दृष्टि और व्याप्ति ‘‘हिंदू समाज के ’जागरण’ की प्रक्रिया के मूल में

प. पू. बालासाहब का कार्य निश्चित रूप से है, यह मेरी राय है। मूल्यों की एक ताकत होती है और बालासाहब इस ताकत को बेहतर ढंग से जानते थे। …चाहे सेवा कार्य हो, वनवासी कल्याण के कार्य हो, समरसता का कार्य हो- बालासाहब ने एक नई दृष्टि दी। इसके सुपरिणाम आज दिखाई दे रहे हैं।’’

1973 में पू. बालासाहेब देवरस ने रा. स्व. संघ के सरसंघचालक         पद का दायित्व संभाला। उस समय मैंने केवल उनका नाम सुना था। वे सरसंघचालक थे और मैं स्वयंसेवक, केवल यही हमारा रिश्ता था। १९७५ में मैं प्रचारक बना। इसके पूर्व मुझे स्मरण है, सरसंघचालक के रूप में उनका पहला प्रवास मुंबई में हुआ था। मुंबई के सभी कार्यक्रमों की व्यवस्था उत्तम थी;  लेकिन एक छोटीसी कमी रह गई थी। बालासाहब द्वारा दिया गया समय और लोगों को निमंत्रण के रूप में दिया गया समय इसमें  अंतर था। कार्यक्रम ५ बजे है, यह घोषित किया गया था और निमंत्रण पत्रिका पर भी वही समय दिया गया था, परंतु बालासाहब से कहा गया था कि वे ५.३० बजे संघ स्थान पर पहुंचे। व्यवस्था की सूचना के अनुसार बालासाहब पहुंचे।  स्वाभाविक रूप से कानाफूसी आणि चर्चा शुरू हो गई। समय ५ बजे का दिया गया और ५.३० बजे कार्यक्रम शुरू हो रहा है।  गुरुजी के समय में ऐसा कभी नहीं हुआ। बालासाहब के ध्यान में भी यह बात आ गई कि, कुछ गड़बड़ी हो गई है। उस समय उन्होंने कार्यकर्ताओं से कहा कि, ’’इस तरह की गलती कुल मिलाकर संगठन, संगठन की छवि को आघात पहुंचाने वाली होती है।’’ बालासाहब के बारे में मेरा पहला अनुभव इस प्रकार का था और बाद में उसे जीवन भर ध्यान में रखा। सार्वजनिक कार्यक्रमों में सामान्य रूप से कार्यक्रम ५ बजे घोषित करना और ५.३० बजे आना, इसमें कुछ गलत नहीं महसूस होता। संघ की परंपरा ऐसी नहीं है; परंतु सम्पर्क के अभाव के कारण ऐसा हुआ; लेकिन बाद में सब ने गंभीरता से इस बात को ध्यान लिया और माना कि हां, यह बड़ी गलती हुई।

संघ पर प्रतिबंध के समय १९७५ में मैं प्रचारक बना था। बालासाहब और मेरी प्रत्यक्ष मुलाकात होने की संभावना थी ही नहीं। क्योंकि, ४ जुलाई को संघ पर पाबंदी लगी और ३० जून को ही बालासाहब को गिरफ्तार किया गया था। एक उत्सुकता और भय इस तरह दोनों किस्म का माहौल उस काल में था। बाद का कालखंड १९७७ के मार्च तक एक तरह से ’अज्ञातवास’ का ही रहा। प. पू. बालासाहब से किसी की मुलाकात होना, संभव ही नहीं था; लेकिन कुछ बातें सुनाई दे रही थीं। बालासाहब येरवडा की जेल में थे। कारागृह में अनेक मीसा-बंदी भी थे, उनमें  संघ की विचारधारा के साथ अन्य विचारधाराओं के लोग भी थे। मेरी जानकारी के अनुसार, बालासाहब ने उस कालखंड में इन सभी से सतत संवाद रखने का स्वयं अपनी ओर से प्रयत्न किया। फलस्वरूप अनेक लोगों से बालासाहब की निकटता निर्माण हुई और अनेक संघ को समझ सके।

आपात्काल खत्म होने के बाद संघ का काम फिर से आरंभ हुआ, सरसंघचालक के रूप में  बालासाहब का प्रवास भी शुरू हुआ। उस समय मैं ठाणे जिले में जिला प्रचारक था। वनवासी क्षेत्र में बालासाहब का प्रवास तय हुआ। ठाणे जिले में प्रवास के दौरान वनवासी बंधुओं का जीवन, उनकी ओर देखने की अपनी दृष्टि आदि विविध विषय उस समय बालासाहब ने कार्यकर्ताओं के समक्ष रखे, समाज के समक्ष भी रखे। क्योंकि, उस समय वनवासी कल्याण आश्रम का कार्य अखिल भारतीय स्तर पर आरंभ होने वाला था। मुझे लगता है कि, १९७७ का यह उनका प्रवास एक तरह से वनवासी कल्याण आश्रम का कार्य सर्वत्र आरंभ होने की अप्रत्यक्ष सूचना ही थी। उनकी उपस्थिति में हुए वनवासियों के सम्मेलन, वहां जारी अनेकों के प्रयत्नों से चारों कार्यक्रम अत्यंत सफलता से सम्पन्न हुए। पू. बालासाहब का निवास कुछ काल के लिए ही क्यों न हो; परंतु वह भी एक वनवासी कार्यकर्ता के घर पर ही था और वह अनेक कार्यकर्ताआंें के लिए प्रेरणादायी था। कोई अखिल भारतीय कार्य खड़ा करने के लिए आवश्यक पूर्वतैयारी किस तरह करनी होती है, इसकी यह सीख थी।

बाद के काल में बालासाहब की मुलाकातें होती रहीं। बालासाहब का सरसंघचालक के रूप में नेतृत्व हम अनुभव कर रहे थे। अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में मेरा उपस्थित रहना १९८३ के बाद शुरू हुआ। अतः १९८३ के बाद ही उन्हें निकट से देखने का अवसर मिला; लेकिन इसके पूर्व प्रांत के प्रवास के दौरान उनसे मुलाकात हुआ करती थी। ’संगठन शास्त्र’ बालासाहब की शक्ति थी। कार्यकर्ताओं के समक्ष विषय की उनकी प्रस्तुति इसी अनुरूप हुआ करती थी। विश्व की राजनीति बदलने वाले महायुद्धों के बारे में उनका अध्ययन प्रचंड था। उनकी बातों में संदर्भ मुख्य रूप से युद्धशास्त्र के सम्बंध में हुआ करते थे और तब हमारे ध्यान में आता था कि, बालासाहब के अध्ययन की सीमाएं कितनी व्यापक है। कई विषयों के संदर्भ में उन्हें जानकारी होती थी, उसे अपने कार्यों में शामिल करने के लिए उनके मन में संकल्पनाएं हुआ करती थीं। उनकी बातों में प्रथम और दूसरे महायुद्ध के संदर्भ हमेशा हुआ करते थे और और उन उदाहरणों को लेकर संगठन की बारीकियां वे समझाया करते थे।

उसी कालखंड में मीनाक्षीपुरम की घटना हुई। मीनाक्षीपुरम की घटना की  स्वाभाविक रूप से देशभर में प्रतिक्रिया हुई थी। सभी की संघ से अपेक्षाएं थीं और वे उचित भी थीं। फिर, उसी से एक व्यापक जनसम्पर्क और समाज जागृति की योजना विश्व हिंदू परिषद के माध्यम से आरंभ हुई। मीनाक्षीपुरम की घटना से एक विशिष्ट प्रकार की चर्चा शुरू हुई, ऐसा मुझे लगता है। उस समय चर्चाओं में लोग प्रश्न पूछा करते थे और हमारे जैसे कार्यकर्ता सहज रूप से कह देते थे कि, ’’इस्लामी देशों से आने वाला पैसा उसके मूल में है। अथवा ईसाई मिशनरियों द्वारा किया जानेे वाला धर्मांतरण अन्य देशों की आर्थिक मदद से होता होगा।’’ हम सभी को लगता था कि, धर्मांतरण के पीछे केवल आर्थिक कारण हैं। पूरी तरह नहीं, किन्तु कुछ मायने में यह सही है; लेकिन यही कारण है, ऐसा समाज मानकर चलता है।

बालासाहब ने इन सभी बातों की ओर देखने का एक दृष्टिकोण दिया- वह है ’धर्मांतरण’ केवल पैसों से नहीं होता, जबकि धर्मांतरण अपने समाज के कुछ दोषों के कारण होता है, इस चर्चा का प्रारंभ मीनाक्षीपुरम की इस घटना के बाद हुआ, ऐसा मुझे लगता है। संघ में भी एक अलग दृष्टि से विचार शुरू हुआ- केवल बाहर से आने वाली आर्थिक सहायता के आधार पर या कारण से धर्मांतरण होता है, यह मान लेना उचित नहीं है। इससे धर्मांतरण की समस्या कम नहीं होगी। उसके कुछ अलग कारण  हैं, और उन कारणों को खोजने का प्रयास करना चाहिए, प्रामाणिकता से उसका विचार करना चाहिए। ’अपने समाज- बंधुओं की ओर अपना हुआ दुर्लक्ष!’ यह इसका एक बड़ा कारण है। उनसे हुआ अन्यायपूर्ण व्यवहार इसके मूल में है। सामाजिक विषमता की खाई इसके मूल में है और उसका विचार न करते हुए हम केवल ’बाह्यशक्तियां किस तरह प्रभावी हैं,’ यह चर्चा हम करते रहे तो, विचारों की दिशा भी गलत होगी और उससे उचित संतोष भी नहीं मिलेगा। मुझे ऐसा लगता है कि इतना स्पष्ट दृष्टिकोण बालासाहब ही लोगों को दे सकते थे और उसीसे भविष्य में सामाजिक समरसता के विषय आरंभ हुए, यह हम सब जानते हैं।

अपने देश में एकात्मता का भाव निर्माण करने के लिए किन बातों की आवश्यकता है, इस पर चर्चा शुरू हुई। इसमें भारत माता, भारत माता के प्रति भक्ति का भाव जागृत करना आदि विषयों पर  चर्चा होती थी; लेकिन सामान्यजनों को इस निर्गुण निराकार की अनुभूति नहीं होती। उन्हें श्रद्धा के विषय समझ में आते हैं। धार्मिक-पौराणिक विषयों से आईं ऐसी बातों से सर्वसामान्य लोग सहजता से जुड़े होते हैं, इसलिए भारत माता के प्रति भक्ति- श्रद्धा बढ़ानी हो तो, ‘गंगा’ का महत्व कश्मीर से कन्याकुमारी के लोगों तक ले जाना होगा और इसलिए ‘गंगा’ और ’भारत माता’ इन दोनों प्रकार की कल्पनाओं को समक्ष रखकर एक बड़ी यात्रा सम्पन्न हुई तथा उस समय वरिष्ठ लोगों ने जो कुछ निर्णय किया था, उनमें दूरदृष्टि की अनुभूति हम जैसे सामान्य कार्यकर्ताओं को हुई। यह एक व्यापक योजना, देशभर का लगभग दस करोड़ हिंदू समाज, एक ही समय में केवल भारत माता और  गंगा के दर्शन के लिए सड़क पर खड़ा रहता हैे, उस यात्रा से गंगा के प्रति भक्तिभाव प्रकट होता है, यह चित्र देशभर में देखने को मिला। यह एक अभूतपूर्व प्रयोग था। ’गंगा’ के साथ ’भारत माता’ को जोड़ने का जो प्रयोग हुआ, इस बारे में मुझे लगता है कि, उसके पीछे बहुत बड़ी विचारों की दृष्टि थी। इस तरह की योजनाएं बनाने में बालासाहब का निश्चित ही योगदान था।

इसी कालखंड में रामजन्मभूमि आंदोलन प्रारंभ हुआ था। कुछ बातें संयोग से ही घटती हैं। अतः मीनाक्षीपुरम की घटना, बाद में निकली एकात्मता रथयात्रा, रामजन्मभूमि का विषय ये सभी दशकभर की  घटनाएं हैं। १९८० ते १९९०, अर्थात सम्पूर्ण दस वर्ष का यह कालखंड है। इस दस वर्ष के कालखंड में हिंदू शक्ति जागरण का दर्शन सारी दुनिया ने किया, विविध प्रकार के कार्यक्रमों के जरिए हुआ। इन कार्यक्रमों से संघ के साथ ही हिंदू समाज का भी आत्मविश्वास बढ़ने की बात आपके ध्यान में आएगी और दुनिया के भी ध्यान में आया कि, हिंदू समाज सुप्त अवस्था से जागृत हो रहा है।

अयोध्या के मंदिर के लिए आंदोलन तथा उसकी निर्मिति, यह एक राष्ट्रीय आस्मिता का जागरण है। मंदिर अनेक हैं; फिर अयोध्या में राम मंदिर का  महत्व क्या है? मुझे ऐसा लगता है, इस देश के सामान्य व्यक्ति ने इसे स्वीकार किया, इसे समझ लिया और इसे करने के लिए चाहे जो करने की वृत्ति समाजमन में निर्माण हुई। एक बहुत बड़े परिवर्तन की तीव्र इच्छा इस कालखंड में निर्माण हुई। सन १९९१-१९९२ को हुई कारसेवा और कारसेवा से  इसी तीव्र इच्छा का विराट दर्शन इसी काल में हुआ। हिंदू समाज के ’जागरण’ की प्रक्रिया के मूल में प. पू. बालासाहब का कार्य निश्चित रूप से है, यह मेरी राय है।

मूल्यों की एक ताकत होती है और बालासाहब इस ताकत को बेहतर ढंग से जानते थे। बालासाहब ने संघ की कार्यपद्धति की अनेक बातों को इसी ताकत से जमने के लिए प्रयत्न किए, अतः उनके सम्पूर्ण कार्यकाल में संगठन तंत्र की बारीकियां समझाना, इस पर बहुत बल था। इनमें व्यक्तियों के बीच परस्पर सम्बंध, सहज सम्पर्क की व्यवस्था, व्यक्ति निर्माण के कार्य की बारीकियां, संघ स्थान पर कार्यक्रम के माध्यम से शरीर व मन पर होने वाले अनुशासन के संस्कार, व्यक्ति निर्माण की आवश्यकता जैसे मुद्दे निश्चित रूप से हुआ करते और उन पर वे बार-बार बल देते थे। इसी के साथ, संघ की शाखा, अर्थात संघ की शाखा में आने वालेे स्वयंसेवक। स्वयंसेवक एक व्यक्ति के रूप में और शाखा एक व्यवस्था के रूप में समाज जीवन से कुछ रिश्ता रखते हैं। इस रिश्ते के कारण ही समाज जीवन के प्रश्न समझ कर उन्हें हल करने के लिए, विभिन्न स्तरों पर विभिन्न उपक्रम आरंभ होने चाहिए, यह बालासाहब का आग्रह हुआ करता था। अपनी शाखा केवल चिकित्सा के रूप में काम करने वाला केंद्र नहीं, वह तो समाज परिवर्तन कर सके ऐसे व्यक्तियों का काम है, यह उनकी धारणा थी।फलस्वरूप संघ के कुल कार्यक्रमों की रचना में इन विषयों की प्रस्तुति बार-बार होती रही। अपनी शाखा और शाखा का परिसर, अपना समाज इत्यादि बातों की ओर ध्यान देने का उनका आग्रह हुआ करता था और उसके स्वाभाविक परिणाम के रूप में १९८९ में प. पू. डॉक्टर की जन्मशताब्दी के अवसर पर कार्यक्रमों का जिस तरह आग्रह रखा, वैसा ही सेवा विषय का आयाम भी उसमें जोड़ा गया।

बालासाहब कहा करते थे, अपना संचलन, अपना गणवेश, अपना शारीरिक कार्यक्रम, इस पर हमें गर्व है; परंतु संघ की प्रतिमा यही नहीं है। संघ को इससे भी आगे जाना होगा। संघ का स्वयंसेवक समाज का घटक है। समाज से अलग नहीं है। समाज का दु:ख-वेदना वह समझता है, उसकी अनुभूति लोगों को आनी चाहिए, इसलिए सेवा विषय का प्रारंभ हुआ। सच तो यह है, तब ’सेवा कार्य’ विषय नया नहीं था। संकट के समय, प्राकृतिक आपदा के समय संघ का स्वयंसेवक वहां उपस्थित रह कर सहजता से काम करता है। लेकिन बालासाहब ने यह विचार व्यक्त किया कि, ’’केवल संकट के दौरान ही नहीं, अपितु हमेशा संकट में रहने वाला, दिक्कतों में रहने वाला, अपने समाज का… बहुत बड़ा वर्ग है। वह हमारा केंद्र होना चाहिए, लक्ष्य होना चाहिए, उसकी दिक्क्तें हमें समझनी चाहिए।’’ इससे समाज के दुर्बल व उपेक्षित घटकों की ओर देखने की दृष्टि सेवा कार्य के  आयाम से बालासाहब ने कार्यकर्ताओं के समक्ष रखी और उससे आगे सेवा कार्य के काम का बीजारोपण हुआ, उसका आज परिणाम दिखाई दे रहा है। संघ की अनेक संस्थाएं सेवा कार्य में लगी हैं। सामाजिक कामों में केवल प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं, तो समाज के प्रश्न सच्चे मायने में समझ कर, उन्हें हल करने का काम स्वयंसेवकों को करना चाहिए, इस तरह का एक वैकल्पिक दृष्टिकोण बालासाहब के कार्यकाल में विकसित हुआ।

समाज में सामाजिक विषमता खत्म होनी चाहिए, इसके लिए समरसता विषय उनका आग्रह का विषय रहा। अनेक उपक्रमों के माध्यम से, अनेक व्यावहारिक बातें सुझाते-सुझाते, उन्होंने कार्यकर्ताओं के मन में समरसता का भाव कायम किया। बालासाहब के काल में केवल वैचारिक स्तर पर नहीं, अपितु व्यावहारिक स्तर पर भी सामाजिक समरसता के काम का प्रारंभ हुआ। दैनंदिन व्यवहार में परिवर्तन से ही समरसता का उचित संदेश पहुंचेगा, इस पर बालासाहब का दृढ़ विश्वास था। बालासाहब का आग्रह हुआ करता था कि, हमारे व्यवहार में समरसता आनी चाहिए। एक दृष्टिकोण उस काल में विकसित हुआ, उसके परिणाम आज दिखाई दे रहे हैं। समरसता के बारे में संघ आज प्रामाणिक रूप से विचार भी करता है और प्रयत्न भी करता है, यह छवि निर्माण हो रही है। संघ ने विषमता की खाई बढ़ाने के लिए ही काम किया, यह जो प्रचार होता था, वह प्रचार अत्यंत अनुचित हैे, इसकी अनुभूति स्वाभाविक रूप से इसी समाज को संघ के बर्ताव से आ रही है। बालासाहब की दृष्टि और बालासाहब की व्याप्ति इन दोनों के कारण संघ में अनेक प्रथाएं रूढ़ होने और वे आचरण में आने में बालासाहब कारण बने, यह हम निश्चित रूप से कह सकेंगे।

 

Leave a Reply