कि चरित्र ईमानदारी मातृभूमि के प्रति भावनात्मक लगाव भी टूटेगा और पश्चिमी देश यही चाहते हैं। इसका सबसे ज्यादा अहम हथियार भोगवाद, लालच और भोगवादी पंचतारा पर्यटन से आसानी से फैलाया जा सकता है। भारत में अप्रत्यक्ष रूप से पर्यटन पनपाने की व्यवस्था बनाई जा रही है।

9) विश्व हिन्दू परिषद के अशोक सिंघल ने विनाशकारी पर्यटन रोको (विपरो) आन्दोलन को कई वर्ष पूर्व भारत की पर्यटन नीति निर्धारकों को विदेशी मानसिकता में पला बढ़ा मानकर समय आने पर उसको सही करने का परामर्श दिया था लेकिन उसकी परिणति कब होगी उसका इंतजार है?

10) सुन्दर लाल बहुगुणा ने भोगवादी पर्यटन को घातक बताकर इससे बचने के लिए विपरो आन्दोलन को समर्थन दिया था।

11) चण्डी प्रसाद भट्ट, जगद्गुरू जयेंद्र सरस्वती आदि कई विद्वानों ने विपरो आन्दोलन की बातों का समर्थन किया।

12) पश्चिमी पर्यटन में जिम्मेदारी का भाव तीर्थाटन की अपेक्षा नगण्य है। जहां तीर्थयात्री स्वयं ही नियमित व नियंत्रित रहता है। वहीं पर्यटकों को नियंत्रित करने हेतु पुलिस आदि की व्यवस्था बनाई जाती है। इस प्रकार तीर्थाटन से लाभ भी पर्यटन की अपेक्षा अधिक होना स्वाभाविक है।

13) तीर्थाटन के सामाजिक प्रभाव भी बहुतायत में हैं। ईमानदारी, चरित्र, मातृभूमि के प्रति भावनात्मक लगाव, परस्पर प्रेम व सच्चाई का विकास होता है। पश्चिमी पर्यटन से लालच, धनोपार्जन की ललक से बेईमानी, चरित्रहीनता की ही वृद्धि होती है। जिसमें गरीब लोग व गरीब देश फंस जाते हैं।

14) पर्यटन तीर्थाटन को समझने के लिए शून्य काल का सिद्धांत आवश्यक है। इसके ही आधार पर सही तीर्थाटन पर्यटन नीति बनाई जा सकती है लेकिन इसका पालन हमारे देश में नहीं हो रहा।

15) अंत में तीर्थ यात्रियों को किसी प्रकार की व्यवस्था, सुरक्षा, सुविधा ज्यादा अहम नहीं है जबकि पर्यटकों के लिए अहम है। श्री बद्रीनाथ केदारनाथ आदि में लगभग 10 लाख तीर्थ यात्री प्रति वर्ष आते हैं। पर्यटक हजारों तक ही सीमित हैं, तो किसका विकास किया जाना चाहिए?

15) वास्तव में उत्तराखंड, मसूरी, देहरादून, नैनीताल, व कुमाऊं मण्डल का क्षेत्र पर्यटन के रूप में विकसित किया जा सकता है लेकिन शून्यकाल के सिद्धांत पर आधारित नियोजन किया जाना आवश्यक है। गांधीयन पर्यटन एक अच्छा विकल्प है। गांधीयन पर्यटन का पोस्टर सुन्दर लाल बहुगुणा व उनकी आदरणीय धर्मपत्नी ने जारी किया।

16) होमस्टे योजना पेईंग गेस्ट योजना का बदला हुआ नाम जैसा ही लगता है। वास्तव में उत्तराखंड के सामरिक महत्व , सामाजिक ताने-बाने, भाषा, खान-पान, रहन-सहन, प्रकृति, चरित्र, ईमानदारी, मातृभूमि के लिए प्रेम इन सबको जानने समझने वाले लोग ही एक अच्छा पर्यटन तीर्थाटन विकास व नियोजन को आकार दिशा दे सकते हैं।

17) केदारखंड क्षेत्र गढ़वाल मंडल में तीर्थाटन का विकास ही आर्थिक, सामाजिक, प्राकृतिक व सामरिक रूप से महत्वपूर्ण है। धार्मिक ताना-बाना बुना हुआ, ध्यान, ज्ञान, तपस्या, विद्या, चिंतन, योग, आयुर्वेद की  शिक्षा, समारोह, शिविर, विद्यालय, संस्थान, संकुल विकसित किए जाएं।

उत्तराखंड सीमावर्ती क्षेत्र भी है। यहां ईमानदारी, देशप्रेम और चरित्र की अत्यंत आवश्यकता है। इस क्षेत्र चमोली, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, टिहरी, पौड़ी जनपद केदारखण्ड को वेटिकन सिटी, मक्का मदीना की तरह हिंदू धर्म की आस्था के अनुरूप धार्मिक संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिए क्योंकि इस क्षेत्र में बाहरी लोगों की तेजी से होती घुसपैठ सुनियोजित है। समय रहते चेतना ही होगा। सरकार गंभीरता से नहीं लेगी तो देर हो जाएगी।

 

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