सुंदरता के तय मानक और स्त्री सौंदर्य का सच!

सुंदरता देखने वाले की आंखों में होती है। ये पुरातन कहावत हर स्थिति में सही नहीं मानी जा सकती! आज के संदर्भ में वास्तविक सुंदरता स्त्री के गुण हैं। क्योंकि, सुंदरता भौतिक क़ाबलियत नहीं, एक आध्यात्मिक अनुभूति है। हमारे यहां सुंदरता की परिभाषा ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ है। यानी जो सत्य है वो शिव है और वो जो शिव है, वही तो सुंदर है।

इससे और बड़ा सत्य क्या होगा! शरीर तो नश्वर है! सत्य वो आत्मा है, जो इस शरीर में निवास करती है। अगर वो सुंदर है, तो ये सुंदरता ही सत्य है। इसलिए हमारी संस्कृति में बाहरी गुणों से अधिक महत्व भीतरी गुणों को दिया गया है। शास्त्रों में भी तन से अधिक मन की सुंदरता को महत्व दिया गया। इसलिए जिस दिन स्त्री खुद को पहचान लेगी वो सौंदर्य के मौजूदा मानकों को अस्वीकार करके सुंदरता की अपनी नई परिभाषा गढेगी।

जिस दिन स्त्री जिसे सुंदरता का परिमाण माना जाता है, खुद को खुद की नज़रों से देखेगी, उसकी अपनी भी सुंदरता की परिभाषा बदल जाएगी। वो समझ जाएगी कि सुंदर तो ईश्वर की बनाई हर कृति होती है। सुंदरता अंगों के माप, रंग या उसके भौतिक स्वरूप से नहीं होती। स्त्री को स्वयं को ही इन मापदंडों से मुक्त करना होगा। जब पुरुषों के गोरे होने की क्रीम बाजार में आ गई, तो उसे अपने सांवले रंग पर गर्व महसूस करना होगा। स्त्री को समझना होगा कि जो स्त्री मापदंडों के जाल में अपने शरीर की सुंदरता ढूंढती है, जब वो खुद ही देह से परे अपना अस्तित्व नहीं देख पाती, तो पुरुष प्रधान समाज कैसे देखेगा! ये वो देश है जहाँ अगर ‘गौरी’ है तो ‘महाकाली’ भी हैं और दोनों ही पूजनीय हैं। इस देश में स्त्री केवल देह नहीं, शक्ति का केंद्र है। वो शक्ति की देवी है, धन की देवी है, ज्ञान की देवी है, अन्नपूर्णा है, सृजनकर्ता है। वो कोमलता का प्रतीक है तो जन्मदात्री के रूप में सहन शक्ति की पराकाष्ठा है।

सुंदरता चेहरे का नहीं दिल का गुण है। सुंदरता वो नहीं, जो आईने में दिखाई देती है। सुंदरता वो है, जो महसूस की जाए। सुंदरता की चाह में आज स्त्री भूल गई कि अधूरेपन और अव्यवस्था में भी खूबसूरती है। वो भूल गई है कि ईश्वर की बनाई हर चीज़ खूबसूरत होती है। कली की सुंदरता फूल से कम नहीं होती। सूर्योदय की भी अपनी खूबसूरती है, सूर्यास्त की अपनी। आज की स्त्री पुरुष प्रधान समाज के निर्धारित खूबसूरती के मानकों पर खरा उतरने के लिए खुद पर न जाने कितने अत्याचार कर रही है। विडम्बना तो यह कि खूबसूरत दिखने के लिए महिलाएं उन ब्यूटी पार्लर में जाती है, जिनका संचालन करने वाली महिलाओं का सुंदरता अथवा सौंदर्य के मानकों से दूर तक कोई वास्ता नहीं होता।

ये सच है कि हमारे ही समाज में महिलाओं के सौंदर्य का पैमाना शारीरिक सुंदरता से रहा है। नारी के कोमल मन की सुंदरता आधुनिकता के दौर में मानो कहीं खो गई है। बाजारवाद के इस दौर में भावनाओं का कहीं कोई मोल नहीं रह गया। स्त्री की सादगी और शालीनता को उसकी कमजोरी समझा जाने लगा। बाहरी आडंबर में जज्बात कहीं गुम हो गए! लेकिन, एक वक्त ऐसा भी था, जब स्त्री के चरित्र और उसके गुणों से उसकी पहचान होती थी। अतीत के पन्ने पलटने शुरू करें, तो देखेंगे कि ऐसी कई महिला पात्र हैं जिनकी पहचान उनके सौंदर्य से नहीं, अपितु उनके ज्ञान से थी। क्योंकि, समाज को यह नहीं भूलना चाहिए कि असली खूबसूरती चेहरे में नहीं दिल में होती है। कहा जरूर गया कि सुंदरता देखने वाले की आंखों में होती है। लेकिन, हवस भरे नयनों में वह बात कहां, जो एक स्त्री के मन को पढ़ सकें। ऐसे में जिस दिन समाज का नजरिया महिलाओं के प्रति बदल जाएगा उस दिन महिलाएं खुद से प्यार करने लगेगी। आज समाज यह भूल गया है कि असली सुंदरता चेहरे में नहीं दिल में होती है।

पश्चिमी समाज मनोविज्ञानी नाओमी वुल्फ ने लिखा है कि अगर कोई पुरुष किसी स्त्री की सुंदरता का उद्धरण देता है या उसकी प्रशंसा करता है, तो इस प्रकार के ज्यादातर मामलों में वह स्त्री को कोई यौन संदेश देने की कोशिश करता है। निहितार्थ यह है कि स्त्री की सुंदरता के उल्लेख के पीछे पुरुष उसके शरीर का यौनिक आकलन कर उसे आमंत्रित करता, समर्पण के लिए कहता या उसे हासिल करने की चेष्टा करता है। अगर वह अपने इस मंसूबे में विफल रहता है, तो वह पूरी कोशिश करता है कि वह स्त्री किसी दूसरे पुरुष के आकर्षण या मोहपाश में न बंध जाए। कुंठित पुरुषों की इस मनोवृत्ति समाज की विकृत मानसिकता को दर्शाती है। इसलिए जिस दिन स्त्री स्वयं अपने बाहरी आकर्षण को भूलकर जिस रूप में वो है, उसी में समाज में स्वीकृत होने को तैयार हो जाएगी तब उम्मीद की जा सकती है फिर पुरुष समाज की सोच में भी स्वतः परिवर्तन आने लगेगा।

सुंदरता वो नहीं जो आईने में दिखाई देती है बल्कि वो है, जो महसूस की जाती है। जिस दिन समाज महिलाओं की आंतरिक सुंदरता को तवज्जो देगा, खुद नारी अपने भीतर की खूबसूरती को बाहर से ज्यादा महत्व देगी और उस दिन पूरी दुनिया की नज़र में सौंदर्य की परिभाषा बदल जाएगी। वहीं स्त्री की सुंदरता उसके चरित्र से होना चाहिए न कि उसके रूप से! क्योंकि, रूप तो उम्र के पड़ाव के साथ ढल जाता है। यदि स्त्री को उसके चरित्र के रूप में देखेंगे तो वह हमें हमेशा वैसी ही दिखाई देगी। स्त्री दया, प्रेम, क्षमा और करुणा का रूप होती है और यही स्त्री की खूबसूरती है। तभी तो उसे ईश्वर का रूप माना जाता है। स्त्री में सृजन करने की शक्ति है। जो उसे ईश्वर की सभी कृति से महान बनाती है। आज के दौर में भले ही स्त्री की महत्ता समाज न स्वीकारे, उसके त्याग बलिदान को उसकी जिम्मेदारी मानकर अवहेलना करे। लेकिन, स्त्री ईश्वर की एक अनुपम छवि है और वह हर रूप में सुंदर है। यह स्वीकार करने की क्षमता स्त्री और पुरुष दोनों में होनी चाहिए।

– सोनम लववंशी

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