जंजो का चयन और जातीय राजनीति


यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मद्रास उच्च न्यायालय में जजों की नियुक्तियॉं जातिगत राजनीति की शिकार हो गई। पिछले २१ वर्षों से जारी ‘कॉलेजियन पद्धति’ के जरिए जिन जजों का चयन किया गया था, उन पर विवाद पैदा हुआ। यह विवाद मात्र जाति को लेकर ही नहीं, योग्यता को लेकर भी था। अब इस पद्धति के बदले किसी नई पारदर्शक पद्धति के आने की उम्मीद की जा रही है।

आजकल हमारे देश में जजों की नियुक्तियोंे का विवाद जोरों पर है। सन १९९३ में न्यायपालिका ने ‘कॉलेजियम पद्धति‘ यह सोचकर लागू की कि अगर जजों का चयन राजनेताओं के हाथ में रहा तो इसमें भ्रष्टाचार हो सकता है। अत: जज ही जजों का चुनाव करेंगे यह पद्धति लागू की गई। इस प्रकार के चयन में भ्रष्टाचार नहीं होंगे ऐसी उम्मीद थी। पिछले २१ वर्षों से यह पद्धति अस्तित्व में है। परंतु इस दौरान जजों के भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आए हैं। अब इस पद्धति में भी बदलाव कराने की चर्चा शुरू है।

न्यायपालिका के संदर्भ में जजों के चयन में होनेवाला भ्रष्टाचार तो एक मुद्दा है ही, साथ ही अन्य मुद्दें भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। इसका दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि हमारे समाज के अनेक क्षेत्रों में जिस तरह जाति व्यवस्था है उसी तरह न्यायपालिका में भी है। यह पढ़ कर आश्चर्य जरूर होगा; परंतु वास्तविकता को नकारा नहीं जा सकता।

हमारे देश की जाति व्यवस्था एक अजीब चीज है। इस व्यवस्था में पनपीे अस्पृश्यता, ऊंच-नीच भाव और मुख्य रूप से आर्थिक शोषण के कारण जाति व्यवस्था आलोचना का विषय बन गई है। हमारे समाज से जाति व्यवस्था को नष्ट करने के लिये महात्मा गांधी, राजा राममोहन राय से लेकर डॉ. आंबेडकर तक अनेक बड़ेे नेताओं ने प्रयत्न किया; परंतु सब व्यर्थ रहा। आज भी जाति व्यवस्था अस्तित्व में है। केवल इतना ही नहीं यह व्यवस्था सार्वजनिक जीवन में अपना अस्तित्व बार-बार दिखाती रहती है।

इसका ताजा उदाहरण है मद्रास उच्च न्यायालय में हाल ही में घटित घटना। ९ जनवरी २०१४ को मद्रास उच्च न्यायालय में दो जजों की खंडपीठ के सामने एक यायिका की सुनवाई हो रही थी। कुछ दिनों पूर्व ही मद्रास उच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने १३ जजों के नाम सर्वोच्च न्यायालय को भेजे थे। इन में कुछ जिला जजों और मद्रास उच्च न्यायालय के वकीलों को पदोन्नति देकर मद्रास उच्च न्यायालय में जज बनाने की सिफारिश मद्रास उच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने की थी। इस सिफारिश के विरोध में ज्येष्ठ वकील आर. गांधी ने जनहित याचिका दायर की थी। गांधी का दावा है कि कॉलेजियम ने जिन तेरह लोगों के नाम भेजे हैं उनमें से कुछ के पास उच्च न्यायालय के जज होने की योग्यता ही नहीं है, अत: यह सूची रद्द की जाए।

गांधी की याचिका की सुनवाई जज बी. एस. चौहान और जज चेलामेश्वर की खंडपीठ के सामने हो रही थी। तब ९ जनवरी २०१४ को जज सी. एस. कर्नन मद्रास उच्च न्यायालय में हाजिर थे। उन्होंने सुनवाई के दौरान हस्तक्षेप करते हुए कहा कि ‘यह चयन अन्यायपूर्ण है और मुझे भी इस संदर्भ में प्रतिज्ञापत्र दाखिल करना है।’ उनके उद्गारों से पूरा न्यायालय स्तब्ध रह गया। इसका मुख्य कारण था कि जज कर्नन दलित समाज से हैं और मद्रास उच्च न्यायालय के अधिकांश जज उच्चवर्णीय हैं। परिणामस्वरूप, मद्रास उच्च न्यायालय जैसी जगहों पर भी जाति की राजनीति होने का मसला समाज के सामने आ गया। जज कर्नन ने मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश आर. के. अग्रवाल के विरुद्ध अनुसूचित जातियों के लिये गठित राष्ट्रीय आयोग से शिकायत की। इसमें गंभीर आरोप लगाया गया है कि मुख्य न्यायाधीश जातिवादी राजनीति करते हैं। न्यायाधीश कर्नन ने इस शिकायत पत्र की प्रतियां राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री, केन्द्रीय गृह मंत्री व अनेक सांसदों को भी भेजी हैं।
न्यायाधीश कर्नन ने दो वर्ष पूर्व भी इस तरह की शिकायत की थी। उनकी शिकायतों का आशय यह था कि उन्हें उच्चवर्णीय न्यायाधीश मानसिक पीड़ा देते हैं। यह शिकायत उन्होंने नवम्बर २०११ में की थी। इस शिकायत की विशेषता यह थी कि न्यायाधीश कर्नन ने उसमें यह कहा था कि जिस तरह उन्हें मानसिक पीड़ा हो रही है वैसी ही अनेक दलित न्यायाधीशों को भी होती है। इनमें कई दलित न्यायाधीश अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं।

अभी जिस विषय पर विचार हो रहा है उसके सभी बिंदुओं को ध्यान में रखना आवश्यक है। न्यायाधीश कर्नन अभी जिला न्यायाधीश हैं। वे तमिलनाडु के करूर जिले मेंे न्यायाधीश थे। उनके ही कारण करूर में जिला न्यायालय की अत्याधुनिक इमारत बनाई गई। जब इस इमारत का उद्घाटन करने का समय आया तो उनका तबादला शिवगंगा जिले के न्यायाधीश के पद पर कर दिया गया। कर्नन का आरोप है कि एक दलित न्यायमूर्ति के द्वारा उद्घाटन न हो अत: उनका तबादला किया गया। इतना ही नहीं इस इमारत का उद्घाटन एक उच्चवर्णीय न्यायाधीश के द्वारा किया गया। इस प्रसंग के बाद भी अन्य कई नाटक हुए। मद्रास उच्च न्यायाल में कुल न्यायाधीशों की संख्या ६० है। जिसमें से फिलहाल १३ पद रिक्त हैं। दिसम्बर २०१३ में मद्रास उच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने १२ लोगों के नामों की सिफारिश की थी। इन नामों में कुछ जिला न्यायाधीश हैं और कुछ मद्रास उच्च न्यायालय के वकील हैं। अपने देश में उच्च व सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का चयन कॉलेजियम पद्धति से ही होता है।

मद्रास उच्च न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा जारी की गई सूची पर आक्षेप उठानेवाली आर. गांधी जैसे ज्येष्ठ वकील की याचिका के की पार्श्वभूमि में ‘न्यायाधीशों की जाति’ महत्वपूर्ण घटक है। जिन दो न्यायाधीशों के सामने गांधी की याचिका की सुनवाई होनी थी उन दोनों न्यायाधीशों की खंडपीठ पर ही आक्षेप लिया गया है। आक्षेप यह था कि उन दो न्यायाधीशों में से एक ब्राह्मण हैं। खास बात यह है कि इस आक्षेप पर अब विचार भी किया जा रहा है। दूसरे न्यायाधीश पर यह आरोप लगाया गया था कि उसके किसी रिश्तेदार का नाम उन बारह नामों में शामिल है। इन दोनों आक्षेपों के देखते हुए उस खंडपीठ को ही रद्द कर दिया गया।

अब आर. गांधी के द्वारा दाखिल की गई जनहित याचिका की सुनवाई नये खंडपीठ के सामने होगी। इस खंडपीठ में न्यायाधीश धनपालन व न्यायाधीश के. शशिधरन हैं। यह सुनवाई भी बिना किसी व्यवधान के हो रही है ऐसा नहीं है। जब ८ जनवरी २०१४ के सुनवाई हो रही थी तब मद्रास उच्च न्यायालय के वकीलों के संगठन ने इसका बहिष्कार किया था। अत: वहां उपस्थिति अधिक नहीं थी। संगठन के कुछ सदस्यों ने मुख्य न्यायाधीश का घेराव भी किया। इस नवीन खंडपीठ ने केन्द्रीय कानून मंत्रालय को यह आदेश दिया कि २१ जनवरी तक मद्रास उच्च न्यायालय की पदोन्नति की स्थिति को पूर्ववत रखा जाये। मद्रास खंडपीठ के इस आदेश को चुनौती देनेवाली याचिका मद्रास उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल ने सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की। इस याचिका के मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय ने मद्रास उच्च न्यायालय की खंडपीठ के निर्णय को १३ जनवरी को स्थगित कर दिया।

मद्रास उच्च न्यायालय के कॉलेजियम में एक मुख्य न्यायाधीश व दो ज्येष्ठ न्यायाधीश हैं। इस कॉलेजियम के द्वारा की गई सिफारिशें न्यायालयीन पुनरावलोकन अधिकार में नहीं आती ऐसी भूमिका है। अत: कालेजियम ने रजिस्ट्रार जनरल के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय में खंडपीठ के आदेश को स्थगित करने की याचिका दाखिल की।
उपरोक्त वर्णन के अनुसार इन सभी विवादों के पीछे जाति व्यवस्था का अस्तित्व स्पष्ट दिखाई देता है। इस सूची के विरोध में जो बातें उठी हैं उनमें मुख्य बात यह है कि सूची में अधिकतम अर्थात तीन नाम ब्राह्मणों के हैं। अगर इस सूची के अनुसार पदोन्नति हुई तो मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में ब्राह्मणों की संख्या १० हो जायेगी। इसकी तुलना में अन्य जातियों के न्यायाधीश लगभग नहीं होंगेे। ऐसी स्थिति में ब्राह्मण जाति के १० न्यायाधीश होना अन्याय है यही मुख्य मुद्दा है। तमिलनाडु में जाति की राजनीति का इतिहास पुराना है। वहां जाति आधारित राजनीति तीव्र होती है। अत: न्यायाधीशों की जाति ही महत्वपूर्ण घटक है।

अभी चल रहे विवाद में जाति के साथ आवश्यक योग्यता भी एक और मुद्दा है। मद्रास उच्च न्यायालय के वकीलों का संगठन बहुत प्रभावशाली है। उन्होंने आरोप लगाया है कि चयन प्रक्रिया पारदर्शक नहीं थी। मद्रास उच्च न्यायालय के जिन वकीलों के नामों की सिफारिश की गई है उसके लिये कॉलेजियम ने वकीलों के संगठन से चर्चा नहीं की थी। मद्रास उच्च न्यायालय और आर. गांधी का यह आरोप है कि सिफारिश किये गये नामों में से एक वकील की योग्यता ही नहीं है।
अब यहां फिर एक बार ‘जाति’ का विचार करना होगा। जिन तीन वकीलों के नाम दिये गये थे वे तीनों ब्राह्मण हैं। अत: अगर इन तीनों का चयन हो जाता है तो ब्राह्मणों की उच्च न्यायालय पर पकड़ मजबूत हो जाने का खतरा है।

सारांश यह कि मद्रास उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्तियों में जाति की राजनीति बहुत बढ़ गई है। शायद अन्य न्यायालयों में भी ऐसा होता होगा। मद्रास उच्च न्यायालय का मामला सामने आया है। शायद कल और कई मामले सामने आए। इसका अर्थ यह है कि उच्च न्यायालय के जजों के चयन की प्रक्रिया कोे अधिक पारदर्शक बनाना चाहिये। अन्यथा न्याय व्यवस्था के प्रति लोगों के मन में जो आदर भाव है उसे आघात पहुंचेगा।

हमारे देश में इस संदर्भ में धीरे-धीरे पर निश्चित रूप से योग्य दिशा में कदम उठने शुरू हो गए हैं। हमारे देश ने २१ वीं सदी में कुछ नये पद निर्माण किये हैं। उनके चयन के संदर्भ में जो प्रक्रिया बनाई है वह पारदर्शक है और इसमें विपक्ष को स्थान है। उदाहरणार्थ केन्द्रीय सूचना आयुक्त या केन्द्रीय दक्षता आयुक्त जैसे पदों के लिये एक चयन मंडल बनाया गया है। इसके अध्यक्ष स्वयं प्रधान मंत्री होते हैं और उसके साथ दो और सदस्य भी होते हैं। एक सदस्य कोई केन्द्रीय मंत्री और दूसरा लोकसभा में विपक्ष का नेता होता है।
इस पद्धति के कारण चयन में पारदर्शिता आई है। इस पद्धति के फायदे भी दिखाई देने लगे हैं। कुछ वर्ष पूर्ण जब प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह थे और श्रीमती सुषमा स्वराज विपक्ष की नेता थीं तब ‘केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त’ पद के लिये सरकार ने थॉमस नामक अधिकारी की नियुक्ति की थी जो कि उस समय केरल में भारतीय प्रशासकीय सेवा में कार्यरत थे। श्रीमती सुषमा स्वराज ने उस समय इस नाम पर आपत्ति उठाई थी; क्योंकि थॉमस पर भ्रष्टाचार के कई आरोप थे। परंतु चयन समिति में सरकार का बहुमत होने के कारण थॉमस को चुन लिया गया। श्रीमती सुषमा स्वराज ने अपनी आपत्ति लिखित स्वरुप में दस्तावेजों के साथ दर्ज की थी। एक समाज सेवक ने सूचना अधिकार की सहायता से चयन समिति की सभी जानकारियां एकत्र कीं और सुषमा स्वराज की आपत्तियों के आधार पर जनहित याचिका दायर की। न्यायालय ने समय रहते थॉमस की नियुक्ति रद्द कर दी।

श्रीमती सुषमा स्वराज द्वारा उठाई गई आपत्तियों पर नजर डालें तो यह बात सामने आती है कि थॉमस जब कुछ वर्ष पूर्व केरल सरकार की सेवा में थे तब उन्होंने इटली से तेल का आयात करवाया था। थॉमस ने तेल आयात करने का कांट्रेक्ट श्रीमती सोनिया गांधी के रिश्तेदार को दिया था। इसमें बड़े पैमाने पर घोटाला हुआ था। तब से थॉमस सोनिया गांधी के विश्वासपात्र बन गये थे। इसलिए केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर उनकी नियुक्ति हो गयी थी। परंतु अब ऐसे पदों के लिये होनेवाली नियुक्तियों की प्रक्रिया पारदर्शक होने के कारण भ्रष्ट व्यक्तियों का इस पद तक पहुंचना कठिन होगा। अत: न्यायपालिका के पदों के लिये भी ऐसी ही प्रक्रिया की मांग हो रही है।

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