चीन का कर्जजाल

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन द्वारा अपनाई जा रही डेब्ट् ट्रैप डिप्लोमैसी काफी खतरनाक और वीभत्स तरीके से हर प्रायद्वीप के छोटे-मझले राष्ट्रों को अपनी चपेट में लेती जा रही है। चीन की इस पॉलिसी का प्रभाव श्रीलंका और पाकिस्तान समेत कई देशों में दिखना शुरू हो गया है। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा इन पर रोक लगाए जाने की आवश्यकता है ताकि वैश्विक संतुलन बरकरार रहे।

बदलती अंतरराष्ट्रीय राजनीति में चीन के उभार ने क्षेत्रीय स्थिरता और सामरिक संतुलन को प्रभावित किया है। शीत युद्ध के बाद बदली विश्व व्यवस्था में चीन ने आर्थिक विस्तार को आधार बनाकर अपनी ऋण-नीति को क्षेत्रीय विस्तार के लिए रणनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है। 21वीं सदी में चीन का आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव इतनी तेजी से बढ़ा कि विश्व के कई देश, यहां तक कि अपेक्षाकृत मजबूत देश और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भी इसके प्रभावों से जूझने के लिए संघर्ष कर रही हैं।

शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती सक्रियता से अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश भी अचंभित हैं। तुलनात्मक रूप से छोटे तथा आर्थिक रूप से कमजोर राष्ट्रों को चीन ने अपने बॉर्डर एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) जैसी अंतरराष्ट्रीय परियोजना से जोड़कर उन्हें घरेलू ढांचागत विकास के नाम पर अरबों डॉलर का कर्ज देकर उन देशों की अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है। बीआरआई लगभग 70 देशों में निवेश करने के लिए चीनियों द्वारा विकसित एक वैश्विक बुनियादी ढांचा विकास रणनीति है। चीनी सरकार बीआरआई के माध्यम से बंदरगाहों, सड़कों, पुलों, बांधों, बिजली स्टेशनों, रेलमार्गों आदि के निर्माण में निवेश करती है। इस नीति के तहत चीन ने अफ्रीका एवं एशिया के कई देशों में अपनी रणनीतिक उपस्थिति को मजबूत किया है जिससे वह उन राष्ट्रों पर रणनीतिक बढ़त हासिल कर रहा है जो चीन की नीतियों के खिलाफ हैं।

भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और मालदीव चीन के बड़े कर्जदार देश हो चुके हैं। चीन-पकिस्तान इकॉनोमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) के नाम पर पकिस्तान को चीन ने अरबों डॉलर कर्ज के नीचे दबा दिया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की एक रिपोर्ट के मुताबिक जून 2013 में पकिस्तान पर 44.35 बिलियन डॉलर का बाह्य कर्ज था जिसमें चीन का हिस्सा मात्र 9 प्रतिशत था। अप्रैल 2021 में पकिस्तान पर 90.12 बिलियन डॉलर का बाह्य कर्ज हो चुका है जिसमें चीन का हिस्सा बढ़कर 27.4 प्रतिशत है। कर्ज के जाल में फंस चुके पाकिस्तान को जून 2022 तक 8.6 अरब डालर के कर्ज को चुकाने के लिए कर्ज लेने की स्थिति बनी हुई है।  ढांचागत विकास के नाम पर चीन द्वारा पकिस्तान के ग्वादर पोर्ट पर भी अपनी उपस्थिति मज़बूत की जा रही है, यह भारत के लिए रणनीतिक रूप से चुनौती का क्षेत्र बनता जा रहा है। बांग्लादेश में भी चीन ने काफी निवेश किया है, जो इसके जीडीपी के लगभग 20 प्रतिशत से अधिक है। अफगानिस्तान में तालिबान शासन आने के पश्चात चीन की गतिविधियों में तेजी आई है। वैसे पहले से ही अफगानिस्तान चीनी ऋण-नीति का शिकार हो चुका है। अब बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में जब कई देशों ने तालिबान से अपने संबंधों को सीमित किया है वहीं चीन ने इस आपदा को अवसर में बदलने का कार्य प्रारम्भ कर दिया है।

आजकल श्रीलंका की अर्थव्यवस्था अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। चीन से लिए गए डेढ़ अरब डालर कर्ज के बदले श्रीलंका को हंबनटोटा बंदरगाह सौंपना पड़ा और अब कोलंबो बंदरगाह भी चीन को दिया जा चुका है। अभी हाल में ही श्रीलंका की सरकार ने चीन से 2.35 बिलियन डॉलर सहायता की मांग की है। नेपाल में भी पूर्व की सरकार ने चीन से अपने देश में ढांचागत विकास के नाम पर अरबों डॉलर का कर्ज ले लिया था, हालांकि राजनीतिक अस्थिरता के कारण अधिकतर परियोजनाओं का कार्य प्रारम्भ तक नहीं हो सका है। मालदीव में भी चीनी-वित्त पोषित परियोजनाएं और ऋण वहां सरकार के परिवर्तन के साथ बढ़े और घटे हैं। इन सभी देशों में चीन की ऋण नीति ने उनकी अर्थव्यवस्था पर काफी नकारात्मक प्रभाव डाला है। कई मौकों पर चीनी ऋण की ब्याज दरें अन्य देशों द्वारा द्विपक्षीय सहायता पर लगाए जाने वाले शुल्क से लगभग तीन गुना अधिक होती हैं।

दक्षिण-पूर्व एशियाई देश म्यामार में सैन्य तख्ता पलट के बाद चीन वहां से जा चुका है परन्तु यह देश भी चीन के कर्ज में फंसा है, लगभग यही हालात एक अन्य देश लाओस की भी है। लाओस में एक रेल परियोजना का निर्माण किया गया जिसमे 70 प्रतिशत हिस्सा चीन का है और इसकी लागत भी लगभग 6 अरब डालर की है। इस निर्माण परियोजना से लाओस को फायदा कम नुकसान अधिक हुआ है। हाल ही में लाओस को मूडीज ने एक जंक स्टेट घोषित किया है क्योकि लाओस का विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डालर से भी नीचे पहुंच गया है। कम्बोडिया पर भी चीन का कर्ज उसके जीडीपी का 20 प्रतिशत से अधिक हो चुका है।

बंदरगाह विकसित करने और यातायात नेटवर्क को बढ़ाने के लिए यूरोपीय देश मोंटेनेग्रो भी चीनी कर्ज के जाल में  फंस चुका है। वर्ष 2018 तक कर्ज उसकी जीडीपी का 83 प्रतिशत था। मध्य एशियाई देश तजाकिस्तान चीनी कर्ज के बोझ तले दबा हुआ है, जिसमें कुल विदेशी कर्ज में चीन का हिस्सा 80 प्रतिशत है। ऐसे ही किर्गिस्तान में वर्ष 2016 में चीन ने 1.5 अरब डालर निवेश किया था। वहां कुल विदेशी कर्ज में चीन का हिस्सा 40 प्रतिशत है।

चीन अफ़्रीकी देशों को भी अपने जाल में लगातार फंसाता जा रहा है। जिबूती में चीन का 10 अरब डालर का निवेश है, जो कि उसकी जीडीपी का 85 प्रतिशत है। इसी प्रकार युगांडा चीनी कर्ज के जाल में फंसकर अपना एकमात्र अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट चीन के हाथों खो चुका है। चीन, अफ्रीका में अपनी उर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए वहां के कई देशों के प्राकृतिक संसाधनों का जमकर दोहन कर रहा है। जिम्ब्बावे में चीन ने वहां जंगल, जानवर और जमीन को भारी नुकसान पहुंचाया है। इसी प्रकार आधारभूत ढांचा विकसित करने के नाम पर कांगो, नाइजर और जांबिया जैसे देशों को भी चीन ने उनकी जीडीपी के 20 प्रतिशत से अधिक कर्ज दिया है।

पिछले कुछ महीनों से चल रहे रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन प्रभावित हुई है जिससे वैश्विक महंगाई भी बढ़ी है। ऐसे संकट में आसमान छूती महंगाई और घटते विदेशी भंडार इन सभी देशों की सामान समस्या बनकर उभरी है। आर्थिक संकट के अलावा, इन सभी देशों के बीच एक बात समान है कि यह सभी चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) का हिस्सा हैं। इन समस्याओं का प्रभाव उन देशों की राजनीतिक स्थिरता पर भी पड़ रहा है जिससे क्षेत्रीय असंतुलन और वैश्विक शांति भी प्रभावित हो रही है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में चीन की इस ऋण नीति को ऊशलीं-ढीरि ऊळश्रिेारलू कहा जा रहा है । चीन द्वारा दूसरे देशों को ऋण देने और उन्हें आर्थिक-उपनिवेश बनाने की नीति अब काफी जानी-पहचानी हो गयी है।

                                                                                                                                                                                    डॉ. अभिषेक  श्रीवास्तव 

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