महिमामंडित भारत में बिहार


वैदिक वाङ्मय में जिस समय ‘व्रात्य’ कहकर बिहार की निन्दा की गई थी, उस समय किसे पता था कि यह प्रदेश एक दिन मानव सभ्यता, संस्कृति, धर्म, विश्वबंधुत्व, सहिष्णुता और सह अस्तित्व जैसे चिर दुर्लभ एवं शाश्वत मानव मूल्यों का अमर संदेश देगा। (भारत-सरकार की पत्रिका ‘भाषा’ सितम्बर-अक्तूबर-२०११)

नालंदा शोध संस्थान एवं महाविद्यालय के निदेशक डॉ. सरयू राय ने उपर्युक्त पंक्तियों में बिहार के गौरवपूर्ण इतिहास का संक्षिप्त एवं सत्य वर्णन किया है। महिमामंडित भारत में बिहार के योगदान के सम्बंध में वृहद्-ग्रंथ लिखा जा सकता है। परंतु मैं यहां केवल शिक्षा, संस्कृति और संस्कृत साहित्य के विशिष्ट संदर्भ में बिहार के महत्त्व को लिख रहा हूं।

एशिया का प्रथम गणतंत्र

एशिया का प्रथम गणतंत्र राज्य बज्जि-संघ था, जो ईसवी सन् ७२५ वर्ष पूर्व स्थापित हुआ और ईसा पूर्व ४५० वर्ष पूर्व तक अपना कीर्ति ध्वज फहराता रहा। बौद्ध ग्रंथ ‘अंगुत्तर-निकाय’ तथा जैन-ग्रंथ ‘भगवती सूत्र’ में भी बज्जि-संघ का जिक्र आया है।

बज्जि-संघ की राजधानी वैशाली थी जिसकी स्थापना इक्ष्वाकु वंश के राजा विशाल ने की थी। यह वैशाली बिहार का प्रमुख क्षेत्र है। अम्बपाली वैशाली की राजनर्तकी थी जिसे भगवान बुद्ध ने अपनी शिष्या बनाया था। डॉ. सरकार ने १९४९ के वैशाली महोत्सव के अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि बौद्ध काल में वृजि या बज्जि बहुत बड़ा गणराज्य था- इस महाजनपद में ८ जनपद थे जिसमें लिच्छवी और विदेह विशेष उल्लेखनीय है।

रामायण काल में विदेह बहुत बड़ा राज्य था, जिसे मिथिला भी कहा गया है। विदेह के राजा सीरध्वज जनक थे जो विश्व के विद्वानों में से एक थे। डॉ. सुभद्र झा ने अपनी पुस्तक में मैथिली में वैशाली, विदेह और अंग तीन जनपदों (प्रांतों) को अंतर्मुक्त किया है। इस क्षेत्र की बोली बज्जिका, मैथिली तथा अंगिका हैं जो बिहार की प्रमुख बोलियां हैं।

देव-भाषा ‘संस्कृत’ के बिहारी विद्वान

‘याज्ञवल्वय-स्मृति’ के रचयिता महर्षि याज्ञवल्क्य और वर्धमान उपाध्याय मिथिला के विद्वान थे।
भाष्यकार कात्यायन और आचार्य वररुचि पटना के मनेर नामक स्थान के निवासी थे।
विष्णु शर्मा पाटलीपुत्र के राजा सुदर्शन के दो कुमार्गी पुत्रों को सन्मार्गी बनाने के लिए ‘पंचतंत्र’ नामक नीति-ग्रंथ की रचना की थी। इस ग्रंथ में पशुओं को प्रमुख पात्र बनाकर जीवनोपयोगी संदेश दिया गया है।
चाणक्य का ही द्वितीय नाम ‘कौटिल्य’ था जिसने अर्थशास्त्र की रचना की। वात्स्यायन, विष्णुगुप्त, मल्लनाग, द्रमिल, आंगल और पक्षिक स्वामी भी इनके नाम थे।

संस्कृत के महान ग्रंथ ‘हर्षचरित’ और ‘कादम्बरी’ की रचना महाकवि बाणभट्ट ने की थी जो बिहार के पूर्व जिला-शाहाबाद के निवासी थे।

योगशास्त्र के रचयिता महर्षि पतंजलि को भी बिहारी कहा गया है। कुछ विद्वान ऐसा नहीं मानते परंतु बिहार के कई विद्वान डॉ. रंजन सूरिदेव, योग गुरु बाबा रामदेव तथा महावीर मंदिर पटना से निकलने वाली पत्रिका धर्मायण के विद्वान संपादक पंडित भवनाथ झा ने इन्हें बिहारी माना है। पंडित झा ने तो इतना तक कहा है कि महाभाष्य के अन्त:साक्ष्य के आधार पर पतंजलि भी पाटलीपुत्र के निवासी थे- इन्होंने पुष्पमित्र शुंग का यज्ञ कराया था।

आठवीं सदी में मिथिलांचल के महिष्मती गांव (सहरसा जिला) में पं. कुमारिल भट्ट एक प्रसिद्ध विद्वान थे। एक बार शास्त्रार्थ की इच्छा से आदिशंकर उनके पास पहुंचे। उन दिनों पं. भट्ट ‘कच्छ चान्द्रायण तप’ कर रहे थे। उन्होंने कहा कि पहले मेरे शिष्य मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करें। पं. भट्ट, मंडन मिश्र की विद्वता से इतने आकर्षित हुए कि थे कि अपनी एक मात्र विदुषी पुत्री ‘भारती’ का विवाह मंडन मिश्र से करा दिया था। जब आदिशंकर मीमांसक पं. मंडन मिश्र के गांव पहुंचे तो उनके घर का पता पूछा। एक पनिहारी ने संस्कृत श्लोक कहकर ही मंडन मिश्र के घर का पता बतलाया:-

 स्वत: प्रमाणं, परत: प्रमाणं, शुकांगनास्तत्र गिरो गिरन्ति।
     शिष्यौप शिष्यै मुपनीयमानं, भवेहि तन्मन्डन मित्र धाम:’’

जिस दरवाजे पर तोता व मैना संसार की नित्यता और अनित्यता पर आपस मेें बातचीत कर रहेे हों तथा शिष्य और उपशिष्य शास्त्र पर चर्चा कर रहे हों, वही मंडन मिश्र का धाम है। शंकराचार्य और मंडन मिश्र का शास्त्रार्थ हुआ। विषय था-‘ज्ञानवाद और कर्मवाद।’ जब पं. मंडन मिश्र पराजित होने लगे तब उनकी विदुषी पत्नी ने ललकारा। भारती ने कहा कि आप संन्यासी हैं और पं. मिश्र गृहस्थ हैं और मैं उनकी अर्द्धांगिनी हूं। आपने जब मुझे पराजित नहीं किया तो शास्त्रार्थ अधूरा ही रहेगा। भारती ने कामशास्त्र एवं पाक शास्त्र संबंधी प्रश्न पूछा। भारती के कारण शंकराचार्य को संन्यास धर्म से विचलित होना पड़ा। कालान्तर में शंकराचार्य ने द्वारिका स्थित कालिकापीठ के सुरेश्वराचार्य के पद पर पं. मंडन मिश्र को आसीन किया।

मिथिला के पं. वाचस्पति मिश्र ने ब्रह्म सूत्र तथा तत्व मीमांसा पर दुर्लभ ग्रंथ लिखा था। जब वे शंकराचार्य के शारीरिक भाष्य का अनुवाद लिख रहे थे तब उनका विवाह हुआ। ग्रंथ लिखने में दस वर्ष लग गये। अंतिम रात्रि में जब पत्नी भोजन की थाली लेकर आई तब उन्होंने पूछा- देवी! तुम कौन हो?

उत्तर मिला- मैं आपकी पत्नी ‘भामती।’ पं. वाचस्पति मिश्र ने उक्त दुर्लभ ग्रंथ का नाम भामती ही रखा।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक ‘बुद्धचर्चा’ की भूमिका में लिखा है- ‘शंकराचार्य का शारीरिक भाष्य’ एक अनमोल ग्रंथ अवश्य था, परंतु उत्तर भारत में शारीरिक भाष्य का महत्व तब बढ़ा जब मिथिला के सर्वशास्त्र निष्णात दार्शनिक वाचस्पति मिश्र ने उस पर भामती टीका लिखी। वाचस्पति मिश्र के कंधे पर चढ़कर ही शंकर को वह कीर्त्ति और बड़प्पन मिला।

खगोल-विज्ञान और गणित में विलक्षण प्रतिभावान अन्वेषक

ईस्वी ४७६ में कुसुमपुर (पटना का पूर्व नाम) में आर्यभट्ट का जन्म हुआ था जो खगोल विज्ञान और गणित में विलक्षण प्रतिभावन अन्वेषक थे। इन्होंने मात्र भारत को नहीं एशिया महादेश को गौरवान्वित किया और विश्व के खगौलिक इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ी, इन्होंने निम्नांकित अन्वेषण किया:

पृथ्वी के सही अस्तित्व एवं परिधि की जानकारी, पाई का मूल्यांकन ३.१४१६ बतलाया था। त्रिभुज का क्षेत्रफल निकालने की विधि बतलाई थी। शून्य का महत्व बतलाया था। दशमलव पद्धति का विकास। बीजगणित और त्रिकोणमिति का सिद्धांत।
इनकी दो पुस्तकें १. आर्य भट्टीयम (२- भाग में) और २. सूर्य सिद्धांत विश्व में चर्चित रहीं। भारत ने १९७५ में इनके सम्मान में जब पहला उपग्रह छोड़ा तो उस उपग्रह का नाम ‘आर्यभट्ट’ रखा।

अद्वितीय प्रकांड विद्वान कवि विद्यापति

संस्कृत, अपभ्रंश और मैथिली के अद्वितीय प्रकांड विद्वान कवि विद्यापति का जन्म मिथिला में हुआ था। ये भगवान शिव और राधाकृष्ण के परम् भक्त थे। इन्होंने ताल पत्र पर दुर्लभ ग्रंथ लिखा था- ‘शैवसर्वस्वसार’।

 विज्ञानुज्ञाप्य विद्यापति कृति नमसौ विश्वविख्यात कीर्ति:।
     श्री मद्विश्वासदेवी विरचयति शिवं शैव सर्वस्व सारम्॥
कहा जाता है कि इनकी भक्ति से प्रभावित होकर भगवान शिव इनके यहां नौकर के रूप में रहते थे। भगवान शिव के साथ इनका अनुबंध था कि इसे प्रकाशित करने पर वे चले जायेंगे। जब भगवान शिव चले गये तब कवि विद्यापति ‘उगना रे मोर कत: गेले’ कहकर पागलों की तरह प्रलाप करते रहे।
इनके अन्य संस्कृत ग्रंथों में भू-परिक्रमा, पुरुष परीक्षा, लिखनावलि, विभागसार, दान वाक्यावली, गयापत्रलक, दुर्गाभक्ति तरंगिनी, वर्षकृत्य आदि चर्चित हैं। यह भी कहा गया है कि अपने महाप्रयाण के समय गंगा-लाभ के लिए जाते समय इन्होंने अपनी पालकी गंगा से दूर पर ही रखवा दी और कहा- ‘मैं इतनी दूर मां गंगा के दर्शनार्थ आया, क्या दयामयी मां थोड़ी दूर भी पुत्र के लिए नहीं आएंगी?’ प्रात: लोगों ने देखा कि गंगा की एक धारा फूट गई और वह धारा उस स्थान तक पहुंची। वह मऊ बाजिदपुर गांव दरभंगा और मुंगेर जिले की सीमा पर स्थित है जो आज भी विद्यापति स्थान के नाम से विख्यात है।

मिथिला में ही एक बहुभाषाविद् और बहुश्रुत विद्वान थे महामहोपाध्याय पं. रामावतार शर्मा जिनका आविर्भाव ६ मार्च १८७७ ई. को तथा तिरोभाव ३ अप्रैल १९२९ ई. में हुआ था। ये कपिल-कणाद जैसे प्राचीन दार्शनिकों में पंक्तिय थे।

परमार्थदर्शन, वाङमयार्णव, भारत गीतिका, मुद्गरदूतम, मारूतिशतकम्, धीरनैषधम् आदि इनके दुर्लभ संस्कृत ग्रंथ हैं। इन्होंने ४८ घंटों तक निराहार रहकर केवल गंगाजल पान करके मौन रहकर मारुतिशतकम् की रचना की थी। इस ग्रंथ की भूमिका (प्रतिमुख) में डॉ. रंजन सूरिदेव ने लिखा है कि ‘महामहोपध्याय पं. रामावतार शर्मा आन्वीक्षिकी की मौलिकता, निबंध पटुता तथा कवित्व-शक्ति की दृष्टि से पंडितराज जगन्नाथ की परंपरा के अंतिम शिलास्तंभ थे। किसी स्वीकृत विषय को विद्वत्ता से खंडन करने की शक्ति रखते थे तथा उसी प्राज्ञता से मंडन करने की क्षमता भी उन्हें प्राप्त थी।’
पुरुषोत्तमाचार्य मिथिला क्षेत्र के थे, उनका जन्म ग्राम वनगांव वर्तमान प्रखंड बाजपट्टी, वर्तमान जिला सीतामढ़ी में हुआ था। ये संस्कृत के महापंडित थे, जिन्होंने विशिष्टाद्वैत परक ‘बोधायन’ नामक ग्रंथ की रचना की थी। अतएव इन्हें बोधायनाचार्य के नाम से प्रसिद्धि मिली। लहेरिया सराय-दरभंगा के प्रसिद्ध वकील और हिन्दू धर्म के ज्ञाता स्व. पलटलाल ने इनकी चर्चा एक स्वतंत्र पुस्तक लिखकर की है, जिसमें वैष्णव सिद्धांत का विश्लेषण है।

 अर्वाचीन बिहार का संस्कृत साहित्य में योगदान

मुजफ्फरपुर (बिहार) के मूर्धन्य साहित्यकार कविवर आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने प्रारंभ में संस्कृत भाषा से ही रचनायें की थीं- काकली, बन्दीमंदिरम् लीलापद्मम, प्राच्य साहित्यम् इनकी श्रेष्ठ तथा बहुचर्चित संस्कृत पुस्तकें हैं। महाकवि निराला की प्रेरणा से हिंदी ग्रंथों की रचना कर शास्त्री जी ने हिंदी को समृद्ध किया।

पं. भागेश्वर ठाकुर ज्योतिषाचार्य का जन्म सिकरवह कला ग्राम में १ जुलाई १९२१ को हुआ था। यह ग्राम सीतामढ़ी जिला के सुप्पी प्रखंड (मेजरगंज थाना) में है। ये बहराइच कॉलेज में संस्कृत प्राध्यापक थे। उत्तर प्रदेश का कुख्यात डाकू भगवान दीन ने इनके उपदेश से प्रभावित होकर उसी प्रकार मानवता की सही राह पकड़ी जिस प्रकार प्राचीन काल में गौतमबुद्ध के प्रभाव से अंगुलीमाल ने और आधुनिक काल में लोकनायक के प्रभाव से नक्सल क्षेत्र के कुख्यातों ने अपनी दिशा बदली थी।
पं. भवनाथ झा जी का जन्म मधुवनी जिलान्तर्गत झंझापुर के निकट जमुजई ग्राम में हुआ था। इनका संस्कृत काव्य-‘द्रोण-पंचासिका’ बहुचर्चित है। अश्वघोष महाकवि ने बुद्ध चरितम् महाकाव्य लिखा था। उसके २८ सर्ग थे परंतु अभी १४ सर्ग तक ही भारत में प्राप्त है। पं. भवनाथ झा ने तिब्बती भाषा में लिखित अन्य सर्गोंे के अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर शेष सर्गों के अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर शेष सर्गों की रचना की है जो अभी प्रकाशित नहीं हुई है मुद्रणाधीन है। प्रकाशित हो जाने पर बुद्ध चरितम्-उत्तर चरितम् नामक यह पुस्तक विश्व का दुर्लभ ग्रंथ हो जायेगी। संप्रति पं. झा महावीर मंदिर पटना से प्रकाशित पत्रिका धर्मायत्र के संपादक हैं। आचार्य किशोर कुणाल के अकथ सहयोग सं पं. झा ने कई ग्रंथों का संपादन किया है।
पं. भवनाथ झा के ग्राम में ही एक और विद्धान हुए पं. मतिनाथ मिश्र। इन्होंने भी ‘भार्गव विक्रम’, महर्षि विश्वामित्रम् एवं विश्वबंधु नामक ग्रंथों की रचना की।

संस्कृत विश्वविद्यालय दरभंगा के एक पूर्व उपकुलपति हैं डॉ. त्रिलोक नाथ झा। ये संस्कृत के उद्भट विद्वान हैं। इन्होंने अंग्रेजी में एक पुस्तक लिखी है- ‘कन्ट्रीब्यूशन ऑफ मिथिला इन संस्कृत लिट्रेचर’ इस पुस्तक में इन्होंने संस्कृत के कई उद्भट विद्वानों एवं रचनाकारों का परिचय तथा कृतित्व का वर्णन किया है।

पं. किशोरी झा नैयायिक ग्राम- श्री खंडी, सुरसंड सीतामढ़ी के निवासी हैं। ये न्याय शास्त्र के उद्भट विद्धान हैं। काठमाडुं में संस्कृत शास्त्रार्थ सम्मेलन में इन्हें स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ था। सीतामढ़ी जिले के मानिकचौक ग्राम के पं. श्रीकांत ठाकुर अलवर महाराज के यहां ज्योतिषाचार्य थे। वे ज्योतिष के प्रकांड विद्धान थे।

सीतामढ़ी जिले के डूमरा प्रखंड-पकड़ी ग्राम में आचार्य जयकिशोर नारायण सिंह का आविर्भाव ६ अप्रैल १९१२ तथा तिरोभाव २६ अप्रैल १९८० में हुआ था। इन्होंने भी कई पुस्तकें लिखीं जो चर्चित रहींे।

आचार्य किशोर कुणाल वरिष्ठ आई. पी. एस. हैं, जो बिहार के हैं। ये आई. जी. के पद पर आसीन थे। पद त्याग कर मानव जाति के कल्याण हेतु दर्जनों योजनाएं बनाईं। कई चिकित्सालयों का संचालन कर रहे हैं। साथ ही संस्कृत के कई दुर्लभ ग्रंथों का पुन: संपादन किया है और कराया है।

 विक्रमशिला विश्वविद्यालय

विश्व के मानचित्र में भारतीय शिक्षा को उच्च शिखर पर पहुंचाने वाले बिहार के दो विश्वविद्यालय थे। इनमें विक्रमशिला विश्वविद्यालय एक था। इस विश्वविद्यालय मेें छ: द्वार पंडित थे। इनमें भट्टारक नरोपम महायान शाखा के तंत्र-मंत्र में पारंगत थे। रत्नाकर शास्त्री व्याकरण एवं न्याय शास्त्र के उद्भट विद्वान थे और बागीश्वर कीर्ति काव्य के आचार्य थे। पश्चिमी विद्वान टी. एस. इलियट ने ‘हिन्दुइज्म एवं बुद्धिज्म’ पुस्तक के (भाग-२, पृ. १११) में लिखा है- ‘महावीर तंत्र विद्या तथा ज्ञान के सबसे महत्वपूर्ण एवं बड़े शिक्षा केंद्र के रूप में ख्याति प्राप्त था। इस महाविहार में जादू, टोना, गुप्त विज्ञान के समझने की भी पद्धति थी। यहां छात्र तर्कशास्त्र, शब्द विद्या और चिकित्सा शास्त्र पढते थे।’

सिख-धर्म
 २२ दिसंबर १६६६ के दिन पटना सिटी में सिख धर्म के दसवें एवं अंतिम गुरु गोविन्द सिंह का जन्म हुआ था। उन्होंने कहा था कि अब इस धर्म में कोई गुरु नहीं होगा। आदि ग्रंथ ही गुरुवाणी समझी जायेगी। गोविन्द सिंह जी ११ नवंबर १६७५ को गुरू बने और १६९९ में खालसा पंथ की स्थापना की, उन्होंने पांच अनुयायियों को दीक्षा दी जिन्हें ‘पंच पियारे’ कहा गया।
बिहार में रामायण स्थल-सीता की कटूय स्थली सीतामढ़ी (पुनौरा) हलेश्वर स्थान, अहिल्या स्थान आदि है।
कर्मकाण्ड स्थल- गया जिसे विष्णुनगरी कहा गया है।
बुद्ध स्थल- बोधगया, वैशाली, नालंदा, राजगीर है।
जैन स्थल- पावापुरी है।
सिख स्थल-पटना सिटी है।
कला-संस्कृति में भी बिहार अद्वितीय है
सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा संगीत की आचार्या थी।

विश्वप्रसिद्ध सितार वादक बिस्मिल्ला खां का जन्म २१ मार्च १९१६ को बिहार के बक्सर जिले के डुमरांव ग्राम में हुआ था।
वाक्पटुता में निपुण गोनू झा मिथिला के थे, इनकी सैकड़ों कहानियां हास्य रस एवं ज्ञान से भरी हैं। पटना की चित्रशैली-पटना कलम भी कभी राष्ट्रीय चित्रशैली थी। सामा-चकेवा, चट-जटिन आदि लोक-संस्कृति नाटिका भी बिहार की देन है।
प्रसिद्ध चित्रकार एवं कलाकार उपेन्द्र महारथी उड़ीसा के थे परंतु उनका कार्य क्षेत्र बिहार रहा। बिहार से ही उनकी ख्याति का झंडा बुलंद हुआ। इस प्रकार भारत को महिमामंडित करने में बिहार का बहुत बड़ा योगदान रहा।

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