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जलवायु परिवर्तन परिषद परिणाम नेट जीरो ?

जलवायु परिवर्तन परिषद परिणाम नेट जीरो ?

by अमोल पेडणेकर
in जनवरी- २०२२, पर्यावरण, विशेष, सामाजिक
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  इस परिषद में पर्यावरणविदों को एक नया शब्द मिला है, नेट जीरो। इसकी संकल्प पूर्ति के लिए आधी सदी शेष है। यूरोप का ‘नेट जीरो’ लक्ष्य 2050 है तो चीन का 2060 अपेक्षित है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सन 2070 तक ‘नेट जीरो’ के रूप में कार्बन मुक्त करने का उद्देश्य सामने रखा है। नेटजीरो की संकल्पना क्या वास्तविकता में परिवर्तित हो सकती है? या यह मात्र स्वप्न देखने जैसा ही रहेगा? इस पर भी चर्चा हो रही है। 

ग्लास्गो (स्कॉटलैंड) में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जलवायु परिवर्तन पर चर्चा हेतु ’काप 26’ परिषद का आयोजन किया गया था। इस परिषद में 120 देशों के नेताओं सहित करीब 25000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस परिषद में 15 दिन तक इस बात पर चर्चा होती रही कि वैश्विक तापमान में वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न हो। यह परिषद जब चल रही थी उसी समय अंतरराष्ट्रीय संस्था ’क्लाइमेट एक्शन ट्रैक’ ने अनुमान व्यक्त किया था कि इस सदी के अंत तक पृथ्वी के तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस से अधिक की वृद्धि हो सकती है। परिषद के जारी रहने के दौरान ही चेन्नई जैसे शहर में अभूतपूर्व अतिवृष्टि के कारण हाहाकार मचा था। मेडागास्कर में अकाल के कारण प्रतिदिन सैकड़ों मौतें हो रही थी। पिछले महीने ही विश्व के कई भागों में 54 डिग्री सेल्सियस तक की उष्णता का अनुभव किया गया था। 175 किलोमीटर की गति से तूफान और 24 घंटे में 900 मिलीमीटर वर्षा का सामना भी किया था। हजारों करोड़ की संपत्ति का नुकसान एवं हजारों जनहानि देखी थी। इस परिषद के माध्यम से पर्यावरण की समस्या के निराकरण की दिशा में हमारे कदम बढ़ रहे हैं और यदि ऐसा हो रहा है तो यह संपूर्ण विश्व के मानव हित में होगा।

ऐसी परिषदें पिछले अनेक वर्षों से आयोजित हो रही हैं। उनमें चर्चा, फिर मसौदा बनाना, मसौदे को प्रकाशित करना, पर्यावरण विषयक चिंता विश्व के सामने रखी जाती हैं। फिर भी कार्बन उत्सर्जन कटौती में इतना समय क्यों लग रहा है? जानकारों द्वारा इस संदर्भ में भी चर्चा की जाती है। इस तरह की जलवायु परिषदों में विश्व के नेता, अधिकारी, वैज्ञानिक, सामाजिक संस्थाएं और पत्रकार जलवायु परिवर्तन से संबंधित विविध समस्याओं और उपायों पर चर्चा करते हैं परंतु परिषद का निर्णय परिषद के बाहर की ईंधन कंपनियां तय करती है। क्योंकि ईंधन कंपनियों को उनके द्वारा इस क्षेत्र में किए गए निवेश पर भारी भरकम मुनाफा कमाना होता है। वास्तव में अनेक वर्षों से कोयला व तेल इन खनिज कंपनियों का राज इस क्षेत्र में चल रहा है। उनके हस्तक्षेप के कारण आज तक विश्व जलवायु परिषद में उचित निर्णय नहीं लिए जा सके हैं।

पारंपरिक ईंधन याने कोयला, पेट्रोल, डीजल इत्यादि के बहुत अधिक उपयोग के कारण कार्बन का उत्सर्जन बढ़ रहा है, परिणाम स्वरूप पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। इसका परिणाम वायुमंडल पर होने के कारण पर्यावरण में बहुत अधिक परिवर्तन हो रहा है। पिछले तीन दशकों से वायुमंडल में होने वाले परिवर्तन के कारण अनेक प्राकृतिक आपदाएं आ सकती हैं, ऐसा इशारा बार-बार पर्यावरणविदों की ओर से दिया जाता रहा है। इसी के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ की अगुवाई में इस विषय पर चर्चाओं के दौर चल रहे हैं। आसन्न संकट को रोकने के लिए योजनाबद्ध कार्यक्रम प्रारंभ करने के प्रयत्न हो रहे हैं। इस संपूर्ण पृष्ठभूमी में ग्लास्गो परिषद संपूर्ण विश्व के लिए अत्यंत आशावादी घटना है। इस परिषद में पर्यावरणविदों को एक नया शब्द मिला है, नेट जीरो। इसकी संकल्प पूर्ति के लिए आधी सदी शेष है। यूरोप का ’नेट जीरो’ लक्ष्य 2050 है तो चीन का 2060 अपेक्षित है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सन 2070 तक ’नेट जीरो’ के रूप में कार्बन मुक्त करने का उद्देश्य सामने रखा है। नेटजीरो की संकल्पना क्या वास्तविकता में परिवर्तित हो सकती है? या यह मात्र स्वप्न देखने जैसा ही रहेगा? इस पर भी चर्चा हो रही है।

विश्व स्तर पर विचार करें तो चीन और रूस ये दोनों देश पर्यावरण विषय पर वैश्विक नियमों के पालन में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इस वास्तविकता को यदि ध्यान में रखें तो हम देखते हैं कि इस महत्वपूर्ण पर्यावरणीय विषय पर वैश्विक नीति निश्चित करने की इस बैठक में यह दोनों राष्ट्र अनुपस्थित थे। उनकी अनुपस्थिति यह दर्शाने वाली थी कि पर्यावरण नियमों का पालन करने की अपेक्षा उनका भंग कैसे हो? गत कुछ वर्षों में अमेरिका को पीछे छोड़ते हुए चीन विश्व का सबसे बड़ा प्रदूषक देश बन गया है। चीन भारत से 4 गुना अधिक कार्बन उत्सर्जन करता है। जिस आक्रामक गति से चीन प्रगति की राह पर चल रहा है उसे देखते हुए 2030 तक चीन में यह उत्सर्जन बढ़ते ही जाने वाला है। आगामी समय में भी चीन अपनी कोयला आधारित बिजली परियोजनाएं संचालित करते ही रहने वाला है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ग्लासगो परिषद को पीठ दिखा कर यह दिखा दिया है कि वे विश्व जनमत को कितना महत्व देते हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने तत्वावधान में सभी राष्ट्रों को एक साथ लाकर बढ़ते तापमान और उस पर उपायों हेतु कई बार परिषदें आयोजित कर चर्चा कराई। फिर भी विश्व के विकसित, विकासशील और गरीब राष्ट्र इस विषय पर किस पद्धति से विचार करते हैं, इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। यूरोप में ब्रिटेन सरीखे देश कोयले से बिजली निर्मिति पर प्रतिबंध लगाने के पक्ष में है तो उधर अमेरिका सरीखे देश 2050 तक के मिशन जीरो के पक्ष में हैं। समुद्री किनारों पर बसे छोटे राष्ट्रों की मांग है कि कार्बन उत्सर्जन की दिशा में इस प्रकार कमी हो कि धरती का तापमान 1.5 डिग्री कम हो जाए। विश्व के पिछड़े, गरीब देशों का मत है कि जिन देशों की पूर्व में प्रदूषण बढ़ाने में महत्वपूर्ण सहभागिता रही है उन्होंने नुकसान भरपाई देनी चाहिए।

अत्यधिक उत्सर्जन कर विश्व के कुछ थोड़े से देश विकसित हुए हैं और अब विकासशील देशों पर इस उत्सर्जन का दबाव वायुमंडल में परिवर्तन के कारण पड़ रहा है। विकसित देशों ने अपने-अपने वचनों का पालन तो किया ही नहीं  परंतु इस आपत्ति से भी कैसे लाभ प्राप्त किया जा सकता है इसकी ही चिंता की है। मुख्यतः यूरोप के देशों और अमेरिका ने गत 2-3 सौ वर्षों में औद्योगिक क्रांति का लाभ लेते हुए बेशुमार प्रदूषण फैलाया है। अपनी प्रगति साध्य करने के बाद यही राष्ट्र विकासशील राष्ट्रों को प्रदूषण कम करने संबंधी सीख दे रहे हैं। आज भी कार्बन उत्सर्जन के विषय में भारत विकसित देशों से बहुत पीछे है। भारत को भी औद्योगिक या सेवा क्षेत्र में बड़े प्रमाण पर प्रगति करनी है तो भारत में भी उत्सर्जन में बड़े पैमाने पर बढ़ोतरी होना सामान्य बात होगी। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण में भारत की इस कृति बाबत बहुत ऊंचे दर्जे का आत्मविश्वास होने के कारण उन्होंने विकासशील देशों का पक्ष मुद्दों सहित सम्मेलन में प्रस्तुत किया। जीवन शैली के प्रश्न, वायुमंडल न्याय सरीखी  संकल्पना विश्व के सम्मुख प्रस्तुत की।

नरेंद्र मोदी द्वारा परिषद में दिए गए अपने भाषण में पांच महत्वपूर्ण घोषणाएं थी। भारत खनिज ईंधन का उपयोग किए बगैर 500 गीगावाट बिजली का उत्पादन करेगा। ऊर्जा निर्मिति क्षमता की 50% उर्जा नवीनीकरणक्षम स्त्रोतों से प्राप्त करेगा। भारत अपने सकल राष्ट्रीय उत्सर्जन को 45% कम करेगा। इसके कारण भारत का कार्बन उत्सर्जन एक अरब टन कम किया जाएगा। संपूर्ण विश्व ने जिस घोषणा का स्वागत किया वह ऐतिहासिक घटना याने नेटजीरो अर्थात 0% कार्बन उत्सर्जन का उद्देश्य। भारत की मंशा इसे 2070 तक प्राप्त करने की है।

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इस परिषद में भाषण बिना लाग लपेट के एवं सीधा था। इसके कारण इसमें आर्थिक पक्ष, टेक्नोलॉजी अनुकूल जीवन शैली और वायुमंडलीय मुद्दे शामिल थे। इसके पूर्व 2009 में संपन्न परिषद में विकसित राष्ट्रों ने प्रतिवर्ष 100 अरब डालर का योगदान अविकसित देशों को वायुमंडलीय परिवर्तन रोधक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए देने का अभिवचन दिया था। यह वचन ‘पोला’ निकला ऐसा मोदी जी ने भरी सभा में बताया। इसी कारण उन्होंने विकसित देशों से कहा कि वे एक ट्रिलियन डॉलर की राशि अविलंब दें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आग्रह पूर्वक कहा कि ऐसा करना न्यायिक कदम होगा। उन्होंने अपने भाषण में जीवन शैली के प्रश्नों का उल्लेख परिणामकारी रूप में किया। विघातक उपयोग रुकना ही चाहिए और हम सभी को शाश्वत जीवन शैली को अंगीकार करना चाहिए, यह साफ-साफ शब्दों में उन्होंने कहा। ’लाइफ इज फ़ॉर इन्वहरमेंट’ ऐसे शब्दों में लाइफ़ शब्द का नया अर्थ हमारे प्रधानमंत्री ने विश्व के सामने रखा। संपूर्ण परिषद में हुई चर्चा की नींव ही  नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में रखी ऐसा कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसके कारण इस परिषद की कृति एवं प्रकृति पर भारत की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है।

वास्तव में बढ़ती बिजली निर्मिति के कारण भारत का उत्सर्जन बढ़ रहा है। 2030 तक एक अरब टन उत्सर्जन कम करने हेतु भारत को प्रति वर्ष ढाई से 3% उत्सर्जन कम करना पड़ेगा। क्या इन सब उद्देश्यों की पूर्ति होगी? यह सब प्रश्न एवं संकटों की जानकारी होते हुए भी पर्यावरणीय संकट रोकने के लिए कृति करने के विषय में भारत ने दिखाई सकारात्मक भूमिका यह ग्लास्गो परिषद का परिणाम कहा जा सकता है। ग्लास्गो जलवायु परिवर्तन परिषद में विश्व स्तर के विकसित राष्ट्रों के नेताओं ने पर्यावरण संवर्धन के संबंध में वे भी गंभीर हैं इस प्रकार की भूमिका तैयार की परंतु क्या वह पर्याप्त है? विश्व के समाचार पत्र इस ओर किस दृष्टि से देखते हैं, इस पर भी दृष्टि डालना आवश्यक है। इस विषय में द गार्डियन लिखता है कि पर्यावरण संवर्धन के संबंध में सभी राष्ट्र गंभीर है ऐसी अपनी प्रतिमा सभी राष्ट्रों ने परिषद में तैयार की है परंतु वह पर्याप्त नहीं है। उसकी विश्वसनीयता निर्माण होना यह उसका महत्वपूर्ण भाग है। वह कृति के माध्यम से प्रदर्शित करना आवश्यक है। विश्व भर में इस परिषद के संदर्भ में जब उत्साही चर्चा हो रही थी तब उसमें रूस की सहभागिता नही थी। इस संबंध में रूस के ’ग्रीन पीस रशिया’ नामक समाचार पत्र ने मार्मिक टिप्पणी की है। रूस का तापमान विश्व के तापमान की अपेक्षा औसतन ढाई गुना की गति से बढ़ रहा है। ऐसा होते हुए भी रूस को वायुमंडल परिवर्तन की स्थिति आपातकालीन नहीं लगती। रूस सरकार का व्यवहार ऐसा है मानो वे किसी दूसरे ग्रह पर रह रहे हों।

इस परिषद में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग उपस्थित नहीं थे। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बायडेन ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा कि चीन के नेतृत्व की परिषद में अनुपस्थिति बहुत बड़ी गलती साबित होगी। जो बाइडेन के इस वक्तव्य पर चीन के ग्लोबल टाइम्स इस समाचार पत्र ने चीन पर्यावरण संवर्धन के लिए विश्व का नेतृत्व किस पद्धति से कर रहा है यह बताने का प्रयत्न किया है और पेरिस समझौते से बाहर निकलने वाले हम नहीं थे, ऐसी चुभती हुई टीका अमेरिका पर की है। ग्लास्गो सम्मेलन हेतु ढशश्रश्र ींहश र्ीीीींंह हरीहींरस का निर्माण कुछ युवा कार्यकर्ताओं ने किया था। उस पर से उन युवाओं की निराशा साफ झलकती थी। उनका कहना था की ग्लास्गो परिषद में विश्व के नेताओं को सच बोलना चाहिए। पिछले तीन दशकों से जलवायु परिवर्तन के संबंध में चर्चा हो रही है परंतु बेईमानी और गलत बयानी के कारण कोई भी ठोस निर्णय नहीं लिए जाते।

2009 के कोपेनहेगन परिषद में धनी राष्ट्रों ने गरीब राष्ट्रों को जलवायु परिवर्तन के साथ सामंजस्य बिठाने हेतु वैसे ही इस आपत्ति के कारण होने वाली हानि की भरपाई करने हेतु प्रतिवर्ष 100 अरब डॉलर की सहायता हरित वसुंधरा निधि के नाम से देने का आश्वासन दिया था, जिसका पालन अभी तक नहीं किया गया है। सन 2015 में पेरिस में संपन्न परिषद में विभिन्न देशों ने स्वत: के लिए जो लक्ष्य निर्धारित किए थे, उसकी पूर्ति में भारत ने अन्य देशों की अपेक्षा अधिक अच्छा कार्य किया है। भारत में उत्सर्जन की गति कम करने के साथ-साथ स्वच्छ ऊर्जा की निर्मिति में बढ़ोतरी और बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण करने का संकल्प किया है। सौर ऊर्जा निर्मिति में भारत विश्व में चौथे स्थान पर है और ऐसी आशा है कि इस दशक के अंत तक वह चीन के बाद दूसरे क्रमांक पर पहुंच जाएगा।

समस्या किसके कारण प्रारंभ हुई, उसमें जटिलता क्यों बढ़ी, किसके कारण  समस्याओं की अनदेखी की गई ? इन सब प्रश्नों के उत्तर ढ़ूढने की आवश्यकता है। ऐसा होते हुए भी सुधार करने में बड़ा हिस्सा कौन उठाएगा यह प्रश्न उपस्थित होता ही है। इस परिषद में इन प्रश्नों का प्रत्येक ने अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार उत्तर दिया है और उस पर एक दूसरे पर हावी होने की कोशिश की है। इस प्रकार के व्यवहार से पर्यावरण और तापमान वृद्धि की समस्याओं के निराकरण की जवाबदारी स्वीकार करने में एक मत होना कठिन है। ऐसे समय में चर्चाओं के दौर और मसौदे तैयार होते रहेंगे। तापमान वृद्धि के लिए जबाबदार उत्सर्जन कम करने, उत्सर्जित कार्बन पूरी तरह सोख लेने, नेट जीरो की स्थिति प्राप्त करने हेतु अपारंपरिक ऊर्जा स्रोत का उपयोग करने हेतु इस परिषद में व्यापक चर्चा हुई परंतु विकसित और विकासशील देशों में एक दूसरे के संदर्भ में नाराजगी भी दिखाई दी। विकसित देशों द्वारा पूर्व में किए गए वादे पूरे ना करने, वित्तीय सहायता का उत्तरदायित्व न निभाने और अपनी-अपनी जवाबदारी झटकने का कार्य किस प्रकार किया गया, यह विकासशील देशों ने परिषद में दिखा दिया। 1997 में कवोटा, 2009 में कोपनहेगन, 2015 में पेरिस और अब 2021 में ग्लास्गो में वायुमंडल परिवर्तन विषयक परिषदें संपन्न हुई हैं। इन परिषदों में पर्यावरण संरक्षण के संबंध में बातें तो बहुत हुई परंतु ठोस परिणाम कुछ नहीं निकला। दुर्भाग्य की बात यह है पर्यावरण जैसे संवेदनशील एवं ज्वलंत मुद्दे पर भी सभी राष्ट्र सहमती नहीं बना पा रहे हैं। बहरहाल जलवायू परिवर्तन विषय पर आगे भी इसी प्रकार की वैश्विक परिषद का आयोजन करते रहना चाहिए क्योंकि चर्चा रुपी मंथन से ही इसके समाधान की उम्मीद है।

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