भगवान श्री दत्तात्रेय एवं उनके अवतार

भगवान श्री दत्तात्रेय का नाम आते ही    आंखों के सामने उनका तीन सिर एवं छः हाथों वाला चेहरा आ जाता है। भक्तों पर असीम कृपा एवं करूणामय दृष्टि रखने वाले श्री दत्तात्रेय के विषय में महाराष्ट्र के बाहर एवं मराठी भाषिक लोगों को छोड़ कर सीमित जानकारी है। भगवान श्री दत्तात्रेय पर अगाध श्रध्दा रखने वाले भी यह कम ही जानते हैं कि भगवान श्री दत्तात्रेय की लीलाएं उनके मूल रूप द्वारा न की जाकर अवतार कार्यों के माध्यम से की गई हैं।

भगवान दत्तात्रेय की जन्मकथा तो सर्वश्रुत है। मध्याह्न समय में त्रिदेव अर्थात ब्रह्मा-विष्णु-महेश महान पतिव्रता अनुसुया के आश्रम में भिक्षा मांगने गए। अनुसुया के पति महर्षि अत्रि आश्रम में नहीं थे। त्रिदेव का उद्ेश्य ही पतिव्रता अनुसुया का पतिव्रत्य भंग करना था। परंतु सती अनुसुया के पातिव्रत्य के आगे तीनों को नतमस्तक होना पड़ा। उनकी यह इच्छा कि अनुसुया उन्हें नग्न होकर भोजन परोसे पूर्ण नहीं हो पाती, उलटे अनुसुया के पातिव्रत्य के कारण तीनों देवता शिशु रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। तब वह उन्हें गोदी में लेकर दुलार करती है। महर्षि अत्रि उसी समय आश्रम में वापस आकर देखते हैं कि अनुसुया लोरी गा रही है। वे चकित होकर पत्नी से पूछते हैं एवं सारा हाल जानकर निश्चिंत होकर सोचते हैं कि यह प्रभु की लीला है। पृथ्वी पर अवतार कार्य हेतु प्रभु ने ही यह सब मायाजाल निर्मित किया है। उसी समय अपना अपना अंश उन बाल रूपों में छोड़कर त्रिदेव प्रगट होते हैं एवं (अत्रि-अनुसुया) पति-पत्नी को आशीर्वाद देते हुए वर मांगने को कहते हैं। वे दोनों प्रभु से कहते हैं कि आप तीनों इसी शिशु रूप में हमारे पुत्र होकर रहें। त्रिदेव उन्हें आशीर्वाद देकर अपने-अपने लोक में चले जाते हैं। यथासमय तीनों का नामकरण होता है। ब्रह्मा रूप का नाम चंद्र, विष्णु रूप का दत्त एवं महेश रूप का दुर्वासा नाम रखा जाता है। बाद में चंद्र एवं दुर्वासा माता-पिता से कहते हैं कि हमारा अंश दत्त में रहेगा। हम तपस्या करने हेतु जा रहे हैं। इस प्रकार चूंकि भगवान दत्त में तीनों रूपों का अंश है; अतः तीन मुखों वाले श्री दत्तात्रेय की कल्पना की गई। देश में फैले हुए तमाम दत्त मंदिरों में इसी प्रकार की प्रतिमा देखने मिलती है एवं उपासक इसी मूर्ति की आराधना करते हैं। वैसे कुछ स्थानों जैसे माहूर (महाराष्ट्र) एवं होशंगाबाद (मध्यप्रदेश) में एकमुखी दत्त की प्रतिमा वाले मंदिर भी हैं। महाराष्ट्र के प्रसिध्द संत व दत्तभक्त प.शं.वासुदेवानंद सरस्वती (टेंभे स्वामी) ने होशंगाबाद के मंदीर परिसर में तपस्या की थी। यह शिलालेख भी वहां लगा है।

परंतु भगवान दत्तात्रेय ने उस रूप में कोई लीला की हो ऐसा विशेष उल्लेख नहीं मिलता। मानव रूप में उनकी सभी लीलाएं प्रमुखतः बाद में उनके तीन अवतारों, क्रमशः श्रीपाद श्रीवल्लभ, नृसिंह सरस्वती एवं स्वामी समर्थ, में देखने को मिलती हैं।

पीठापुर के प्रसिध्द विद्वान एवं भविष्यवक्ता श्री बापन्नाचार्य, जो बाद में श्रीपाद श्रीवल्लभ के नाना कहलाए, को एक पुत्री एवं एक पुत्र थे। पुत्री सुमति को उसकी महारानी जैसी चाल के कारण बचपन से ही सुमति महारानी कहा जाता था। उनके यहां कई विद्यार्थी वेदों की शिक्षा ग्रहण करने हेतु आते थे। ऐसे ही एक विद्यार्थी थे अप्पलराज। उनके माता-पिता की मृत्यु बचपन में ही हो गई थी। उनके यहां एक दत्त मूर्ति थी, जिसे कालाग्नी दत्त कहा जाता था। पूजा होने के उपरांत वह मूर्ति अप्पलराज से बात करती थी। उस मूर्ति की आज्ञा से अप्पलराज वेदों की शिक्षा ग्रहण करने हेतु श्री बापन्नाचार्य के यहां गए। उस समय बापन्नाचार्य ने उनके रहने-खाने की सारी व्यवस्था की थी। अप्पलराज बहुत बुध्दिमान व स्वाभिमानी थे। बापन्नाचार्य के यहां शिव आराधना होती थी। एक बार शिव पूजा हेतु वहां के प्रसिध्द कुक्कुटेश्वर शिवलिंग मंदिर में जाने पर लिंग से देववाणी हुई कि बापन्नाचार्य को अप्पलराज एवं सुमति का विवाह कर देना चाहिए। देववाणी का स्वीकार कर बापन्नाचार्य ने दोनों को विवाहसूत्र में बांध दिया।

 महालय अमावस्या के दिन दोपहर के समय एक अवधूत ने अप्पलराज के घर ‘‘भवति-भिक्षां देही’’ की पुकार लगाई। भिक्षा देने के बाद उसने सुमति से कुछ मांगने को कहा। सुमति ने कहा कि मैं चाहती हूं कि भगवान दत्तात्रेय मेरे गर्भ से अवतार लें। वास्तव में वे अवधूत और कोई नहीं भगवान दत्तात्रेय ही थे। उन्होंने प्रसन्न होकर कहा कि मेरा श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में अवतार तुम्हारे गर्भ से ही होगा। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी (सन १३२०) को सूर्योदय के समय भगवान श्रीपाद श्रीवल्लभ का जन्म हुआ। उनके जन्म के नौ दिन बाद तक उन्हें जहां सुलाया जाता था वहां तीन फन का एक नाग अपने फन फैलाकर उनकी रक्षा करता था। माता के गर्भ से श्रीपाद का जन्म साधारण बालक के समान न होकर ज्योतिस्वरूप हुआ था। उस समय प्रसूति गृह में मंगल वाद्यों की ध्वनि सुनाई दी थी। पवित्र वेद मंत्रों का घोष बाहर सब को सुनाई दे रहा था। श्री बापन्नाचार्य को भी इस अद्भुत घटना से अगाध आश्चर्य हुआ एवं ज्ञानी होते हुए भी उनके लिए यह अनाकलनीय था।

श्रीपाद श्रीवल्लभ ने कुल ३० वर्ष तक अवतार कार्य किया। पहले १४ वर्ष पीठापुर में एवं बाद के १६ वर्ष कर्नाटक में कृष्णा नदी में स्थित टापू कुरवपुर (कुरुगड्डी) में। कहते हैं कि चमत्कार के सिवा नमस्कार नहीं इसलिए मानव रूप में अवतार लेने पर भी श्रीपाद श्रीवल्लभ को कुछ चमत्कार करने पड़े जिससे समाज में उनकी मान्यता हुई। उनके कार्यों में पाखंड़ी साधु दंडीस्वामी का गर्वहरण, वेलप्रभु महाराज का गर्वहरण, रीछ से भक्तों का रक्षण, घमंडी पहलवान को अशक्त व्यक्ति से हरवा कर उसका गर्वहरण, एक साथ तीन जगह प्रगट होकर भक्तों को दर्शन, महाकारी का निर्मूलन, शिवय्या नामक सेवक की ब्रह्मराक्षस के पंजों से मुक्ति इ. प्रसिध्द हैं। अशक्तों, दरिद्र एवं उपेक्षित वर्गों पर उनकी हमेशा कृपादृष्टि रहती थी।

भगवान श्री दत्तात्रेय ने श्रीपाद् श्रीवल्लभ अवतार में तीस वर्ष अवतार कार्य करने के उपरांत अवतार कार्य समाप्त कर गुप्त होने का संकल्प लिया। भक्तों को यह बताकर कि ‘‘मैं नरदेह से भले ही गुप्त हो रहा हूं, परंतु रहूंगा आपके ही बीच’’ वे कृष्णा नदी में गुप्त हो गए। वहां से वह श्री शैल्य पर्वत पर प्रकट हुए एवं उसके बाद कदलीवन में जाते दिखे एवं फिर अदृश्य हो गए। उन्होंने अवतार समाप्ति के पूर्व भक्तों को बताया था कि कुछ काल पश्चात वे कारंजा (महाराष्ट्र) में नृसिंह सरस्वती के नाम से अवतार लेंगे।

कुछ वर्षों के पश्चात पौष शुक्ल द्वितीया को लाड़ कारंजा (महाराष्ट्र) में माधव-अंबा नामक दंपति के यहां एक बालक ने जन्म लिया। जन्म लेते ही बालक ने ओम का उच्चारण किया। उम्र में बालक बड़ा होता गया; परंतु वह कुछ भी नहीं बोलता था, मात्र ओम का उच्चारण ही करता था। सभी लोग आश्चर्यचकित थे। सदा हंसते रहने वाला यह बालक न कुछ मांगता था, न ही रोता था। सात वर्ष का होने पर भी वह नहीं बोला। सबकी बातें समझता था; परंतु पूछने पर ओम का ही उच्चारण करता था। माता-पिता को चिंता हुई। उन्होंने बालक से ही पूछा तो उसने इशारे से बताया कि मेरा उपनयन संस्कार करिये, तब मैं बोलूंगा। नृसिंह सरस्वती नामक इस बालक का जैसे ही ८ वर्ष की आयु में उपनयन संस्कार किया गया, वह चारों वेद बोलने लगा। सभी को यह देख-सुनकर अतीव आश्चर्य हुआ। जैसे-जैसे वह बड़ा होने लगा, उसकी कीर्ति चंहुओर फैलने लगी। सज्जनों, गरीबों, दुःखी प्राणियों के उध्दार में उसका समय व्यतीत होने लगा। माता-पिता की आज्ञा लेकर बालवय में ही वह तीर्थाटन हेतु निकल पड़ा। हिमालय में जाकर तप किया। वहां से पुनः तीर्थयात्रा करते हुए उसने कुछ समय महाराष्ट्र में कृष्णा नदी के किनारे औदुंबर (किलवडी) में वास्तव्य किया। चार मास वहां रहकर एवं वहां अपनी पादुका स्थापित कर उसने स्थानीय लोगों के दुःख दूर किए। एक ब्राह्मण का पुराना पेटदर्द दूर करना, साचदेव नामक भक्त को अभयदान देना, माधव नामक ब्राह्मण को ब्रह्मज्ञान देना, भक्तों को मोक्ष प्राप्ति के लिए धर्माचरण हेतु प्रेरित करता इ. कुछ घटनाएं ऐसी हैं, जो उनके देवत्व का प्रमाण हैं।

भिलवड़ी से प्रयाण कर १२ वर्ष तक वे कृष्णा नदी के तीर पर स्थित अमरापुर ग्राम में, जो अब नृसिंहवाडी या वाड़ी इस नाम से प्रसिध्द है, रहे। वहां पर रोज कृष्णा नदी के दो भाग होकर जलदेवता परिवार सहित बाहर आकर उनकी पूजा करते थे। यह अद्भुत दृश्य एक भक्त ने अपनी आंखों से देखा था। वहां पर भी उन्होंने अपनी पादुकाएं  स्थापित कीं। आज भी नृसिंहवाड़ी एक जागृत देवस्थान के रूप में प्रसिध्द है। वहां जाने वाले भक्तों के मनोरथ आज भी पूर्ण होते हैं।

नृसिंहवाड़ी से प्रयाण कर श्री नृसिंह सरस्वती गाणगापुर (कर्नाटक) में आए एवं अवतार कार्य समाप्त होने तक वहीं रहे। भीमा एवं अमरजा नदी के संगम स्थल के पास स्थित गाणगापुर आज भी दत्तभक्तों का तीर्थक्षेत्र है। यहां पर उन्होंने कई लीलाएं कीं। सभी जाति-वर्ण के लोग उनके भक्त-अनुयाई थे। तीन लोगों के भोजन करने लायक अनाज में चार सहस्त्र लोगों को भोजन कराना, बांझ भैंस का दूध निकालना, दरिद्र ब्राह्मण को सोने की मोहरों से भरा घडा प्राप्त करवाना, बुनकर भक्त को शिवरात्रि के दिन ही श्री शैल्य पर्वत का दर्शन कराना इत्यादि जैसी कई लीलाएं उन पर लिखित ग्रंथ ‘‘गुरुचरित्र’’ में वर्णित हैं। अपनी मूल पादुकाओं को वहां भक्तों को भेंट देकर एवं उनको वहां स्थापित कर उन्होंने गाणगापुर से श्री शैल्य पर्वत हेतु प्रयाण किया। यहां से कृष्णा नदी से होते हुए वे कर्दलीवन में अदृश्य हो गए।

अपने प्रथम अवतार श्रीपाद श्रीवल्लभ रुप में ही भगवान दत्तात्रेय ने अपने होने वाले अन्य दोनों अवतारों की भविष्यवाणी की थी। उसके अनुसार अपने तीसरे अवतार श्री स्वामी समर्थ के रूप में वे प्रकट हुए। कर्दलीवन में समाधि के दौरान उनके चारों ओर दीमक ने अपनी बॉंबी बना ली थी। जंगल में लकड़ी तोड़ने आए एक लकड़हारे की कुल्हाड़ी लगने से उसमें से खून बहने लगा। लकड़हारा घबरा गया। उसी समय उसमें से स्वामी समर्थ का अवतार प्रगट हुआ। ‘श्री स्वामी समर्थ लीलामृत’ नामक ग्रंथ में हिमालय की एक कथा का जिक्र है। हिरण के बच्चे को मारने के लिए एक शिकारी उसके पीछे दौड़ रहा था। हिरण के बच्चे ने भाग कर वहां तपश्चर्या कर रहे एक यति की शरण ली। वे यति और कोई नहीं स्वामी समर्थ ही थे। श्री स्वामी समर्थ अक्कलकोट में सन १८५७ के प्रारंभ में आए। वे पहले मंगलवेढ़ा (महाराष्ट्र) नामक स्थान पर प्रसिध्द हुए। वहां से वे सोलापुर आए। बाद में उनका आगमन अक्कलकोट में हुआ। २१ वर्ष अर्थात सन १८७८ तक अक्कलकोट ही उनकी लीलाभूमि रही। सूदूर काशी, रामेश्वर से भी हजारों लोग उनके दर्शन हेतु आए तथा पुनीत हो गए। उनका प्रत्येक शब्द व प्रत्येक कृति चमत्कारिक थी। रोज सैकड़ों चमत्कार होते थे। यदि उस समय कोई उन चमत्कारों को लिख लेता तो एक बहुत बड़े ग्रंथ की रचना हो सकती थी। परंतु उनकी समग्र लीला किसी से लिखते नहीं बनी, क्योंकि प्रति क्षण उसमें नया चमत्कार नजर आता था। जब श्री स्वामी समर्थ प्रगट हुए, उस समय उनकी उम्र ४०० से ५०० वर्ष थी ऐसा कहा जाता है; परंतु उनके उम्र से सम्बंधित निश्चित तौर पर कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। एक बार किसी भक्त के पूछने पर उन्होंने अपना नाम ‘‘नृसिंहभान’’ बताया था एवं कहा था कि आगे से उनसे यह न पूछा जाए। सन १८७८ में अक्कलकोट में ही श्री स्वामी समर्थ ने समाधि ली।

कथा विस्तार के भय से तीनों अवतारों की असंख्य लीलाओं का वर्णन संभव नहीं है। श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत, श्री गुरुचरित्र एवं श्री गुरुलीलामृत इन ग्रंथों में इन तीनों चरित्रों का क्रमशः पूर्ण वर्णन मिलता है। भगवान श्री दत्तात्रेय संपूर्ण प्राणीमात्र का कल्याण करें, इस बिनती के साथ अपनी लेखनी को पूर्ण विराम देता हूं।

 

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