समन्विन्त संस्कृति का केंद्र बिहार

                                                                                          नेपाली मंदिर                                                                                          बचपन में ही मुझे जानकर अच्छा लगा था कि मैं छपरा नगर का निवासी हूं, जहां सरयू तट पर पास के मुहल्ले में दधीचि मुनि का आश्रम था। आज उसे अहियांवा कहते हैं। नगर के पूर्व में चिरांद नामक ग्राम है जिसके आसपास सरयू और गंगा का संगम है। यहां एक अति प्राचीन गढ़ है जिसके द्वार पर अज्ञात लिपि में कुछ लिखा हुआ है। इसे पढ़ लेने पर गढ़ में छिपे धन को पाया सकता है…बताया गया है कि पुराण प्रसिद्ध राजा मयूरध्वज का गढ़ है। नगर के सुदूर पश्चिम में गोदना सेमरिया ग्राम में सरयू तट पर गौतम ऋषि का स्थान था। गया के एक पुराने मित्र स्वर्गीय बाल गोविन्द सिंह, ने बताया था कि वाल्मीकि रामायण के अनुसार यहीं सरयू-गंगा का संगम हो जाता था।

 

बचपन में कार्तिक पूर्णिमा स्नान के लिए गोदना सिमरिया परिवार के साथ गया था और एक बार चिरांद भी गया था। पचास-पचपन वर्ष पहले पटना विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास एवं पुरातत्व विभाग की ओर से चिरांद में उत्खनन हुआ था।

सन २०११ के अगस्त या सितंबर में जिलाधीश के सभागार में चिरांद विकास परिषद की ओर से जिलाधीश के सौजन्य से सभा आयोजित हुई थी। इसमें पटना विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के सेवानिवृत्त अध्यक्ष डॉ. बी. एस. वर्मा पटना से आए थे। दैनिक जागरण के इस क्षेत्र के प्रभारी श्री कृष्णकांत ओझा ने प्रोजेक्टर द्वारा उत्खनन से प्राप्त सामग्री का प्रदर्शन करते हुए समझाया था। ताम्र पाषाण काल तथा नवपाषाण काल की सभ्यता का महत्त्वपूर्ण केंद्र चिरांद रहा है। हड्डियों के शस्त्रास्त्र, मुखौटे आदि प्राप्त हुए हैं। डॉ. वर्मा ने कहा कि बिहार प्रदेश में चिरांद की पुरातात्विकता सर्वाधिक पुरानी और महत्वपूर्ण है। यह तो मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा से भी अति प्राचीन पुरातत्व केंद्र है। इससे बिहार भारत की आदिम सभ्यता का प्राचीनतम केंद्र सिद्ध होगा। यहां उस युग में सरयू-गंगा-शोण तीनों का संगम था। अत: यह स्थान सभ्यता के विकास का स्थान बना, साथ ही पवित्र संगम भी माना गया। आज यहां शोण नहीं है पर यह आज भी पवित्र स्थान है। साधु-संतों के आश्रम तथा मंदिर हैं। कहा जाता है कि राजा मयूरध्वज के पुत्र के चीरने की घटना से इसे चिरांद कहा गया।
यह जनपद सारण नाम से प्रसिद्ध है। सारण-सारण्य-सारंगारण्य। पड़ोस में आरा यानी अरण्य। दूसरी और चंपारन यानी चंपारण्य। वनों का सघन क्षेत्र। सारंग अनेकार्थी शब्द है। अर्थ हैं- मृग, मयूर, सिंह और हाथी। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सारंग का सघन वन क्षेत्र, मृग, मयूर, सिंह और हाथी से भरा हुआ था। इसीलिए राजा मयूरध्वज का नाम मयूरों की अधिकता पर आधारित लगता है। इससे सुदूर उत्तर पूर्व गंडक के तट पर गज-ग्राह का संघर्ष भी पुराण प्रसिद्ध है। तट के पास की धारा में जंगली हाथी और ग्राह में द्वंद्व हुआ। हाथी बच गया विष्णु की अनुकम्पा से। यह पौराणिक वैश्वीकरण है। अत: गंडक तट का प्राचीन शिव स्थान हरिहर क्षेत्र कहलाया। शैव एवं वैष्णव का समन्वय हो गया। हरिहर क्षेत्र का मेला भारत प्रसिद्ध हो गया, अब नए वैश्विक बाजार युग में मेला उतार पर है।

राजा मयूरध्वज का पुत्र अस्थिदान करे या वृद्ध दधीचि मुनि करें-दोनों ही पाषाण युग की महत्वपूर्ण घटनाएं हैं। इनकी अस्थियों से शस्त्रास्त्र आदि बनने का युग जो था। पाषाण युग की घटनाएं परिवर्तित रूप में पुराण कथा में गुंफित हैं। पुराणों का अनुशीलन अपेक्षित है, पर चिरांद का उत्खनन रुका हुआ है। संपूर्ण उत्खनन से सारण बिहार और भारत की महत्वपूर्ण पुरातात्विकता सामने आएगी, प्रतीक्षा है।

चिरांद नाम का अनुमान किया जा सकता है। नदियों का संगम और आदिम सभ्यता का केंद्र अवश्य ही चिरांद का बोधक होगा, अनुसंधित्सु विचार करेंगे।

चिरांद से पूर्व की ओर बढ़ने पर गंगा तट पर आमीग्राम में देवी-स्थान अंबिका भवानी मंदिर जनपद में ख्यात है। मिट्टी के वृहद् पिंड के रूप में देवी मां स्थित हैं। यह मंदिर गंगा की बाढ़ में भी स्थिर व सुरक्षित रहता है। स्मरणीय है कि राम नवमी के अवसर पर मंदिर के परिसर में चैता लोकगीत की प्रतियोगिता होती रही है। यह तो मानो शाक्त और वैष्णव का संगम है। मैंने बचपन में देखा है, सुना है। मिट्टी के वृहद् पिंड के रूप में देवी की पूजा अति प्राचीन लगती है। पुरातात्विक परख अपेक्षित है। प्रखंड का नाम दिघवारा है। लोग तो राजा दक्ष का दिग्विजय द्वार कहते हैं पर यह दक्ष का क्षेत्र नहीं है। दिघवारा का दूसरा रूप हो सकता है- दीर्घवाट-बड़ा मंडप, भवन उद्यान। इसके बाद ही सोनपुर है। पर सारण कमिश्नरी के गोपालगंज के थावे के देवी मंदिर की चर्चा आवश्यक है। थावे का देवी मंदिर और साथ का पुरातन राजभवन का अवशेष चेर जनजातीय राजा द्वारा निर्मित रहा है। दो वर्ष पहले दैनिक जागरण में ऐसा प्रकाशित हुआ था। तात्पर्य यह है कि जनजातीय राजा का शासन रहा है जिसने देवी मंदिर को बनवाया था।

सोनपुर के उस पार हाजीपुर यानी वैशाली का विश्व प्रसिद्ध लिच्छवी गणतंत्र का केंद्र रहा है। गंडक तट पर नेपाली मंदिर अद्भुत शिल्प का धनी है। उससे आगे एक और प्राचीन सभ्यता का केंद्र श्वेतपुर मिला है। वज्जी गणतंत्र से आगे ही प्राचीन युग का विदेह जनपद यानी वैदिक संस्कृति का केंद्र किरातों के सहयोग से खड़ा हुआ था। राजा जनक विदेह की सभा में औपनिषदिक सत्य पर शास्त्रार्थ हुआ था। याज्ञवल्क्य विजयी हुए थे। इसी याज्ञवल्क्य ऋषि ने वैदिक संस्कृति तथा कीकट व मगध की व्रान्य संस्कृति के समन्वयन का सफल प्रयास किया था। तदुपरांत ही वैदिक संस्कृति अन्य क्षेत्रों में समन्वयन के साथ प्रसारित होने लगी। यदि शास्त्रार्थ का साक्षी वृहदारण्यक उपनिषद है तो वैदिक-व्रान्य समन्वय का प्रमाण शुक्ल यजुर्वेद का ‘शतरूद्रिय स्त्रोत’ है जिससे रुद्र के सौ रूपों में शिव को समन्वित किया गया है। रुद्र एवं शिव एक माने गये हैं। यह संस्कृति समन्वय संगम ही भारतीय धर्म साधना एवं संस्कृति साधना का निखिल विश्व वैशिष्ट्य है। चंपारन-चंपा का अरण्य प्राचीन सभ्यता का केंद्र रहा है। नरकटिया गंज और भैसालोटन नामों की विशेषता है। भैसालोटन भीषण वन क्षेत्र की ओर इंगित कर रहा है, यही वाल्मीकि आश्रम रहा है, ऐसी मान्यता है।

मैं छपरा नगर से पटना में अध्ययन करके बिहार शरीफ पहुंच गया तो लगा कि प्राचीन-मध्य कालीन इतिहास के अवशेषों के पास आ गया हूं। किसान कॉलेज में अध्यापक रहा हिंदी का, पर इतिहास और संस्कृति में मन दौड़ता रहा। बिहार शरीफ नगर यानी प्राचीन उदंतपुरी नगर और फिर वहां से नालंदा और राजगृह इन तीनों स्थानों में पुरातत्व तथा इतिहास की बिखरी हुई ईंटें और पाषाण खंडों को अपने पास पाया; गहरी अनुभूति की। सोहसराय क्षेत्र में उत्तर पश्चिम के सोहडीह ग्राम में शोभाराम बौद्ध विहार का ध्वंसावशेष अपनी आंखों से देखा। स्पर्श किया, रोमांचित हुआ। दो कलापूर्ण स्तंभ मिट्टी में धंसे हुए हैं कुछ भाव ऊपर हैं। अन्य पाषाण खंड बिखरे पड़े थे। मैं पास के संघ स्थान में आ जाता था। इसकी चर्चा करता था। कुछ ही वर्षों के बाद वह घोषित कब्रस्तान के रूप में दीवाल से घिर गया। नगर के पश्चिम की बड़ी पहाड़ी पर बौद्ध ग्रंथ में उल्लिखित अवलोकितेश्वर बुद्ध का मंदिर तथा साथ में विहार एवं पुस्तकालय रहे हैं। मंदिर का भाग शेष है जिसमें किसी पीर-फकीर की मजार है। परंतु श्रावण पूर्णिमा में पहाड़ी पर हिंदुओं का मेला लगता रहा है जिसमें मैं स्वयं सम्मिलित हुआ हूं। नगर के पूर्व में गढ़ पर और फिर ‘खंदकपर’ नामक मुहल्ले हैं। गढ़ ऊंचाई पर है। इसी पर नालंदा कॉलेज तथा नालंदा कॉलेजियट है। साथ ही बुंदेले बंधुओं की बस्ती भी है। पीछे खंदकपर मुहल्ला निचले भाग में है। कभी गहरी खाई रही होगी। गढ़ पर पाल वंशी बौद्ध राजाओं के राजभवन तथा राज सभा भवन रहे होंगे। नगर के चौराहे का नाम ‘पुलपर’ है। गढ़ के चतुर्दिक जल बहता होगा। पुल पर से ऊपर जाना होता होगा।

भारतीय इतिहास के पूर्वांचल का गौरव नौवीं शती से बारहवीं शती तक पाल वंश रहा, जिसने नालंदा विश्वविद्यालय को दक्षिण पूर्वी एशिया के प्रमुख विद्यापीठ के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। उदंतपुरी नगर से कुछ ही दूरी पर शिक्षा एवं संस्कृति का केंद्र नालंदा है। यहीं के आचार्यों तथा भिक्षुओं ने तिब्बत, चीन आदि में बौद्ध संस्कृति तथा भारतीय विधा को फैलाया। नालंदा को देखकर लगता है कि यह भारतीय सृजन और विध्वंस-पराजय दोनों का मूक साक्षी है। बख्तियार खिलजी ने सन ११९८ ई. में बर्बरता पूर्वक उदंतपुरी बिहार तथा नालंदा विश्वविद्यालय दोनों को नष्ट किया। जैसे २०००-२००१ ई. में तालिबान ने बामियान घाटी की विशाल बुद्ध मूर्ति का विध्वंस कर दिया था, यह इतिहास का जलता हुआ और जलाता हुआ रोमांचकारी प्रसंग है।

नालंदा से आगे राजगृह-पहाड़ों के मध्य में है। प्राचीन काल में मगध की राजधानी रहा है। अजातशत्रु के समय वैशाली से संघर्ष के लिए कुसुमपुर-पुष्पपुर को राजधानी बनाया गया। यवनों-यूनानियों को पराजित करने वाले चाणक्य-चंद्रगुप्त ने मौर्यवंशी शासन को भारत के केंद्र में ला दिया। प्राय: पांच सौ वर्षों तक पाटलिपुत्र ही भारतीय जीवन का केंद्र बन गया। चाणक्य, आर्यभट्ट और पतंजलि तीनों का संबंध पाटलिपुत्र से ही रहा। गुरु गोविन्द सिंह की जन्मस्थली व बाल लीला स्थली दोनों के रूप में इस नगर के पूर्वी भाग पटना सिटी की प्रसिद्धि स्वत: सिद्ध है। नालंदा और पाटलिपुत्र क्रमश: उत्तर तथा दक्षिण श्रीलंका में बौद्ध संस्कृति के प्रसार के केंद्र बने थे।

राजगृह का प्राचीन इतिहास महाभारत काल से मिलने लगता है। जरासंध यहीं का प्रभावशाली सम्राट था जो मथुरा के कंस का श्वसुर था। असुरवंशी जरासंध और यदुवंशी कंस का सामाजिक राजनीतिक संबंध भागवत में चर्चित है। जरासंध ने श्रीकृष्ण तथा बलराम को मथुरा से पलायन को विवश कर दिया था। बाद में श्रीकृष्ण ने भीम के सहयोग से जरासंध को समाप्त कर दिया, राजगृह की पहाड़ी पर अति प्राचीन प्राचीर के अवशेष देखे जा सकते हैं। डॉ. सुरेंद्र चौधरी (पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष, गया कॉलेज) के अनुसार जेठियान घाटी पाषाणिक समुदायों के अध्ययन का एक बड़ा रोचक और संभावना पूर्ण क्षेत्र है। यहां से प्राप्त कुछ नव पाषाणिक तथ्य गया संग्रहालय में हैं। पहाड़ों के मध्य ऋषियों के नाम पर प्रसिद्ध गर्मजल के कुंड और झरने भू-गर्भीय तथा पर्वतीय विशेषताओं की ओर इंगित कर रहे हैं।

गया के पुरातत्व के संबंध में डॉ. सुरेंद्र चौधरी ने लिखा है- ‘चिरांद के बाद’ दूसरा ताम्र पाषाण उदाहरण गया का शोषितपुर है जो मैदान और बराबर की पठारी उपत्यका के संगम पर है। ताराडीह फल्गु के किनारे का नव पाषाणिक अवस्थापन है। गया में प्रेतशिला क्षेत्र यम का क्षेत्र माना जाता है और यहां पाषाणिक शवाधान के कुछ लक्षण हाल तक देखे जा सकते हैं। पत्थरों के स्तंभ इस क्षेत्र में शवाधान की विधि से जुड़ते थे। आज भी एक श्राद्धवेदी है।

गया के पड़ोस में पुरानी कोल बस्तियां इसके निकट पुल से जुड़ती हैं। व्रान्य, असुर आदि प्राचीन जनजातियों से भी इनका संबंध बहुत पुराना है। शोषितपुर नाम से ख्यात इस स्थान का बाणासुर पुराण ख्यात है। गयासुर और बाणासुर पुराणख्यात हैं।

गयासुर को विष्णु ने पराजित किया था, यानी विष्णु उपासक वैदिकों ने। इस पुरातत्व की परख आवश्यक है। विष्णु पद मंदिर साक्षी है। बोधगया तो भगवान बुद्ध की तपस्थली तथा सिद्धि का पवित्र धाम है जो विश्व में बौद्धों के लिए पूज्य है।
कैमूर सासाराम में रोगतासगढ़ का किला और मुंडेश्वरी देवी का मंदिर सुप्रसिद्ध है। अभी भी वहां खरवार और उरांव जनजातियों का निवास है। इतिहास स्मृति में है पर समय अस्पष्ट है- जनजाति की स्त्रियों द्वारा तुर्क या मुगल सेना से संघर्ष और विजय प्राप्त करना। स्मृति महोत्सव के रूप में जनिशिकार का त्योहार झारखंड में सुपरिचित है। वह संघर्ष इसी सासाराम-कैमूर क्षेत्र में हुआ था।

रोहतासगढ़ दुर्ग की ऐतिहासिकता की जांच शेष है। यह हरिश्चंद्र रोहताश्व कालीन नहीं लगता है। बाद का है। पर जनविश्वास तो यही है। कैमूर की पहाड़ी पर मुंडेश्वरी मंदिर की प्राचीनता तथा स्थापत्य कला दोनों की चर्चा विशिष्ट हो चुकी है। अखबारी समाचार के अनुसार मुंडेश्वरी मंदिर के आसपास मुंड नामक किसी जनजातीय राजा के राज्य के अवशेष मिले हैं। पुरातत्व विभाग खोज तथा जांच में संलग्न हो चुका है।

सासाराम सहस्रार्जुन कार्तवीर्य से संबद्ध नहीं है, यह तो बोधगया से सारनाथ जाने का मार्ग है। जहां सहस्र कक्षों वाला बौद्ध सहस्राराम था, इसके अवशेष की खोज नहीं हो सकी है। संभव है कि तुर्क युद्ध तथा फतह के समय नष्ट हो गया हो जैसे-पटना के पास का मनेर यानी बौद्धकाल की मणिमती। प्रसिद्ध कलाकार उपेंद्र महारथी के अनुसार यहां बौद्ध स्तूप था, अब वह मनेर शरीफ बन चुका है।
आरा-अरण्य के क्षेत्र में ही व्याघ्रसर (बक्सर) भी असुरों के प्रभाव में था। विश्वामित्र ने राम एवं लक्ष्मण के सहयोग से वैदिक संस्कृति का प्रसार किया।
इस लघु आलेख से स्पष्ट हो जाता है कि बिहार की सभ्यता संस्कृति के चार स्तर हैं- प्रथम चिरांद, गोपालगंज (थावे), आरा, बक्सर, राजगृह, गया, सासाराम, कैमूर और चंपारन। ये सभी प्राचीनतम आदिम सभ्यता के केंद्र हैं। यहां विभिन्न जनजातियों का निवास था। उनकी अपनी आदिम और अतिप्राचीन सभ्यताएं उभर कर आई थीं। यत्र-तत्र उन्हीं का शासन था। असुर बलशाली थे, केवल नेपाल की तराई में सीतामढ़ी तक का क्षेत्र वैदिक संस्कृति का केंद्र था जो विदेह जनपद के नाम से सुविख्यात रहा है। कृषि सभ्यता तथा धर्म-दर्शन-अध्यात्म के पूर्ण विकास में यह जनपद आगे बढ़ा, तदुपरांत वैशाली गणतंत्र विकसित रूप में दिखता है जहां जैन धर्म का विकास हुआ। विदेह जनपद से ही वैदिक संस्कृति स्थानीय संस्कृतियों से समन्वित होकर धीरे-धीरे चतुर्दिक प्रसारित होती गई। कीकर क्षेत्र वैदिकों से दूर रहा था, परंतु वैदिकों ने सबसे जुड़कर आगे बढ़ने का सफल प्रयास किया, इसका स्तर या अध्याय इस वैदिक संस्कृति का सर्वव्यापक फैलाव है। तीसरा स्तर श्रम चिंतन-तप प्रधान संस्कृति का प्रचार भगवान महावीर तथा भगवान बुद्ध द्वारा हुआ। जैन धर्म के मुख्य केंद्र- वैशाली, पटना, आरा, पावापुरी, नालंदा, बिहार श्री तथा झारखंड के कुछ क्षेत्र हैं। बौद्ध धर्म के मुख्य केंद्र रहे हैं-राजगृह नालंदा, काशी, श्रावस्ती तथा पूरा एशिया।

चौथे अध्याय में ईसा की बारहवीं-तेरहवीं शती में तुर्क सुल्तानों तथा पीर-फकीरों के साथ अरब से आया इस्लाम मजहब है। सुल्तान, शहंशाह, मुल्ला, सूफी, फकीर और हुकूमत सभी ने मिलकर येन-केन प्रकारेण इसका प्रचार एवं आरोपण दोनों किया। पटना और नालंदा के अधिकांश बौद्ध स्थान ध्वस्त हो गए। यह एक दु:खद ऐतिहासिक प्रसंग है, परंतु बिहार की मूल सभ्यता-संस्कृति आज भी समन्वित संस्कृति के रूप में गांव-नगर, वन-पर्वत सर्वत्र जीवित है। विभिन्न क्षेत्रों तथा जातियों की मान्यताओं एवं प्रथाओं तथा लोकगीतों में जीवंत रूप में विद्यमान है।

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