संवेदनाएं अपनी-अपनी

अचानक स्टेशन का शोर सुनाई देने लगा था। न्यू दिल्ली स्टेशन आ चुका था। सभी यात्री अपना सामान लेकर दरवाजे की ओर बढ़ने लगे। नितिन और भव्या भी मालती को लेकर सामान के साथ नीचे उतर आए। सबको मालती के बेटे अरुण का इंतजार था। भव्या और नितिन की निगाहें मालती की ओर थीं, कि कब वह संकेत देगी कि मेरा बेटा अरुण आ गया।

शीत लहर के कारण थ्रीटियर में बंद शीशों में से भी ठंडी हवा अंदर आ रही थी। यात्री ठंड से सिकुड़े बैठे थे। गीता ने घड़ी देखी सुबह के सात बजे थे। डेढ़ घंटे बाद ट्रेन आगरा स्टेशन पहुंचने वाली थी। गीता को आगरा स्टेशन पर उतरना था। वह अपने सामान को व्यवस्थित करने लगी। अचानक उसे किसी के कराहने की आवाज सुनाई दी। गीता उठ कर गई तो उसने देखा, साफ़-सुथरी, स़फेद धोती पहने एक वृद्ध महिला अपने पैरों को पेट से चिपकाकर गठरी बनी ट्रेन के फ्लोर पर पड़ी है। ठंड से उसके दांत किटकिटा रहे थे। उस महिला को देख कर गीता सहमी सी चिंता में पड़ गयी।

आखिर यह कौन है? अकेली इस उम्र में कहां जा रही है? लग तो अच्छे घर की रही है।

अनेक प्रश्न उसके मन में कुलबुलाने लगे थे। गीता ने उस वृद्ध महिला को अपनी सीट पर लाकर लिटाया और अपनी शॉल उतारकर उस बीमार महिला को ओढा दी।

फिर उससे पूछा, आंटी, आपका नाम क्या है? आप इस उम्र में इस तरह अकेली कहां जा रही हैं? आपको तो तेज बुखार है।

वृद्ध महिला ने कराहते हुए कहा, बेटा मेरा नाम मालती है। मैं दिल्ली जा रही हूं।

तभी एक चाय वाले की आवाज आई- चाय गरम, गरम चाय। गीता ने जल्दी से एक चाय खरीदी और मालती को ठीक से बैठा कर चाय पिलाई। गरम चाय पीकर वृद्ध मालती को कुछ आराम मिला।

गीता ने पूछा। आप ट्रेन में कहां से बैठी हैं?

मालती ने उत्तर दिया, भोपाल से।

भोपाल में आपका कौन रहता है? गीता ने पुनः पूछा।

उधर से कराहती हुई आवाज आई, मेरा बड़ा बेटा विनोद।

और दिल्ली में आपका कौन रहता है? गीता ने पूछा।

वह बोली, मेरा छोटा बेटा अरुण।

आंटी, आपका बेटा आपको ठीक से ट्रेन में बैठाकर क्यों नहीं गया? गीता ने बड़े दुख से कहा।

क्या जानूं बिटिया? विनोद ने मुझे टिकट दिया और गाड़ी में चढ़ाकर चला गया। जब टीटी आया तो उसने कहा, उठो, यहां कैसे सो गईं? यह तो दूसरे की सीट है, इसे खाली करना पड़ेगा। जब मैंने उसे टिकट दिखाया और कहा कि मेरे पास टिकट है। मेरा बेटा मुझे यहां बैठा कर गया है, तो वह हंसने लगा और बोला आजकल के बेटे भी न …..।  मां जी! आपकी टिकट जनरल डिब्बे की है। आप सीट खाली कर दो वरना भारी जुर्माना देना पड़ेगा। बिटिया मैं क्या करती? मैं नीचे लेट गई।

गीता के मुंह से निकला- ओह ! हद हो गई। ऐसे भी बेटे होते हैं क्या। जब कनफर्म टिकट होता, तभी भेजते मां को।

मालती ने कहा, बिटिया, जब अपने बच्चे ही नहीं पूछते तब हम बूढ़े लोगों की तो ऐसी ही दुर्गति होती है। बड़ा बेटा विनोद मुझे अपने पास छह महीने रखता है और छह महीने छोटा बेटा अरुण। बड़े बेटे के पास छह महीने पूरे हो चुके थे। बहू रोज ताने दे रही थी। कब तक हमारी छाती पर मूंग दलोगी जाती क्यों नहीं हो। इसलिए बेटे विनोद ने मुझे ट्रेन में बैठा दिया। छोटा बेटा दिल्ली स्टेशन पर लेने आ जाएगा।

ट्रेन में तो आपको बैठा दिया, पर बिना स्वेटर, बिना शॉल के। इतनी ठंड पड़ी रही। आपने स्वेटर क्यों नहीं पहना? गीता ने पूछा।

वह बोली, क्या करूं बेटा, मेरा स्वेटर फट गया था। बहू ने कहा, माताजी अब आप तो दिल्ली जा रही हो, वहां बहुत अच्छे स्वेटर मिल जाएंगे। यहां तो महंगे भी हैं। वहीं भैया आपको दिलवा देंगे। मैंने बहू का स्वेटर पहन लिया था। चलते समय उसने वह भी उतरवा लिया। कहने लगी, आप मेरा स्वेटर ले जाएंगी तो मैं क्या पहनूंगी। एक रात की ही तो बात है। दिल्ली जाकर आप अपनी छोटी लाड़ली बहू लीना का स्वेटर पहन लेना।

गीता मालती की बातें सुनकर व्यथित हो गई थी। उसे लग रहा था, आखिर कहां मर गई हैं संवेदनाएं। अपने भी इतने पराए कैसे हो जाते हैं?  आस-पास के यात्री भी उनकी बात सुन रहे थे। उन्हें स्वार्थी बहू बेटों पर बड़ा क्रोध आ रहा था।

ठंड के कारण मालती का शरीर तप रहा था। उसे तेज बुखार हो रहा था। गीता उसे रेलवे के डॉक्टर को दिखाना चाहती थी। पर उसका स्टेशन आने वाला था। उसी दिन उसका टी. वी. पर इंटरव्यू भी था। वह परेशान थी क्या करे? उसके मन की आवाज उसे मालती की सेवा के लिए गाड़ी से उतरने से रोक रही थी, और मस्तिष्क कह रहा था- तुम्हारा इंटरव्यू है, तुम्हें आगरा उतरना ही होगा।

वह बड़े असमंजस में थी कि आखिर क्या करे? उसने अपनी परेशानी सहयात्रियों को बताई। सहयात्री शांत थे। गीता उनका मुंह देख रही थी। उसने डिब्बे में घूम घूमकर पूछा, किसी के पास बुखार की दवाई है क्या?

एक व्यक्ति के पास दवाई मिल गई। गीता ने अपना टिफिन खोला और उस अनजान वृद्धा को बड़े प्रेम से नाश्ता कराया और दवा खिलाई।

मालती की आंखों में प्रेम और खुशी के आंसू छलकने लगे थे। अपने बच्चों के साथ रहकर भी उसे ऐसा प्यार न मिला था। उसने गीता को लाखों आशीष दिए।

आशीष पाकर गीता का मन गदगद हो गया था।

वह सोच रही थी क्या करूं, क्या न करूं, तभी गीता की बगल वाली सीट पर बैठी महिला भव्या ने कहा, गीता जी, आप निश्चिंत होकर आगरा उतर जाना। इन माताजी का ध्यान मैं रख लूंगी।

यह सुनकर गीता को शांति मिली। थोड़ी देर में स्टेशन आ गया।

मालती गीता को शॉल उतारकर देते हुए बोली, बेटा, अपना शॉल लेती जाओ।

गीता ने कहा, नहीं, आंटी आप इसे अपने पास रखिए। इसकी आपको ज्यादा जरूरत है।

मालती ने गीता का हाथ पकड़ लिया और कहने लगी, तुम तो साक्षात मैया का रूप लेकर मेरी सहायता के लिए आई हो। बहुत-बहुत आभार बिटिया तुम्हारा।

गीता ट्रेन से उतरते हुए अन्य यात्रियों से बोली, प्लीज मालती आंटी का आप लोग ध्यान रखिए। आदमी ही आदमी के काम आता है। एक सहयात्री युवक नितिन ने कहा, दीदी, आप चिंता मत करिए मैं दिल्ली जा रहा हूं। मैं इनका ध्यान रखूंगा। स्टेशन पर इनके बेटे से मिलकर इन्हें उनके साथ भेज दूंगा।

उस युवक नितिन की बात सुनकर गीता को बहुत अच्छा लगा। वह आगरा स्टेशन पर उतर गयी। किन्तु उसका मन उस वृद्धा की ओर ही था। ट्रेन मंद गति से चलने लगी थी। उसने ट्रेन में झांक कर पुनः उस वृद्ध, बीमार मालती पर दृष्टि डाली। कुछ लोग उसकी सहायता के लिए आगे आ गये थे। गीता को संतुष्टि हुई कि उसकी पहल ने लोगों के दिल में संवेदना जगा दी। लोग उसकी सहायता कर रहे थे।

गीता के उतरने के बाद भव्या और नितिन ने मालती की जिम्मेदारी संभाल ली। दवाई खाने के बाद मालती को कुछ आराम मिल गया था। जहां घर में उसे सारे दिन जली कटी बातें सुननी पड़तीं, वहीं अनजान लोगों के प्रेम और सहानुभूति ने उसके मन में जीवन का संचार कर दिया था। उसे लग रहा था कि दुनिया में सब बुरे नहीं होते। अच्छे लोगों की भी कमी नहीं है। वह निश्चिंत होकर सो गई।

ट्रेन अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रही थी। न्यू दिल्ली स्टेशन आने वाला था। भव्या और नितिन ने अपना- अपना समान पैक कर लिया था। भव्या ने वृद्धा को बड़े प्यार से उठाते हुए कहा, माताजी, उठिए न्यू दिल्ली स्टेशन आने वाला है। वृद्धा उठी और बोली, बिटिया, मुझे बाथरूम जाना है। भव्या उसे बाथरूम लेकर गई। बाथरूम से आकर मालती ने अपना बैग नितिन को दिखाते हुए कहा यह मेरा बैग है बेटा। नितिन ने मालती का बैग उठाया और अपने सामान के साथ रख लिया।

अचानक स्टेशन का शोर सुनाई देने लगा था। न्यू दिल्ली स्टेशन आ चुका था। सभी यात्री अपना सामान लेकर दरवाजे की ओर बढ़ने लगे। नितिन और भव्या भी मालती को लेकर सामान के साथ नीचे उतर आए। सबको मालती के बेटे अरुण का इंतजार था। भव्या और नितिन की निगाहें मालती की ओर थीं, कि कब वह संकेत देगी कि मेरा बेटा अरुण आ गया। धीरे-धीरे सभी यात्री उतरकर अपनी मंजिल की ओर बढ़ गए। बीस मिनिट बीत गए पर अरुण नहीं आया। भव्या और नितिन परेशान थे कि अब क्या करें? मालती भी घबरा रही थी। बेसहारा अब वह कहां जायेगी? अब उसका क्या होगा?

भव्या ने कहा, माताजी, अपने बेटे अरुण का फोन नंबर दीजिये।

मालती ने पर्स में से एक कागज निकाला, जिस पर उसके बेटे का  फोन नंबर और पता लिखा था।

भव्या ने अरुण को फोन मिलाया, पर उधर से आवाज आई – दिस नंबर इस करेंटली स्वीचड ऑफ। बार- बार फोन मिलाने पर भी उसे निराशा ही मिल रही थी।

नितिन ने भव्या से कहा, दीदी, अब क्या करें। इनका बेटा तो आ भी नहीं रहा है और न ही फोन उठा रहा है। इनको ऐसे स्टेशन पर तो नहीं छोड़ सकते।

स्थिति गंभीर होती जा रही थी। भव्या ने कहा, थोड़ी देर और देखते हैं।

वे लोग वहीं बेंच पर बैठ गए। इंतजार में एक-एक पल एक-एक घंटे के बराबर लग रहा था। बार-बार दोनों की नजर घड़ी पर ही थी। मालती तो रोने ही लगी थी। उसे अपने बेटे अरुण से ऐसी आशा न थी। वह तो उसका लाड़ला बेटा था, जो उसके बिना पल भर भी न रहता था, जिसके पालन-पोषण में उसने जीवन के स्वर्णिम पलों को लगाया था, जिसकी खातिर उसने अध्यापन के जॉब को भी छोड़ दिया था।

जब बहुत देर हो गई तो भव्या ने उसके पते को ध्यान से पढ़ा। उसने नितिन से कहा, नितिन मुझे साकेत जाना है। आंटी के बेटे का घर साकेत से आगे ही है। चलो, मैं इन्हें इनके घर ही छोड़ दूंगी। तुम भी जाओ, आखिर कब तक बैठे रहोगे। तुम्हें भी तो काफी दूर जाना है।

सामान लेकर वे लोग स्टेशन से बाहर आए और टैक्सी से अपनी-अपनी मंजिल की ओर चल दिये। सबकी मनः स्थिति अलग-अलग थी। मालती डरी सहमी सी थी। उसे अपना भविष्य खतरे में लग रहा था। बेटों की उपेक्षा ने उसके जीवन को नर्क बना दिया था। उसका हृदय चूर-चूर हो गया था। दुनियादारी और रिश्तों से उसका विश्वास उठ गया था। भव्या सोच रही थी कि कैसे इन्हें इनके घर पहुंचाऊं। अगर घर में कोई नहीं मिला तो क्या करूंगी। कहीं बैठे बिठाये कोई मुसीबत न मोल ले लूं। नितिन अपने काम के विषय में सोच आगे बढ़ चुका था।

भव्या ने टैक्सी ड्राइवर को मालती का पता दिखाया। ईश्वर की कृपा से घर ढूंढने में अधिक परेशानी नहीं हुई। भव्या ने मालती का बैग उतारा और टैक्सी को रुकने के लिए कहा।

जैसे ही भव्या और मालती ने घर पहुंचकर घंटी बजाई, अरुण बाहर आया और बड़े आश्चर्य से बोला, अरे मां आप !

मालती तो अपने बेटे से चिपककर रोने लगी। भव्या सब कुछ आश्चर्य से देख रही थी।

भव्या ने कहा, आप माताजी को स्टेशन लेने क्यों नहीं आए?

मुझे तो मां के आने की कोई सूचना ही नहीं थी। अरुण ने कहा।

मालती ने कहा, सूचना कैसे नहीं थी। विनोद ने मेरे सामने लीना से कहा था कि मां को ट्रेन में बैठा रहा हूं। उन्हें स्टेशन पर लेने आ जाना।

विनोद का पारा हाई हो गया, उसे अपनी पत्नी पर बहुत क्रोध आ रहा था। उसने लीना को बुलाया और डांटने लगा।

लीना, तुम्हें मां का यहां आना अच्छा नहीं लगता, यह तो मैं जानता था, पर तुम निष्ठुर होकर इतनी गिरी हुई हरकत कर सकती हो, यह नहीं जानता था। अगर आज ये बहन जी मां को घर न लाई होतीं, तो पता नहीं क्या होता।

भव्या ने कहा, हमने आपको कितने फोन किए, पर आपने फोन का भी कोई उत्तर नहीं दिया।

अरुण ने अपना मोबाइल देखा तो स्वीच्ड ऑफ था। वह लीना की मक्कारी समझ गया था। क्रोध में बोला, हद हो गई लीना! तुम ऐसा भी कर सकती हो, यह तो मेरी कल्पना के बाहर था।

मालती ने ट्रेन का पूरा किस्सा उन लोगों को सुनाया और बताया, आज मैं अगर जिंदा हूं तो ट्रेन के अपरिचित साथियों की कृपा और सहयोग से ही। अजनबी होते हुए भी उन्होंने मेरी इतनी सेवा की। वरना अपने कहलाए जाने वाले लोगों ने तो मुझे मरने के लिए ही छोड़ दिया था। देखो, भव्या बिटिया मुझ अनजान के लिए अपने सारे काम छोड़कर यहां तक आई है। जीती रहो बिटिया। तुम्हारे जैसे पुण्यात्मा लोगों के कारण ही यह दुनिया चल रही है।

भव्या सारी स्थिति समझ चुकी थी, वह मन ही मन सोच रही थी, ‘रहिमन या संसार में भांति-भांति के लोग।’ एक गीता थी, जो अपरिचित के लिए अपना इंटरव्यू छोड़ने को तैयार थी और एक ये पुत्रवधु है।

अरुण ने कहा, भव्या जी, हम आपके बहुत-बहुत आभारी हैं। आपके कारण ही मां सकुशल घर आ सकीं वरना मैं बड़े भाई को क्या मुंह दिखाता।

अरुण जी, आभार तो अपनी जगह ठीक है, पर मैं यह चाहती हूं कि आप लोग माताजी का ध्यान रखें। कैसी विडम्बना है कि एक मां अकेले ही कितने ही बेटों को पाल लेती है, पर कई बेटे होने पर भी वे एक मां की देखभाल नहीं कर पाते। वे मां को भी भार समझकर छह-छह महीने के लिए बांट लेते हैं और मां को खिलाये भोजन तक को जताने से बाज नहीं आते। जब अपना ही खून खोटा निकल जाए, तो मां का जीवन व्यर्थ हो ही जाता है।

अरुण की निगाहें शर्म से झुक गयी थीं।

भव्या ने लीना से कहा, लीना, आज तुमने जो कुछ माताजी के साथ किया, क्या कभी उसका अंजाम सोचा है, या उनके मरने में ही तुम्हारी खुशी है। यह भी सोचो कि यदि तुम्हारी भाभी तुम्हारी मां के साथ ऐसा ही व्यवहार करती, तो तुम्हें कैसा लगता? प्रायः महिलाएं अपनी मां की तो बहुत चिंता करती हैं और चाहती भी हैं कि उनके भाई की पत्नी उनकी खूब सेवा करे। पर जब अपनी सासु मां की बात होती है तो उनका व्यवहार बदल जाता है। आखिर मां तो मां ही होती है न। चाहे अपनी हो या पति की।

सारी बात सुनकर लीना को अपनी गलती का अहसास हो गया था। अरुण और लीना बहुत शर्मिंदा थे। उन्होंने भव्या को लाखों धन्यवाद दिये और मालती ने आशीषों की झड़ी ही लगा दी। वातावरण में सकारात्मकता के पुष्प खिल उठे थे, जिस पर खुशी का भंवरा मंडराने लगा था।

 

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