हिमालय में कम से कम होना चाहिए इंसानी दखल 

केदारनाथ की यह तस्वीर 1882 में भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग ने खींची थी। यह वो समय था जब हमारे पुरखे मानते थे कि ऊंचे हिमालयी इलाकों में इंसानी दखल कम से कम होना चाहिए। वे ऐसा मानते ही नहीं थे, अपने बरताव में इसका ख्याल भी रखते थे। जैसे बुग्यालों में जाने के ये अलिखित कायदे थे कि वहां जोर-जोर से न बोला जाए या खांसा भी धीरे से जाए। बताते हैं कि तब यात्री गौरीकुंड से सुबह-सुबह निकलते थे और 14 किलोमीटर दूर केदारनाथ के दर्शन करके शाम तक वापस आ जाते थे।

हमारे पुरखों ने केदारनाथ में जैसे भव्य मंदिर बना दिया था वैसे ही वहां रात बिताने के लिए और भवन भी वे बना ही सकते थे, लेकिन कुछ सोचकर ही उन्होंने ऐसा नहीं किया होगा। सोच शायद यही रही होगी कि जिस फसल से पेट भर रहा है उसके बीज हिफाजत से रखे जाएं। यानी करोड़ों लोगों का जीवन चलाने वाली गंगा-यमुना जैसी कितनी ही सदानीरा नदियों के स्रोत जिस हिमालय में हैं उसे कम से कम छेड़ा जाए।

लेकिन जिन इलाकों में जोर से न बोलने तक की सलाह थी वहां आज भयानक शोर है। यह शोर सडकों और सुरंगों के लिए पहाड़ों को उड़ाते डायनामाइट का हो या साल-दर-साल बढ़ते श्रद्धालुओं को धाम पहुंचाने के लिए दिन में दसियों चक्कर लगाते हेलीकॉप्टरों का, इसने प्रकृति की नींद में खलल पैदा कर रखा है। अमरनाथ से लेकर केदारनाथ तक ऊंचे हिमालय में बसे हर तीर्थ का हाल एक जैसा है।

नदियों के रास्ते में बेपरवाही से पुस्ते डालकर बना दिए गए मकान, रास्तों पर जगह-जगह फेंकी गई प्लास्टिक की बोतलों और थैलियों के अंबार और तीर्थों में फिल्मी गानों की पैरोडी पर लाउडस्पीकर से बजते कानफाड़ू गाने इशारा कर रहे हैं कि व्यवस्था के सुधरने की मांग करने से पहले एक समाज के रूप में हमें भी खुद को सुधारने की जरूरत है। नहीं सुधरेंगे तो यह परिमार्जन देर-सबेर प्रकृति खुद ही कर लेगी और वह कितना क्रूर हो सकता है यह हम देख ही रहे हैं।

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