भोजपुरी भाषा, संस्कृति और समाज

भोजपुरी भाषी प्रदेश का विस्तार हमें एक ओर बिहार में छपरा, सीवान, गोपालगंज, भोजपुर (आरा) रोहतास (सासाराम), डाल्टन गंज, पश्चिमी चंपारण (बेतिया) एवं उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर, वाराणसी, गाजीपुर, आजमगढ़, मऊनाथ भंजन, महाराजगंज, देवरिया, बस्ती, सिद्धार्थ नगर तक मिलता है, तो दूसरी ओर नेपाल की तराई के थारू, जसपुर रियासत से लेकर विदेशों में मॉरीशस, सूरीनाम, फीजी आदि देशों में भी भोजपुरी भाषा और संस्कृति के ऐतिहासिक और जीवित प्रमाण मिलते हैं।
इस संदर्भ में जार्ज ग्रियर्सन का यह कथन प्रासंगिक है, ‘‘भोजपुर परगने के नाम पर भोजपुरी भाषा का नाम पड़ा है। यह भोजपुर ही सीमा से आगे बहुत दूर तक बोली जाती है। उत्तर में यह गंगा को पार करके नेपाल की सीमा के ऊपर हिमालय की निचली पहाड़ियों तक चंपारण जिले से लेकर बस्ती तक फैली हुई है। दक्षिण में सोन पार करके यह छोटा नागपुर के विस्तृत रांची के पठार पर फैलती है। मानभूम जिले के छोर पर यह बंगाली और सिंहभूम जिले के छोर पर उड़िया के संसर्ग में आती है।’’ (लिंग्विस्टिक सर्वेऑफ इंडिया, भाग-५, पृष्ठ ४०)
सामान्यत: भोजपुरी भाषा के नाम की व्युत्पत्ति को भोजपुर गांव या भोजपुर परगने से जोड़ा जाता है। बिहार प्रदेश के शाहाबाद जिले में बक्सर के पास भोजपुर परगने में ‘पुराना भोजपुर’ नाम का एक गांव है। उसी गांव के नाम पर भोजपुर परगने का नाम रखा गया था। यह ‘पुराना भोजपुर’ डुमरांव स्टेशन से दो मील उत्तर, बक्सर से दस मील पूरब तथा पटना से साठ मील पश्चिम, आरा बक्सर सड़क के दोनों ओर बसा है। अब भोजपुर नाम ‘नया भोजपुर’ और ‘पुराना भोजपुर’ नाम से पास-पास बसे गांवों के लिए प्रयुक्त होता है।

डॉ. ग्रियर्सन ने लिखा है कि भोजपुरी उस शक्तिशाली स्फूर्तिपूर्ण और उत्साही जाति की व्यावहारिक भाषा है कि जो परिस्थिति और समय के अनुकूल अपने को बनाने के लिए सदा प्रस्तुत रहती है और जिसका प्रभाव हिंदुस्तान के हर भाग पर पड़ा है। भोजपुरी में एक कहावत कही जाती है-

जे हमरा के जानी, ओकरा के जान दे देब
बकिर जे आंखि देखाई, ओकरा आंखि निकाल लेब।

अर्थात जो हमको जानेगा, हमारा मित्र होगा, हमारा अपना होगा उसके लिए मैं अपनी जान भी दे दूंगा, लेकिन जो आंख दिखलाएगा उसकी आंख निकाल लूंगा।

विश्वामित्र बक्सर में रहते थे, वे दानी, वीर और दयालु थे। अपने क्षेत्र के निवासियों के प्रति उनका गहरा स्नेह भाव था। ऋग्वेद में इंद्र के लिए भोज शब्द का उल्लेख हुआ है। संभवत: विश्वामित्र ने स्नेहवश अपने यजमानों को भोज कहा हो और उनका निवास स्थान ‘भोज की पुरी’ कही जाने लगी हो और फिर उसी से भोजपुर बन गया हो।

सन ८५६ ई. में कान्यकुब्ज अथवा कन्नौज के प्रतिहार मिहिर भोज हुए। यह भी कहा जाता है कि पूर्व मध्य काल में उत्तर भारत के सब से महान राजा रामभद्र के पुत्र भोजदेव हुए। अपनी वीरता तथा महान कार्यों के कारण इन्हें अनेक नामों से पुकारा जाता था यथा-महाराजा श्री भोजदेव, भोज श्रीमद् आदि वराह, परमेश्वर श्री भोजदेव, मिहिर भोज आदि। सन १०००-१०१० के आस पास मालवा के परमार भोजदेव प्रसिद्ध हुए।

दिघवा दुबौली (सारन) तथा कहल ताम्रपत्रों (गोरखपुर) में इसका उल्लेख है कि जब प्रतिहार मिहिर भोज मध्य देश में शक्तिशाली हो गए तो उन्होंने बंगाल के पालों के विरुद्ध तलवार उठाई। ऐतिहासिक उल्लेख मिलते हैं कि प्रतिहार मिहिर ने पालों की रोकथाम के लिए शाहाबाद जिले में अपने नाम से भोजपुर किले की स्थापना की। उसी भोजपुर के नाम से आज पश्चिमी बिहार की जनता और उनकी बोली भोजपुरी कहलाती है। (बिहार एक ऐतिहासिक दिग्दर्शन : पृथ्वी सिंह मेहता पृष्ठ-१७३)

भोजपुरी भाषियों का यह क्षेत्र (मुख्य रूप से बिहार) एक साथ अपने ज्ञान, दर्शन विद्वता और शौर्य के लिए प्रसिद्ध है। यहां की संस्कृति में एक राजा जनक, श्वेतकेतु और याज्ञवल्क्य के दार्शनिक विचार, विश्वामित्र, महात्मा बुद्ध का ज्ञान, नालंदा विश्वविद्यालय जैसे ज्ञान तीर्थ, चंद्रगुप्त और अशोक जैसे सम्राट और चाणक्य जैसे गुरु रहे हैं, वहीं भारत के स्वाधीनता संग्राम में मर-मिटने वाले जनसाधारण और असंख्य वीरों और क्रांतिकारियों का एक लंबा इतिहास मौजूद है। दूसरी ओर ज्ञान और शौर्य की इस विराटता के साथ-साथ प्रकृति की ताल से ताल मिलाता व्यापक विस्तृत लोक जीवन है। इस लोक के जीवन और संस्कृति मेंे भोजपुरी भाषियों का दिल धड़कता है, पांव थिरकते हैं, आंखों में कभी खुशी कभी बिछोह के आंसू झिलमिलाते हैं तो कभी स्नेह से सराबोर एक-दूसरे को गले लगाते लोग अपनी बोली में ऐसे शब्द और ऐसे सुरों की सृष्टि कर जाते हैं कि पढ़े-लिखे लोग उनकी गहराई नापते खुद ही उनमें डूबने लगे।

साहित्य और संस्कृति के निर्माण में प्रकृति की सहज और रचनात्मक भूमिका हमेशा से रही है। वन और नदियों के किनारे तीर्थ स्थल, विद्या और ज्ञान के केंद्र गुरुकुल, ऋषि-मुनियों के आश्रम, साधु-तपस्वियों का ठौर और आवागमन आकस्मिक नहीं है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में मनुष्य और पशु प्रकृति के साथ मिलकर अपने श्रम से अन्न और वनस्पति उपजाते, उगाते हैं। प्रकृति के उतार-चढ़ाव और मनुष्य के श्रम के बीच एक भरापूरा समाज है, परिवार है, अर्थव्यवस्था है। धार्मिक विश्वास और आस्था है, जीवन का, समाज का विकास क्रम है, पारिवारिक, सामाजिक संबंध है, पर्व त्यौहार और रीति-रिवाज है, संस्कार और कर्मकांड हैं।

भोजपुरी क्षेत्र में गंगा, बूढ़ी गंडक, सोनभद्र, कोसी, बागमती, केउल, लाखनदेई, फाल्गुन, पुनपुन नदियों का पानी बहता है। कभी कल-कल संगीत और कभी रौंदते, हुंकारते, मिटाते, बहाते बाढ़ के सुरों में जैसे जीवन में सुख दु:ख को स्वीकार करके चलते हैं, वैसे ही यहां के निवासी नदियों के इन दोनों रूपों को भी अपने जीवन का अंग मानकर चलते हैं। नदियों में आने वाली बाढ़ को लोक जीवन में नदियों का नइहर (मायके) आना कहा जाता है।

ए राम गंगा हमरी मइया,
त देहवा रे बहिनियां हई ए राम।
ए राम चान सुरुज दुनो भइया,
रघुनाथ हमरो बाप हवे ए राम॥

लोक जीवन में यहां गंगा को मां माना गया है और सरयू को बहन कहा गया है, लेकिन सरयू में जब बाढ़ आई तो इसका नाम जन-मानस ने ‘देहवा’ रख दिया अर्थात दहवाने वाली यानी डुबाने वाली। भोजपुरी की प्रसिद्ध लोरिकी लोक गाथा में सोन नदी की चर्चा मिलती है- (नदिया सोनभद्र के घाट)।

नदियों के साथ कुंआ, ताल, पोखरा, दह, गड़ही आदि की जीवन में उपस्थिति को लोक साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान मिला है। मां के दूध की तरह ही जीवन में जल के महत्व को प्रकृति के ये जल स्रोत व्यक्त करते हैं।

‘के मोरा पोखरा खोनावल, घाट बन्हावल
कवन देई के भरेला कंहार, त केई नहवावल।’
तथा
जइसे दह में के पुरइनि,
दहे बीचे कांपेले रे,
ए ललना ओइसे कांपेले हमरा हरिजी,
धिया का जनम नु रे।

नदियों की ही तरह वनों का उल्लेख लोकगीतों और लोक कथाओं में प्राय: मिलता है, लेकिन वह तीन या सात वनों के रूप में आता है-
दूरि खेलन मति जाहु,
खोजन बनवा केहि जईहैं।
एक बने गइली, दोसरे बने गइली
तीसरे बने बबुआ भेंटाई गइले।

वनों का नाम यहां नहीं मिलता, यदि मिलता भी है तो कृष्ण के जीवन से   संबद्ध वृंदावन, नंदवन और मधुबन का; यद्यपि भोजपुर क्षेत्र के वनों का पौराणिक उल्लेख देवरिया (देवारण्य) चंपारण (चंपारण्य), सारन (सारण्य), आरा (आरण्य) के रूप में उपलब्ध है।

भोजपुरी लोकगीतों और लोक कथाओं की यात्रा के दौरान हमें भोजपुरी क्षेत्र के पारिवारिक गठन और पारस्परिक संबंधों के विविध रूपों द्वारा यहां का समाजशास्त्र समझने में काफी मदद मिलती है। अक्सर बिहार को पिछड़ा हुआ प्रदेश मानकर कह दिया जाता है कि यहां लड़कियां अपने पिता से बात नहीं करतीं, उनका जीवन उस गाय की तरह है जिसे खूंटे से बांध दो वह विद्रोह नहीं करती। आश्चर्यजनक रूप से भोजपुर लोकगीत बड़ी प्रबलता से इस धारणा और भ्रम का विरोध करते हैं। इन लोकगीतों में बेटी बहुत स्पष्टता से अपने पिता से अपने लिए वर खोजने की मांग करती है, इतना ही नहीं, वह यह भी बताती है कि उसे कैसा वर चाहिए और पिता ऐसे वर की पहचान कैसे करेंगे। पिता की संपत्ति का बड़ा भाग बेटे को मिलता है किंतु बेटी दहेज में अपने लिए क्या चाहती है, इन सब का बहुत स्पष्ट उल्लेख भोजपुरी लोकगीतों में मिलता है।

चढ़त चइतवा हो बाबा, उतरत बइसखवा हो
देस पइसी खोजिहऽ हो बाबा, पढ़ल पंडितवा॥
कइसे के चिन्हबो गे बेटी, चनन चउकिया।
कइसे के चिन्हबो गे बेटी, पढ़ल पंडितवा॥
छेवइत चिन्हिहऽ हो बाबा, चनन चउकिया।
पढ़इत चिन्हिहऽ हो बाबा, पढ़ल पंडितवा॥

इस लोक गीत में बेटी अपने लिए पिता से सुयोग्य और पंडित दुलहे को खोजने का अनुरोध करती है। पिता के पूछने पर कि शुद्ध चंदन की लकड़ी और पढ़े हुए पंडित लड़के को कैसे पहचान सकूंगा। लड़की उत्तर देती है, ‘‘चंदन की लक़डी को काटते हुए देखकर उसकी शुद्धता की पहचान करेंगे तथा पढ़ते हुए लड़के को देखकर आप समझ जाएंगे कि यह पढ़ा-लिखा विद्वान लड़का है।’’
पति-पत्नी के प्रेम संबंधों की अभिव्यक्ति भोजपुरी लोकगीतों में अनेकानेक रूपों में मिलती है। लोकगीतों में जन-मानस समाज द्वारा स्वीकृत संबंधों के सभी रूपों को एक अद्भुत, खुलेपन के साथ स्वीकार करता है। परिवार के सभी सदस्य सास, ननद, देवर आदि गर्भवती स्त्री से खुलकर बातचीत हंसी-मजाक करते हैं। स्त्री भी अपने मन की बातें खुलकर अपने पति से करती हैं। सोहर में प्राय: इस प्रकार के भाव अभिव्यक्त हुए हैं।

कवना मासे माथ हम मीसीला,
आपन घरवा लीपीला हो
ए ललना, कवना मासे पिया संगे सोइली,
देहिया गढुआइल,
मुंहवा पिअराइल हो।’

इसी प्रकार भाई-बहन, सास-ननद, भाभी, जेठानी-देवरानी, पिता-पुत्री, मां-बेटी, मां-बेटा आदि सभी संबंधों की विविधता

भोजपुरी लोक गीतों में मिलती है।
बहिनी त जोहिल अपना भइया
के बाट कब इमिली घोंटब।
झगरा गोतिनि संगे, रगरा देवरे संगे
ठनगनि सोभेला देवर संगे,
आ नखरा बलम संगे।

भोजपुरी क्षेत्र के प्रमुख पर्व और उत्सव हैं- रामनवमी, सतुआनी, बहुरा, ऋषि पंचमी, अनंत चतुर्दशी, जिउतिया, धनतेरस, दीपावली, बोधन, पिंडिया, छठ खिचड़ी महाशिवरात्रि और फगुआ या होली।

भोजपुरी क्षेत्र में औढर दानी शिव की पूजा सबसे अधिक की जाती है। लोकगीतों में भी शिव-पार्वती से संबंधित अनेक गीत मिलते हैं जो शिव के मस्तमौला रूप का चित्रण भी करते हैं और धीरे से संकेत भी करते हैं कि शिव प्रलयंकर और कितने महान हैं, जैसे निम्नलिखित लोकगीत में-

बसहा चढ़ल सिव गरजत आवेले,
झोरिनी आवेले भभूत हे।
सरप अनेक सिवके अंग पर लोटेला,
से कर गउरा से बिआह हे।
दस सखी आगे परे दस सखी पाछे परें,
दस सखी गहना लगाई हे।
परिछे बाहर भइली सासु मदागिनि,
सरप छोड़ेला फुफुकार हे।
लोढ़वा पटकली अछत छिटकली,
हनी देली बजर केवार हे।
अइसन बउराह बर के गउरी हम ना देबों,
बलु गउरा रहिहें कुंआर हे॥
बरम्हा जनमल बिसुन जनमल,
जनमेले तिरभुवन नाथ हे।
ताहि दिन ए गउरा हमरो जनम भइले,
अवहीं जीअब जुग चार हे।

सारन जिले में अरेराज में शिवजी का मान्यता प्राप्त मंदिर है तथा देवघर में बाबा बैजनाथ का ज्योतिर्लिंग है जहां प्रति वर्ष सावन मास में लाखों श्रद्धालु जल चढ़ाते हैं। शिवजी के साथ देवी के सभी रूपों की पूजा भी इस क्षेत्र में प्रचलित है। हनुमान जी को महावीर जी कहा जाता है और घरों में आंगन के बीचोंबीच बांस पर लाल तिकोनी ध्वजा स्थापित करके हनुमान का प्रतीक मानकर इनकी पूजा की जाती है। सीता-राम, कृष्ण और गणेश जी की पूजा का भी पर्याप्त प्रचलन है। अष्टयाम यानी आठों प्रहर निरंतर अखंड राम नाम का कीर्तन विशेष अवसरों पर होता है। यह सामूहिक रूप से किया जाता है। कभी चौबीस घंटों का, कभी अड़तालीस घंटों का भी होता हैे। इसमें आठ, दस, पंद्रह, बीस, पचास जितनी भी संख्या में लोग भाग लेते हैं वे पवित्रता और शुद्धता का ध्यान रखते हैं, निराहार रहते हैं और एक व्यक्ति जब जाता है तो दूसरा व्यक्ति तत्काल उसका स्थान ले लेता है। झांझ-मंजीरे की ध्वनि के साथ इस कीर्तन की सामूहिक स्वर की लय अद्भुत वातावरण की सृष्टि करती है। प्राय: इसके बोल होते है-

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥

प्राय: पर्व-त्यौहारों के अवसर पर गांव में मेले लगते हैं जिसमें लोग खरीदारी भी करते हैं और मनोरंजन भी।

आज के समय में सूचना और संचार के साधनों और शिक्षा के प्रसार-प्रचार से गांवों का जीवन भी बदल रहा है। शिक्षा पाकर युवा पीढ़ी का अपने भविष्य को संवारना स्वागत योग्य परिवर्तन है। राजनीति की चेतना से अपने अधिकारों के प्रति जन-मानस की जागृति भी स्वागत योग्य है, किंतु इन अवश्यंभावी परिवर्तनों के साथ अपनी जड़ों, भाषा और संस्कृति तथा जीवन और प्रकृति, भूगोल और मनुष्य के आपसी संबंधों और संतुलन को भी हमें सायास पूर्वक याद रखना और बचाना होगा। अपने जीवन का अनिवार्य हिस्सा ये कैसे बने रहेें, इस पर हम सभी भोजपुरी भाषियों को विचार भी करना होगा और उन विचारों और सपनों को क्रियान्वित करने की दिशा में कदम भी आगे बढ़ाना होगा। अपनी भाषा, अपने समृद्ध लोक साहित्य और संस्कृति से हम स्वयं कितने संपन्न होते हैं और उससे स्वयं को वंचित करके कितने विपन्न होते हैं यह हमें ही सोचना और करना है।

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