आध्यात्मिक चेतना और राष्ट्रीय एकात्मता का पर्व मकर संक्रांति

शीत  ऋतु के बीच जब सूर्य धनु राशि को छोड़कर मकर राशि में प्रवेश करते हैं तो मकर संक्रांति होती है, इसी दिन से सूर्य की उत्तरायण गति प्रारम्भ होती है। यह पर्व जीवन व सृष्टि में नवसंचार करता है। यह हिंदुओं का प्रमुख काल चेतना या परिवर्तनकारी समय का स्मरण कराने वाला पर्व है। यह पर्व न केवल पूरे भारत वरन पड़ोसी सनातन सभ्यता वाले राष्ट्र नेपाल में भी पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है। 

मकर संक्रांति पर्व का अध्यात्म की दृष्टि से विशेष महत्व है। इस दिन स्नान,जप, तप, दान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक विधि विधान व कर्मों का विशेष महत्व है। मान्यता है कि इस दिन दिया गया दान सौ गुना पुण्य बनकर प्राप्त होता है। इस दिन घी एवं कम्बल का दान मोक्ष की प्राप्ति करवाता है।इस दिन गंगा स्नन एवं गंगातट पर दान का भी विशेष महत्व है।इस पर्व पर तीर्थराज प्रयाग एवं गंगा सागर में स्नान को महास्नान की संज्ञा दी गयी है। इस संक्रांति से सूर्य सभी राशियों को प्रभावित करते हैं। 

वैज्ञानिक तथ्य  है कि इस दिन से रातें छोटी एवं दिन बड़े होने लगते हैं तथा गर्मी की शुरूआत होने लगती है। दिन बड़ा होने से प्रकाश का वातावरण अधिक होता है । प्रकाश अधिक होने से प्राणियों की चेतनता एवं कार्यशक्ति में वृद्धि होती हैं । अतः सूर्य की राशि  में हुए इस परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना माना गया है। इस अवसर पर सम्पूर्ण भारत में सूर्य देव की उपासना, आराधना एवं पूजन करने का विधान है। 

इस पर्व का पौराणिक तथा ऐतिहासिक महत्व भी है। मान्यता है कि इस दिन भगवान भास्कर अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाते हैं। महाभारत काल में इसी दिन भीष्म पितामह ने अपनी देह का त्याग किया था। आज ही के दिन गंगाजी भगीरथ के पीछे- पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई सागर में जाकर मिली थीं। इसी दिन भगवान विष्णु ने असुरों का अंत कर युद्ध समाप्ति की घोषणा की थी और यही कारण है कि इस पर्व को बुराइयों और नकारात्मकता समाप्त करने का पर्व कहा जाता है। 

सम्पूर्ण भारत में मनाया जाने वाला यह पर्व तमिलनाडु में पोंगल के रूप में चार दिन तक मनाया जाता है। पोंगल मनाने के लिये स्नान करके खुले आंगन में मिटटी के बर्तन में खीर बनायी जाती है। जिसे पोंगल कहते हैं। इसके बाद सूर्यदेव को भोग लगाया जाता है। कर्नाटक, केरल व आंध्र  प्रदेश में इसे केवल संक्रांति ही कहते हैं। हरियाणा और पंजाब में यह पर्व लोहड़ी के रूप में एक दिन पहले मनाया जाता है जहाँ  इस दिन अंधेरा होते ही आग जलाकर अग्निदेव की पूजा करते हुए तिल, गुड़, चावल और भुने हुए मक्के की आहुति दी जाती है। इस सामग्री को तिल चौली कहा जाता है। इस दिन पारम्परिक मक्के की रोटी व सरसों के साग का आनंद भी उठाया जाता है। 

उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश  में यह पर्व दान का पर्व है। उत्तर प्रदेश के प्रयागराज  में गंगा, यमुना व सरस्वती के संगम पर विशाल मेला लगता है।  जिसे माघ मेले के नाम से जाना जाता है। माघ मेले का प्रथम स्नान संक्रांति से शुरू होकर शिवरात्रि के आखिरी स्नान तक चलता हैं। उत्तर प्रदेश के ही  गोरखपुर जिले में गोरखनाथ मंदिर में विशाल मेला लगता है जो खिचड़ी मेले के नाम से प्रसिद्ध है। उल्लेखनीय है कि गोरखनाथ धाम में संक्रांति की पहली खिचड़ी नेपाल के राजवंश द्वारा अर्पित की जाती है, जो दोनों देशों की साझी आध्यात्मिक संस्कृति का प्रतीक है।

बिहार में इस पर्व को खिचड़ी नाम से जाना जाता है। इस दिन खिचड़ी खाने एवं खिलाने का बड़ा महत्व है। खिचड़ी दान का भी सर्वाधिक महत्व है। महाराष्ट्र में भी यह पर्व बड़े धूमधाम व उमंग के साथ मनाया जाता है। यहां पर यह पर्व सुहागिनों का पर्व है। इस दिन महिलाएं आपस में तिल, गुड़ एवं रोली और हल्दी बांटती है। वहीं बगाल में इस पर्व पर तिल दान करने की प्रथा हैं। यहां गंगासागर में प्रतिवर्ष विशाल मेला लगता है। असोम में मकर संक्रांति को माघ बिहु अथवा भोगाली बिहू के नाम से मनाया जाता है । गुजरात और उत्तराखंड दोनों प्रान्तों में इसे उत्तरायणी पर्व कहते हैं ।

एक प्रकार से मकर सक्रांति सकारात्मक भावों से भरा हुआ, आध्यात्मिक उन्नयन की प्रेरणा देने वाला, राष्ट्रीय एकात्मता और सामाजिक समरसता का महापर्व है । 

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