स्व की आध्यात्मिकता से राष्ट्रीय एकात्मकता और अखंडता आयेगी – डॉ. मोहन भागवत जी

हम स्वाधीन हुये लेकिन अभी भी हम स्वतंत्र होने की प्रक्रिया में हैं।  इस स्वाधीनता के लिये सभी वर्ग क्षेत्र समाज के लोगों ने त्याग व् बलिदान दिया और स्वाधीनता को लेकर सबके मन  में समान भाव था. जो बातें कुंद्रा डिक्लेरेशन में सन 1830 में कही गई थी वही बातें बहुत बाद में नमक सत्याग्रह में गांधी जी ने भी कही थी जबकि व्यापक सम्पर्क के साधन नहीं थे।

कालांतर में जब स्व की कल्पना ढीली पड़ी तो हम स्वजनों को भूल गये, आपस के भेद बड़े हो हमें जर्जर कर गये, पंथ प्रान्त जाति भाषा सबका आपसे में भेद हो गया। हमारी विविधता की ही चौड़ी खाइयां बन गई जिससे हजारों मील दूर से मुट्ठी भर आये विदेशियों ने इसका लाभ ले पदाक्रांत कर  हमें बांट दिया।

जिस शत्रुता और अलगाव के कारण हमारा विभाजन हुआ हमें उसकी पुनरावृत्ति नहीं करनी है। अपनी खोई हुई एकात्मकता और अखंडता को वापस लाने के लिए हमें उस इतिहास को जानना चाहिए विशेषकर नई पीढ़ी को ताकि पुनरावृत्ति ना हो. हमने जो खोया है वह वापस मिले और बिछड़े हुये को वापस गले लगा सके, और इस एकात्मकता और अखंडता की को पाने की पहली शर्त होगी  भेदरहित समतामूलक समाज।

हमें अपने मूल “स्व” को पकड़ कर चलना है| स्वजनों के प्रति आत्मीयतापूर्ण व्यवहार रखना है।  हमारे यहां जातिगत विषमता की समस्या बहुत पुरानी है, लेकिन चलाने वाले के मन में अगर समता है तो व्यवस्था समता की पोषक होती है, विषमता की व्यवस्था तो अप्राकृतिक है यह तो जायेगी ही  व्यवस्था तो बदल जाएगी लेकिन हमारा मन बदलना चाहिए।  भेद का भाव मन में रखने से वह  वचन कर्म  वाणी विचार और व्यवस्था में प्रकट होती है इसलिए व्यवस्था के साथ साथ मन को बदलने का प्रयास होनी चाहिये जिसका प्रयास संघ के लोग करते हैं।

हर प्रसंग पर बोलते समय हमें राह दिखाने , समाज जोड़ने प्रेम बढ़ाने वाले सकारात्मक संवाद करना चाहिये और संघ का सामाजिक समरसता मंच इसी पर काम कर रहा है। सनातन संस्कृति में बहुत से पर्व एकात्मकता का आधार मजबूत बनाते हैं|  इसे मजबूत रखने के लिये आपस में मेलजोल ,पर्व त्योहारों पर परिवार सहित आना जाना, समाज के विभिन्न वर्गो में अनौपचारिक पारिवारिक सम्बन्ध विकसित करने पड़ेंगे।

भेद रहित समता दृष्टि समाज स्वातंत्र्य के टिकने की गारंटी और राष्ट्र के एकात्मता का अधिष्ठान है। अखंडता और एकात्मकता की जो ये श्रद्धा है ये कोई नई बात नहीं है ये सनातन है. गुरु तेगबहादुर का बलिदान एकात्मकता और अखंडता की परंपरा को अक्षुण्ण रखने के लिए ही हुआ था ,उन्होंने अपना सर दे दिया लेकिन भारत के सनातन संस्कृति  का सार नहीं दिया।

हमारी स्वतंत्रता की कल्पना वसुधैव कुटुंबकम है जिसमें सब सुखी हों। अर्थ काम को नियंत्रण में रख  मोक्ष की तरफ ले जाने और  साधने वाले धर्म हिंदू धर्म का जन्म हमारे यहां हुआ।  हमारे इस धर्म की अनुभूति अध्यात्म आधारित और स्वतंत्रता की  कल्पना आध्यात्मिक है जिसमें दुष्टो का टेढ़ापन जाये प्राणीयों  में परस्पर सौहार्द्र आत्मीयता का सम्बन्ध, सबके संकट दूर हो सब अपने अपने स्वधर्म को अनुभूत कर स्व धर्म पर चले तब प्राणीजात सुखी हों जैसी कल्पना की गई है । हमारे स्व की कल्पना का आधार आध्यात्मिक, परस्पर व्यवहार, संतुलित व आत्मीय व्यवहार है जिसे हम धर्म कहते हैं जिसके उदय से सब सुखी होते हैं। सावरकर जी ने भी  कहा था कि जब हिन्दू समाज खड़ा होगा  तो गीता की ही बात करेगा, वसुधैव कुटुंबकम की बात करेगा । हिन्दू समाज किसी को पराया मानता ही नहीं. ऐसी आध्यात्मिक राष्ट्रीयता के स्व  के उदय से विश्व के झगडे समाप्त होंगे और खोया हुआ संतुलन वापस आएगा, जिनकी दुकानें मनुष्य के  कलहों और उनके असंतुलन पर चलती हैं उनकी दुकान बंद हो जाएगी। बांटने वालों का काम है स्थूल और सूक्ष्म सांस्कृतिक आक्रमण करना, भारत के जीवन, धर्म, परपराओं, इतिहास, वर्तमान की व्यवस्थाओं,सबकी निंदा करना। भारतीयों  के मन में खुद स्वयं के बारे में अश्रद्धा उत्पन्न करना लेकिन दुनिया जानती है जिसका मूल्य ईतने लम्बे समय से मनुष्य जीवन को स्थिरता व सुख देते हुये  उन्हें टूटने और अधोपतन से बचा रहा है.

निमित्त और असंतोष तो मिलता ही रहता है इतने बड़े देश में, छोटी बातों को बड़ा कर बताना लोगों में असंतोष ,कलह और आतंक का वातावरण उत्पन्न कर देश में अराजकता उत्पन्न हो ऐसा प्रयास चलता रहता है, समाज को ही बचना पड़ेगा इन सब से. अनियंत्रित ओटीटी, अनियंत्रित बिट कॉइन जैसी करेंसी , नशीली पदार्थों की आदते बढ़ रही हैं, ऐसे व्यापार का पैसा देश विरोधी कामों और सीमापार  देशों को जाता है।  इस पर शासन को ध्यान देना पड़ेगा लेकिन पहले हमें मन का ब्रेक लगाना पड़ेगा। संस्कार की शुरुआत घर से होती है इसीलिए कुटुंब प्रबोधन की गतिविधि हमारे स्वयंसेवक चलाते हैं।  स्वभाषा स्वभूषा अपना भजन भवन भ्रमण भोजन हस्ताक्षर तक स्व आधारित है की नहीं सब देखना पड़ेगा। जहाँ विदेशी जरुरी है करें लेकिन जहाँ टाल सकते हैं उसे टालें। चिंतन करें देश समाज के लिए आप  क्या करते हैं  कितना खर्च करते हैं  ऐसे छोटे छोटे संकल्प से संस्कार निर्माण हेतु  संघ की गतिविधि चलती है।

कोरोना के बाद आज आर्थिक क्षेत्र में आत्मविश्वास दिखता है। सभी वर्गों ने जो राम की पूजा करने वाले नहीं भी  थे उन्होंने भी राम मंदिर चंदा संग्रह में धन दिया है जो बताता है कि स्व के बारे में अपने समाज की प्रवृत्ति निश्चित रूप से बढ़ी है।  समाज में उत्साह प्रकट हो रहा है ओलम्पिक पैरा ओलम्पिक में इसका परिणाम दिख रहा है, देश के लिए कुछ कर  गुजरने की प्रवृत्ति बनी है. कोरोना स्व के चिंतन के लिए अवसर भी बना जैसे स्व-आधारित सुलभ और सस्ती चिकित्सा व्यवस्था जैसे आयुर्वेद , आयुर्वेद के साथ सबको अपने अपने पैथियों का अभिमान हो अहंकार नहीं और उनमें समन्वय कर सबको सुलभ हो सके ऐसी चिकित्सा व्यवस्था करना है।  प्राथमिक चिकित्सा अपने गाँव में ही हो जिला कमिश्नरी कसबे में बड़े और विशेषज्ञ हस्पताल रहें, ऐसा समग्र स्व के आधार पर सोचते हैं तो सबको सुलभ और सस्ती चिकत्सा हो सकती है. इसके लिये स्वास्थ्य के साथ स्वच्छता में भी स्व का ख्याल ,अपने मोहल्ले की स्वच्छता जहाँ कोई ना देखता हो वहां की भी स्वच्छता , जीवन शैली और भोजन प्रकृति से मेल खाती,  पानी का मर्यादित उपयोग  हो, सिंगल यूज प्लास्टिक बंद , हरियाली बढे जैसी  गतिविधि स्वयंसेवक चलाते हैं।

कोरोना काल में हमें पता चला हम कितना फालतू खर्च  करते हैं, अपनी इस सुधरी आदत को फिर से नहीं बिगाड़ना है अपव्ययी नहीं मितव्ययी बनना है। विश्व प्रचलित  इकॉनमी के कारण बहुत सी समस्याएं खड़ी हैं उसका उत्तर उनके पास नहीं है और सभी देशों में अंतर्मुखी हो विचार चल रहा है कि तीसरा रास्ता क्या  हो, वह रास्ता हम दे सकते हैं।  हमारी परम्परागत आर्थिक चिंतन की दृष्टि पूर्ण है, स्व के आधार पर चिंतन किया एक शाश्वत सत्य हम पहले से ही बताते हैं।  अर्थशास्त्र को वो मनुष्य की कामना पूर्ती का साधन का शास्त्र  मानते हैं हमारे यहाँ सुख कामना का शास्त्र है. एकांकी सुख हो नहीं सकता इसलिये हमारे यहाँ सबका सुख चाहिये, प्रकृति के सभी अंगो का सुख चाहिये। हम अंदर के सुख की बात करते हैं , अगर अंदर का सुख प्राप्त करेंगे  तो बाहर की वस्तुओं  से  सुख प्राप्त करेंगे। प्रचलित अर्थशास्त्र के अनुसार  साधन सीमित और साध्य असीमित है ऐसे में उपभोग में संयम , बांटकर खाना , स्व-नियंत्रण और संयमपूर्ण उपयोग करना होगा और यही हमारा शास्त्र कहता है।

सबके मालिक हम नहीं भगवान है जिसके लिए जो यथोचित बना है उसे यथोचित मिलेगा । मनुष्य प्राकृतिक और मानव निर्मित धन का स्वामी नहीं उसका  विश्वस्त है उसे दो हाथों से कमाना और  हजार हाथों से बांटना है ऐसे  विचार पर हमारा आर्थिक आधार खड़ा है। वह एकांतिक नहीं सर्वांगीण है उसने मनुष्य को सृष्टि के अंग के रूप में देखा है प्रकृति से जितना लेना उससे ज्यादा वापस करना यह हमारी प्रकृति और प्रवृत्ति है।  हम एकाकी नहीं परिवार की कल्पना करते हैं। कृषि व्यापार उद्योग की आपस में श्रेष्ठता की लड़ाई नहीं परिवार मानकर चलना पड़ेगा।। उद्योग चलेगा तो मजदूर से लगायत व्यापारी ग्राहक  सबका काम चलेगा। ऐसे आर्थिक विचार कि देशकाल के परिस्थिति के हिसाब से क्या सुसंगत हो सकता है उसे अपनाना पड़ेगा।

हमारा प्रदीर्घ जीवन है ईस्वी सन एक से सत्रहवीं सदी तक हम दुनिया में सर्वाधिक समर्थ आर्थिक देश थे इतने लम्बे आर्थिक अनुभव का जो शाश्वत तत्व है हमें उसमें कुछ समयानुकूल परिवर्तन उसे अपनाना पड़ेगा. बाहर से भी जो उपयुक्त है उसे लेना पड़ेगा।  स्वदेशी को काल सुसंगत बना विदेशी को देश सुसंगत बना अपने स्व पर आधारित एक नया आर्थिक प्रतिमान सम्पूर्ण दुनिया को देना पड़ेगा।  हमारे स्वातंत्रय में हमारे स्व के प्रकटीकरण का एक स्वाभाविक आविष्कार है जिसकी चिंता हमको करनी पड़ेगी।

आर्थिक चिंतन में जनसँख्या का भी ध्यान रखना होगा, जनसँख्या नीति होनी चहिये लेकिन इस ड्राफ्ट पर  एक बार और विचार करना चाहिए। हमारा युवाओं का देश है ५६-५७ % युवा  ३० साल बाद बूढ़े होंगे उन्हें भी सहारा चाहिये, हमारा पर्यावरण हमारी  मातायें  कितनी सक्षम व प्रबुद्ध होंगी आदि आदि, ५० साल  आगे तक का विचार कर नीति बनाना पड़ेगा और इसे समान रूप से लागू करना पड़ेगा क्यों की जनसँख्या के साथ उसका असंतुलन भी समस्या पैदा कर रहा है। घुसपैठ, मतांतरण और खासकर के सीमावर्ती क्षेत्रों में जनसँख्या असंतुलन है. जनसँख्या नीति बने तो सब पर समान रूप से लागू हो। सीमा पार से भी खतरा है,  तालिबान मान लो बदल भी गया जैसा वो बोलता है लेकिन क्या पाकिस्तान बदल गया ?  क्या चीन बदल गया ? चीजें बातचीत से हल हो सकती हैं इसको मानते हुये भी अपनी सावधानी तैयारी पूर्ण रख सजग और अपनी सीमा सुरक्षा और चाकचौबंद रखने की आवश्यकता है। जम्मू कश्मीर में देखिये जनसामान्य को ३७० हटाने का लाभ हो रहा है, कश्मीर के मन में भाव विकिसत करना पड़ेगा की भारत हमारा है और हमें मन से एक होना है। ऐसी राष्टीयता आध्यात्मिकता एकात्मकता अखंडता के लिये हिन्दू समाज को आगे आना पड़ेगा कुछ करना पड़ेगा।

हिन्दू समाज के अपने भी कुछ प्रश्न हैं।  हिन्दू समाज के मंदिरों की स्थिति अच्छी नहीं है देश के हर भाग में व्यवस्था  अलग अलग  है|देश में भी कुछ  मंदिर सरकार के अधीन और कुछ भक्तों के अधीन हैं जो समाज की कई प्रकार  से सेवा कर रहें हैं. जहाँ अच्छी व्यवस्था नहीं है वहां लूट चल रहा है जबकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है की मंदिर के मालिक भगवान् हैं  पुजारी केवल व्यवस्थापक है सरकार व्यवस्था करने के लिए कुछ समय के लिए ले सकती है तीन साल चार साल। मंदिर को समाज के जीवन के केंद्र के रूप में चलाने हेतु हिन्दू समाज को इसके लिये जगाना पड़ेगा।

हमारे देश का स्व आध्यात्मिक है जिसमें अनेकों पूजा समाई जा सकती हैं. देश को सही अर्थों में वह समाज चलाता है जो स्व की  छोटी पहचानों के संकुचित अहंकार को भूलकर उनको स्वीकार करता, सम्मान और आदर ,सबको  विकास का समान अवसर देता है, अतः हमें  छोटी पहचानों के संकुचित अहंकार में फंसना नहीं उससे बड़ा हम सब एक समाज है भारत हमारी भारत भूमि है ऐसा दर्शन रखना है और यही हमारा दर्शन है|इसलिए हमारा देश का आधार  नेशन स्टेट नहीं जनपदवती भूमि है । जनपद मतलब समाज, समाज मतलब  समान लक्ष्य और परस्पर आत्मीयता, एक मातृभूमि को मानकर आगे बढ़ने वाला समूह

भारत सभी व्यवस्थाओं में विविधताओं को लेकर चलने वाला एक राष्ट्र रहा है जिसका स्व है सभी विविधताओं और उपासना का स्वीकार सम्मान। भारत उपासना आक्रमणकारियों के साथ और  शरणार्थियों के साथ आई लेकिन वो इतिहास हो गया उन आक्रमको के साथ नाता नहीं है किसी का। सब हिन्दू पूर्वजों के वंश है जो अपनी विविधता को ही एकता का अविष्कार मानकर सबका स्वीकार सम्मान और सब प्रेम व् आदर से एक साथ रहते थे यह भारत वर्ष सबकी मातृभूमि है और इसके सिवाय कहीं गति नहीं है किसी को. सबको अपना मान मनुष्य में मनुष्यत्व को जागृत करने वाली उस भारतीय  संस्कृति को मानकर सबको चलना चाहिए। इसमें किसी को पूजा भाषा कुछ नहीं छोड़ना पड़ता अपना कट्टरपन , मन के अलगाव की भावना, छोटी पहचानों का अनुचित अहंकार छोड़ना पड़ता है इसमें उसका गौरव प्रतिष्ठा स्वीकार सम्मान सब सुरक्षित रहता है .

राष्ट्रवासीयों द्वारा इस आवाहन के स्वीकारने से ही भारत की एकात्मक अखंडता वापस आएगी यही इमोशनल इंटीग्रेशन है जिसका आवाहन और दिग्दर्शन अपने संविधान ने किया है. और यह सार लोग तब समझेंगे जब हिन्दू समाज ऐसा कर दिखायेगा।  हमारी संस्कृति तो सबको अपनाती है है अपने छोटे छोटे अहंकार को छोड़कर सबको अपनाने की नीयत रखें।  हिन्दू समाज को अपने भेद भूलकर संगठित और शक्ति संपन्न होना होगा।  यह  सामर्थ्य प्रतिकार का हो और इसका उपयोग दुर्बलों की रक्षा में हो हम इस अर्थ में हिन्दू हैं यह सबको समझाना पड़ेगा । इतिहास को विद्वेष बढे इसलिए नहीं सुनना है इसलिए सुनना है की सबक लेकर विद्वेष ना बढे , अपनी विविधता को एकता का श्रृंगार बना दुनिया को उदाहरण देना है.

 

Leave a Reply