सिंधु तीरे सिंधु भवन

संसार की सबसे लंबी २९०० किलोमीटर की लंबाई वाली सिंधु नदी है, जिसकी आवाज स्वर्ग तक पहुंचती है। इतनी विशाल और उपयोगी है यह सिंधु नदी कि अपने किनारों पर ४५,००० वर्ग मील में रहने वाले मानवों एवं प्राणियों की प्यास बुझाती है एवं अन्य आवश्यकताएं पूरी करती है। यह पवित्र सिंधु नदी परमात्मा का वरदान है। हमें हिंदू एवं देश को हिंदुस्तान नाम सिंधु नदी से ही मिला है।

बात प्रारंभ हुई थी इसी परम पवित्र नदी के किनारे पर, तीर पर एक भव्य-दिव्य सिंधु भवन बनाने की। दुर्भाग्यवश देश के विभाजन के कारण सिंधु नदी के किनारे बसा सिंध प्रदेश पूरा का पूरा पाकिस्तान में चला गया एवं सिंधु नदी लगभग ८५% पाकिस्तान में चली गई। १५% में से करीब १०% भारत में लेह लद्दाख में बह रही है। १९९६ में लालकृष्ण आडवाणी का आगमन लेह में हुआ और उनका ध्यान वहां कल-कल के मधुर स्वर से बहती सिंधु नदी की ओर गया। यह जानकर कि यह सिंधु नदी है उनके आनंद की कोई सीमा नहीं रही। अरुण विजय, इंद्रेश जी, थुप्सटन शेवांग के श्रद्धा युक्त हृदयों में पवित्र सिंधु तीर्थ की कल्पना ने आकार लिया। ‘शुभस्य शीघ्रम्’ कहते हुए दूसरे वर्ष ही १९९७ में सब के सहयोग से इन जैसे अन्य महानुभावों के साथ भारत के कोने-कोने से आए यात्रियों और विशेषकर भारतीय सिंधु सभा के कार्यकर्ताओं के साथ वैदिक संस्कृति को स्मरण कराने वाली, अखंड भारत के संकल्प को दॄढ करने वाली ‘सिंधु दर्शन यात्रा’ का शुभारंभ हो गया। तब से अब तक हर वर्ष कुल मिलाकर १७ सिंधु दर्शन यात्राएं इंद्रेशजी के मार्गदर्शन में, मुरलीधर मारवीजा की अध्यक्षता में भारतीय सिंधु सभा, हिमालय परिवार एवं लद्दाख कल्याण संघ के सक्रिय सहयोग एवं परिश्रम से, सफलतापूर्वक सम्पन्न हो रही है, जिसमें देश-विदेश से, हर समुदाय से, सिंध प्रदेश की स्मृति में सिंधी यात्री सम्मलित हो रहे हैं।

‘सिंधु भवन’ की आवश्यकता

सिंधु दर्शन यात्रा एवं सिंधु तीर्थ की महिमा बढ़ती जा रही है। हजारों यात्रियों के रहने, भोजन आदि करने, सांस्कृतिक कार्यक्रम करने, सिंधु एवं बौद्ध संस्कृति से जुड़ी भक्ति को बनाए रखने के लिए, भारत माता, पूज्य झूलेलाल एवं भगवान बुद्ध की सुंदर भव्य मूर्तियों वाले एक मंदिर के लिए एक शानदार व भव्य भवन की आवश्यकता है।

सामरिक सुरक्षा

हम सभी जानते होंगे कि लेह एवं लद्दाख सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से अति संवेदनशील है। एक ओर इसकी सीमाएं चीन के नजदीक हैं तो दूसरी ओर पाकिस्तान से लगती हैं। घुसपैठ की संभावनाएं बनी रहती हैं। ऐसी स्थिति में पूरे भारत के लोग यात्राओं के रूप में यहां आते रहेंगे तो स्थानीय भारतीयों एवं सेना का मनोबल बढ़ेगा। अत: स्वामी विवेकानंद स्मारक कन्याकुमारी की तरह लेह मेंे ‘सिंधु तीर्थ’ पर भी लोग आते रहें, अत: उनकी सुख-सुविधा के लिए एवं श्रद्धा एवं पूजा भाव के लिए विशाल भवन एवं मंदिर आवश्यक है।

सिंधु भवन निर्माण के इस पवित्र एवं ऐतिहासिक कार्य के लिए सिंधु नदी से लगभग १.५ से २ किलो मीटर के अंतर पर करीब २७००० वर्ग फीट की जमीन खरीद ली गई है। जहां भवन के लिए २००८ में प.पू. संघचालक श्री मोहनजी भागवत द्वारा भूमि पूजन किया गया। वर्ष २०१० में आज की राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती विजया राजे सिंधिया, स्वामी यतींद्रानंदगिरी, मा. इंद्रेश जी, सिंधु भारत अध्यक्ष राधाकृष्ण भागिया, मुरलीधर मारवीकर, कंसल एवं नागवाणी एवं अन्य महानुभावों द्वारा शिलान्यास हुआ। भवन निर्माण का कार्य काफी आगे बढ़ चुका है। ३० कमरों, ४ डारमेंटरीज, २ मध्यम एवं १ बड़े हाल, एक भव्य मंदिर, एक बड़ा कार्यालय, विशाल रसोई घर एवं विशाल खुले आंगन वाले इस ऐतिहासिक भवन का ३ मंजिल का ढांचा बनकर तैयार हो चुका है। आंतरिक काम बाकी है। अभी तक लगभग दो करोड़ की पूंजी लग चुकी है। लगभग दो करोड़ के दान की और आशा है। विश्वास है कि इस वर्ष वैदिक सिंधु संस्कृति का यह प्रतीक ‘सिंधु भवन’ बनकर तैयार हो जाएगा। दान सहयोग एवं अन्य जानकारी के लिए इन कार्यकर्ताओं से सम्पर्क किया जा सकता है।

Leave a Reply