समाज का आडम्बर नारी का शोषण

बलात्कार पीड़िता और अपराधी को वर्ग विशेष में बांटकर क्या मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग सच में न्याय के लिए लड़ रहे हैं या भटक गए हैं? नारी की अस्मिता को तार-तार करने वाले इस समाजिक दानव को क्या अब इन आडम्बरों के साथ हम तुष्टिकरण की राजनीति से और सींच रहे हैं?

उसकी चीखों पर सन्नाटा, और ख़ामोशी पर शोर है।

उसके चिथड़ों में फैले समाज के आडम्बरों का ढेर है।

वैसे तो हर युग में नारी की अस्मिता को चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, परंतु धर्म-अधर्म की परिभाषाएं समाज में स्पष्ट रही हैं। पर आज समाज आडम्बर की मोटी चादर ओढ़ नारी के चीर हरण का न केवल तमाशबीन बल्कि उपहास करता है। बलात्कार जैसा जघन्य अपराध मीडिया की टीआरपी और बुद्धिजीवी वर्ग के लिए भोजन मात्र बनता जा रहा है। आज़ाद भारत में नेशनल क्राइम ब्यूरो हर वर्ष रेप के आकड़े प्रकाशित करता है। बलात्कार के खिलाफ आंदोलनों का स्वतंत्र भारत में लम्बा इतिहास रहा है।

वर्ष 1978-80 में जब समाज के रक्षकों के भक्षक बन हैदराबाद की रामीज़ा बी और महाराष्ट्र की 16 वर्षीय मथुरा के साथ दुष्कर्म का मामला सामने आया तो पूरा देश उबलने लगा। चूंकि इन दोनों मसलों में पुलिस के कर्मचारी ही अपराधी रहे, देश में सरकार के खिलाफ इतना भयंकर प्रदर्शन हुआ कि थल सेना की सहायता लेनी पड़ी। ये पहली बार था कि उच्चतम न्यायालय से लेकर संसद तक बलात्कार के खिलाफ सख्त कानून व्यवस्था के लिए पूरे देश से एक स्वर में आवाज उठी थी।

तीन दशक बाद, वर्ष 2012 – दिल्ली में 23 वर्षीय मेडिकल छात्रा के साथ चलती बस में जो हुआ उसे सुन पूरे देश की रूह कांप गई। अपराधियों ने न केवल उस पर बलात्कार किया बल्कि नारी के प्रति अपनी वासना और उत्तेजना को भयंकर अंत दिया। पूरा देश फिर से सड़कों पर था, कहीं मोमबत्तियां तो कहीं सरकार विरोधी नारों का शोर था। एक स्वर में फिर से ऐसे जघन्य अपराधों के खिलाफ सख्त कानून और न्याय व्यवस्था की मांग थी। इसी समय दिल्ली में ही एक 5 वर्षीय बच्ची के साथ भी दुष्कर्म का मामला सामने आया था।

भारत में इस सामाजिक पिशाच से लड़ने के लिए ऐसे तो कई प्रावधान हैं। आईपीसी की धारा 375 और 376 के अंतर्गत बलात्कार को संज्ञेय अपराध माना गया है। सीआरपीसी की धारा 327(3) के अंतर्गत अपराधी को 7-10 वर्ष की सज़ा, जो आजीवन कारावास तक बढ़ सकती है, और जुर्माना परिभाषित है। वर्ष 2012 के केस के बाद केंद्र सरकार ने नारी के खिलाफ अपराधों से लड़ने हेतु सख्त कानून व्यवस्था के लिए जस्टिस वर्मा समिति का गठन किया। आईपीसी की धारा 376 (अ) जोड़कर भयंकर बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के अपराधों के लिए 20 वर्ष तक की सज़ा या मृत्यु दंड तक का प्रावधान किया गया है। साथ ही वर्ष 2016 में बाल न्याय अधिनियम में संशोधन पारित कर 16-18 वर्ष के युवा अपराधी जो जघन्य बलात्कार कांड में संलग्न हो उन्हें भी सज़ा का प्रावधान किया गया है। ऐसे ही पोस्को अधिनियम 2012 के अंतर्गत 18 वर्ष से कम आयु की कन्याओं के साथ दुष्कर्म करने पर 10 वर्ष से आजीवन कारावास तक की सज़ा और जुर्माना परिभाषित है।

ऐसे में हाल ही में चल रहे आंदोलनों और मीडिया की उन्नाव और कठुआ में हुए बलात्कार पीड़िता को न्याय दिलाने की होड़ पर कुछ प्रश्न महत्वपूर्ण हैं। सबसे पहले यह संज्ञान में लेना ज़रूरी है कि रेप पीड़ित को सामाजिक बहिष्कार और उत्पीड़न से बचाने हेतु भी कुछ कानून हैं, जिनकी सरेआम धज्जियां उड़ रही हैं। सीआरपीसी और एविडेंस अधिनियम के अंतर्गत रेप के मामलों की सुनवाई कैमरे के आगे बंद कमरे में होनी अनिवार्य है, जिससे पीड़ित की पहचान छुपी एवं मामले की संवेदनशीलता बनी रहे।

वर्ष 2012 के रेप कांड के बाद, आईपीसी की धारा 228 (अ) के अनुसार बलात्कार पीड़िता की पहचान को मुद्रित या प्रकाशित करने को अपराध माना गया है जिसके लिए 2 वर्ष की सज़ा और जुर्माना परिभाषित है। ऐसी ही पोस्को अधिनियम की धारा 23 में मीडिया के लिए कहा गया है कि लैंगिक अपराध से पीड़ित की पहचान, फोटो , नाम आदि के प्रकटन के अपराध के लिए 1 वर्ष तक की कैद और जुर्माने का दंड दिया जा सकता है। बाल न्याय अधिनियम (2015 संशोधित) की धारा 74 (3) में भी ऐसे प्रकटीकरण के लिए 6 महीने की सजा और 2 लाख रुपए तक के जुर्माने परिभाषित हैं।

इन सभी कानूनों की पैरवी 2012 के रेप मामले पर सभी वर्ग से हुई। यह मीडिया ही थी जिसने पीड़ित का नाम निर्भया रखा था। जिस नाम ने पूरे समाज को इस सामाजिक विकृति से लड़ने को एकजुट किया था। ऐसे में दुखद है कि आजकल मीडिया ने तुष्टिकरण की राजनीति को समर्थन देते हुए, बलात्कार जैसे भयावह अपराध में पीड़िता की पहचान वर्ग विशेष से करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। बलात्कार की सामाजिक विकृति जिसने सभी वर्ग की बच्चियों का बचपन और महिलाओं की गरिमा पर प्रश्नचिह्न लगा रखा है, ऐसे में… दलित महिला पर बलात्कार…. अल्पसंख्यक बच्ची पर बलात्कार… जैसे वर्गीकरण करके कहीं हम इस सामाजिक विकृति को शह तो नहीं दे रहे।

किसी भी घटिया घटना का होना जितना गलत है उससे कहीं ज्यादा गलत है उसको साम्प्रदायिक नजरिए से पेश करना। मक्का मस्जिद कांड में अदालत ने असीमानंद को बरी किया। जाहिर सी बात है कि वहां का बम ब्लास्ट देश विरोधी गतिविधि थी; पर तत्कालीन सत्ताधीशों के दबाव में उसे साम्प्रदायिक रंग दे गुनहगारों को सीधे छूट जाने का मौका दे दिया गया। साफ है, अब मुख्य आरोपियों का पकड़ में आना लगभग असंभव रहेगा। कुछ ऐसा ही कठुआ रेप कांड में भी करने की कोशिश की गई। पर अब तथ्य कुछ अलग रुख अख्तियार कर रहे हैं। एक कमरे के तीन दरवाजों और चार खिड़कियों वाले छोटे से मंदिर में किसी बच्ची को लगभग 8 दिनों तक रखा गया और लोगों को पता ही नहीं चला जबकि तीन गांवों के सैकड़ों लोग रोज उस मंदिर में पूजा करने के लिए आते हैं। साथ ही, 15 जनवरी को वहां एक बड़ा भंडारा भी था जिसमें हजारों लोगों ने प्रसाद पाया। एक आरोपी के उस समय उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में किसी कॉलेज में परीक्षा देने की बात भी सामने आई है। इस मामले को लेकर चक्का जाम करनेवाले तालिब, जो कि एक एनजीओ चलाता है तथा हुर्रियत कांफ्रेंस के एजेंडे को फैलाता है, ने स्थानीय पुलिस द्वारा की जा रही जांच को कश्मीर क्राइम ब्रांच को सुपुर्द करने की वकालत की। जांच स्थानीय पुलिस से होकर क्राइम ब्रांच तक पहुंची और बाद में उसे सीबीआई को सौंपने की मांग हो रही थी।

जहां पूरे समाज को बलात्कार को प्रोत्साहित करनेवाली विकृति से लड़ने को एकजुट करना चाहिए, मौजूदा कानून व्यवस्था के ढीले पेंचों को कसने के लिए आवाज उठानी चाहिए, पीड़िता और अपराधी को वर्ग विशेष में बांटकर क्या मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग सच में न्याय के लिए लड़ रहे हैं या भटक गए हैं? नारी की अस्मिता को तार-तार करने वाले इस समाजिक दानव को क्या अब इन आडम्बरों के साथ हम तुष्टिकरण की राजनीति से और सींच रहे हैं? 2014 में केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद इस तरह के मामलों पर ध्यान दें तो सरकार को घेरने के लिए इन्हें ज्यादातर साम्प्रदायिक रंग दे दिया जाता है। किसी भाजपा शासित राज्य में घटना हो तो सारा दोष वहां के मुख्यमंत्री पर जबकि गैर भाजपा शासित राज्य की  घटना की सारी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री पर थोप दी जाती है। इस लेख के अंत में एक तालिका देकर ऐसी जघन्य वारदातों के सामाजिक परिप्रेक्ष्य को समझाने की कोशिश की गई है ताकि हमारे पाठकों को देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों की मानसिकता का बखूबी परिचय प्राप्त हो जाए।

सत्ता और अधिकारों की अंधी लड़ाई में जब तक हम नैतिक ज़िम्मेदारी और मौलिक कर्तव्यों की बात नहीं करेंगे, तब तक न किसी पीड़ित को सही मायने में न्याय मिलेगा न तो इस सामाजिक विकृति से आजादी। मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग को कानूनों के सख्त क्रियान्वयन, त्वरित कार्यवाही और सीबीआई जैसी समर्पित इकाई द्वारा जांच पर जोर देना चाहिए। इसमें पोस्को और आईपीसी की धाराओं में यौन अपराधों हेतु और कठोर प्रावधान करने पर चर्चा होनी चाहिए। देश में यौन शिक्षा के बिंदुओं और प्रारूप पर चर्चा होनी चाहिए, न कि मामले को सांप्रदायिक रंग देकर देश में दरारें शिल्प करनी चाहिए। इन आडम्बरों से न तो सतत सत्ताबल मिलता है, न ही न्याय, बल्कि नारी शक्ति का और हनन और समावेशी विकास में अवरोध उत्पन्न होता है।

 

 

 

 

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