सूखती नदियां, मिटते पहाड़ हमें कहां ले जाएंगे?

प्रदूषित होती नदियां जितनी चिन्ता का विषय हैं उससे बड़ी चिन्ता वो मानव निर्मित कारण हैं जो इनका मूल हैं। निदान ढूंढ़े बिना नदियों के प्रदूषण से शायद ही मुक्ति मिल पाए। भारत में अब इसके लिए समय आ गया है जब इसके लिए जागरूक हुआ जाए। लोग स्वस्फूर्त इस विषय पर सोचें, जागरूक हों और कुछ करें तभी सकारात्मक नतीजे निकलेंगे वरना आयोग, बोर्ड, ट्रिब्यूनल की औपचारिकताओं को देखते-देखते हालात बद से बदतर हो जाएंगे। लगगभ हर गांव, कस्बे, शहर, महानगर की आबादी की गंदगी का आसान और निःशुल्क वाहक बनीं नदियां दिन-पतिदिन प्रदूषित हो रही हैं। लगातार नदियाँ सूख रही हैं, सूखती जाएंगी और मरती रहेंगी। बस हाय-तौबा के अलावा हाथ कुछ नहीं आएगा। 

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की बीती एक रपट चौंकाने वाली है। कुछ वर्ष पहले 40 नदियों को जांचा गया था। उसमें 35 बुरी तरह प्रदूषित निकलीं जिनका पानी पीने लायक बिल्कुल भी नहीं निकला। इनमें पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण हर जगह की नदियां शामिल हैं। उस समय केवल 4 ही ठीक ठाक निकलीं। पवित्र, जनआस्था, लोकगाथा और किवदंतियों से जुड़ी गंगा, यमुना, नर्मदा, सोन, कृष्णा, इंद्रावती, वाणगंगा, कोसी, चंबल, घाघरा, सतलुज, रावी, बेतवा, साबरमती, ताप्ती, महानदी, दामोदर, दमनगंगा, रामगंगा, सुबर्नरेखा, तुंगभद्रा, मार्कण्डा, सरसा, माही, किच्छा, पिलाखर, मंजीरा, चुरनी, बहेला, ढ़ेला, स्वान, भीमा, वर्धा सबकी सब प्रदूषित निकलीं। तब यह जांच का छोटा नमूना है। अब इनकी हालात कैसी है, पता नहीं। लेकिन हुक्मरानों ने कुछ खैर खबर ली भी होगी या नहीं यह भी नहीं पता। हाँ, अब तमाम नदियों को देखकर जिन्हें नहीं देख पाए उनके बारे में सोचकर सिहरन होने लगती है। रपट भले ही दशक बरस के लगभग पुरानी हो लेकिन इसे सेम्पल भी मानें तो साफ-सुथरी नदियों का प्रतिशत केवल 10 ही है। यह सच यकीनन बेहद विचारणीय है जो खुद ही बताता है कि भारत में नदियों की कैसी दशा और दुर्दशा है।

अकेले गंगा की सफाई 4 दशकों से जारी है। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ वर्ष पहले तल्ख टिप्पणी की थी कि मौजूदा कार्ययोजनाओं से लगता नहीं कि गंगा 200 वर्षों में भी साफ हो पाएगी। कदम वो हो जिससे गंगा अपनी पुरानी भव्यता यानी प्रिस्टीन ग्लोरी हासिल कर सके। यह दशा उस गंगा की है जो मोक्ष दायिनी है, खुद अपने मोक्ष को तरस रही है। नर्मदा और भी श्रेष्ठ मानी गयी है। पद्म पुराण में लिखा है ‘पुण्या कनखले गंगा, कुरुक्षेत्रे सरस्वती। ग्रामे वा यदि वारण्ये, पुण्या सर्वत्र नर्मदा ।।’ अर्थात गंगां को कनखल तीर्थ में विशेष पुण्यदायी माना जाता है, सरस्वती को कुरुक्षेत्र में, किन्तु नर्मदा चाहे कोई ग्राम हो या फिर जंगल सर्वत्र ही विशेष पुण्य देने वाली है। ऐसी पवित्र नर्मदा अपने उद्गम अमरकण्टक कुण्ड से ही प्रदूषित होने लगती है। वहीं सोन थोड़ा आगे एक कागज कारखाने का जहर लिए रास्ते के हर गांव, कस्बे, शहर की गंदगी समाए बढ़ती जाती है। यमुना का हाल भी छुपा नहीं है। जो नदी जहां से भी गुजरी, वहां की गंदगी का आसान और मुफ्त वाहक भी बनती चली गई। हर कहीं औद्योगिक मलवा, फैक्ट्रियों का कचरा, गंदा सीवर बेहिचक नदियों में छोडा़ जा रहा है।

लोकसभा की एक पुरानी जानकारी के अनुसार 27 राज्यों में कुल 150 नदियां प्रदूषित हैं, सबसे ज्यादा 28 महाराष्ट्र में हैं। विकास का मिसाल गुजरात का हाल और भी बेहाल है वहां 19 नदियां प्रदूषित हैं। 12 प्रदूषित नदियों के साथ उत्तर प्रदेश का तीसरा स्थान है। कर्नाटक की 11, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु की 9-9, राजस्थान, झारखंड, उत्तराखंड और हिमाचल की 3-3 और दिल्ली से गुजरने वाली इकलौती यमुना भी है। सभी बेहद प्रदूषित नदियों की श्रेणी में शामिल हैं।

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल(एनजीटी) भी मान चुका है कि नदियों के किनारों पर अतिक्रमण न हों, मलबा न डले, हरियाली रखी जाए। नदी शुध्दिकरण ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट तो बने लेकिन हमेशा चलने के खर्चों का इंतजाम पहले कर लिया जाए। ट्रिब्यूनल ने माना कि लोग जागरूक तो हुए हैं और जीएनटी तक पहुंचने लगे हैं जो सुकून की बात है पर अमल कराने वाले बेपरवाह हैं। कानूनन जीएनटी निर्देशों के अमल में देरी पर दफा 26 और 28 के तहत संबंधित विभाग और अफसरों पर 25 करोड़ रुपयों तक के जुर्मानों का प्रावधान है। नदियों की बरबादी में रेत का खेल भी जबरदस्त है। राज्य केवल करोड़ों तो रसूखदार अवैध तरीकों से अरबों रुपए कमाते हैं। इसमें स्थानीय प्रशासन, बिल्डर, माफिया, दबंग, राजनीतिज्ञ, धार्मिक संगठन सभी शामिल हैं जो सिर्फ और सिर्फ नदियों को लूटते हैं उसे देते कुछ नहीं। इन हालातों में भी 40 में 4 नदी लाज बचाए हुए हैं ये क्या कम है?

सच तो यह है कि कमाई के फेर में हम अनजाने ही अपनी नदियों को तबाह किए जा रहे हैं। खुद ही सोचिए आपके शहर में बहने वाली आज से बस 20-25 पहले कैसी थी? अब कैसी है? इस फर्क को समझिए। वह भी तब जब हमने जबरदस्त विकास किया है। पहले एक-दो मंजिल के मकान हवेली कहलाते थे। आज 25-30 मंजिल के टॉवर बन रहे हैं। हवेलियों के जगह बहुमंजिला विला और कंक्रीट की कॉलोनियों ने बरसों बरस में तैयार हुए जंगल के जंगल उजाड़ दिए, सदियों पुराने पहाड़ तोड़ डाले। इन हालातों में भला कैसे हम प्रकृति के साथ, इंसाफ कर पाएंगे? सोचा है कभी, शायद सोचने का वक्त भी नहीं है इस भागती दौड़ती जिन्दगी में? लेकिन जब प्रकृति की मार ही हमें मजबूर कर पाएगी तब क्या हम अपनी तरक्की और शान-औ-शौकत के दम पर प्रकृति को वापस उसकी स्वरूप दे पाएंगे। नहीं न नदियाँ वापस अपने खोए रूप को पा पाएंगी न धरती पर वो पहाड़ ही फिर बन पाएंगे। यह बात अलग है कि कहीं दुर्भाग्य से युध्द या कोई बड़ी प्राकृतिक आपदा आई तो यूक्रेन रूस के आक्रमण से नेस्तनाबूद होते यूक्रेन जैसे मलवे ही मलवे होंगे। न कोई प्राकृतिक ठौर बचेगा और न ही चुल्लू भर पीने के पानी के लिए हमारी वो प्यारी नदी होगी जिसमें देखकर, तैरकर हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए सपने संजोए थे। बस इसकी चिन्ता करनी है, पर बड़ा सवाल करेगा कौन?

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